Saturday 16 March 2013

हार्ट में घबराहट देतीं दो डेटें



चौदह मार्च की शाम अचानक आई आंधी-अंधड़ के बाद बड्डे को डॉक्टर के पास जाते देख हम पूछ बैठे कि क्या कोई चोट-ओट लगी है जो चिकित्सक की शरण में हो। वे बोले-'नहीं बड़े भाई इससे बड़े-भयानक तूफान अपने भीतर निरंतर बहते रहते हैं'..और फिर आगे कुछ कहने की बजाए इमोशनली होते हुए उन्होंने एक शेर जड़ दिया कि -
                 'ये माना कि दिन परेशां है रात भारी है,
                   मगर फिर भी है कि जिन्दगी प्यारी है।'
 बड़े भाई इस देश में भगवान भरोसे रहने की कीमत और क्या-क्या देंगे हम। कल शाम इंटरनेट पर खबर आई कि सरकार डीजल के जरिए 50 पईसा का एक और जख्म देगी, तो पेट्रोल के रूप में दो रुपईया मरहम लगाएगी। पेट्रोल से पर्सनली आहत या राहत मिलती है, तो डीजल से महंगाई का बहुआयामी डंक डसता है। इस महंगाई के खेल हम बार-बार छले गए।
बड्डे ने 'बाईहार्ट' सरकारों को कोसते-कुढ़ते हुए फिर एक और शेर कुछ यूं दागा कि-
     'सरकार ने जनता के जख्म़ों का कुछ यूं किया इलाज,
        मरहम ही गर लगाया, तो कांटे की नोक से।'
बस बड़े भाई समझो जब से सरकार ने महीने में दो बार तेल के दाम 'रिव्यू' करने का खेल शुरू किया है, तब से हर महीने में 15 और 30 की डेटें 'हार्ट' में घबराहट पैदा करने लगती है, सो भाई बीपी नपवाने जा रहे हैं। इधर सरकारों का नया रिसर्च सूत्र वाक्य है कि- 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता' इसीलिए सरकारें खुद शुतुरमुर्गी मुद्रा अख्तियार किए हैं और धूर्त आवाम् को मानती हैं। सो 'वे इस हाथ दे, उस हाथ् ले' की (कु)नीति के जरिए इस मुगालत् में खिंच रही हैं। उसे यकीन है कि वह अपनी करतूतों पर 'कभी खुशी, कभी गम' जैसा 'कनफ्यूजन क्रिएट' कर अपना काम (आमचुनाव) निकाल लेगी।
हिस्टोरिकल महंगाई के लिए इतिहास मे दर्ज हो चुकी केंद्र सरकार के लिए आज् आवाम यह गीत गाहे-ब-गाहे गुनगुनाती होगी कि 'अगर वेवफा तुङो पहचान जाते तो, खुदा की कसम तुमको न वोटिंग करते' पर बड्डे सरकारें बड़ी सयानी हैं चुनाव के ऐन वक्त ऐसा 'चुग्गा' डालेंगी कि हम् उसके ऊपर पड़ा 'फसउव्वल जाल' 'विजिबल' ही नहीं होगा। पर हम बचपन में पढ़ी कहानी- 'शिकारी आता है, जाल फैलाता है, हमें जाल में नहीं फंसना चाहिए' को गाते दोहराते हुए उसी जाल में उलझ जाएंगे। क्योंकि जाल में उलझने के बाद की कहानी की नैतिक शिक्षा- 'एक साथ जाल समेत उड़ जाने और जाल को कुतरकर आजाद हो जाने' को बिसर गये हैं।
हां हमारे एक बार पंख उगे थे, हम फड़फड़ाये थे, जब् अन्ना, बाबा, केजरी टाईप के लोगों ने हमारे अंदर दम् भरा था। मगर हमने आपस में बंटकर अपने ही पंख काट डाले। खैर आखिर में बड्डे ने गहरी सांस ली कि 15 की डेट बीत गई वो भी बिना किसी महंगाई के इंक्रीमेंट के, मगर किसानों को तो सदमा दे ही गया शाम का पानी। हाय.'पानी रे पानी तेरा रंग कैसा!'

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