Monday 31 December 2012

मैं समय हूं, गतिमान हूं सदा



सा ल 2012 की शुरुआत जिस जोश-ओ-खरोश से हुई थी, उसका अंत उतना ही गमजदा और निराशाजनक रहा।
मनमोहन सिंह ने कहा था कि यह वर्ष 2012, लोकपाल के नाम होगा, रोजगार के अवसरों में वृद्धि और काले धन पर अंकुश व महंगाई पर नियंत्रण का होगा। लेकिन 2013 के मुहाने पर खड़े होकर देखें तो ऐसी खबरें या बातें कम ही नजर आती हैं जिसे हम, समाज या देश के स्तर पर इजाफे के तौर पर सहेज सकें या उन पर फख्र कर सकें।
कई तरह के विकास के दावों और वादों के बीच भ्रष्टाचार, महंगाई, धांधली की परम्परागत अंधेरगर्दी के बावजूद, दिसम्बर का आखिरी पखवाड़ा दामिनी के दंश से देश को झकझोर गया।
साल की शुरुआत में माया कलेंडर का डर भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में दिखा कि 21-12-12 को मानव का धरती से अंत हो जाएगा। इस अफवाह ने आम चर्चाओं व खबरों में सुर्खियां बटोरीं। मगर सकारात्मक सोच रखने वालों का मत था कि ऐसी बातें आधारहीन हैं और गलत साबित भी हुईं। समय चक्र है जो अपने नियम से सदा गतिमान रहता है और रहेगा। आपको याद होगी महाभारत धारावाहिक में हरीश भिमानी की आवाज-'मैं समय हूं..'समय' किसी का इंतजार नहीं करता..इतिहास के पन्नों पर अपनी छाप छोड़कर आगे बढ़ जाता है। 'समय' इतिहास के पन्नों पर ऐसे अध्याय लिख जाता है कि वे समाज में सदियों तक दोहरये जाते हैं। बालात्कार और स्त्री शीलहरण की न जाने कितनी घटनाएं मानव इतिहास में घटी होंगी और घट रही हैं, मगर हस्तिनापुर में दुस्साशन द्वारा द्रोपदी के चीरहरण की नजीर आज भी दी जाती है और अब दामिनी की घटना समाज पर ऐसा दाग है जो सदियों तक करुण याद के रूप में दर्ज रहेगी।
तारीख (31 दिसम्बर 2012) की गणना के हिसाब से, ऐसा ही दिन है आज, जो अच्छी-बुरी स्मृतियों को पीछे छोड़कर आगे की तारीख (1 जनवरी 2013) को उम्मीदों से देख रहा है। सच कहा जाए तो देखना भी चाहिए। हां मगर यह भी कि जो समाज अपने इतिहास से सबक नहीं लेता, उसकी उम्र ज्यादा नहीं होती।
इसलिए नव वर्ष सिर्फ तारीखों का बदल जाना नहीं है, यह इससे परे कई तरह की घटनाओं-गणनाओं के परिवर्तन से जुड़ा है। यह महज एक तारीख है जो पिछले वक्त का आंकलन और नए के लिए संकल्प का विकल्प लेकर आती है।
इस तारीख से किसी की बढ़ती उम्र के वर्ष गिने जाते हैं, तो किसी की नौकरी के वर्ष, लेकिन हर नया वर्ष गांव, नगर, शहर, देश-दुनिया की सभ्यता और प्राचीनता में हौले से एक वर्ष और दर्ज कर देता है। बहरहाल, इस समूची प्रक्रिया में बधाई, संदेशों का तांता और अधिकतम लोगों को याद कर लेने की चाह में ई-मेल, मोबाइल, फोन, फेसबुक, ट्विटर जैसे साधन अब संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बनकर उभरे हैं।
लेकिन यह कोरी प्रक्रिया है, जो परम्परा की लीक पीटने सिवा कुछ नहीं रह गई। इस तमाम उत्सवी कवायद के बीच, यदि आज के दिन, हम एक पल एकांत में बिता कर सोचें कि हमारा समाज, हमारी सभ्यता, यहां तक की हमारा समूचा विकास, मानव के हितार्थ कितना हुआ और विनाश के लिए कितना? तब सामान्य व्यक्ति भी बड़ी साफगोई से यह स्वीकारेगा कि हमने सुविधा के नाम पर अपने विनाश का सामान खुद-ब- खुद तैयार कर लिया है और जो रही-सही कसर है उसे दिन-ब-दिन पूरा करने पर आमदा हैं। तो जिन पर समाज, राष्ट्र और पूरी दुनिया का दरोमदार है, खासकर जो विशेष समझ और बुद्धि से युक्त हैं, उनकी निगाहें न सिर्फ उस विनाशकारी मंजर की तस्वीर को तजबीज पा रही होंगी बल्कि साफ-साफ देख भी रही होगी। क्योंकि आज हमारा जीवन ही पूरी तरह साधनों की गिरफ्त में है। विकास के इस सफर में हम सुख-साधनों के जितने करीब आये हैं, प्रकृति से उतने ही दूर हुए हैं। हमारा खान-पान जिस कदर प्रदूषण युक्त हुआ है, उससे सर्वथा नई तरह की लाइलाज बीमारियों का प्रादुर्भाव हुआ है। जीवन की गति बढ़ी है पर जिसके लिए जीवन है वही पीछे छूट रहा है। विडम्बना है कि इस गचर-पचर को हम महसूस भी करते हैं, पर कौन कदम उठाए, कैसे अमल करे, इसकी तरकीब नहीं सूझती।
लेकिन 'समय' है कि सब देखता रहा है और देख रहा है- मनुष्य का सामान्य स्वभाव है कि वह अपने लिए हर स्थिति में सुख की कल्पना और चाह करता है।
संसार में एक भी ऐसा प्राणी नहीं होगा जो अकारण सुख से वंचित रहने की सोचे भी। इसी फेर में साधनों का ध्रुवीकरण इतना बेतरतीव हुआ है कि भारत सहित दुनिया इसी मुद्दे पर दो स्पष्ट पाटों में बंट चुकी है। इस असमानता का अंतर कम कर पाए तो आगामी वर्ष जरूर शुभ हो सकता है। वरना, साल और भी आएंगे- जाएंगे मगर इतिहास के पन्ने पड़े निशान हमें झकझोरते रहेंगे। फिर भी उर्मिलेश दो पंक्तियों के सहारे आगे बढ़ते रहें कि - बेवजह दिल पे कोई बोझ न भारी रखिए, 
  जिंदगी जंग है इस जंग को जारी रखिए।

Friday 21 December 2012

राजनीती के रीटेल मे मोदी ब्रांड

पिछले कुछ दिनों से अर्थव्यवस्था में एफडीआई में रीटेल की सुर्खियां अभी खुर्द-बुर्द भी नहीं हुईं थी कि राजनीति के रीटेल में मोदी ब्रांड चल निकला। खिसियाये लोग खंभा नोच कर स्टेटमेंट देते चैनलों के पर्दो पर भटक रहे हैं कि मोदी पिछले चुनाव के मुकाबले दो सीटें कम हासिल कर पाए और वे दो सीटें ज्यादा। रिजल्ट भले सत्ता को रीटेन करने का रहा हो, लेकिन विरोधी खम ठोंक सकते हैं कि दो सीटों का ही सही पर मोदी का बाल बांका तो कर दिया ना। यह कहते हैं कि खुश होने की वजह विरोधी नेता ढ़ूंढ निकालते हैं चाहे इसके लिए कितना भी ठीठ बनना पड़े तो क्या है। अब आलम है कि चाहे उनके विरोधी हों या उनके ही दल में रंजिश रखने वाले नेता, मोदी से जलें-भुने या कोसें-कुढ़ें पर मोदी सबकी छाती पर मूंग दलते हुए आज की राजनीति की 'व्यक्ति पूजा' की नई टेक्नोलॉजी के नए सूरमा बनकर उभरे हैं। और सट्टेबाजों की गणित सात हाथ नीचे गड़ गई।
बड्डे. पुराने जमाने के ज्योति बाबू को छोड़ दें तो मोदी ऐसे अकेले मुख्यमंत्री हैं जो अपने दम पर सत्ता की हैट्रिक लगाने में कामयाब रहे हैं। हो न हो, भारतीय राजनीति के छितिज पर सभी दलों के लिए मोदी का मुद्दा अनुसंधान का विषय बना होगा कि उन्होंने 'इंपासिबिल' को 'पॉसिबिल' कैसे बना दिया गया।
यहां तक कि भाजपा की केंद्रीय इकाई में वर्षो से तंबू गाड़े शीर्ष नेता मौका ताककर पीएम बन् का ख्वाब, उम्र दराज होने से पहले संजो हैं और ऐसा लाजिमी भी है और भय भ् क्योंकि पूरी जिंदगी खपाकर भाजपा को खड़ा करने वाले आडवाणी की आंख् का पानी, पीएम बनने की प्रतीक्षा में सू गया, 'पर' कट कर गिर गए और अंत उन्होंने दुखी मन से अपने अरमानों को आंसुओं में बह जाने देना ही मुनासिब समझ। लेकि संघ और भाजपा की छवि से परे मोदी राजनीति रीटेल में ऐसा ब्रांड बनकर उभरे हैं कि केंद्र की राजनीति में लिपे-पुते नेता सन्निपात के आघात को ङोल रहे हैं। क्योंकि बिना किसी की छत्र छाया और खाद पानी के मोदी की अमरबेल गुजरात को लप् लेने के बाद दिल्ली की ओर देख रही है। बड्डे बोले- 'बड़े भाई सो तो है।' इन फैक्ट मोदी की माया अब गुजरात से निक कर समूचे देश को मोह रही है तो उसकी वजह भी इसलिए 'नरेंद्र दामोदर दास मोदी' अब "नेशनल दमदार मोदी" की छवि के रूप में राजनीति की खरपतवार को सफा चट करके स्वयंभू बनने कगार पर हैं। सफल् से अहम और अहम से पतन की बड़ी वैज्ञानिक गणित है। इसलिए बड्डे बोले - बड़े भाई डेमोक्रेसी में अच्छे-अच्छों की ऐसी-तैसी होती भी खूब देखी गई है। वी सिंह की नजीर क्या कम है समझने-बूझने के लिए।

Thursday 13 December 2012

विकास का बाईप्रोडक्ट ' बेईमानी'

बड्डे ने सबेरे-सबेरे अपना सुर अलापा कि बड़े भाई देश अराजक होने कगार पर है। हमने पूछा- देश या जनता या फिर नेता। बोले कोई भी हो बात 'सेम' है। नेता पक्ष का हो या विपक्ष का अथवा उभय पक्ष का, तीनों की पैदाइश देश में 'म्यूचुअल' है। यानी तीनों जनता से जन्मते हैं और जनता में विलीन हो जाते हैं। लेकिन जब तक नेता अपने सफेद चोले में रहता है, तब तक वह अपने जन्मदाता से विशिष्ट बना रहता हैं। क्योंकि जिसके पास सत्ता का पत्ता है वह किसी की सुनता नहीं और जो इससे मरहूम है वह किसी को सुनने देना नहीं चाहता।
अलबत्ता, चिंता की बात यह नहीं कि कौन किसको गाजर-मूली समझ रहा, क्योंकि इस नूराकुश्ती का कल्चर देश की राजनीति में ओल्ड है।
फिर भी जो दिखता है वही बिकता है। यानी माहौल में बमचक है। बेईमानी की तू-तू, मैं-मैं की मचमच के बीच अब सवाल लूट का नहीं बल्कि तुलना का है।
जब विकास की तुलना दो भिन्न सरकारों के बीच करके, उनके अलम्बरदारों मूंछ ऐंठ और सीना ठोंक सकते हैं, तो इस दौरान लूटी गई राशि और स्विस खातों में जमा रकम की तुलनात्मक विवेचना किये बिना भी यह तय करना सम्भव नहीं कि कौन छोटा और कौन बड़ा बेईमान था। कई बार यह दबी जुबां से कानाफूसी में माना और स्वीकारा गया कि विकास और बेईमानी अनुपातिक हैं, पूरक हैं।
इसलिए विकास को देखकर बेईमानी या भ्रष्टाचार का 'पर्सन्टेज' निकालना बेहद आसान है। देश के नेताओं की नई पौध को इसका विश्लेषण पढ़ाने और समझने के लिए, आजादी से लेकर अब तक के आंकड़े पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाने चाहिए, ताकि हमारी पीढ़ी अपने करियर का चुनाव करते समय कोई चूक न कर बैठे कि बेहतर कैरियर का मार्ग कौन सा था?सेवा चाहे सरकारी हो या जनता की, दोनों में 'लाभ का तत्व' 'इक्वल' है।
इस 'तत्व' का बोध नेताओं की जमात ने बेहतर समझ और अपने वारिसों को समय आने पर सौंपा है।
दरअसल, इस करियर में आजीवन यूनीफार्म एक सी यानी 'फक्क सफेद' जिसमें काला धन छिपाना 'कम्फरटेबल' होता है। मुद्दे भी रटे रटाये जो सालों से जनता को 'फूल' बना रहे हैं। ऑल पार्टी के लीडर वर्षो से, बेशर्मी से, किसान, गरीब, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के तवे में अपना पराठा सेंकते रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, गरीबी के चिरंजीवी मुद्दे थे और बने रहेंगे। क्योंकि इन्हीं में विकास और बेईमानी का राज 'इनक्लूड' है। करना बस इतना है कि विकास की लीपापोती दिखे और बेईमानी 'लीक' न हो, वो भी चुनाव के ऐन वक्त पर। क्योंकि पहले के विकास और घपले-घोटालों को जनता भूल जाती है।


Friday 7 December 2012

उसी से ठंडा उसी से गरम

जनतंत्र में "तंत्र" "जन" को कैसे बुद्धू बनाता है, इसका इग्जाम्पल संसद में एफडीआई की बहस के बहाने देश और दुनिया ने खुले आम देखा सुना। सपा और बसपा के दोहरे आचरण की सबने खबर ली। क्योंकि हमारे यहां "बहती गंगा में हाथ धोने" की प्रवृत्ति एक संस्कार के रूप में प्रतिष्ठित है। बावजूद इसके सपा, बसपा के चरित्र चिंतन को कोसने वाले लोग "फुलिश" हैं। क्योंकि इन दलों का बर्थ ही विशेष वर्ग को लेकर, विशेष तरह की राजनीति के लिए हुआ है और इसीलिए सत्ता का पत्ता उनके हाथ में ऑलवेज बना रहता है। अवसरवाद एक बड़ा राजनैतिक गुण है।
जिसकी भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक पहचान अब जाकर दर्ज हो रही है। पर बड्डे तुम हो कि इसे दुर्गुण मानते हो और चाहते हो कि नेता अपने धवल वस्त्रों की तरह अपनी करतूतों में भी दिखें। दरअसल, देश पिछले 60 वर्षो से इसी मुगालते में रहा है कि हमें छोड़कर सभी लोग बेहद ईमानदार, स्वच्छ छवि के हों। बस यही चूक चिल्लपों की वजह बनती रही है।
बड्डे बड़बड़ाये बोले- आप भी पत्रकार होकर बेहूदा बात करते हो, कांग्रेस का समर्थन करने और न- नुकुर करने में विशेष वर्ग की बात कहां से आ गई। यह तो देश में एफडीआई को लेकर विरोध और समर्थन से उत्पन्न चिकचिक और किचकिच का मसला है। और फिर ये नेचुरल है कि जब दो या अधिक दल एक साथ रहेंगे तो दलदल होगा ही। यानी "तुम्ही से मोहब्बत तुम्ही से बेवफाई" जैसे हालात लाजिमी है। उधर सर्वविदित है कि सपा और बसपा दो धुरंधर पैदाईशी प्रतिद्वन्दी हैं। पर लोभ वश छत्तीस का आंकड़ा रखने के बावजूद दोनों कांग्रेस को साईकिल और हाथी पर बैठाने के लिए 24 घंटे तत्पर हैं। दोनों एक साथ सरकार का साथ नहीं छोड़ सकते, इसका इल्म सरकार को बाकायदा है और उसका यही कॉनफिडेंस एफडीआई को लाने के पीछे है। बड्डे बोले- बड़े भाई पर संसदीय भाषण में सरकार को गाली और वोटिंग में पप्पी। ये सब किसलिए। जब मुलायम सख्त होते हैं तो माया पिघल जाती हैं और जब माया सख्त तो फिर उनका नाम ही मुलायम है। बड्डे मैसेज बड़ा क्लियर है, जिसके दस पंद्रह सांसद होंगे वे ही सरकार की कार ड्राईव करेंगे। केजरीवाल ने इस सीक्रेट को समय रहते
समझ बूझ के अन्ना से पल्ला झड़ लिया। क्योंकि "कुर्सी की गर्मी" ये अंदर की बात है बड्डे। अरविंद ने अपने सरकारी पद का बलिदान जनता के लिए दिया था, तो अब जनता की रिस्पॉसिबिलिटी है कि वह उन्हें सरकारी पद के बदले, सरकार में पदासीन करे। केंद्र की सरकार, सपा और बसपा कार में "एसी" सिस्टम की तरह हैं। जब ठंडा हो तो ब्लोअर चलाओ और गरम हो तो कूलिंग यानी "उसी से ठंडा उसी से गरम"

Thursday 29 November 2012

हमीं ने दर्द दिया है हमीं दवा देंगे



बड्डे बोले- जैसई-जैसई चुनाव का चुनचुना नेताओं खासकर यूपीए को काटने लगा है, उसकी घोषणाएं चुनावी राजनीतिक धर्म के माफिक होती जा रही हैं। हमने कहा बड्डे तुम बोका हो !
क्यों न हों जब मौका भी है, दस्तूर भी और जरूरत भी है, तो इसे कैश क्यों न किया जाय। जब निकटतम प्रतिद्वन्दी भाजपा गृह कलह के भंवर में डूब उतरा रही हो, तब इसका बेनीफिट क्यों न उठाया जाए। मौके की नब्ज और नजाकत को रीड करने में कांग्रेस से कुशल कारीगर और कौन हो सकता है। तभी तो भीषण टाइप के घपलों के बाद भी वह सत्ता में वर्षो से जमी रही है। इसीलिए उसका कॉनफिडेंस भी है कि वह पुन: वापसी कर लेगी। क्योंकि वह कोई भी काम गैर-योजनागत नहीं करती। सब कुछ योजनबद्ध है, फिट है और टिच्च है। चुनाव तैनाती की कड़ी में टीम को टाईट कर दिया गया है। पहला मरहम जनता के किचन में यह कहकर लगाया जा सकता है कि "हमीं ने दर्द दिया है हमीं दवा देंगे"। गैस सिलेंडर की सब्सिडी का गेम अब खुलकर आने लगा है। मींटिगों, प्रस्तावों के जरिए पसीना बहा- बहा के यह जताने कि कोशिशें तेज हो चुकीं हैं कि सरकार को इसके लिए 18 हजार करोड़ का बोझ ङोलना होगा, तो वह ङोलेगी। तेल कंपनियों के ठेकेदारों को समझ-बुझ के राइट कर दिया गया है कि चुनाव होने तक घाटे की बड़बड़ नहीं, क्योंकि अब जनता चुनाव तक "बोझ" नहीं जरूरी ऑक्सीजन है, जान है, जाने जहान है।
एक खुशी सारे गमों का गलत कर देती है।
इसलिए अब एक-एक करके खुशियों कई लच्छे फेंके जा रहे हैं। मसलन मनरेगा से मनमानी हटेगी, आम आदमी का पैसा उनकी जेब में सीधे डाला जाएगा ताकि वह तरंग में रहे और अपना वोट भी कैश की तरह सीधे यूपीए के नाम डाल दे। गेम सीधा है। यानी "राहत" है ऑल क्लियर बाकी सब बकवास। आम आदमी और सरकार कमिंग डेज में खुलेआम इस लेन-देन में इनवाल्व होती दिखेगी।
उधर केजरीवाल की" आम आदमी की पार्टी" कांग्रेस के लिए मल्टीविटामिन की गोली साबित हो रही है। क्योंकि कुछ अक्खड़ टाइप के लोग जो "राहत" के जाल में नहीं फंसते वे अपनी लोकतंत्रीय ताकत "वोट"को अलग-अलग दलों में ठप्पा लगाने के तुर्रा  में ठिकाने लग जाएंगे। यानी उसके खिलाफ गुस्सा फुस्स होकर बिखर कर जाएगा। इसलिए यूपीए जनता के समस्त संतापों को हर कर यह अहसास कराने में जुट चुकी है कि गर इस देश में कोई माई-बाप था, है और रहेगा, तो वह कांग्रेस और उसके कारिंदे हैं। "अंत भला तो सब भला" जैसी कहावतें गर बनी हैं तो ऐसे मौकों की तलाश में गढ़ी गई होगी। तो बड्डे कांग्रेस को वोट देने के कैश फायदे ही कई दर्दो की दवा है।
 श्रीश पांडेय

Friday 23 November 2012

फांसी के फंदे अभी और हैं.


चार साल तक कसाब के रख रखाव में करोड़ों फूंकने और कसाब का हिसाब लेने के बाद बड्डे बोले- देखो बड़े भाई मरे मराये को मार के देश के कर्णधार कुर्ता मोड़-मोड़ के ऐसे अकड़ रहे हैं जैसे की आतंक सहित पाकिस्तान को ही पटखनी दे दी हो। यह मैटर दीगर है कि अजमल का "मल" साफ हो गया मगर, एक दशक से अफजल का "जल" अभी भी छलक रहा है। जब क्लियरकट अपराधी को इतने वर्षो तक देश महफूज रखा जा सकता है, तब जिन पर संदेह है उनका तो बाल बांका भी देश का कानून नहीं कर सकता। एक आतंकी को सजा देने में सरकार इतनी क्यों सहमी है? इसके पीछे अफवाहों और आरोपों का बाजार सुर्ख है। लेकिन हमारी सरकार से उदार इस धरती दूसरी हरगिज नहीं हो सकती। मानव को कीड़े मकोड़ों की तरह मसलने वालों के प्रति हमारी मानवीयता अखिल ब्रम्हांड में अद्वितीय है।
अमेरिकी मुखिया ओबामा ने कहा था कि हमें गर्व है कि हम इस धरती के सर्वश्रेष्ठ देश हैं, क्योंकि वे अपने दुश्मन आतंकी ओसामा को पाकिस्तान में घुसकर निपटा सकते हैं। हमने कहा बड्डे- गर उन्हें गर्व है तो हमें भी फख्र होना चाहिए। आखिर ये देश बुद्ध, महावीर और गांधी का है। जब अहिंसा से बापू ने अंग्रेज भगा दिये तो एक दिन आंतकी भी हमारे शांतिप्रिय व्यवहार से शांत हो जाएंगें। पर कसाब एडं कम्पनी ने जितने मारे उससे कई गुना तो देश में अपने ही अपनों को निपटा रहे हैं।
अब अफजल पर देश जल्दी में है। क्या सरकार, क्या विपक्ष और क्या छुटभइया नेता सब के सब ताल ठोंक रहे हैं कि इसे भी लटकाओ। यों तो सरकार मामले लटकाने में माहिर है। न जाने कितने बिल लटके हुए हैं। कुछ प्रकरण इसलिए पैंडिंग हैं कि उनकी जांचें अखण्ड रामायण की तरह बांची जा रही है। महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सुलग रहे जनमानस को लोकपाल, अविश्वास प्रस्ताव, सरकार में फेरबदल, एफडीआई जैसे मामले ठंडा करने का काम करते रहे हैं।
जब आतंकी देश में घुसकर खुले आम आदमी को भूंज सकते हैं, संसद में सांसदों को निपटा सकते थे।
वो तो भला हो कुछ सैनिकों की शहादत और कुछ ने उन्हें मार दिया उस दिन वरना उस दिन देश अपने नाथों से अनाथ हो जाता। बहरहाल संसद में गतिरोध जारी है देश चल रहा है। आतंकियों की फांसी और एफडीआई में फंसी सरकार की कार है कि पंचर होती नहीं दिखती। ममता के बाद मुलायम और यदि जरूरत हुई तो उनके बाद माया सरकार को फांसी घर से बाहर ले आने के लिए आतुर और कृतज्ञ भाव से नतमस्तक हैं। फिर भी जिस तरह से एफडीआई पर विरोध उभरा है वह सरकार के लिए फांसी का फंदा न साबित हो।

Friday 16 November 2012

कांग्रेस के कर्णधारों की धार

भाजपा का संकट और उसके खुशी के आलोक में दीवाली मना रहे कांग्रेसियों ने मौका ताक कर 2014 चुनाव की तैयारियों की तैनाती का ताड़पत्र जारी कर दिया है। सूची में राहुल बाबा का मासूम मुखड़ा सामने रख देने से संदेश साफ है कि पार्टी के भीतर कितनी भी गुटबाजी या जूतम पैजार हो, पर राहुल बाबा के सामने सब सावधान की मुद्रा में शटअप हो जाएंगे। क्योंकि राहुल का धवल कुर्ता जो भ्रष्टाचार के छींटों से मुक्त है और उनके चेहरे व चोले की सफेदी कॉमनवेल्थ से लेकर टू-जी, कोयला घोटाला तक सभी की कालिमा को कफन के कपड़े की तरह ढक लेगी। बड्डे बोले- बड़े भाई राहुल बाबा यूपी, बिहार और अन्य राज्यों के चुनावों अपने सरनेम ‘गांधी’ की गहराई नाप चुके हैं। पर फिर भी दिल है कि मानता नहीं। हमने कहा कांग्रेस का खूंटा है ‘गांधी’ नाम का मंत्र। क्योंकि इससे देश की आवाम में भी भ्रम बना रहता है कि जितने भी गांधी हैं सब के सब मोहनदास करमचंद गांधी के विरासतदार हैं और उनका आशीष केवल इसी परिवार के प्राप्त है।

बड्डे बोले जितने भी नाम चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए चुने गए हैं, उसमें अधिकतर वे नाम हैं जिन्होंने वर्षो से बैक डोर से राजनीति में दखल रखा है। अरे बड्डे ये तो पार्टी की परम्परा है कि बस एक बार नाम बना लो फिर जीवन भर देश और दल को दलते रहो। इस सूची में एक नाम तो ऐसा है जिन्हें न तो सड़कें, न बिजली और न ही नौकरियों में भर्ती पसंद हैं। वे मानते हैं कि चुनाव मुद्दों-वुद्दों से नहीं, मैनेजमैंट(प्रबंधन) से जीते जाते हैं।

यह बात दीगर है कि उनके इसी कौशल के चलते उनके ही राज्य में पार्टी की ऐसी वाट लगी आज तक दल सदमें में है। पर अब भी पार्टी में उनके प्रति मोह उनकी मैनेजमैंट कला का नतीजा है। बड्डे बोले- बड़े भाई जेई तो राजनीति है। उनमें प्रबंधन कला न होती तो दो- दो राज्यों में पार्टी को वेंटिलेटर पर लाने के बाद भी हाईकमान की निगाह में हैसियत नहीं घटी।
चुनावी मुहिम में जिन कर्णधारों की धार को आजमाया गया है उनमें कुछ ईमानदार टाईप के मंत्री- नेता नॉमिनेट किए गए हैं, तो कुछ इसलिए कि उनके बिना सूची सूनी रह जाती। दरअसल, केंद्र में कांग्रेसियों मौजूदा कार्यकाल कलंकित होने के बाद भी यदि वे सत्ता में वापसी का दिवा स्वप्न देख रहे हैं, तो इसमें उनकी योग्यता कम, विपक्ष की अयोग्यता ज्यादा है। उधर प्रधानमंत्री पद का मोह भाजपा में कलह की वजह बना है। हो न हो, यही कलह कांग्रेस के लिए ‘रिवाइटल’ की गोली साबित हो रही है कि ‘लूटो जी भर के’ क्योंकि उसके एक मंत्री ने पार्टी को यह मंत्र दिया कि कुछ भी करो जनता सब भूल जाती है।

Monday 12 November 2012

जलाओ इतने दिए मगर ...

हमारी ऐसी मान्यता और स्वीकार्यता है कि जहां ज्योर्तिमय प्रकाश है वहीं दिव्यता और देवता हैं। इसीलिए भारत को देवभूमि माना जाता है। यहां का समूचा दर्शन मानव कल्याण और उसके विकास से जुड़ा रहा है। सूर्य हमारी संस्कृति का प्रकाशपुंज है, जिसे हम नियमित अर्घ्य देकर पूजते हैं, पूर्णिमा का चन्द्रमा भी तिमिर से लड़ता है, लेकिन अमावस का चांद फिर प्रकाश का ग्रहण कर अंधेरा ला देता है। इस तरह प्रकाश और अंधकार का संघर्ष सनातन है और रहेगा। कार्तिक मास की अमावस अन्य सभी अमावसों में सबसे गहरी और काली होती है, ऐसे में दीपक का प्रकाश इस अंधेरे को चुनौती देता और संघर्ष करता दिखता है। इसीलिए आज के दिन घर आंगन तुलसी के चबूतरे और गावों, नगरों, शहरों, अमीर-गरीब, खेत खलिहान, मकान-दुकान से लेकर समस्त दिशाएं प्रकाश के उजास में तिमिर को चीरती जीवन में कर्मरत होने और संघर्षरत होने की प्रेरणा देती हैं। इसका दर्शन भी यही है कि कितना भी अंधेरा हो मगर मानवीय प्रयास उजाले के रंग भर ही देते हैं। जैसे एक वनवासी राम ने रीछ-बानरों की सेना बनाकर धरती के सर्वाधिक शक्तिशाली रावण को परास्त कर दिया था।
दीपावली या दिवाली अथवा प्रकाशपर्व के अवसर पर दीवारों पर लिखा शुभ-लाभ क्रमश: गणेश-लक्ष्मी के पूजन से जुड़ा है। लक्ष्मी सामाजिक समृद्धि का आधार है जिसकी चाह सभी करते हैं, लेकिन समृद्धि(धन) ही सब कुछ नहीं, इसके इस्तेमाल के लिए विवेक अनिवार्य है। इसीलिए लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा का क्रम निर्धारित किया गया है। क्योंकि बुद्धि के आभाव में धन का दुरुपयोग और नैतिक पतन तय है। इस पूजन का संदेश भी यही है कि हम विवेकवान और समृद्धवान बने। यह उत्सव घर की चहार दिवारी से बाहर एक समाज और एक राष्टÑ के रूप में चहुं ओर मनाया एवं आयोजित किया जाता है। खुशी, उल्लास और आनंद से सरोबार यह दिन यों तो राम के नगर प्रवेश और उनके स्वागत से सम्बद्ध है, पर आधुनिक संदर्भों में इसे इस भाव (अयोद्धा उत्सव) से कम बल्कि साफ सफाई, लक्ष्मी पूजन और वस्तुओं की खरीद फरोख्त के तौर पर मनाया जाने लगा है। मिट्टी के दीपकों का स्थान विद्युत के टिमटिमाती रंगीन रोशनियों ने लिया है, तो गोबर के गणेश और लक्ष्मी पूजा का सुंदर डिजायनर मूर्तियों ने, ऐसे ही गोबर और छुई से लिपे पुते इकोफ्रेंडली आंगन और दीवारों की जगह केमिकल रंगों की चमकदार पेंट्स ने ले ली है। आटे से बने चौक को पत्थरों के पाउडरों से बनी रंगोली ने विस्थपित कर दिया है। पहले उत्सवों की सूचना ऋतुएं देतीं थीं,अब इनकी खबरें अखबारी विज्ञापन देते हैं। समय के साथ स्थितियों में आये परिवर्तन से उत्सवों व आयोजनों का स्वरूप बदल जाना स्वभाविक है, इसी का नतीजा है कि सिर्फ दीपावली ही नहीं अन्य त्योहारों-उत्सवों के साथ ऐसी दशाएं बनती जा रही हैं। लब्बोलुआब यह कि अब वस्तुएं उत्सव का विकल्प बनती जा रही हैं, बाजार में वस्तुओं के क्रय की क्रांति है। इधर उत्सवी मानव हलाकान है, क्योंकि महंगाई आसमान पर है। यह ट्रेंड निराशाजनक है कि दीपावली में बाजारी खरीददारी स्टेटस सिंबल बन गई है, इस उत्सव-त्योहार में वस्तुओं का दखल बढ़ा है और भावों और मूल्यों का घटा है। आइए हम इस प्रकाश के मर्म का आत्मसात करते हुए व्रत लें कि यह उत्सव एक दिन का न रहकर हम सभी के जीवन में सतत बना रहे।
जलाओ इतने दिए मगर ये ख्याल रहे
अंधेरा किसी कोने में रह न जाए।
शुभकामना है कि दीपोत्सव का यह पर्व भारत सहित विश्व के जनसमुदाय को आलोकित करे और ‘तमसो मां ज्योर्तिगमय’ की भावना से जीवन में व्याप्त तमस रूपी अंधकार से प्रकाश की ओर उन्मुख करे।

श्रीश ......

Thursday 8 November 2012

अपने-अपने ‘आईक्यू’

  गडकरी द्वारा विवेकानंद और दाऊद के ‘आईक्यू ’की तुलना किए जाने पर बड्डे फोन पर ही पूङ बैठे कि बड़े भाई ये ‘आई क्यू, वाईक्यू’ क्या है? यों तो ‘आईक्यू’यानी इंटेलीजेंट कोशियंट (बुद्धिलब्धि) पर हमने सरल भाषा में कुछ  यूं समझया कि ‘दोनों में कौन कितना सयाना है, यही इसके नाप-जोख का पैमाना है’ विवेकानंद ने दुनिया को  आध्यात्म की पहचान दी और उसके मानव कल्याण में इस्तेमाल का पाठ पढाया, इसीलिए उनकी और भारत की यश कीर्ति विश्व भर में फैली। जबकि दाऊद की पहचान अपराध जगत सहित गैर सामाजिक कृत्यों में है और वह भी भारत का उत्पाद है। इस लिहाज से भारत का अपयश और बेज्जती दुनिया भर में चर्चित हुई। दोनों शख्सियतों में तत्व ‘चर्चित’होने का समान है, बस मुकाम जुदा हैं। इस तुलनात्मक विश्लेषण में उलझकर गडकरी कुङ ऐसा उगल गए कि बखेड़ा खड़ा हो गया। बहरहाल विवेकानंद और दाऊद के ‘आईक्यू’ की तुलना से इतना तो साबित हो गया कि गडकरी का ‘आईक्यू’ कमतर है। वर्ना न तो वे ऐसी तुलना करते और न ही अपनी कंपनी ‘पूर्ति’ में ड्राईवर, चपरासियों के नाम बोर्ड आॅफ डायरेक्टर में न रखते। संघ के दुलारे गडकरी अब उन्हीं के आंख की किरकिरी बने हैं। उधर देश के नेताओं के अपने-अपने ‘आईक्यू’हैं। एक नेता का ‘आईक्यू’कहता है कि जनता भ्रष्टाचार व महंगाई को वक्त के साथ भूल जाती है, तो दूसरे का ‘आईक्यू’है कि 71 लाख का घपला भ्रष्टाचार के दायरे में नहीं आती। एक मंत्री  तो भ्रष्टाचार में लिप्त अपनी पत्नी और शाही दामाद की रक्षा में ही उनका ‘आईक्यू’ दिखता है। तो कुङ धर्मनिरपेक्ष छवि  गढ़ने की आड़ में ‘ओसामाजी’ जैसे सम्बोधनों से मानवीयता का ‘आईक्यू’ जताने से गुरेज नहीं करते। अमेरिका में चुनाव में हार के बाद रोमनी ने अपने ‘आईक्यू’ से कहा कि हम सरकार के साथ हैं, लेकिन बड्डे अपने यहां है कि कैसे जोड़-तोड़, खींचतान से कैंडीडेट को यहां मिला लो, वहां से खरीद लो। इसके लिए बाकायदा हर दल में विशेष ‘आईक्यू' से युक्त व्यक्ति तैनात हैं।

बड्डे हमारे यहां तो ‘आईक्यूष्ठ' लगा कर महंगाई तक बढ़ाई-घटाई जाती है। चुनाव हों तो ‘आईक्यू‘लगाओ और दाम को बांधे रखो और जैसे ही चुनाव निपटे अंतरराष्ट्रीय दामों में इजाफे वाला ‘आईक्यू‘लगाओ और ‘दाम‘बढ़ा के ‘दम‘ले लो उसी जनता का, जिसने उन्हें वोट दिया है। खैर क्या बयान देना है और क्या नहीं, इसके लिए निश्चित ‘आईक्यू‘और निश्चित व्यक्ति होता है। पर गडकरी कैसे चूक गए? यह बात उनके वरदहस्त संघ की समझ से परे है। हो न हो अब ‘आईक्यू' प्रकोष्ठ बनेगा जिसमें सार्वजनिक मंचों पर कुछ  कहने से पहले मौके के मुताबिक ‘आईक्यू‘लेना होगा।

- लेखक स्टार समाचार के सबएडीटर हैं।

ब्लॉगबाजी श्रीश पांडेय

Thursday 1 November 2012

जब जेबों की होगी सीबीआई जांच

बड्डे बड़े भौंचक से केजरीवाल के खुलासों को कई दिनों से अखबार में लाइन-दर-लाइन बांचते कर कह रहे हैं कि बड़े भाई देश में कम से कम एक तो मर्द है जो बिना किसी सत्ता के सत्ताधीशों की पोल खोल.उनकी चूलें हिला रहा है।
और अब तो उसने ऐसी बात कह दी कि मुकेश अंबानी 'कांग्रेस' और 'भाजपा' को जेब में लिए घूमते हैं। हो न हो, दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों का भेजा तो फ्राई हो ही गया होगा। अरे! बड्डे पहले भी धीरूभाई के ऊपर ऐसे संदेह उपजे थे। बेटा बाप से नहीं सीखेगा तो क्या.हमसे-तुमसे ज्ञान लेगा।
तभी तो देश में कभी वर्षो से अमीरी के पर्याय रहे टाटा िबड़ला आज अंबानी समूह से फिसड्डी रह गए।
टाटा-बिड़ला भी सोच में होंगे कि उनसे कैसे चूक हो गई कि वे सरकारों को 'जेब में रखने'. के मंत्र का जप नहीं पाये। बड्डे... इस देश का अदना सा आदमी न जाने क्या-क्या जेब में ले के घूमता है- बम,कट्टा, गांजा- भांग,चरस और.! दरअसल, बात-बात पर यह संवाद कि ' तुमाय जैसे छत्तीस ठो जेब में पड़े रहते हैं'  कहने वाले की ताकत को बयां करते हैं। 'जेब में रखने' का दर्शन भी यही है कि जिसको जेब में रखा जाए उस पर पूरी तरह नियंत्रण हो। प्रशासनिक हलकों में गौर करें तो यह डॉयलाग अक्सर सुनने में आता है कि फलां पटवारी... तहसीलदार, एसडीएम, कलेक्टर को जेब में लेकर घूमता है, तो छुट भईया नेता भी. मंत्री क्या, मुख्यमंत्री तक को खीसे में रखने की कुव्वत रखता और मूंछ ऐठता है। बड्डे बोले बड़े भाई यहां तक तो ठीक है मगर एक आदमी सरकारें जेब में लिए घूमता हो, ये तो हद हो गई। अमेरिका में तो और बड़े वाले आसामी हैं, लेकिन वहां कभी यह राज नहीं खुला कि 'डेमोक्रेट' या 'रिपब्लिकन' की सरकारें किसी बिल गेट्स जैसे की जेब में कैद रही हैं। खैर अभी तो मात्र दो दलों का एक व्यक्ति की जेब में कैद होने का राजफाश हुआ है। सपा, बसपा, माकपा,जदयू जैसे दल भी किसी न किसी के जेब में कैद हो सकते हैं, जिसका राज अब केजरीवाल की जेब में जरूर होगा।
बड्डे बोले सो तो है बड़े भाई. ये अपना केजरीवाल विकीलीक्स की तर्ज पर केजरीलीक्स साबित हो रहा है। बड़ा सयाना है अपना केजरीवा.अल्टी-पल्टी करके कांग्रेस और भाजपा पर निशाना साध रहा है। खासकर जब से अन्ना की जेब से बाहर आये हैं, तब से अपनी जेब से वह सब निकालने को आतुर हैं जो उन्होंने वर्षो की मेहनत से जोड़-जुगाड़ से संचित किया था। हो न हो, अब इतना तो तय है कि केजरीवाल की जेब की सीबीआई जांच के आदेश दिए जाएंगे, ताकि उस स्रोत  का पता लगाया जा सके जहां से केजरी की जेब में सरकार के राज इम्पोर्ट हो रहे हैं। हो सकता कई और खेमका इसके स्रोत  हों।

Thursday 18 October 2012

भारत के विकिलीक्स हैं केजरीवाल

केजरीवाल इनदिनों ऐसी फुटबाल खेल रहे हैं जिसमें कभी किक कांग्रेस के कारिंदों पर होती है तो कभी भाजपा के। देश के दोनों बड़े राजनैतिक दल सकते में हैं।
राजनैतिक गंदगी की सफाई की लड़ाई में बाबा, अन्ना जैसों के बैकफुट में आने के बाद, फ्रंटफुट में आये केजरीवाल एक-एक को देख लेने की कसम खा चुके हैं। वे चुन-चुन के बड़े दामाद टाइप जो बिना कुछ करे चमत्कारिक सत्ता की दम पर करोड़ों लील गए,दाद देनी होगी दामाद की कि बड़ी साफ गोई से मुकर गये घपले के पचड़े से। एक चमचे टाईप मंत्री जो असहाय विकलांगों के हिस्से की रकम पर कुदृष्टि लगा बैठे और कुछ अध्यक्ष टाईप लोग जो किसानों की जमीनें और सिंचाई के पानी से खुद को तर करने में लिप्त हैं। कहते हैं कि ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’ पर केजरीवाल अकेले ही ऐसे चेहरों को बेनकाब करने में भिड़े हैं। वैसे यह सही समय है जो उन्होंने चुना है। दीपावली की पुताई में जहां घर-द्वार सफेदी से चमक रहे हैं वहांअकेजरीवाल इस सफेदी के पीछे छिपी कालिख को उजागर करने में जुटे हैं, ताकि देश भी जान समझ ले कैसे रातों रात 7 करोड़ से 54 करोड़ में बनाए जाते हैं। दामाद बनने के फायदे गिनाते हुए बड्डे बोले-बड़े भाई अफसोस है कि मैडम के एकई बिटिया थी, वरना हम भी अपने लड़के का प्रस्ताव प्रस्तावित तो कर ही देते। जब बर्तन का धंधा करने वाले का नम्बर लग सकता था तो अपना लड़का तो विदेश में साफ्टवेयर इंजीनियर है। वह इस रातो-रात मिलने वाली अकूत रकम को बड़े इत्मिनान से मैनेज कर लेता। कहीं चूं-चपड़ तक न होती और फिर कालाधन विदेश में ही महफूज रह सकता है। उधर काला धन का आंकड़ा देते, चीखते-चिल्लपों करते, बाबा, अन्ना जैसों के गले चोक हो चुके हैं। रहा सवाल केजरीवाल का तो उसको अपने चमचे टाईप मंत्री निपटा लेंगे। चमचे टाईप मंत्री फरुखाबाद आने की धमकी देकर खुले आम कह रहे हैं कि ‘रगों दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जो आंख से ही न टपका वो लहू क्या है।’ खून की बातें खुले आम संविधान में शांति और व्यवस्था की सपथ खाये मंत्री करने लगे हैं, तो अपराधियों का क्या कहना। लेकिन बड्डे बोले‘अ पना केजरीवाल तो इंडियन टाईप का विकीलीक्स निकला।’ ‘अ’ से असांजे और ‘अ’ से अरविंद यानी केजरीवाल भारत के अरविंद असांजे हैं। ऐसी-ऐसी खबरें निकाल रहा है कि जैसे एक-एक की ऐसी-तैसी करके ही दम लेगा। वहां से भी जहां कभी शक की कोई गुंजाईश न थी। हो न हो, बसपा, सपा, तृणमल, डीएमके, जैसों पर भी जांच की आंच आयेगी। खैर अब तो देखने वाली बात है कि विकीलीक्स का इंडियन संस्करण और क्या-क्या गुल खिलाता है.!!!

Thursday 11 October 2012

चमचे का नमक, चेहरे की चमक

  बड्डे को हल्के मूड में देख हमें सुकून आया कि चलो आज तो कुछ अच्छी खबर है। हमें देखते ही बोल पड़े- बड़े भाई कल के चारण-भाट आज के चमचों के रूप में रूपांतरित हो गए हैं। पहले ये कविताओं, गीतों या किताबों में तारीफों के कशीदे पढ़करअपने स्वामियों का मन मोहने और इनाम हासिल करने की जुगत में बे-वजह खीस निपोरते पाए जाते थे और आज भी ये अपने-अपने आकाओं की ऐसी ऊर्जा बने हुए हैं, जिसके बिना बॉस का अस्तित्व ही खतरे में लगता है। चमचे सिर्फ राजनीति में ही नहीं, बल्कि हर जगह अपने विभिन्न रूपों में पाए जाते हैं। इनकी वैराइटी खाने के चम्मच(स्पून) की तरह छोटी-बड़ी, चमकीली अथवा कम या अधिक मूल्य (वैल्यू) की होती है। बहरहाल, चमचों की जितनी प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं उतनी विश्व के किसी और मुल्क में मिलना मुश्किल है। जैसे खाने का चम्मच हमें सुविधा और सहायता देता है वैसे ही नेताओं, धमर्गुरुओं, अफसरों के चमचे,चेले उनकी खुशामदीद में व हर कही बात को सच साबित करने में सहयोग देते हैं।

चमचों की अखंड धारणा और एक सूत्री कार्यक्रम है कि अपना बॉस गलत न तो बोल, न कह सकता।

समर्पण और शरणागति ही चमचत्व का तत्व है। ईश्वर भी भक्तों से यही चाहता है कि तू मेरा बन, फिर कृपा ही कृपा है। बस यही तो चमचों का दायित्व है कि वे न सिर्फ अपने आका की बात का आंख मूंदकर समर्थन करें, जयकारे लगाएं बल्कि वे उनके प्रतिद्वन्दी पर हमला भी करें और इससे उत्पन्न सारा कसाय कल्मश अपने सीने पर ङोल लें। आंच तक न आने दें अपने भाग्यविधाता पर। चमचों का सौंदर्य ही इसमें है कि वे निरंतर चैतन्य अवस्था में एक्टिव बने रहें। यूपीए के एक मंत्री तो खुलेआम कह रहे हैं कि अपना तो काम ही यही है कि आका के परिवार पर कोई आंच आये तो सारा ताप वे अपने सीने में लेने को तत्पर हैं। यानी मंत्री वे बाद में पहले तो चमचे ही हैं। सारा देश गलती कर सकता है पर उनके आका गलतियों से सवर्था मुक्त हैं। जैसे ईश्वर गलतियों से परे है। तभी तो हम चमचे उन्हें(बॉस) देवता की तरह पूजते हैं। दरअसल चमचे अपने बॉस का नमक है। नमक से ही देह में चमक आती है। नमक का अनुपात बनाए रखना चमचों का अनिवार्य दायित्व है। इसलिए हर बॉस की शकल में मौजूद चमक को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि किसके पास कितने आयोडीनयुक्त नमकदार चमचे हैं। जो समय-समय पर नमक की आपूर्ति संतुलित रूप में करते रहते हैं। एक पूर्व बड़बोले सीएम इस नमक को संतुलित नहीं रख पाए तो दरबार से बाहर कर दिए गए। आखिर बड्डे बोले बड़े भाई चमचा वही जो नमकदार हो।
                                                                                     श्रीश पांडेय

Wednesday 3 October 2012

औसत में जीत है

  टी-ट्वंटी वर्ल्ड कप क्रिकेट में आलम दर्जे की बल्लेबाजी के गुमान में जी रही टीम धोनी की लगातार तीसरी बार धुल जाने से बड्डे सर पर हाथ रखे कुछ यूं बैठे थे मानो अब देश का कोई भविष्य नहीं रहा, अब भारत कैसे जिएगा, क्योंकि उसका चिर प्रतिद्वन्दी, जिसको वह तीन दिन पहले 8 विकेट से कूट-पीट चुकी है वह अब भी चैंपियन बनने की दौड़ में शामिल है। हार के जीत और जीत के हार के रूल्स अब बड्डे को बिल्कुल रास नहीं आ रहे थे। पर सिवाय बड़बड़ाने के बड्डे और कुछ नहीं कर पाने की बेबसी से बेहाल बीयर की चुस्की के साथ बिस्तर डले गहरी चिंता में मशगूल थे। इतनी फिकर तो गैस, डीजल के महंगे होने, विदेशी कंपनियों की देश में घुसपैठ, और डायनासोर सरीके बडेÞ-बड़े घोटालों पर नहीं की। बड्डे बोले बड़े भाई अपन जीत के भी हार गए और दूसरे हार के भी जीत गए यह बात नहीं पच रही। गब्बर सिंह के अंदाज में बड्डे बोले कि ‘हमने कुल 6 में 5 मैच जीते और टूर्नामेंट से बेदखल, उधर वेस्टेंडीज कुल दो ठईया मैच जीत के अंदर, सरासर नइंसाफी है बड़े भाई।’     
   हमने समझाया अरे बड्डे! सब औसत का खेल है। उसी की जीत है, जिसका औसत ठीक है, वही  चैंपियन बन सकता है। औसत यानी बैलेन्स रहो। टीम धोनी के धुरंधर उत्साह में ज्यादा औसत में कमजोर साबित हुए, जबकि औसत का गणित पहले से इम्पारटेंट माना जा रहा था, चाहे वह खेल हो या चुनाव। गाड़ियों के बिकने में भी एवरेज का रोल है, जिसका ऐवरेज दुरुस्त नहीं समझो मार्केट से बाहर। एमबेस्डर, फिएट, बुलेट, राजदूत सब के सब इसी एवरेज के चलते ठिकाने लग गर्इं। परीक्षाओं में एवरेज मेन्टेन करना होता है, वरना ज्यादा में भी हार हो जाती है। फिर भी भारत के भाग्य विधाता बुद्धि में नहीं भावना में जीते हैं। सरकार कितना भी लूट-खसोट कर ले, महंगाई बढ़ा ले, तिस पर जनता कितना भी सरकार को कोस ले, कुढ़ ले, पर वह इन सबसे बेपरवाह औसत को महत्व देती है। उसे बखूबी पता है कि सब करो पर ऐन टाइम (चुनाव के वक्त) मिथ्या घोषणाएं और कुछ नकदी बांट-बंूट के नाराजगी का औसत मेन्टेन कर वह हार से बच जाएगी। पर अपनी टीम है कि कभी आठ विकेट से हारती तो कभी आठ विकेट से हराती। अब जरूरत है नेट प्रैक्टिस की बजाए औसत का गुरूमंत्र लेने की। इसके लिए टीम इंडिया को 10-रेसकोर्स की शरण में जाना होगा, जहां वह औसत को कैसे मेन्टेन किया जाए, के गुर सीखे।कांग्रेस, यूपीए सरकार को बरकरार रखने के लिए जज्बात नहीं हालात के तकाजे में देखती है। माया, ममता और मुलायम में औसतन जो फिट हो, बस उसी को भाव, बाकी से कन्नी काट लो। क्योंकि औसत में ही जीत है।

Thursday 27 September 2012

मुखिया ने दी ज्ञान की पुडिया

  बड्डे बड़े सबेरे चौगड्डे पर अखबार लिए एक जनसमूह से मुखातिब हो सरकार के मुखिया द्वारा दी हुई ज्ञान की पुड़िया लोगों को दे रहे थे कि उन्होंने मौन त्यागकर मुंह खोला है कि गैस और डीजल के बढ़े हुए दाम जनता को भले अभी जला रहें हों, पर बाद में यही जले पर मरहम सा सुकून देंगे। फिर सस्ते के लिए हम एफडीआई तो ला ही रहे हैं। विकास के बरक्स देश की इज्जत भी तभी होगी जब विदेशी दुकाने गली-गली में सजेंगी, चमकीले स्टोरों में जनता शॉपिंग करने जाएगी और इस ग्लैमराइज्ड माहौल में उनकी कटती जेबें कभी उफ्फ् तक न कर सकेंगी। मौनीबाबा ने ज्ञान की एक और पुड़िया दी है कि देश की अर्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए कड़े आर्थिक कदम उठाना जरूरी हो गया है। इसलिए जनता पेट में पत्थर बांध के जीने की आदत डाल ले। उन्होंने अब तक का सबसे बड़ा खुलासा किया है कि ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते’ और जिन पेड़ों पर उगते भी हैं तो, वे वहां उगते हैं जहां जनता की औकात नहीं कि पहुंच सके।
  दाम बढ़ाने का जो संकट सम्मुख है, उसकी वजह अर्थव्यवस्था में ‘अव्यवस्था’ नहीं बल्कि व्यवस्था में ‘अव्यवस्था’ है। बड्डे बोले ‘बड़े भाई खुलकर बताओ।’ हमने कहा कि देख नहीं रहे पिछले दो बरस से सरकारी खजाने की कैसी लुटाई मची है, इत्ता तो मुगल और अंग्रेज मिलकर भी नहीं लूट पाए जित्ता इस पंचवर्षीय में आलरेडी हो चुकी है। अब जहां लूट है, लाजिमी है कि घाटा भी वहीं होगा। स्पेक्ट्रम, कोयले के पेड़ों से खजाने में आने वाला राजस्व स्विस बैंकों में चला गया। इसलिए खजाना खाली है। जिसकी भरपाई लुट चुके और स्विस के तहखानों में दफ्न हो चुके धन से तो होने से रही। क्योंकि अब वह लूट, लूटकारों की निजी एसेट बन चुकी है।  इस देश में जो लूटा गया उसे वापस लाना तो ब्रम्ह के बूते में नहीं। फिर भी कोशिश के तौर पर जनता, विपक्ष, मीडिया यहां तक कि कोर्ट भी डांट-डपट चुकी है। बाबा, अन्ना का गला चिल्ला-चोट करते चोक हो चुका है। मगर मजाल है कि एक पाई भी टस से मस हुई हो। उल्टे अब तो अन्ना-बाबा भी मौन की मुद्रा अख्तियार कर बैकफुट पर हैं। ऐसे में सरकार तृणमूल को किनारे लगा मुलायम को साथ ले, गुस्से में नथुने फुला, बांहें मोड़ रही है कि कौन है जो सरकार को गिरा सके। सरकार ने मौका ताककर तीसरा नेत्र क्या खोला कि बाबा रामदेव की दुकान झुलस उठी। उधर अन्ना को केजरीवाल खाए जा रहे हैं, चैक से रकम में हेरा-फेरी को लेकर थुक्का-फजीती के चलते वर्षों से बनाई इमेज का जनाजा निकल रहा है। आखिर बड्डे सोच में पड़ गए कि अचानक मौनीबाबा के पीछे इत्ती ऊर्जा किसकी आ गई...मैडम की या मुलायम की...!!

 

Wednesday 19 September 2012

डार्विन की डगर पर सरकार



  सबेरे-सबेरे लकड़ी बेचने वाली महिलाओं के पास बड्डे को गचर-पचर करते देख हम पूछ बैठे कि आज जलाऊ लकड़ी पर मोल भाव... इन्हें कहां जलाओगे, ढ़ाबा खोलोगे या गांव में जा बसोगे। बस फिर क्या था गैस की बढ़ी कीमतों पर  मन में जो गुस्सा मनमोहन सरकार पर था, वह लकड़ी वाली बाई से होता हुआ हम पर बरस पड़ा... बोले समझ लो मरने और खुद जलाने के लिए चिता की लकड़ियन का इंतजाम कर रहे हैं। राशन के रॉ मटेरियल को खरीदते-जुगाड़ते जिंदगी बिखरी जा रही है और अब उसे पकाने के लिए गैस सिलेंडर 800 रुपइया में मिलेगा। बड़े भाई कहां जाएगी यह सरकार इतने पाप करके। कहीं ठौर नहीं मिलेगी इस नासपीटी,करमजली को और न जाने कितने विशेषण अपने मुखाग्र से निकाले कि जो लिखे भी न जा सके। सरकार आम आदमी  को सीधे-सीधे मरने को क्यों नहीं कह देती। हमने कहा बड्डे आखिर लोकतंत्र है उसका भी कुछ लिहाज-लिहाफ होता है। सरकार तो बस इशारों में समझा रही है कि डार्विन की थ्योरी ‘सरवाईवल आॅफ द फिटेस्ट’ के मर्म को समझो कि जो आज की महंगाई में जो फिट है वही हिट है और उसी को जीने का अधिकार है। जंगल की भी यही स्थिति है ‘सिंह’ जो चाहे करे, खुद को जो बचा सके वही सरवाईव करे। इसलिए हाथी जैसे बेपरवाह बनो क्योंकि शेर उस हमला नहीं करता। हिरण, नीलगाय (आम जनता) बने तो कैसे सरवाईव करोगे। ऐसे में सरकार भी जंगली बन जाए तो गलत कहां है बड्डे। वह नेचर के नियम को फालोअप  ही तो कर रही है। अब देखो जो हाथी की स्थिति में हैं जैसे नेता से लेकर अफसर तक, चोर से लेकर डाकू तक, कालाबाजारियों से मुनाफाखोरों तक सब के सब सरवाईव करने के लिए कितने फिट हैं। महंगाई डायन उन्हीं के लिए जो आम हैं। खास के लिए तो विकास की सूचना। बच्चों को अच्छी ऐजुकेशन देना है तो पब्लिक स्कूल में अपनी जेब कटाओ, नहीं तो ‘मिड डे मील’ में पहले खिलाओ-पढ़ाओ और फिर ‘मनरेगा’ में खाओ-कमाओ। गैस  महंगी है तो कच्चा खाओ, बीमार हो जाओ तो सरकारी अस्पतालों में सड़ो, महंगाई है तो भूखे प्राण त्याग दो। और बड्डे तुम हो कि लोककल्याण के नाम पर सरकारी दामाद बनने की तमन्ना कर बैठे हो। पांच बरस में एक मुफ़त का वोट वो भी सरकारी स्टेशनरी पर और नेताओं की गाड़ी में बैठ कर क्या डाल दिया तो मुगालता पाल बैठे कि तुमने सरकार खरीद ली। सरकार बखूबी समझती-बूझती है वह जनता को इतने हिस्सों में बांट चुकी है  कि कि देश में उनका विरोध ज्वाइंट तौर कोई ‘माई का लाल’ नहीं कर सकता। इसलिए सरवाईव करने के डार्विन के मंत्र को समझो क्योंकि अब वही सरवाईव करेंगे जो डार्विन की डगर चलेंगे।    
         

Saturday 8 September 2012

हिंदी की दशा


 भाषा कोई भी हो, वह उसे जानने वालों के मध्य संचार का अचूक माध्यम होने के साथ ही वह सभ्यता व संस्कृति के विकास का वाहक भी होती है। इतिहास  साक्षी है कि दुनिया के अलग-अलग भू-भागों में अनेक भाषाओं और बोलियों ने मानव की नैसर्गिक प्रतिभा को पल्लवति, पोषित किया है। आदि मानव में बर्बरता इसीलिए थी, क्योंकि उसकी कोई बोली या भाषा नहीं थी। बस थी तो- भूख, प्यास, नींद और मौजूद थे कहने, सुनने व समझने के लिए कुछ अस्पष्ट स्वर व संकेत। समय के साथ भाषा का निर्माण बड़े जतन से अक्षरों, शब्दों के गढ़ने के बाद हुआ।
    आज भारत में लगभग 1618 भाषा एवं बोलियां है और दुनिया में लगभग 6912 भाषाएं एवं बोलियां हैं। जिनके माध्यम से कई मानवपयोगी अनुसंधान व अविष्कार हुए हैं, लेकिन आज इनमें से अधिकांश लुप्त हो चुकी हैं और न जाने कितनी ही इसके कगार पर हैं। जैसे बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है ठीक वैसे ही बड़ी भाषाएं छोटी भाषा और बोली को लीलती जा रही हैं और भाषा के साथ नष्ट होती है, वहां की मौलिकता, सभ्यता और संस्कृति के साथ एक समूची व्यवस्था, जिसे सदियों से हमारे पूर्वज सहेजते और विकसित करते आ रहे हैं।                                                                                                                                                                            कैसे एक विदेशी भाषा हमारी मौलिकता को नष्ट करती जा रही है, उसका एक सूक्ष्म एहसास मुझे अपने चार वर्षीय बेटे मानस श्री को उसके स्कूल में मिले गृहकार्य (होमवर्क) की एक अंगे्रजी कविता पढ़ाते वक्त हुआ। कविता थी ‘ओल्ड मेक्डोनॉल्ड हैड अ फॉर्म ईया ईया ओ... विथ सम डॉगस, बाऊ-बाऊ हेयर एण्ड बाऊ- बाऊ देयर’ और इसी प्रकार ‘विथ सम कॉऊ,.. मूं-मूं हेयर एण्ड मूं-मूं देयर’ इस कविता में कुत्ते के भौंकने (भों-भों) को बाऊ-बाऊ और गाय के रम्भानें (म्हां-म्हां) को मूं-मूं कहकर बच्चों से रट्टा लगवाया जा रहा है। धर्म क्षेत्र में देखें तो, बच्चे अब देवताओं के नाम गणेश नहीं ‘गणेशा’, राम-कृ ष्ण नहीं ‘रामा-कृ ष्णा’ जैसे सम्बोधन के आदी होते जा रहे हैं। कैसे बचपन से ही मूल स्वरों व आवाजों से इनकी महक  छिनती  जा रही है। इन्हीं एक-एक शब्दों के जरिए हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा और संस्कृति से परे होती जा रही है। कार्ययालयों, रोजमर्रा के मेल मुलाकातों के सम्बोधनों  गुडमॉर्निंग, गुडईवनिंग, गुडनाईट ने हमारे नमस्कार, प्रणाम, शुभरात्रि जैसे शब्दों को विस्थापित कर दिया है और  जो भी बचा है वह बिना प्रभावित हुए नहीं रहने वाला। आचार-विचार और सोच में यह तब्दीली तथाकथित अंग्रेजी दा सोसायटी में तो पूरी तरह उतर ही चुकी है और अब इसका अवतरण कस्बाई इलाकों में हो रहा है।
    सृजन किसी  भी  तरह  का  हो  वह  मौलिक बोली या भाषा में ही उत्कृष्ट और पूर्ण  हो सकता  है . बात गौर करने लायक है कि मौलिकता ही रचनात्मकता की जनक है और यह अपनी मातृ भाषा में ही सम्भव है। तभी तो टैगोर द्वारा बांग्ला में लिखी ‘गीतांजलि’ भारत में एकमात्र नोबल पुरस्कार पाने वाली पुस्तक बन कर रह गई। पर राष्टÑ भाषा हिन्दी को लेकर जिस तरह से दोयम दर्जे का रुख भारत में अख्तियार किया गया है, वैसा दुनिया के किसी और मुल्क में हरगिज नहीं होगा।
     इतिहास साक्छी है कि दुनिया के अधिकांश अविष्कार मौलिक भाषा में हुए हैं। यथा आज भी चीन में मंदारिन, फ्रांस में फ्रेंच, रुस में रशियन, जापान में जैपनीज भाषा में ही समस्त कार्य जारी हैं। यहां तक कि उनके राजनयिक अपनी देश-विदेश की यात्राओं में अपने यहां राष्टÑभाषा बोलने में नहीं हिचकते। लेकिन भारत में ऐसी स्थितियों में नेता अंग्रेजी के पक्ष में रहते हैं, न कि राष्टÑभाषा के। भारत में स्थितियां दिनोंदिन विपरीत होती जा रही हैं।
   पर  देश में अंग्रेजी को रोजगार से जोड़ देने की साजिश चल पड़ी है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर रहे बच्चों को एक अलग समूह के रूप में देखा जाने लगा है, जैसा पहले कभी ब्रितानी हुकूमत के दौर में था। आज भारत की शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी की अनिवार्यता बना दी गई है। पिछले दो वर्षों में  इसे पढ़ने का एक नया चोर रास्ता गढ़ दिया गया। पहले देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा ‘संघलोकसेवा’ की मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी का ऐच्छिक प्रश्न-पत्र था, जिसमें  मात्र उत्तीर्ण होना अनिवार्य था, यह तब भी  हिन्दी माध्यम में पढ़कर आये विद्यार्थियों के लिए एक बड़ी बाधा थी, पर तब कैसे भी रट कर काम चल जाता था। लेकिन,अब तो प्रारम्भिक परीक्षा में ही ‘सी-सेट’ टेस्ट के नाम पर अंग्रेजी की अनिवार्यता, पास होने के स्थान पर चयन का कारक बना दी गई है। क्या इसके मायने यह नहीं कि जो बच्चे कस्बाई या ग्रामीण क्षेत्रों में हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में मध्यान भोजन की सुविधा के मध्य अध्ययन कर रहे हैं, वे लोकसेवाओं की परीक्षा के लिए अयोग्य हैं? उनके नसीब में अभी मुफ्त का मध्यान भोजन है, बाद में मनरेगा की मजदूरी का होगा। सवाल बड़ा है पर उठाया नहीं जाता कि ऐसे स्कूलों से निकले प्रतिभाशाली बच्चों के लिए अंगे्रजी का अतिरिक्त अतिरिक्त बोझ क्यों? जब अंग्रेजी देश की सर्वोच्च सेवाओं में चयन का माध्यम बन जाय तो एक राष्टÑभाषा में दीक्षित देखने में आया है कि कई बार उसका अंग्रेजी  ज्ञान दुरुस्त न हो पाने की वजह से, प्रतिभा होने के बावजूद उक्त सेवाओं से वंचित रह जाना पड़ता है।
   देश में इससे बड़ा भाषाई भ्रष्टाचार और क्या हो सकता है? जो तथाकथित अंग्रेजीदां नीति नियंताओं द्वारा फैलाया गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार से तो मात्र भौतिक स्तर पर देश को नुक्सान पहुंचाता है, जिस पर कठोर कानूनी उपायों और भ्रष्ट व्यक्तियों   के सामाजिक तिरिष्कार द्वारा नियंत्रण पाया जा सकता है, लेकिन भाषा को लेकर हो रहा भेदभाव समाज की रचनाशक्ति, उसकी प्रतिभा यहां तक की सभ्यता के लिए धीमा जहर साबित हो रहा है। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया है कि आज बड़े हिन्दी दैनिकों में छपने वाले आलेख कई बार अंग्रेजी भाषा के लेखकों के होते हैं, जिनके निमित्त दफ्तरों में बाकायदा हिन्दी अनुवादकों को रखा जाता है। मित्र यह कहने से नहीं चूके कि यदि हिन्दी अखबार में बने रहना (सरवाइव करना) है, सो अंग्रेजी में पढ़ना-लिखना सीखिए वरना...! उनकी यह चेतावनी हिन्दी भाषा से विरक्ति को लेकर नहीं थी, बल्कि रोजगार को बरकरार रखने को लेकर थी। मेरे रिश्ते में पितृवत भाई स्वर्गीय डा. रामजी पांडेय जो आजीवन इलाहाबाद में महादेवी वर्मा के साथ पुत्रवत स्नेह पाते रहे, उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी लेखन जगत में अंग्रेजी की अनिवार्यता का जिक्र मुझसे नहीं किया था। पर आज जो वातावरण देश के भाषायी पर्यावरण में फैलता जा रहा है, उससे यह आशंका जरूर पैदा होती है कि यही हाल रहा तो आने वाले 20-25 सालों में राष्टÑभाषा हिन्दी जरूर हाशिए पर होगी।
  इसी वर्ष जनवरी माह के पहले सप्ताह में प्रधानमंत्री ने दिल्ली में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में संस्कृत भाषा के धार्मिक कार्यों तक सीमित हो जाने पर क्षोभ प्रकट किया था। हो सकता है कि भविष्य में कोई दूसरा प्रधानमंत्री यही क्षोभ हिन्दी भाषा को लेकर भी प्रकट करे। कितना बड़ा पाखंड और षड्यंत्र देश में राष्टÑभाषा को लेकर चल रहा है। पर क्या कभी इस दिशा में नीति नियंताओं ने खम ठोंका है? जैसे पिछले महीनो में  उजागर ‘कुपोषण’ के  काले  सच को राष्टÑीय शर्म बताया गया, उसी तरह ‘राष्टÑभाषा हिन्दी’ की उपेक्षा भी राष्टÑीय शर्म होनी चाहिए। पर अब तो बस एक तिथि है 14 सितम्बर यानी ‘हिन्दी दिवस’ जिसकी रस्म मना कर राष्टÑ भाषा को श्रद्धांजलिनुमा याद कर लिया जाता। शायद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की दी गई सीख हमने विस्मृत कर दी है कि -
 निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।।

श्रीश पांडेय

Friday 7 September 2012

बोल्ड़ बने, वर्ल्ड रखें मुट्ठी में

इं टरनेट पर बड्डे को सर्फिंग करते देख हम पूछ बैठे कि बड़ी-बड़ी आंखें गाड़कर क्या देख रहे हो.. वे बोले बड़े भाई कुछ नहीं बस फिकर में  हूं कि अपने देश में आधुनिकता (नंगापन) का दायरा अब इस कदर पसर चुका है कि पूरब और पश्चिम की संस्कृति में साम्यता नजर आने लगी है। अब तो देश में ही यूरोप, अमेरिका में होने का अहसास होता है। ऐसे में पश्चिम जाने की जरूरतई का है। सब कुछ दस बाई बारह की स्क्रीन में उपलब्ध है। एफएम की तरह जब चाहे, जहां चाहो खोलो और डूब जाओ, देखो दिखाओ, लाइफ बनाओ...।
    याद आती है सत्तर के दशक की कथित हॉट फिल्म ‘बॉबी’ जिसमें डिंपल के एक्सपोजर पर.. संंस्कार और संस्कृति के पोषकों ने ऐसे मुंह बिचकाया था कि मानो अब देश और देशवासियों का नैतिक पराभव शुरू हो गया। कभी पूरब और पश्चिम की नारी की तुलना का ख्याल भी हमें गर्व से भर देता था कि हमारी स्त्रियां कितनी मर्यादित और संस्कारित हैं रहन-सहन से लेकर तौर तरीकों में। पर अब जिस तरह का भौंडापन ड्रेसिंग सेंस को लेकर देश में पांव पसार रहा है। उससे भोतई प्रॉब्लम होने वाली है।
हमने कहा अरे बड्डे किस-किस को रोकोगे-टोकोगे ये देश ‘गरीब की लुगाई’ बन चुका है। जिसको जो मर्जी आये करे। कोई कोयला लूट रहा है, तो कोई स्पेक्ट्रम और जो लूट नहीं पा रहा वह खुद को लुटाकर जिस्म की कीमत पर जो बन पड़े बटोरने पर आमादा है। अब देखो शर्लिन चोपड़ा को ‘प्लेबॉय’ पत्रिका में अपनी न्यूड तस्वीर देर से देने का अफसोस है और उसकी यह स्वीकारोक्ति कि ‘मैंने पैसे के बदले सेक्स किया’ को कुछ यूं रेखांकित किया कि उसने वेश्यावृत्ति नहीं, की यह तो बोल्डनेस है। दूसरी ओर पूनम कह रही कि तू डाल-डाल, तो मैं पात-पात...मीडिया इन घटनाओं में मसाला मार के कुछ यूं पेश कर रहा है..मानो दोनों में एक स्वस्थ प्रतियोगिता चल रही है और देश की आवाम को इस बात की जानकारी होना जरूरी है कि कौन कितने कपडेÞ उतारेगा, कितना बोल्ड बन सकता है।
   बड्डे बोले कपडेÞ उतारने में बोल्ड होने जैसी क्या बात है? हमने कहा जो जितने कम कपड़े पहने और उसके बारे में जितनी ज्यादा बातें बेशर्मी से कर सके उतना बड़ा बोल्ड...। समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है, तब परिभाषाएं क्यों नहीं? कुछ समाचारों की साइटें तो ऐसी हैं जिसमें घपले-घोटाले,लूट, मानवीय संवेदनाओं की खबरों से ज्यादा अहमियत सेक्स और सनसनी से भरी खबरों को दी जा रही है। इसके पीछे तर्क मार्केट के टेंÑड का है, धंधा जैसे  चले, चलाना मजबूरी ही नहीं, जरूरी भी है।
दुनिया की बड़ी-बड़ी मैग्जीनों का धंधा इसी बोल्डता के आवरण में चमक और चल रहा है। टीवी के शो चाहे हास्य-व्यंग्य के क्यों न हों पर बिना बोल्ड हुए न तो चलते हैं न बिकते हैं। नए शोध के मुताबिक अब स्त्रियों को ‘आईक्यू’ पुरुषों की बनिस्बत बढ़ा है। अब उन्हें बेहतर मालूम है कि उनकी कथित बोल्डता का बिजनेस कितना बड़ा हो चुका है। जिन्हें बोल्ड बनना नहीं आता वे जीवन भर संघर्ष करती रहती हैं, शादी करके बच्चे पालती, उसी में दमती, रमती दुनिया से पलायन कर जाती हैं। पर जिसने यह सूत्र जान लिया, उनका पल भर में दुनिया की नजरों में मशहूर होना तय है। इस निमित्त शर्लिन, पूनम जैसी स्त्रियां रोल मॉडल हैं। जापान और कोरिया में तो बाकायदा बोल्ड बनने के प्रशिक्षण शिविर शुरू किए गये हैं। इसलिए बड़्डे आज की नारी का नया सूत्र है -‘बोल्ड बनिए, वर्ल्ड को मुठ्ठी में रखिए’।
आखिर बड्डे बडेÞ उदास हो के बोले बड़े भाई किसी किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि-  
    ‘शोहरतें इस तरह भी मिलतीं हैं कि तुमने अच्छा किया बुरा करके’।
  

Sunday 2 September 2012

आचार्य देवो भवः

  समूची कायनात में मनुष्य का जीवन ही ऐसा है जिसे जन्म से लेकर उठने , बैठने, चलने, बोलने, पढ़ने, लिखने की समस्त गतिविधियों में विभिन्न तरह के सहयोग की आवश्कता होती है। इस लिहाज से जन्म के चार पांच वर्षों तक अभिभावक समेत घर के वातावरण में मौजूद सभी वरिष्ठों से वह अबोध नित नयी गतिविधियां सीखता है। उम्र के विभिन्न पड़ावों पर समयानुरूप जो भी व्यक्ति उसको सीखने समझने जैसी गतिविधियों में सहयोग करता है वही उसका तात्कालिक आचार्य या शिक्षक होता है। लेकिन अपनी विधिवत शिक्षा को विद्यालय से महाविद्यालय तक हासिल करने के सफर में हर शख्स को शिक्षकों की आवश्यकता होती है। अलबत्ता हमारी यह सामान्य धारणा बन चुकी है कि जो हमें निर्धारित पाठ््यक्रम पढ़ाये वही क्रमिक रूप से हमारा शिक्षक होता है।  किन्तु सत्य इसके परे है। शिक्षा के समानांतर अनुशासन की सीख, चरित्र, नैतिकता जैसे मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा कर  एक अनुशासित नागरिक का निर्माण भी शैक्षणिक दायित्वों में शुमार होता है। इसीलिए कहा जाता है कि यदि शिक्षक राष्टÑ निर्माण का कारीगर है तो हम विद्यार्थी उसकी सामग्री। इतिहास साक्षी है कि जिस राज्य के गुरुकुल श्रेष्ठ शिक्षकों से सुसज्जित रहे उनकी यश-कीर्ति आज भी गाई जाती है। बात बड़ी साफ है कि शिक्षक भूमिका कितनी अहम थी, है और रहेगी। यह श्रेष्ठ  सभ्यताओं से समझा जा सकता है। अत: आज भी शिक्षकों का व्यक्तित्व इतना आकर्षक और मुखरित होना चाहिए कि उसे सम्पूर्ण समाज पहचाने। एक शिक्षक अपनी विद्वता से समाज में पहचान बनाता है।
            लेकिन इतने व्यापक महत्व के विषय पर जहां दुर्भाग्यवश सरकारों के रवैये और नित हो रही उपेक्षा से शिक्षकों, अध्यापन व्यवस्था और उनकी कार्यदशाओं में बेहद गिरावट आई है। वहीं अध्यापक भी शिक्षा दान के दायित्व न तो समझ रहे हैं, न ही अनुभव कर पा रहे हैं। उनकी दृष्टि में अध्यापक का वैसा ही कार्य है जैसा कि किसी क्लर्क या आॅफिस में कर्मचारी काम है। स्कूलों में घंटों में अपनी ड्यूटी पूरी कर देने, पुस्तक पढ़कर सुना देने अथवा उसकी व्याख्या कर देने भर को ही अध्यापक अपना काम समझते हैं। इसलिए अब शिक्षण का कार्य दायित्व न रह कर व्यवसाय बन चुका है और व्यवसाय संवेदना से परे होता है। इसलिए संवेदनहीन हो चुकी शिक्षा व्यवस्था से कैसे आपेक्षा की जा सकती है कि वह राष्टÑ के लिए नैतिक और निष्ठा से लबरेज युवाओं की फौज खड़ी कर सकेंगे।
          शिक्षा की महत्ता और गरिमा, उपयोगिता और आवश्यकता की जरूरत अनादिकाल से अब तक मनीषियों ने बताई है। यही वजह है कि विद्या से अमृत प्राप्त होने जैसे सूत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इसीलिए विद्यादान को किसी भी दान से श्रेष्ठ माना गया और इसको देने वाले शिक्षकों के लिए  कहा गया कि ‘आचार्य देवो भव:’ अर्थात जो तुम्हारा शिक्षण करता है उसे उसे देवता मानकर सम्मान दो। इसके लिए जरूरी है कि अध्यापक और विद्यार्थी के बीच सौहार्द्र, समीपता की आवश्यकता है। जो आज नहीं दिखती और यही कारण है कि आज का विद्यार्थी डिग्री, डिप्लोमा तो ले लेता है, लेकिन व्यवहारिक जीवन का शिक्षण, चरित्र, ज्ञान व उत्कृष्ट व्यक्तित्व का उसमें आभाव बना रहता है। जिसका असर तब दिखता है जब व्यक्ति सामाजिक जीवन में सहजता से खुद को समायोजित नहीं कर पाता। इसलिए मूल्यों के बगैर शिक्षा न सिर्फ अधूरी है, बल्कि  अनुपयोगी भी है। ऐसी शिक्षा जो जीवन को प्रकाशित न करे, उसे समुन्नत न बनाए वह विद्या किस काम की। शिक्षा का दायरा सिर्फ पढ़ाई नहीं बल्कि व्यक्तित्व विकास से भी जुड़ा है। अच्छी शिक्षा और संस्कारों से जीवन में आत्मविश्वास, सफलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का विकास होता है।
     आज देश में नीचे से ऊपर तक जिस कदर लूट-खसोट का वातावरण है, चाहे सरकारी मुलाजिम हों या हाकिम अथवा नेता सभी में नैतिकता, आचरण और अनुशासन का लोप साफतौर पर देखा जा सकता है। हम और हमारी व्यवस्था यह भूलती है कि किसी रोग का उपचार तो दवाओं से किसी भी उम्र और दशा में किया जा सकता है। परन्तु चरित्र और नैतिकता का बीजारोपण बचपन और स्कूली अवस्था में ही किया जाता है। कहीं इसमें एक बार चूक हो गई तो इसका खमियाजा समूचे राष्टÑ को लम्बे समय तक भोगना पड़ता है। सवाल बड़ा और बारीक है कि क्या आज शिक्षकों को इस बात का अहसास है कि वे राष्टÑनिर्माता हैं और क्या इस महकमें को हांकने वाले मंत्रियों का ध्यान इस ओर है कि उनकी योजनाएं कक्षा पास कराने और परिणामों को कागजों की शोभा बढ़ाने अलावा, वे छात्रों की अन्य गतिविधियों को लेकर कितनी व्यवहारिक रूप से चिंतित और सक्रिय हैं? शायद नहीं!! यह समूची गड़बड़ी प्राथमिक स्तर से शुरू हो जाती है और फिर यही क्रम उच्च कक्षाओं तक बरकरार रहता है।
      इसलिए शिक्षक दिवस के दिन दो बातें जरूर स्मरण की जानी चाहिए। एक- शिक्षकों की दयनीय सेवा दशाएं और इस ओर किए जा रहे प्रयास, दूसरा उनको उनके मूल दायित्वों के निर्वहन में आ रही बाधा का विकल्प खड़ा करना। ताकि वे सिर्फ शैक्षणिक कार्यों से सम्बद्ध रहें। साथ ही वे अपने दायित्वबोध को समझें। दूसरी ओर इसमें महत्वपूर्ण जबाबदारी विद्यार्थियों की भी है कि वे अपने शिक्षकों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का भाव रखें। क्योंकि विद्या विनय से आती है और विनय से पात्रता... और फिर पात्र व्यक्ति ही परिवार, समाज और राष्टÑ सेवा में दक्षता से जुट सकता है। आइए अपने वर्तमान और   भूतपूर्व शिक्षकों का सम्मान,उनके प्रति अपनी श्रृद्धा, विश्वास और सम्मान को प्रकट करते हुए सभी शिक्षकों को ‘शिक्षक दिवस’ पर शत् शत् नमन करें.... !

श्रीश पांडेय

Friday 31 August 2012

लोकतंत्र का विटामिन है 'लूट'


बड्डे सुबह-सुबह समाचार पत्र लिए गुस्से में तमतमाए यहां-वहां ताक ही रहे थे कि इतने हम दिखे तो, देश में हो रही ‘लूट’ का दुखड़ा रोने लगे और बोल पड़े- ‘बड़े भाई भ्रष्टाचार की तो अब हद हो गई। पहले यही लूट पैसा-रुपिया में थी, सीमित थी, तब ‘लूट’ में भी एक लिहाज था, हया थी कि ज्यादा में लोग क्या कहेंगे। पर अब है कि हजार, लाख, करोड़ से बात बढ़कर लाख-करोड़ तक चली गई...और आगे कहां तक जाएगी इसकी भविष्यवाणी कोई खांटी का ज्योतिषी भी नहीं कर सकता।’ हमने बड्डे की नब्ज पकड़कर कहा इस ‘लूट’ की चिंता में खून जलाने का भी भला कोई फायदा है? ऐसे में तो दो चार बीमारी और पाल लोगे और उखड़ना कुछ नहीं है। बाबा, अन्ना जैसे तो पानी मांग गए.....केजरीवाल का कचूमर निकलता दिख ही रहा है, बडेÞ-बडेÞ आंदोलन कब्र में लीन हैं, तो तुम्हारी-हमारी क्या बिसात!
    क्योंकि भ्रष्टाचार अब चर्चा-परिचर्चा, बहस-बाजी, लिखने-पढ़ने का विषय नहीं रहा। तुम ही देख लो कित्ता विरोध तुमने किया जिस पर हमने बड़े-बड़े लेख लिखे, टीवी में बहसें करार्इं पर क्या हुआ सिवाए बाल सफेद करने के। हमने भी थोड़ा ‘लूट’ का विटामिन लिया होता तो आज हमारे बाल नहीं कपड़े फक्क सफेद होते। इसलिए अब ‘लूट’ बहस बाजी का नहीं सिर्फ करने और करने का चीज है, जिसको जहां जैसा बन पड़े लूटते रहो। जिसकी सरकार वह लूटे और जो विपक्ष में वह चिल्लाए, धरना दे, बहिष्कार करे, सड़क में लोटे और जब चुनाव में यही पांसा पलट जाए तो फिर  सिलसिला दूसरी ओर से रिवर्स हो जाए।
   भारत में लोकतंत्र का यही अर्थ है,यही इसका असली चरित्र है। इसलिए जो भी आचरण नेताओं की जमात ने अख्तियार कर रखा है वे लोकतंत्र के विटामिन ‘लूट’ का का ही तो रस ले रहे हैं और जिसके पास विटामिन नहीं वह बेचारा है। समझने वाली बात है बड्डे कि आखिर यह अंगे्रजों का ही दिया तंत्र-मंत्र है। उन्होंने ने भी अपनी क्षमता भर देश लूटा-खसूटा और जाते-जाते ‘लूट’ करने में कैसे हमें आसानी हो उसका कानून भी बना-पढ़ा गए। लेकिन बड्डे आज तो अंग्रेज भी सोच रहे होंगे कि हम तो कुछ भी लूट ही नहीं पाए... बल्कि जित्ता दो सौ साल में लूटकर जहाजों में बड़ी मेहनत मशक्कत से ढ़ो-ढ़ो के लाए उत्ता तो सरकार के कारिंदे एक-एक सौदे में फटकारे दे रहे हैं।
 बड्डे हमारे देश के देशी अंग्रेज तो और बडेÞ वाले निकले...जैसे वे परदेशी अंग्रेजों को बता देना चाहते हैं कि तुम लूटने में कितने कच्चे और बच्चे थे, जबकि तुम्हारा तो एकाधिकार था, वो भी 4 या 5 बरस नहीं पूरे दो सौ बरस तक। फिर भी क्या लूट पाए! जित्ता इंग्लैण्ड था उत्ता ही रह गया। ग़र इतना मौका हमारी बिरादरी को मिला होता तो, वे यहां की बूंद-बूंद निचोड़ लेते।
 सोचो बड्डे! यदि हमारे देशी अंग्रेजों ने पूरे विश्व में इंग्लैण्ड के अंग्रेजों की तरह शासन किया होता तो,  कसम से अब तक तो हमारे हर नेता का खुद का एक देश होता जहां न बार-बार चुनाव होते, न ही नासपीटी जनता के हाथ-पैर जोड़ने पड़ते। दरअसल अंग्रेज लोकतंत्र के विटामिन लूट को ठीक पहचान नहीं पाए, इसीलिए आज भी उसी टापू में कुलबुला रहे हैं। लेकिन हमारे वाले अंग्रेजों को देखो, जनता की सेवा में मिल रहे ‘लूट’ नामक विटामिन से उनके चेहरे बिना फेशियल के कैसे चमक-दमक रहे हैं और  अपनी शक्ल देख लो। जनता क्या एक परिवार की सेवा में भरी जवानी मुरझाए जा रहे हैं। सो बड्डे अभी भी मौका है लोकतंत्र में ‘लूट’ के विटामिन को पहचानो वरना! ये विटामिन कोयला, स्पेक्ट्रम, खेल, खनिज, रेत, जमीनों आदि में विभिन्न रूपों मौजूद है।
  

Monday 20 August 2012

कांड का बहुवचन है कांडा

 बड्डे को बड़ी चिंता में उदास बैठे देखकर आखिर हमने ही पूछ लिया कि इस उदासी का सबब...क्या  है? वे  बोले बडेÞ भाई न ही पूछो तो ही ठीक है वरना  ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी...।’ बड्डे बोले बडेÞ भाई अपने जीवन में ‘कांड’ तो हमने बहुत सुने हैं, जैसे रामायण में बालकांड से लेकर लंकाकांड तलक और  फिर हमारी संस्कृति में कर्मकांडों की जन्म से लेकर मृत्यु तक षोड़श कर्मकांडों की लम्बी श्रृखंला हिमालय की पर्वत श्रृंखला की तरह विस्तृत है। राजनीति में भी अक्सर ‘कांड’ षड़यंत्र के रूप नित घटते रहते हैं, समाज में भी लूट कांड, अग्नि कांड जानबूझकर कराये जाते हैं, लेकिन बड़े भाई ये कांडा क्या है। क्या ‘कांड’ का बहुवचन है ‘कांडा’? हमने कहा- अरे नहीं ये तो वहीं गोपाल कांडा है जिसने जूते पहनाने की दुकान से अपना कैरियर शुरू किया और एयर लाइंस से मंत्री तक का सफर विभिन्न काडों को अंजाम देते हुए पूरा किया।
   सम्पूर्ण वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में खासकर भारत में सर्वाधिक ग्रोथ इसी  सेक्टर में देखने में आती है। देश कितनी भी मुश्किल में  हो, उसकी आवाम गश खा खाकर जीने को मजबूर हो, पर राजनीति का सेंसेक्स कभी नहीं गिरता वह तो ऊर्ध्वाधर रेखा में फर्श से अर्श का सफर धड़ल्ले से तय करता है। ऐसी नजीर भारतीय राजनीतिक व्यवस्था से बेहतर दुनिया के किसी और मुल्क में मिलना मुश्किल है।
 विभिन्न क्षेत्रों में कांडों को कैसे अजांम दिया जाता है इसका विश्वविद्याालय भारत भारत में खुलना चाहिए। जहां दुनिया के लोग ‘कांड’ कैसे किए जाते और कैसे उनसे बच निकला जाता है का एक वर्षीय डिप्लोमा हासिल करेंगे। कांडा इस विश्वविद्यालय के कुलपति होंगे तो, एनडी तिवारी जैसे लोग इसके सलाहकार मंडल में नियुक्त किए जाएंगे। क्योंकि वे अनुभवी हैं और दोबारा गलती न हो उनसे बेहतर और कौन जान सकता है। बड्डे बोले सेक्स कांड सीखने के लिए विश्वविद्यालय, वो भी भारत में? यूरोप अमेरिका तो हमसे भी अव्वल है इन कांडों में फिर...! हमने कहा अरे बड्डे याद करो जब बिल क्ंिलटन तो राष्टÑपति हो के खुद को बचा नहीं पाए और माफी मांगनी पड़ी थी, दुनिया सबसे बड़े आका को। तो ऐरे-गैरे (मंत्री-विधायक)कैसे खुद को महफूज रख सकते हैं। हमारे यहां सबसे अनुकूल महौल है कांडों को सीखने सिखाने का। कोई भी चुनाव हो पहले शराब फिर शबाब का जोर रहता है, वोट लेने से किसी भी समस्या का निदान पाने तक। क्योंकि यहां गरीब हैं गरीबी है...दोनों को धन चाहिए, नौकरी चाहिए और कभी-कभी तो शोहरत भी चाहिए। थोड़ी यादाश्त पर जोर डालें तो राजनीति में ऐसे कांडों की सीरीज मिल जाएगी.. नब्बे के दशक में लखनऊ में मंत्री अमरमणि-मधुमिता शुक्ला कांड, राजस्थान में भंवरीदेवी कांड, भोपाल का शेहला मसूद कांड भी कमोबेश इसी का नतीजा था, हालिया फिजा-चांद मोहम्मद कांड..और लेटेस्ट गीतिका कांड जिसके पीछे कांडा हैं। इन सभी में स्त्री ही शिकार हुई पहले जिस्म से फिर जान से। मजाल है कि एक भी पुरुष (मंत्री) ने जान गंवाई हो या सजा पाई हो। सजा क्या पकड़े जाने या आरोपित होने के बाद भी मजा ही मजा चाहे जेल में ही क्यों न हों। इसलिए देश की स्त्रियों को समझना होगा कि जब भी वे ऐसे कांडों में कांडाओं की सहयोगी बनेगी और सजा की बात आयेगी तो उन्हें ही जीवनमुक्ति की ओर उन्मुख होना होगा। आखिर कथित सम्पन्नता किसलिए हासिल की जाती है कांडाओं द्वारा। यह कांडों  के बहुवचन ‘कांडा’ से समझा जा सकता है।
- श्रीश पांडेय 

Saturday 18 August 2012

कांसा भयो करोड़

 बड्डे को बड़ी चिंता में उदास बैठे देखकर आखिर हमने ही पूछ लिया कि इस उदासी का सबब...का है?  बोले बडेÞ भाई न ही पूछो तो ही ठीक है वरना  बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। ओलम्पिक खेलों में भारत के लोग खेलने ही क्यों जाते हंै। न जाते तो कम से कम यह तुर्रा तो रहता कि खेलने नहीं गए वरना दस-बीस गोल्ड, बीस-पच्चीस चांदी जीतना तो बाएं हाथ का खेल था और कांसा जीतना तो हमें पसंद ही नहीं। भला कांसा की भी कछु  कीमत है का। देश में सोने की वेल्यू है।
    एक बार तो चंद्रशेखर साहब को देश की साख बचाने के नाम पर सोना ब्रिटेन में गिरवी रखना पड़ा था। क्योंकि सोना से साख और धाक दोनों जमती है। अपने यहां तो फैशन भी है जो जितना सोना पहन के उसका प्रदर्शन कर सके बड़ा आदमी है, उसी की साख है और फिर बड़े भाई देखो न सोना कैसे सरसरा के ऊपर चढ़ा जा रहा है और  हम हैं कि दो चांदी और चार ठइया कांसा का पा गए उसी में अलमस्त नाच रहे हैं, जुलूस निकाल रहे हैं। अमेरिका और चीन तो पसेरी भर सोना जीत ले गए ...इनकी क्या कहें पिद्दी से देश भी छटांक भर सही, सोना तो पा ही गए न। और हम हैं कि कांसा पा के भैराये जा रहे हैं।
   बड्डे बोले बरसों से हमारे खिलाड़ी पहले से कटी नाक ले के ओलम्पिक में टूलने जाते हैं। जाने से पहले खेल मंत्रालय की ओर से सभी को एक नकली साबुत नाक दी जाती है ताकि कटी वाली को ढ़का जा सके। इतना क्या गुस्सा करना बड्डे...हमने कहा इस बार तो पदकों का छक्का लगाया है। जित्ते इस बार मिले उत्ते तो कभी नहीं मिले। बड्डे बिफर पड़े और बोले...भी इस बार 6 पदक क्या जीत लिए मंूछे ऐंठे, छाती फुलाय घूम रहे हैं कि अब तक के रिकॉर्ड पदक बटोर लाए हैं। उसमें सोना एक भी नहीं। कांसा ही कांसा है उसमें भी एकाध तो ऐसे भी मिल गओ कि सामने वाला घायल हो के मैदान छोड़ बैठो और हमने फटकार लओ पदक। बड्डे बोले बड़े भाई ओलम्पिक भारत के बस का नहीं है।
 हमने कहा...बड्डे जहां खाने के लाले हों और खेलने में शिफारिश हो, वहां इक्का-दुक्का पदक सूंघने को मिल जा रहे हैं, इतना भी ज्यादा है। मैरीकॉम ने तो बक ही दिया कि खाने को ठीक से मिलता नहीं और चाहिए सोना है। जितना पइसा खेलने के लिए सरकार देती है उसका 70 से 80 परसेंट खांटी के बुढऊ जो खेल समितियों के अध्यक्ष बनकर  पदों पर वर्षों से खूंटा गाड़े बैठे हैं, के बैंक खातों में सोना के रूप में धर दिया जाता है। जब सोना से ज्यादा कीमत का माल पहले ही अंदर है, तो बेफिजूल खून जलाने और पसीना बहाने की जरूरत क्या है।
 हमारे खिलाड़ी पदक जीतने नहीं ओलम्पियन बनने जाते हैं। हमारा अधिकतम लक्ष्य कांसा ही है, क्योंकि भले कहने को दो रुपईया का कांसा हो पर उसकी दम पर देश में नौकरी, धन-दौलत और मान-सम्मान इतना मिल जाता है कि पूरी उमर अपनी कीमत देता रहता  है। इसलिए उनके लिए पदक जीतने से अहम वहां खेलना है, जीवन भर ओलम्पियन कहे जाने का सुख लेना है, ताकि बुढ़ापा ठीक से बसर हो सके।
    अब तो कांसा में बड़े-बड़े गुण हैं। अमेरिका, चीन में भले कांसा जीतने वालों की तस्वीरें वहां के अखबारों में ठीक से जगह न पाती होे पर अपने यहां तो ब्रेकिंग न्यूज से लेकर अखबारों में एक-एक पेज के परिशिष्ट धड़ल्ले से आदम कद फोटू में छपे पाये जाते हैं। इसलिए अब बड्डे समझो...भारत में कांसे की सोने से भी ज्यादा वेल्यू है। भारत सोने की चिड़िया रह ही चुका है, और सोना जीत के हम क्या करेंगे। इसलिए अब सोना नहीं कांसा की कीमत है बड्डे!!!
श्रीश पांडेय

Thursday 9 August 2012

बाबा फिर से भाग न जाना

बड्डे’ अन्ना समूह के पंच तत्वों में विलीन होने के बाद से खबर सुर्ख है कि उसका प्रक्षेपण अब एक राजनैतिक दल के रूप में होने जा रहा है। ठीक ही तो है जब शरीर भी एक दिन पंच महाभूतों में वायूभूत हो जाता है, तो फिर आंदोलन को चलाने वालों के अधम शरीरों का भी इन्हीं ‘छिति, जल, पावक, गगन, समीरा’ के पंच अवयवों लुप्त हो जाने  पर, इतना सिरफुटव्वल क्यों। ‘जीवन नश्वर है’ के इस तथ्य युक्त सत्य का ज्ञान भारत के कथा-पुराणों में पटा पड़ा है। मगर हुआ क्या...सुना तो सब ने पर गुना किसी ने नहीं और जरूरत भी क्या है...ज्ञान होता ही इसीलिए है कि कहा-सुना जाए बड़ी श्रद्धा से  मगर अपनाएं दूसरे,हम नहीं। हर व्यक्ति दूसरे का मुंह ताकता है कि जब त्याग फलां नहीं कर रहा तो मैं ही क्यों? मैं ही बॉडीगार्ड क्यों बनूं।
   मगर बड्डे हो न हो अब इस ज्ञान दर्शन को सरकार ने बांच लिया लगता है। तभी तोे सरकार को चाहे भ्रष्ट कहो या उसके मुखिया को फिसड्डी अथवा किसी का गुड्डा, क्या फर्क पड़ता है। सरकार ने अपनी चमड़ी पर बेशर्मी को इतनी पर्तें चढ़ा ली हैं कि चाहे भूख से मरो या भूखे रहकर...आवाम की संवेदना उसकी परतों को गीला नहीं कर पाती।
    तो बड्डे अभी अन्ना टीम को पंचतत्वों में विलीन हुए दस दिन भी नहीं यानी उसका शुद्ध(दशगात्र) भी नहीं हुआ था कि बाबा रामदेव ने फिर से हुंकार भरी है कि काला धन तो सरकार को वापस लाना ही होगा...वर्ना मैं भूखे रह कर काल कलवित हो जाऊंगा। कुछ रोज पहले भूख से बिलखते केजरीवाल ने जल्दी समझ लिया कि थोड़े दिन और अन्न त्याग कर लिया तो कहीं उनकी देह उन्हें ही न त्याग दे। सरकार भी किसी कलाकार से कम नहीं, उसने अन्ना को अन्ना के अहिंसा अस्त्र से अस्तित्वहीन कर दिया। इस बार मीडिया ने अन्ना की बजाय सरकार से काले पर्दे के पीछे पंजे से पंजा मिला लिया... बस फिर क्या  जिस आत्ममुग्ध छवि में टीम अन्ना बाहें मोड़कर अनशन में बैठी थी, पहले दिन से ही उसके मुखडेÞ पर बारह बजते दिखे।  
  अरे बड्डे समझो भारत में जो दिखता है वही बिकता है। मीडिया ने नहीं दिखाया तो  लुट गई लाई टीम अन्ना की। इस बार सरकार के वे गुर्गे भी गुर्राये जो पिछली दफा अन्ना की मानमनौव्वल के लिए उनके धरना स्थल पर लोटते नजर आये थे। पर लगता बाबा की मेधा अभी भी जाग्रत नहीं हुई, क्योंकि जब सरकार ने अन्ना जैसे गांधीवादी, त्यागी, वीतरागी को कान न देकर ठिकाने लगा दिया तो फिर बाबा को तो पहले ही कूट-पीट चुकी..ये किस खेत की मूली है। मगर बाबा की ऐंठन है कि अभी नहीं गई...रस्सी जल गई पर बल नहीं गया।  बाबा का कहना है कि मैं देश में हो रही लूट से देश को बचा के रहूंगा...लेकिन ऐसा कहते वक्त 4 जून 2011 की काली रात का स्मरण कर कहीं न कहीं उनका दिलोदिमाग पुलिस के लठ्ठ की आवाजों और समर्थकों की चीत्कार से दहल तो जाता ही होगा। हे बाबा! इस बार भी तुम फिर से तो नहीं भागोगे और यदि भागे तो उम्मीद करनी चाहिए कि साड़ी या सलवार सूट साथ लेकर आए होगे।
बड्डे विडम्बना है कि आजादी की दूसरी लड़ाई कहे जा रहे जनता (अन्ना)के आंदोलन को जनता के द्वारा ही धता बता दिया गया। बाबा, अन्ना के छांव तले पनपे आंदोलन के तबूत में खुद जनता ने ही कील ठोंक दी। जब पीड़ित जनता भी इन सुधारों का माखौल उड़ाने लगी हो तो फिर सरकार का हीमोग्लोबिन कितना बढ़ा होगा समझा जा सकता है। अब ‘अन्ना दल’ बने या ‘बाबा दल’ दोनो राजनीति के दलदल में आये तो कहीं जनता इनको यहां भी पीठ न दिखा दे।
    

Monday 30 July 2012

नैतिकता का पर्व रक्षाबंधन

नैतिकता का पर्व रक्षाबंधन

 भारतीय संस्कृति और परंपरा में अनेक ऐसे अवसर; पर्व-त्यौहार के रूप में समय-समय पर हमारे सम्मुख आते हैं, जो सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत संबंधों को दृढ़ करके, उनके महत्व को हमारे जीवन में रेखांकित करते हैं। फाल्गुन मास में होली के बाद अक्षय तृतीया और नागपंचमी को छोड़ दें तो सावन में रक्षाबंधन ही त्योहारों के क्रम में महीनों से आई रिक्तता को भरता है। प्रत्येक त्योहार एवं उत्सव का अपना एक दर्शन है। भाई बहन के रिश्तों को समर्पित यह श्रावण पूर्णिमा का पर्व यानी रक्षाबंधन हमारे जीवन में संबंधों की महत्ता को स्थापित करता है।
     आज के दिन चहुं ओर का नजारा देखें तो, स्त्रियां ससुराल से मायके की ओर, लड़कियां हॉस्टलों से अपने-अपने घरों का रुख करती बसों, ट्रेनों में दिख जाएंगी। धवल वस्त्रों में हाथों में सजी मेंहदी और उनमें रक्षा सूत्र(राखी) लिए भाइयों के प्रति उमड़ा प्यार, वातावरण को उत्सव का रूप दे देता है। भाई हैं तो अपने स्नेह को जताने के लिए यथासामर्थ उपहारों की सौगात लेकर जहां भी उनकी बहनें हैं, पहुंचने की भरपूर कोशिश करते हैं।  जो इस पर्व में गंतव्य तक नहीं पहुंच सकते उन्हें डाक द्वारा राखियां मिलने का इंतजार होता है अथवा आस-पड़ोस में मुहंबोली बहनों का इंतजार रहता है, जो उन्हें इस सम्मान से नवाजें। कमोबेश यही स्थिति बहनों की भी होती है। आज के दिन बहनें, भाइयों के हाथों में जो रक्षा सूत्र बांधती हैं वह किसी भी कलाई पर बांधा गया सर्वोत्तम हार होता है।
        रक्षाबंधन को फिल्मी दुनिया ने भी कुछ यूं गुनगुनाया है कि..‘बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है, प्यार के दो तार से संसार बांधा है..’   यह गीत इस त्यौहार का मानो आॅफीशियल गाना बन गया है। इस दिन हर सुबह रेडियो या टीवी पर बजता यह गीत इस त्यौहार में चार चांद लगा देता है। ये माना कि गाना बहुत पुराना नहीं है, पर भाई की कलाई पर राखी बांधने का सिलसिला बेहद प्राचीन है। सिन्धु सभ्यता में आर्यों के बीच इस त्यौहार के चलन में होने के प्रमाण हैं। यों तो इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं, जो इसके प्रतीक रूप में अस्तित्व में होने के गवाह है। यथा-जब कृष्ण ने  शिशुपाल का वध किया था, तब युद्ध के दौरान कृष्ण के बाएं हाथ की उंगली से रक्त को बहते देखकर द्रोपदी ने अपनी साड़ी का टुकड़ा चीरकर कृष्ण की उंगुली में बांधा था। तभी से कृष्ण ने द्रोपदी को अपनी बहन स्वीकार कर लिया था। और हस्तिनापुर में द्रोपदी के चीरहरण में चीर (वस्त्र) देकर उसकी अस्मिता रक्षा की थी। आधुनिक इतिहास में चित्तौड़ की विधवा रानी कर्णावती ने गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह से अपनी प्रजा की सुरक्षा के लिए हुमायंू को राखी भेजी थी, तब हुमायूं उनकी रक्षा की और उन्हें बहन मान लिया था।
          स्त्री पुरुष संबंधों में मां-बेटे के रिश्ते के बाद भाई-बहन का संबंध ही ऐसा है, जो नैसर्गिग रूप से अभिन्न,अमिट और अतुलनीय है। इसकी एक वजह उनका एक ही गर्भ से उत्पन्न होना है। वृक्ष की शाखाएं कितनी भी फैल जाएं पर जड़ें उनके अस्तित्व तक एक ही बनी रहती हैं और उनमें समान गुण-धर्म सदैव बने रहते हैं।  कई बार तो दोनो(लड़का-लड़की) की शक्ल देखकर ही अनुमान लगा पाना सहज होता है कि ये परस्पर भाई-बहन हैं। रक्षाबंधन का पर्व एक ही आंगन में पले-बढ़े, खेले-कूदे, लड़े-झगड़े, भाई-बहन के रिश्ते की प्रगाढ़ता को दर्शाता है । 
       भारतीय समाज की संरचना व इसके रीति रिवाज ही ऐसे हैं जहां रिश्तों का महत्व दुनिया के अन्य समाजों से बेहतर रहा है। भारतीय खासकर हिन्दू संस्कृति में स्त्रियां, पुरुष की आयु और सुरक्षा की कामना करती आई हैं। जब वह क्वांरी रहती है तो वह भाई के लिए यही भावना रक्षा सूत्र के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, तो विवाहोपरांत करवा चौथ और तीज के कठिन व्रत के जरिए अपने पति के लिए। लेकिन भाई को रक्षा सूत्र बांधने का सिलसिला जीवंत बना रहता है।
          रक्षा बंधन का मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है, जो भाइयों को उनकी बहनों के प्रति जिम्मेदारी को व्यक्त करता है। यह जिम्मेदारी सिर्फ बहनों की रक्षा करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि शादी के बाद भी यही क्रम जारी रहता है। इसके अलावा भी कई अवसरों पर भाई अपनी बहन के प्रति अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करता है। रक्षा बंधन पर जब बच्चियों ने पूर्व राष्टÑपति ए पी जे अब्दुल कलाम की कलाई पर रेशम की डोर बांधी थी तो उनके कवि हृदय में भाव जाग उठे और उन्होंने कहा -
                                    बहनों का प्यार पूर्ण चन्द्रमा के चमकने जैसे है,
                                      भाइयों का प्यार उदय होते सूर्य के प्रकाश जैसा है।
                                       हमारे जीवन और हमारे   घरों को ये रोशन करते हैं,
                                         विचारों में सज्जनता के साथ आप दीर्घायु हों!

इस उत्सव को सदियों से हम समाज परिवार के बीच मनाते आ रहे  हैं। मगर अब प्राय: हमारे जीवन से प्यार, संवेदनाएं, भावनाएं नदारत हैं। त्यौहारों को हम बस एक कोरम पूरा करने के लिए अपनाते हैं। इसकी मर्यादा को घर की डेहरी के बाहर कदम रखते ही बिसरा देते हैं। गुवहाटी जैसी घटनाएं दर्शाती हैं कि समाज का नैतिक पतन किस हद तक हो चुका है। जिस लड़की के साथ के अनैतिक कृत्य हुआ, वह किसी भाई की बहन होगी और जिन्होंने दुष्कर्म किया वे भी किसी बहन के भाई होंगें।  किसी भी समाज की संरचना मूल्यों के चौपाए पर टिकी होती है। जब यही खोखले हो जाएंगे, तब जिस संरचना में हमारा जीवन पल्लवित, विकसित  हो रहा है, वही ध्वस्त-धराशायी हो जाएगा। रक्षाबंधन जैसे नैतिक त्यौहार हमें जताते हैं कि हम न सिर्फ घर में मौजूद बहन के प्रति संवेदनशील बने बल्कि समाज में अपनी इसी सोच के साथ आगे बढ़ें कि सारा विश्व हमारा एक परिवार है। 1896 में  विवेकानंद ने जब न्यूयार्क में धर्म संसद को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘लेडीज एडं जेन्टिलमैन’ की जगह सभागाार में मौजूद जनसमुदाय को ‘सिस्टर एडं ब्रदर्स’(बहनों और भाइयो)कहकर संबोधित किया तब दुनिया में भारत की संस्कृति और संरचना को नयी पहचान मिली थी।
        तो इस पवित्र उत्सव रक्षाबंधन का औचित्य तभी जब इसको मनाते वक्त भाई बहनों को वचन दें कि वे सुरक्षा के दायित्व को सिर्फ अपनी जैविक बहनों तक नहीं बल्कि इससे इतर भी निर्वहन करेगें। ऐसा ही संकल्प बहनें भी ग्रहण करें तो समाज में दिनोंदिन आ रही विकृति का एक सीमा तक उन्मूलन हो सकेगा। वर्ना त्यौहारों जिस श्रृंखला को हम वर्ष भर मनाते हैं वे सब के सब हमारी हिप्पोक्रेसी के प्रतीक बन कर रह जाएंगे। नैतिकता से लबरेज इस पर्व की आप सभी भाई-बहनों को शुभकामनाएं।

श्रीश पांडेय

Thursday 28 June 2012

बचपन के जमाने फिर नहीं आते...

   
प्रकृति के परिवर्तन हमें बताते हैं कि कैसे वह वक्त और वातावरण के मुताबिक अपने विभिन्न रूपों में उपस्थित होकर हमारे जीवन में विविध रंग भरकर, हमारा लगाव और जिजीविषा, जिन्दगी के प्रति उत्पन्न करती है। प्रकृति के सदृश्य हमारे जीवन में भी समय के साथ निरंतर बदलाव- उम्र, समझ और संबंधों के स्तर पर होते रहते हैं। लेकिन प्रकृति और मानव के परिवर्तन में जो गाढ़ा अंतर है वह यह कि प्रकृति अपने मिजाज को हर वर्ष दोहराती है, तो वहीं मनुष्य के जीवन में उम्र के स्तर पर आये परिवर्तनों की पुनरावृत्ति नहीं होती। अब बारिश को ही ले लें तो, एक बार फिर हमें भिगोने को आतुर है। भीषण गर्मी से नीरस हो गए जीवन में वर्षा की फुहारें रस भरने को उमड़ रही हैं। बारिश जहां किसानों को कृषि कार्यों में उलझा देती है, तो प्रशासन, कर्मचारियों  को उसके प्रबंधन में, तो पत्रकारों की जमात मानसून के अनुमानों की खबरों पर कलम घिसती नजर आती है। लेकिन इस बारिश का असली आनंद  हमारा बचपन ही लूटता आया है, जो बार-बार नहीं आता।
 ‘बचपन’ शब्द ही विशिष्ट है मानव विकास में यह उम्र के विभिन्न चरणों के लिए प्रयुक्त हो सकता है। सरल शब्दों में बचपन को जन्म से आरंभ हुआ माना जाता है। अवधारणा के रूप में कुछ लोग बचपन को खेल और मासूमियत से जोड़ कर देखते हैं, जो किशोरावस्था में समाप्त होता है। दरअसल, शैशवावस्था के बाद का जीवन ही बचपन है और बच्चे के लड़खड़ाते हुए चलने के साथ शुरू होता है, जब बच्चा बोलना और स्वतंत्र रूप से कदम बढ़ाने लगता है। प्रारंभिक बचपन सात से आठ साल की उम्र तक चलता है। राष्टÑीय संगठन के अनुसार, प्रारंभिक बचपन की अवधि जन्म से आठ की उम्र तक होती है। बहरहाल, बचपन की सैद्धांतिक परिभाषाओं में इसकी पहचान इसे सीमित करती है। कई बार हम बड़े होकर भी अपने बचपन को जीते रहते हैं और कह उठते हैं कि क्या दिन थे वोभी आह....!
    ‘बचपन’ जीवन के व्यवस्थित नियमों से परे होता है। चिन्तामुक्त होकर खेल-कूद, मौज-मस्ती, में निमग्न रहना ही उसके अनिवार्य लक्षण हैं। उम्र का यही पड़ाव है जो  मानव जीवन  की सभी अवस्थाओं में सबसे नायाब है, अनमोल है, अद्भुत है। बपचन को याद करते समय सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘बचपन’ शीर्षक से लिखी कविता की चंद पंक्तियां होठों पर तैर जाती है जिसके कुछ अंश यूं हैं कि .....
                                              बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
                                             गया, ले गया तू जीवन की सब से मस्त खुशी मेरी।।
                                          चिन्ता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छन्द।
                                               कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनन्द?
                                                ऊंच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
                                                     बनी हुई थी वहां झोपड़ी और चीथड़ों में रानी।
                                                  रोना और मचल जाना भी क्या आनन्द दिखाते थे
                                                      बड़े-बड़े मोती-से आंसू जयमाला पहनाते थे।।

यह तथ्य निर्विविाद रूप से सर्वमान्य है कि बचपन चाहे किसी भी सामाजिक स्तर पर हो उसकी बेफिक्री ही उसे प्रकृति के करीब ला खड़ा कर देती है। बच्चों को बारिश के पानी में भीगते, बहते पानी में नाव चलाते और उसके प्रवाह के पीछे किलकारी मारते हुए भागते देखकर हर शख्स को उसका बचपन आंखों में कौंध जाता है। बच्चे तब यह नहीं जानते कि वे बड़े होकर अपनी इस अल्हड़ता को, जगजीत की गाई नज्म... ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो, वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी...को किसी रिकार्ड में  सुन कर इन सुनहरे पलों को याद करेंगे। बच्चों को बारिश में भीगने के बाद बीमार पड़ने जैसे ख्याल उनके पास फटकते ही नहीं....बड़े बुजुर्ग भले ही बारिश में न जाने और बीमार पड़ जाने के डर से बच्चों को चेताते व खुद चिंतित रहते हों, पर बचपन इन सुझावों को एक तरफा खारिज कर देता है। बच्चों का बरसते पानी में बेपरवाह मौज-मस्ती से राकने के लिए बड़ों के द्वारा लगाये गए बंधनों को वे कठोरतम महसूस करते हैं और हम बड़े भी बच्चों के साथ सहज नहीं रह पाते... कई तरह के एटिकेटस के नाम पर हम उन्हें पल-पल सिखाते हुए टोकते हैं कि यह नहीं करना ,वह नहीं करना...इस सिलसिले में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की प्रध्यापिका ममता धवन कहतीं हैं कि जब कभी मेरा बेटा खेलते हुए कोई वस्तु बिखरा देता है तो मैं उसे डांटने या मना करने के बजाए दूसरी और वस्तुएं फैलाने के लिए दे देती हंू और उसके द्वारा इस बचपन में लिए जा आनंद से अभिभूत होती हूं। इसलिए बचपन को आवश्यकता से अधिक नहीं छेड़ा जाना चाहिए, क्योंकि हर बच्चा अपनी  नैसर्गिक गतिविधियों से बहुत कुछ सीखता है। बच्चों को उनका बचपन जीने के हक को,जीवन की   औपचारिकताओं से प्रथक रखें ताकि वह इस अनमोल जीवन को भरपूर जी सके। ‘बचपन’ के बरक्स एक शेर रोशन हो आता है कि...
                                                     उडने दो परिदों को अभी शोख हवाओं में,
                                                              फिर लौट के बचपन के जमाने नहीं आते।


           श्रीश पांडेय

Sunday 24 June 2012

बात बचपन की

  तीन दशक पहले बात बचपन की है जब मैं तीसरी या चौथी दर्जे में पढ़ता था। उनदिनों कुछ ऐसा वातावरण था, जब स्कूल जाने का मतलब पढ़ाई से कहीं महत्वपूर्ण खेलकूद और मौज मस्ती था। न तो मासिक टेस्ट थे, न ही रोज का अनिवार्य होमवर्क। टिफिन में खाने के आइटम लगभग हफ्ते भर एक से- रोटी या पराठा के साथ सब्जी या कभी मां को समय न रहा तो अचार से दो चार होना पड़ता था। लेकिन अब बच्चों के टिफिन का जायका मैगी, नूडल्स, सैंडविच, पास्ता जैसे स्वादों में रूपांतरित हो गया है। ठंड हो या गर्मी सभी में यही अटरम-शटरम बच्चों की पसंद बन चुका है।
    बहरहाल, खाने के साथ-साथ पढ़ाई-लिखाई की पद्धति में जो बड़ी तब्दीली आयी है वह यह कि अब मां-बाप बच्चे के स्कूल जाते ही तय करने लगते हैं कि बच्चे को क्या बनना चाहिए। ‘दिल चाहता है’ फिल्म को सराहने वाले,उसके  दर्शन पर ताली पीटने अभिभावक भी अपने बच्चे को उसका नहीं बल्कि अपना ख्वाब पूरा करने का साधन मान बैठते हैं। दरअसल, बच्चा क्या बनना चाहता है ये बात गौण हो चली है, यहां तक कि उसके भविष्य की राहअभिभावकों द्वारा गर्भ से ही गढ़ी जाने लगी है। इसी का नतीजा है कि बच्चों पर नर्सरी कक्षा से ही स्कूल में अव्वल आने का दबाब झलकने लगता है। उधर किताबों के बोझ को देख कर मानना पड़ता है कि बच्चा भले ‘केजी वन’ में पढ़ता हो पर उसका बस्ता ‘टू केजी, थ्री केजी...फाइव केजी’ का होता है। आज कच्ची उम्र में किताबी अध्ययन करने और  उसमें पारंगत होने की ललक भले ही शुरुआती दिनों में मां-बाप की रहती हो, पर जल्दी ही यही आदत बच्चों में पड़ जाती है। पढ़ाई का यह दबाव साल-दर-साल उच्च कक्षाओं में प्रवेश करने के साथ अनुपातिक रूप से बढ़ता रहता है। ऐसे में बचपन खासकर शहरी इलाकों में किताबों के साथ किसी फिल्मी दृश्य की तरह पल झपकते ही कब जवान हो जाता है, समझ मुश्किल है।
      मैं जब अपने बचपन को सोचता हूं इतने वर्षों में आये फर्क को साफ महसूस करता हंू। क्योंकि हमारी जितनी जानकारी कक्षा 5 में होती थी, उतना आज के बच्चे कक्षा एक में जानते हैं। यानी आज के बच्चों का ज्ञान उम्र से पांच गुना आगे है। जहां तक शिक्षक-शिक्षार्थी के परस्पर की संबंध की बात है, तो वह बेहद मर्यादित और अनुशासित था। मैं पढ़ने में वैसे भी लापरवाह रहा हंू, इसलिये अपने अध्यापकों से प्राय: डांट ही नहीं,  मार भी पड़ जाना अचरज की बात नहीं थी, लेकिन उस मार या डांट में भी एक अपनापन, प्यार और अधिकार था।  तभी तो जब कभी घर में, स्कूल से शिकायत आ जाए, तो समझ लीजिये बजाय शिक्षकों से जबाव तलब के, यही मार और डांट बोनस की तरह दोगुनी हो जाती थी। बुजुर्गवार बताते हैं कि 50-60 के दशक में शिक्षकों का विद्यालय में अनुशासन इतना सख्त था कि किसी छात्र के विद्यालय मेें अनुपस्थित रहने पर उसको ढूंढने के लिए चार-पांच छात्र इसलिए भेजे जाते थे कि यदि गैर-हाजिरी का कोई उचित कारण न हो तो उसे पकड़वाकर विद्यालय बुला लिया जाता था। तब शिक्षक का समूचे विद्यालय के बच्चों पर पिता के समान अधिकार होता था। पर आज प्राय: शिक्षकों के सख्त अनुशासन को असंवेदनशील अमानवीय मानकर उनसे ही सवाल दाग दिए जाते हैं। इसीलिए भले उन दिनों की स्मृति आज की पीढ़ी के लिए स्वप्न और अविश्वसनीय हो, पर सब कुछ ऐसा चलता था मानो हमारा जीवन प्रकृति के कितने करीब है। कल का वही बालक यानी मैं आज पिता हूं और जब अपने बच्चे को स्कूल जाते और उसके वातावरण को देखता हूं, तो 30-35 सालों में आये फर्क को बेहतर समझ पा रहा हंू, कि क्यों हमारा जीवन कृत्रिमता की ओर निरंतर उन्मुख है। बच्चे बचपन से ही मशीनीकृत जिंदगी के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। रोज स्कूल की भागमभाग, वहां मिले गृहकार्य (होमवर्क) को पूरा करना, फिर एक-दो ट्यूशन और बचा हुआ समय टेलीवीजन पर कार्टून देखना ही उनकी दिनचर्या बन चुकी है। खुली हवा में सांस, मित्रों के साथ गप्पें अब जीवन से नदारत है। खेल के मैदान का मुंह तो महानगरों के बच्चे शायद ही कभी देख पाते हों। महानगर ही क्यों, अब तो यही हाल कमोबेश शहरों और कस्बों का होता जा रहा है।  दरअसल, पढ़ाई के बढ़ते उत्तरोत्तर बोझ ने बच्चों को किताबी कीड़ा बना कर रख दिया है। यह बात दीगर है कि इसकी वजह से वे भले इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक, प्रशासनिक अधिकारी बन रहे हों, पर इंसान बनने के मूलभूत गुणों से वंचित होते जा रहे हैं। क्योंकि इंसानी संगत का विकल्प टीवी, स्वचालित खिलौने और केवल किताबी ज्ञान ही नहीं हो सकता। छोटे  परिवार, स्वार्थमय जीवन, अपने पराये का भेद आज की पीढ़ी कच्ची उम्र में ही सीख जाती है।
   कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ओर मानव सभ्यता विकास और उन्नति के शीर्ष पर अपने कदम रख रही है, तो दूसरी ओर हम और हमारी पीढ़ी संवेदनाशून्य, भावशून्य होकर मानवीय मूल्यों व उसकी गरिमा को रसातल में ले जाने पर उतारू हैं। इसकी वजह बहुत हद तक जीवन में विद्यमान प्रतियोगिता और कृत्रिमता है। साधनों/भौतिकता का विकास, साध्य(मानव) के लिए है, पर यह जानकर पीड़ा होती है कि साध्य ही साधनों के वशीभूत होता जा रहा है। विकास की जो गंगा बहाई जा रही है वह नि:संदेह आने वाले वक्त में अर्थर्हीन होकर रह जाएगी। क्योंकि संवेदनहीन होता आज का बचपन ही तो कल का भविष्य है।
ऐसे में  बचपन के बरक्स अनायास ही जगजीत की गुनगुनाई गजल बरबस जुबां पर आ जाती है कि...ये दौलत   भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन,वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी... इसका स्मरण और इसके बोल का आज भी दिल को नम कर जाना दर्शाता है कि बचपन से अनमोल कुछ भी नहीं। पर इस बहुमूल्य बचपन को पढ़ाई का बोझ और आज का मशीनीकृत शिक्षा पद्धति लीलती जा रही है। स्कूलों ने भी अपने परिणामों को बेहतर दिखाने के फिराक में बच्चों पर इकाई टेस्ट, मासिक टेस्ट, त्रैमासिक टेस्ट, छमाही टेस्ट और फिर वार्षिक परीक्षा के पूर्व एक और अभ्यास टेस्ट का भार डाल रखा है। तब कहीं जाकर वार्षिक परीक्षा का आयोजन होता है। यानी बचपन से शुरू हुआ पढ़ाई का ये सिलसिला अच्छी नौकरी/ रोजगार हासिल कर लेने तक अनवरत रहता है। सवाल बड़ा और बारीक है कि क्या हम इस दुनिया में इसीलिए जन्मते हैं कि एक मशीन की तरह रोटी के लिए और बेहतर रोटी के लिए संघर्ष करते अपना जीवन गुजार दें? क्या हम सिर्फ भोग के लिए? क्या हम अपनी पीढ़ी को सुखमय जीवन की शिक्षा हर कीमत पर देना चाहे हैं। हो न हो आज जितनी असंवेदनशीलता हमारे चंहु ओर पसर रही है उसके नेपथ्य में बचपन का असमय समाप्त होना, सामाजिक संरचना का शिथिल होना है। बचपन है तो भविष्य है... बाल मन की इस बोझिल पढाई उससे मुक्ति का प्रतिबिम्ब शकील जमाली के इस में शेर रोशन हो आता है कि-
सफर से लौट जाना चाहता है, परिंदा आशियाना चाहता है,
कोई स्कूल की घंटी बजा दे, ये बच्चा मुस्कराना चाहता है


श्रीश पांडेय 

Sunday 10 June 2012

इंडिया अगेंस्ट (कांग्रेस) करप्शन

  एक लघु कथा है कि पांच डाकू थे उनमें से चार गांवों में जाकर डाका डालते और पांचवां उनकी रखवाली करता कि कहीं उन पर कोई आंच तो नहीं आ रही....एक बार पुलिस ने पांचों को गिरफ्तार कर लिया....उन्हें अदालत में पेश किया....चार को अदालत ने सजा दे दी....पांचवां बोला मैंने आज तक किसी भी डाके में भाग नहीं लिया....किसी ग्रामीण को नहीं लूटा.... यदि कोई ग्रामीण कहे कि मैंने उन्हें लूटा है तो मैं संयास ले लूंगा... ! तो क्या उसको बरी कर दिया जाये ?
इनदिनों यूपीए सरकार के मुखिया की कुछ ऐसी ही दशा दुर्दशा दिखती है। बड़े-बड़े नामों से सुसज्जित सरकार के धुरंधर अर्थशास्त्री-प्रशासक महंगाई, काला धन, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, सुधारों को लागू करने में लाचार और बात-बात पर सिर धुनते, बिखरते किसी तरह ‘फेवीकोल का जोड़ है टूटेगा नहीं’ के विज्ञापन की तर्ज पर पिछले 8 साल से दिल्ली के सिंहासन से कुछ इस तरह चिपके हैं कि उनके जाते ही देश गढ्ढेÞ में  गिर पड़ेगा।  सरकार कोमा में जा चुकी है जिसका नमूना है कभी प्रधानमंत्री कहते हैं कि आने वाले साल और कठिन होंगे, हमें (आम जनता) को इसके लिए तैयार रहना होगा। उसके ग्रामीण विकास मंत्री जयरामरमेश ने यूपीए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना मनरेगा के औचित्य और भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया है।  सरकार, सरकार नहीं मजाक बन कर रह गयी है।
इनदिनों देश में अजीब तरह की आपाधपी मची है। जिसे देखकर किसी भी राष्टÑभक्त का राष्ट्र की दिशा दशा देखकर चिंतित होना लाजिमी है। विगत आठ वर्षों से ऐसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है। जिनके चरित्र,नैतिकता, ईमानदारी का न सिर्फ सरकार के कारिंदों द्वारा गुणगान किया जाता है, बल्कि समूचा विपक्ष भी गाहे-बगाहे उनके इस रूप की आराधना करता रहा है। लेकिन जिसके कार्यकाल में लाखों करोड़ों के घोटाले उजागर हुए  हों और  जो भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने में हर तरह से धृतराष्टÑ की तरह अक्षम रहा हो, जिसके कार्यकाल में नामचीन अर्थशास्त्री होने के बावजूद सर्वाधिक महंगाई बढ़ी हो, जिनके चहेते मोंटेक सिंह ने जिस बेशर्मी से गरीबी का मजाक उड़ाया हो ऐसी सरकार से ना उम्मीदी  होना स्वाभविक है। कुलमिलाकर समूची अर्थव्यवस्था की जैसी दुर्दशा इस सरकार में हुई है वैसी स्वतंत्र भारत के इतिहास में देखने में नहीं आती।
  एक-गैर राजनीति और संवेदना शून्य प्रधानमंत्री जिसे देश की आवाम की नब्ज टटोलना तो दूर उल्टे जीडीपी, आर्थिक विकास दर, मौद्रिक नीति  जैसी अर्थव्यवस्था की टर्मिनोलॉजी के नाम पर बार-बार यह बयान करना कि महंगाई के वैश्विक हालातों को देखते हुए यह और बढ़ेगी, भारत को मंदी का दौर और झेलना होगा...जैसे उवाचों ने समाधान कम समस्या ज्यादा पैदा की है। इतनी ही तत्परता और संजीदगी यदि सरकार ने भ्रष्टाचार और अनुमानित 400 लाख करोड़ के काले धन की वापसी पर दिखाई होती तो देश के हालात इतने पतले न होते। कांग्रेस शासन काल में घोटालों का सिलसिला आजादी के बाद से ही नाले के रूप में चल पड़ा था जिसने आज एक वेगवती नदी का रूप धर लिया है। एक मोटी नजर इस फेरहिस्त पर मारें तो-1948 जीप घोटाला, हरिदास मूंदड़ा घोटाला 1957 से लेकर, पामोलिन तेल घोटाला, आज के कॉमनवेल्थ, आदर्श हाउसिंग सोसायटी, टूजी स्पेक्ट्रम और अब कोयला आवंटन के मामले में संदेह उपजने तक सैकड़ों मामले हैं जिन पार्टी दागदार हुई है।
घपलों-घोटलों की लम्बी फेरहिस्त दर्शाती है कि कभी पार्टी ने इस पर अंकुश रखने की कोई ठोस योजना नहीं बनाई। यह हकीकत है कि गठबंधन सरकारों में यह प्रवृत्ति तीव्र गति से बढ़ी है,चाहे कांगे्रस के नेतृत्व में यूपीए हो या भाजपा के नेतृत्व में राजग।  लेकिन यूपीए के पिछले दो कार्यकाल में जिस कदर सरकारी खजाने की लूट मची है उसको देखकर कहना पड़ता है किअंग्रेजों द्वारा लूटे गए इंडिया की मिसालें आज की तुलना में फीकी हैं।
अब जबकि अन्ना हजारे समूह ने प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर सवाल खड़े किए हैं तो स्वयं मनमोहन सिंह और उनके कु नबे के मंत्री इसे बेबुनिाद बता कर पल्ला झाड़ लेने और अन्ना को राष्टÑ विरोधी के हाथ में खेलने जैसे डायलॉग जड़कर सर छिपाने की कवायद में जुटे हैं। आरोपों के खिलाफ शुतुर्मुर्गी मुद्रा अख्तियार करने बजाय सरकार को आंख खोलकर चीजों देखना और उनके जबाव देने चाहिए। आखिर यूपीए को जनता ने चुना है और गठबंधन की मजबूरी के नाम पर इससे आंख नहीं मूंदी जा सकती। इसी बचाव की नीति का नतीजा है कि आज वह चौतरफा कटघरे में खड़ी नजर आती है। फेसबुक और टिवटर की सोशल बेबसाइटों में कांग्रेस और यूपीए के विरुद्ध जनमानस के गुस्से को साफ पढ़ा जा सकता है।
    आज स्वयं सरकार की कारिस्तानियों से ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की मुहिम ‘इंडिया अगेंस्ट कांग्रेस’ बनती जा रही है या कहा जाय कि बन चुकी है तो ज्यादा बेहतर होगा। दरअसल, अन्ना समूह द्वारा ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मिशन की शुरूआत में किसी भी दल, कर्मचारियों  अथवा  प्राइवेट कंपनियों द्वारा कैसा भी करप्शन हो के विरुद्ध था। जिसके लिए लोकपाल और अन्य व्यवस्थागत सुधारों की मांगों को एकतरफा अनसुना कर देने के बाद आहिस्ता-आहिस्ता यह मुहिम कांग्रेस विरुद्ध ज्यादा बनती गई। यद्यपि अन्य दल भी इसी दलदल में धंसे हैं। हालिया   भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्षमण को  हुई सजा और येदियुरप्पा की बेदखली इसी की बानगी है।
 अब जबकि चुनाव में दो वर्ष शेष हैं, सरकार के पास पूरा मौका है कि वह अपना दामन धो-पोंछ सके पर इसके लिए कालेधन, भ्रष्टाचार को लेकर वह ऐसा कुछ करती दिखे ताकि यह समझा जा सके कि वह तंद्रा से जाग चुकी है। भाजपा जिसे कांग्रेस का विकल्प माना जा रहा है जिसके लिए पार्टी में अगला प्रधानमंत्री कौन होगा के निमित्त आभाषी युद्ध शुरु हो गया है। ऐसे में कांग्रेस के पास अवसर  है कि वह स्थिरता के साथ महंगाई, भ्रष्टाचार, कालेधन पर अपना रुख सख्त करके दागदार दामन और शर्मसार छवि को स्वच्छ व सम्मानजनक बना सकती है। अन्यथा अपने विरुद्ध जनता के गुस्से को वह बिहार, यूपी के चुनावों में देख ही चुकी है।
                                                                                                                                 -  श्रीश पाण्डेय

Thursday 19 April 2012

कितने निर्मल है बाबा

भारत चमत्कार, आशीर्वाद, कौतूहल से भरे कारनामों की सम्भावनाओं का देश है। यहां धर्म के नाम पर जितने आलौकिक चमत्कार बाबाओं ने दिखाये हैं, उतने विश्व के किसी और मुल्क में मुश्किल हंै। बाबाओं के जादुई करिश्मों के पीछे देवी देवताओं द्वारा वायु मार्ग से गमन और मनचाही वस्तुओं व सफलता को पल झपकते प्रदान कर देने की कल्पना ही इस आकर्षण का आधार है। मनुष्य आरम्भ से साधना-उपासना द्वारा ऐसी अलौकिक शक्तियों को हासिल करने के प्रयास करता आया है, जो उसे आसानी से सफलता के पायदान पर पहुंचा सके। कमोबेश अलौकिक सत्ता के प्रति जनसामान्य में आकर्षण की वजह यही रही है कि हमारे वेद, पुराण और धर्म ग्रन्थ- तंत्र-मंत्र के जादुई चमत्कारों से पटे पड़े हैं। इसीलिए समय-समय पर भारत में अनेक बाबाओं का उद्भव और पराभव भी देखने में आया है। जिनमें से कुछ का प्रभाव उनके जीवन काल में और उसके बाद भी विद्यमान है, तो वहीं कुछ की शक्तियों का भांडाफोड़ चंद वर्षों में होता देखा गया और उनकी कलई खुलते ही उनके चमत्कारों की खुमारी भी जनता में बाढ़ के पानी के तरह उतरती देखी गई।
      इनदिनों देश में ऐसे ही एक हैं निर्मल बाबा जो, अपनी कृपा को धन के एवज में बेच रहे हैं। लाखों में शुरू हुआ यह कुटीर उद्योग आज करोड़ों की इन्डस्ट्री बन गया है। बाबा अपने भक्तों पर कृपा कैसे करते हैं? यह तो रहस्यमय है। पर जो भी उपाय वह अपने भक्तों को सुझाते हैं, वह एक बारगी तो हास्यास्पद और मजाकिया लगते हैं, पर यह तो मानना ही पड़ता है कि असर भी हुआ होगा, तभी तो दिनोंदिन जन समुदाय बाबा के दरबार में उमड़ रहा है। बाबा के विरोध और समर्थन में तर्क और बहस ऐसा सिलसिला देश में चल पड़ा है कि बाबा का हर बयान ब्रेकिंग न्यूज बना है।
  दरअसल, देश में ऐसे बाबा, महात्माओं की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। जिनके  लिए जगह-जगह पंड़ालों में श्रद्धालुओं की भीड़ ताली पीटते नमन करती, दान देती नजर आती है। टीवी चैनलों पर इन बाबाओं का छितिज आकाश गंगा की तरह बढ़ रहा है। ज्योतिषी उपायों, वास्तु के फायदे-नुक्सान का एक ऐसा विज्ञान विकसित हो गया है कि विकास के इनके मापदण्ड, विज्ञान को पीछे छोड़ते दिखते हैं। इस निमित्त बाकायदा सुसज्जित कार्यालय खुल हैं। एक निर्धारित फीस है, पैकेज हैं। पर अहम सवाल यह है कि क्या ‘धर्म’ और उसके चमत्कार का प्रयोग, जीवन की भौतिक लिप्साओं को प्राप्त करने का साधन मात्र है? क्या इससे ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ की धारणा लुप्त नहीं होती जा रही है? क्योंकि जितनी भी मुरादें निर्मल बाबा से लोगों द्वारा मांगी जा रही हैं, वे सब की सब निजी लाभ से संबंधित हैं। एक भी शख्स दरबार में देखने में नहीं आया जिसने देश के लिए, जरूरत मंदों के लिए अथवा सामाजिक बुराईयों पर अंकुश के लिए कोई मनोकामना रखी हो और न ही बाबा की ओर से ऐसी कोई पहल होती दिखती है।
  बड़ा सवाल है कि एक संत का समाज में क्या योगदान होना चाहिए? संत पूरे समाज का होता है, उसका ध्यान केंद्र मात्र ही व्यक्ति नहीं, समाज, राष्टÑ यहां तक कि सम्पूर्ण विश्व होता है। जो वास्तव में साधुता को पा जाते हैं या जिन पर ईश्वर की थोड़ी भी कृपा हो जाती है। वे उसका लालच या स्वयं का दम्भ भरने के लिए प्रदर्शन नहीं करते। बुद्ध को ज्ञान हुआ तो वे मौन हो गए। रहीमदासजी कहते हैं कि-
       रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं।
       जे जानत ते कहत नहिं, जे कहत ते जानत नाहिं।।
पर आज संतों की परिभाषा में परिवर्तन हो गया है। धर्म के धंधें की नई थ्योरी चल पड़ी है। खासकर भारत जैसे आस्था प्रधान देश में धर्म गुरुओं से यकायक लाभ मिल जाने की भाग्यवादी संकल्पना ने आकार ले लिया है। लाभ के निमित्त देश में भेड़चाल है। कैसे भी संसार की भौतिक उपलब्धियों पर हमारा अधिकाधिक वर्चस्व हो, इसके लिए चाहे कितना भी अनैतिक होना पड़े यह अब मायने नहीं रखता। हमारे जीवन का हर पल भोग को समर्पित है। दरअसल, जब हम भीतर से कमजोर होते हैं तो बाबाओं के चमत्कारों के चंगुल में फंसते हैं, उनसे उम्मीदें परवान चढ़ती हैं। खासकर महिलाएं ज्यादा आकर्षित होती हैं। बाबाओं का प्राथमिक लक्ष्य भी महिलाएं हमेशा से रही हैं।
 पर कोल्डड्रिंक्स पीने, रूमाल रखने, पेठा बांटने, टाई बांधने जैसे टोटके नुमा समाधान देकर क्या बाबा भगवद्गीता की कर्म और उसके फल के सिद्धांत के विरुद्ध नया मायाजाल नहीं रच दिया है? ऐसे कथित उपायों द्वारा ईश्वरीय कृपा होने की बात कहकर क्या वे हिन्दू धर्म का माखौल नहीं उड़ा रहे? हां ये सच है कि उनका पिछला जीवन क्या था, इस आधार पर उनके ज्ञान पर कोर्ई टिप्पणी करना बेमानी होगा, क्योंकि ईश्वरीय कृपा से जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के उदाहरण हमारे यहां (जैसे डाकू रत्नाकर का बाल्मीक बन जाना) भरे पड़े हैं। पर ईश्वरीय कृपा का ऐसा भौंडा प्रदर्शन चाहे निर्मल बाबा करें अथवा कोई अन्य हमारी संस्कृति और आस्था पर आघात है। धर्म जब धंधा बन जाए तो वह धर्म नहीं रह जाता।
  यदि हम देश के इतिहास को देखें तो संतों ने योगविद्या अथवा साधना उपासना से अर्जित ऊर्जा का प्रयोग धन एकत्र करने में कभी नहीं किया। वस्तुओं का विनिमय बिजनेस है पर कृपा का विनिमय दुर्भाग्यपूर्ण है। बाबा को कृपा बांटने से   पहले अपनी निर्मलता को टटोलना होगा, साथ ही लोगों की समस्याओं का समाधान चाट पकौड़ी खाकर, डियोड्रेंट लगाकर देने और लेने वालों को भी अपनी बौद्धिकता को नापना होगा। अपने गिरेबां में झांकना होगा।
 देश में ‘बाबा’ या ‘संत’ शब्द आस्था का प्रतीक है और ऐसी हरकतों से ये शब्द अनास्था, अविश्वास में तब्दील होते जा रहे हैं। आलौकिक सत्ता के प्रति यही आस्था हमारे जीवन का आधार है। इसे हर हाल में महफूज रखना हमारे लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए अनिवार्य है।
श्रीश पांडेय