Sunday 27 January 2013

आस्था के मौन स्नान


कुंभ नहान की परिपाटी कब से शुरू हुई इसका कोई एक निश्चित उत्तर नहीं है। बस जो भी ज्ञात है, सो वह मान्यता और पौराणिक कथाओं के मुताबिक। इसी लीक को पीटते हुए लोगों का हुजूम रातोदिन प्रयाग में पुण्य पाने की गफलत में डूब-उतरा रहा है। लेकिन अब तक पुण्य लेने या पाने की गणितीय गणना की पद्धति नहीं खोजी जा सकी है। न ही इसका कोई उपलब्ध विज्ञान है। इसकी दलील यह है कि आध्यात्मिक लाभ नियम से नहीं संयोग से मिलते हैं, भले सारी सृष्टि निश्चित नियमों से गतिमान हो। अलबत्ता यहां (प्रयाग)आकर आपका सारा ज्ञान व तर्क बिलबिला सा जाता है, यदि आप तर्क का सहारा लेकर मेला को देखेंगे, सुनेंगे, समझेंगे तो ठीक वरना यह तय है कि शीघ्र ही आपके ही तर्क, आपको चिढ़ाते नजर आयेंगे। क्योंकि भीड़! कैसी भी हो, बड़ी से बड़ी तार्किक मान्यताओं को ध्वस्त करके अपने बेढ़ंगेपन को स्थापित व प्रमाणित कर देती है। इसके लिए कुंभ से बड़ी नजीर और क्या हो सकता है।
कुंभ यानी मटका या घड़ा जिसका मुंह तो खुला होता पर अन्य रास्तों से किंचित हवा भी प्रवेश नहीं कर सकती। सो यहां आने और जाने का एक ही रास्ता है, जैसे घड़े में पानी डालने और निकालने का एक ही मुख होता है। वैसे ही यहां इसी मुंह से प्रवेश करिए और उसी से प्रस्थान। यानी यहां भ्रमण की पहली और अनिवार्य शर्त है ‘श्रृद्धायुक्त भ्रमण’। विवेक का इस्तेमाल अपने घर द्वार में जाकर करना। क्योंकि यहां अच्छे-अच्छों का विवेक काम नहीं करता। इसलिए इस कुंभ(घड़े) के भीतर यदि कोई नाटकीय ढ़ंग से, कोई अजूबा कर रहा हो अथवा अचम्भित करने वाले कर्त्तव्य दिखा रहा हो तो, उसी रंग-ढंग में रंगिए, मजा लीजिए और आगे बढ़ते जाइए पर श्रृद्धा और (अंध)विश्वास का साथ घड़े के मुख से बाहर निकलने तक कतई न छोड़िए। मुनासिब यही है कि मेला क्षेत्र में कबीर की तरह तार्किक होने की बजाए मीरा की तरह भक्तिवान बने रहिए। क्योंकि कबीर तर्क देते हैं- ‘पाथर पूजे हरि मिलें तो मैं पूजूं पहार। या से तो चक्की भली पीस खाए संसार।।’  पत्थर में चक्की और ईश्वर के भिन्न रूप की कल्पना करिए। पत्थर जो चक्की में जुता है वह कदापि ईश्वर नहीं हो सकता, पर मंदिर में है तो समूची आस्था का केंद्र बन जाता है। कबीर जीवन भर एकतारे पर गाते रहे कि हर कार्य की सिद्धता इस संसार में मेहनत और श्रम पर आधारित है। वासुदेव कृष्ण ने भी कर्म करने की सीख आजीवन दी और यही गीता में लिपिबद्ध करा गए। लेकिन कुंभ के बरक्स समाजशास्त्री कहते हैं कि ‘भीड़ के न आंखें होती हैं न कान’ और दोनों के आभाव में ‘तर्क या बुद्धि’ स्वमेव विलोपित हो जाती है। ऐसे में चेतन मस्तिष्क में एक सवाल खलबली मचाता है कि कुंभ में एक डुबकी लगा लेने मात्र से कितने लोगों का जीवन, पुण्य और सुख से लबरेज हो गया होगा?
 यदि हम बारीकी से दुनिया की गति और दिशा धारा को देखें तो यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि यह आयोजन वर्तमान आवश्यकताओं के प्रतिकूल यह मेला कई हजार करोड़ रुपए की आहूति व्यवस्था के नाम पर ले लेता है। जैसे इस बार केवल व्यवस्था के नाम पर बारह हजार करोड़ रुपए खर्च किए गये हैं। लोग यहां आने-जाने में जो खर्च करेंगे उसका अनुमान लगा लें तो  यह बजट पच्चीस हजार करोड़ के करीब बैठता है। जिसका ध्येय मात्र लोगों को पुण्य का प्रसाद दिलाना है। गम्भीरता से विचार करें कि यदि यही रुपया जो हर चार वर्ष में क्रमश: चार महाकुंभों - प्रयाग, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन में स्वाहा हो जाता है, गर उसका इस्तेमाल अत्यंत कमजोर तबकों पर श्रृद्धा और सच्चे भाव से किया जाए तो.. भले ज्ञात न हो, पर दिल-आत्मा गवाही देती है कि कुंभ का असल पुण्य जरूर सहयोगियों को मिल सकता है। मगर अज्ञात कल्पनीय अभौतिक लाभ के लिए , इस वैज्ञानिक युग में श्रृद्धा के नाम पर आंखों में पट्टी बांधे रहना दर्शाता है कि देश की जनता जर्नादन दो और दो चार की गणित जानने के बाद भी, दो और दो पांच होने मुगालते में जीना ज्यादा सुखद मानती है। इसी फेर में ऐसे आभाषी सुखों और पुण्यों के न जाने कितने कल्पना लोक हमने आदि समय से आज तक गढ़ और सहेज रखें हैं।
इसका चिंतन ‘प्रयाग कुंभ’ यानी मटके से बाहर निकलने के बाद जरूर किया जाना चाहिए। हमारे घरों में कथा, पूजन, हवन भी प्राय: होते रहते हैं, जिसमें एक कलश में जल रखकर, मंत्राहुति के जरिए उसमें विद्यमान जल को अमृततुल्य मानकर उसके  छिड़काव में भी पुण्य लाभ जैसी धारणा है। एक कुंभ हम सबके भीतर है। वह है विवेक का कुंभ, जागृति का, चेतना का,नैतिक आचरणों का... जिसमें हम चाहें तो सतत डुबकी लगा सकते हैं। पर अब उत्सव अंदर नहीं बाहर है, अपने लिए नहीं दूसरों के लिए है। शायद यही वजह है कि भेड़ की तरह गंगा में डुबकी को कुंभ का असल पुण्य मानते चले आ रहे हैं।
एक और सवाल सभी को कुरेदता होगा कि जब बाबा बैरागियों ने संन्यास ले लिया है और वे संसार के राग-विराग से विरक्त हो चुके हैं तो, फिर उनमें यह अखाड़ों का अहम कहां से आयात होता है अथवा क्या वैराग्य का वीरानापन ही उन्हें संसार की ओर पुन: धकेलता है? और क्या कुंभ इसके प्रर्दशन का एक बड़ा मौका है?
तो जाइए,नहाईए कुंभ में मगर अपने-अपने विवेक के साथ कि   कितना जीवन अमृत ‘संगम’ से ले के आये और कितना विष दे केआये। बौद्धिक मनीषियों को चाहे वे धार्मिक प्रवचन की दुकानों से जुड़े हों अथवा सामाजिक रूप से, सभी को यह भी बताना होगा कि क्या आज भी ऐसे आयोजन का औचित्य, वैसा ही जैसा कभी हुआ करता था,जब नगरीय सभ्यता नहीं थी, आवागमन के साधन सीमित थे। या वे भी इस अस्था की भीड़ का रस लेने में ही अपनी बौद्धिकता की सफलता देखते हैं।                                                      

         श्रीश पांडेय

Tuesday 22 January 2013

वो बेदर्दी से सर काटे हैं और हम.


कल के अखबारों में गृहमंत्री शिंदे और दिग्विजय सिंह के छपे कथित बयानों के बरक्स 'अमीर मिनाई' की गजल, जिसे जगजीत सिंह ने सुर दिया था; शहीदों के लिए रोशन हो आई कि "वो बेदर्दी से सर काटे हैं अमीर और हम कहे हैं कि हुजूर आहिस्ता- आहिस्ता, जनाब आहिस्ता-आहिस्ता"। सैनिकों का सर कलम होने के बाद भी सरकार, पाकिस्तान से शांति-अमन के जाप की शास्त्रीय शैली में पहले "जनाब" की धमकी, फिर "हुजूर" की मुद्रा अख्तियार किए हैं। आईएसआई द्वारा सी€धे तौर पर चलाए गए खूनी आतंकवादी हमलेआज भी जारी हैं। हमने तो संसद पर हमले और मुम्बई पर 26/11 के हमले के बावजूद न तो पाकिस्तान से राजनयिक संबंध न छोड़े और न ही उसको सबक सिखाने की भाषा बोली। शांति के पाखंड में हमारी सत्ता इतनी गिरी कि संसद पर हुए हमले के शहीदों के परिवारजनों ने गुस्से में वीरता के अलंकरण लौटा दिए तो भी हम चुप रहे और हमने अमन की राह पर चलने के लिए संसद पर हमले के गुनाहगार देश द्रोहियों को छुड़ाने की मुहिम चलाई और जिसे उच्चतम न्यायालय ने फांसी की सजा दी, उसे भी बचाने का बंदोबस्त करने लगे। इस दौरान कारगिल भी हुआ, बस लेकर हम लाहौर भी गये और कारगिल के कसाई को लाल कालीन बिछाकर आगरा में न्यौता भी। इन सबका नतीजा यह मिला है कि पाकिस्तान हमारे फौजियों के सर काट ले जा रहा है।
ऐसे संवेदनशील हालातों के बावजूद दुनिया में आतंक का खौफ फैलाने वाले ओसामा को "ओसामा जी" और अब देश के सैनिकों के सर काटने की साजिश में शामिल हाफिज सईद को "साहब" का सम्मानीय सम्बोधन, न केवल उन सभी शहीदों का अपमान है, जो राष्ट्र सुरक्षा के लिए प्राणाहुति देते आ रहे हैं, बल्कि हर सच्चे भारतीय के लिए शर्मिदगी की बात है कि कैसे हैं, उनके लोकतंत्र के रहनुमा।
यह भी लज्जा की बात है कि देश के गृहमंत्री ने स्वीकारा है कि "लाइन ऑफ कंट्रोल" पर हाफिज सईद जैसे आंतकी के आने और उकसाने के बाद दो भारतीय सैनिकों की बर्बर हत्या हुई है। लेकिन मंत्री जी को सीमा पार के नहीं, उल्टे देश के किसी दल या संगठन में ही आतंकियों की संभावनाएं दिख रही हैं।
सम्भवत: देश के इतिहास में यह पहला मौका होगा जबकि किसी आतंकी ने देश के गृहमंत्री के सुर में सुर मिलाया हो और हिमाकत की हो कि भारत को आतंकी राष्ट्र घोषित किया जाए। कम से कम राष्ट्रीय मुद्दे पर तो राजनीतिक एकता दिखनी चाहिए थी। पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है। दरअसल, ध्यान भटकाने वाले कथित बयान एक सोची समङी सियासत का हिस्सा है। मिशन लोकसभा 2014 के आम चुनाव के निमित्त जयपुर की चिंतन बैठक में क्या-क्या चिंतन हुए इसका खुलासा एक-एक करके सामने आने लगा है। चिंतन का समापन पहले से तय मानी जा रही राहुल की ताजपोशी के साथ हुआ। उनकी टीम के स्तंभकारों को जिन दायित्वों को सौंपा गया है उसका आगाज ताबड़तोड़ पहले गृहमंत्री शिंदे ने और फिर आंतकियों को सम्मान से देखने वाले दिग्विजय सिंह ने कर दिया है। सोनिया गांधी ने राहुल से रोते हुआ कहा था कि सियासत जहर के समान है। मगर अब जान पड़ता है कि यही जहर वह अपने सिपहसालारों से उगलवाने जा रही हैं।
दरअसल, राजनीति का चाल, चरित्र व चेहरा कितना विकृत और विचित्र हो चुका है इसका अनुभव उन्हें जरूर होगा, जिन्होंने कांग्रेस पार्टी को सर्वहारावर्ग की राजनीति करते देखा सुना था। मगर मात्र दो दशकों में यह नौबत क्यों आ गई, इस पर चिंतन के बजाय वह सत्ता पर लगाम रखने के कठोर व निरंकुश उपायों के अमल पर उतारू है। हो न हो, इसी चलते उसकी यह दशा हुई है कि वह अपने ही घर माने जाने वाले उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे दो बड़े राज्यों से बेदखल हो चुकी है। जयपुर चिंतन के बाद यह बात सुनिश्चित जान पड़ती है कि कांग्रेस वोट कबाड़ने की कवायद में किसी हद तक जाने को तैयार है। मुसलमान वोटों पर काला जादू चलाने जिम्मा निश्चित तौर पर दिग्गी को सौंपा गया है। दिग्विजय उप्र के प्रभारी रहे हैं और उन्हें पता है कि वहां 4 करोड़ से अधिक निर्णायक मुसलिम मतदाता हैं, जिन पर मुलायम का कब्जा है। सामान्य पूर्वाग्रह है कि मुसलमान भाजपा को वोट नहीं करते, जिसको पुख्ता करने के लिए दिग्विजय और गृहमंत्री के बयान पर्याप्त हैं। दरअसल कांग्रेस, सपा के वोट में सेंध लगाने के लिए शुरू से मुसलिम आरक्षण जैसे कथित मुद्दों पर जोरआजमाईश करती रही है। और अब वह हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा छोड़कर, एक तीर से महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे कई निशाने साधने जा रही है। क्योंकि उनके मंत्री बेनीप्रसाद पहले ही कह चुके हैं कि जनता पिछली खामियों को भूल जाती है और यही बात चिंतन बैठक में कही गई कि जो हुआ सो हुआ अब हमें आगे की ओर देखना है।

Thursday 17 January 2013

फिर चेतावनी है तुम्हें प्रिय पाकिस्तान


एक बार फिर देर सबेर देश के कथित नेताओं व सजग सेना के मुखियाओं ने मूंछे ऐंठी, ताल ठोंकी और खांस- खखार कर गुर्रराये हैं या मान लो ऐसा कहलवाया गया कि 'चेतावनी! चेतावनी!
और चेतावनी..है! तुम्हें प्रिय पाकिस्तान, वरना तीस मिनिट में तुम्हें कर देंगे मैदान!' प्रिय इसलिए कि वह हमारी ही संतान है, हमारे रक्त से जुड़ा है, हमारा ही भाग रहा है, उसके कुछ बीज यहां भी हैं। रक्त, रक्त को खींचता है। इसीलिए दोनों एक दूसरे के रक्त के प्यासे हैं। बड्डे बोले- बड़े भाई ये सिलसिला कब थमेगा, हमने कहा कभी नहीं.!
बड्डे बोले क्यों? हमने कहा- न तो दूसरी दुर्गा (इंदिरा)पैदा होनी है और न ही देश की सत्ता के रक्त में उबाल आना है। बड्डे बोले- पहले भी तो हमने निपटाया है पाकिस्तान को। ओह!! बड्डे भूल जाओ 1965, 1971 का युद्ध, क्योंकि तब तो हम भूख, अकाल और गरीबी से ग्रस्त थे, पस्त थे। हम नंगे थे।
सो नंगा नहाए क्या, निचोड़े क्या? इसलिए युद्ध तब जायज था। भूख से मरने से बेहतर था कि युद्ध में मर कर शहीद होने का तमगा मिल जाए। उधर देश का बोझ कम होगा और इधर सरकार का काम भी कुछ हल्का होता। लेकिन तब की बात और थी, आज की और है। बड्डे बोले कैसे? अरे तुम ठहरे पूरे बोका के बोका, तभी देश में ऐसे नेताओं की चांदी कट रही है।
'यू नो ऑल लीडर्स एण्ड ऑफीसर्स आर टू रिच', इसलिए युद्ध होने से उन्हें जान और माल दोनों की चिंता है। माल भले स्विस बैंकों में 'सेफ' है, पर धन तभी 'मीनिंगफुल' है जब तक इनके अनाम, बेनाम खातेदार जिंदा हैं।
लूट की कमाई, पीढ़ियों के लिए संचित विरासत है। इसका भोग कौन करेगा? इसकी टेंशन ऐसों ज्यादा है। आम जनता का क्या वह तो वैसे भी महंगाई की मार से मरने की कगार पर है।
इसीलिए युद्ध-युद्ध का राष्ट्रगान गा रही है। अब देश की आजादी के संघर्ष को ही ले लो, जो जोश में, देश के सम्मान में मात्र इसलिए मर मिटे कि वतन महफूज रहे, सम्मान बना रहे। जिन्होंने देश भक्ति के गीतों को लपेटा, ओढ़ा, बिछाया और शहादत दी, लेकिन उनकी शहादत और सुरक्षा का एंज्वाय कौन कर रहा है? शहीदों की 'फैमिली' तो भूखे रहकर बेहाल है कि सरकार के नुमाईंदें उनकी सुने। लेकिन ऐसी विचारधारा मानती है कि सेना होती ही मरने कटने के लिए। बड्डे गुस्से में बोले- बंधु यह सैनिक का नहीं, देश का सिर कटा है। सुषमा ने गरम लोहे पर हथौड़ा मारा कि एक बदले दस सिर लाओ। देश का भौगोलिक सिर पहले ही कलम हो चुका है, जिसे हम पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं। चीन ने हमारी उत्तर-पूर्व की बांह काट ली है और हम अहिंसा का जाप कर रहे हैं, क्योंकि हम 'नेचुरल कूल' हैं। सो 'मैटर' सर कटने का नहीं, उसे वापस लाने का है, सम्मान का है और समझने का भी है कि अब और नहीं..चेतो प्रिय पाकिस्तान, बात समझो क्योंकि हम युद्ध नहीं चाहते।

Saturday 5 January 2013

बड़े नहीं, बड़े वाले लोकतंत्र हैं हम



बड्डे ने कड़कती सर्दी में करारा सवाल दागा कि हम सबसे बड़े लोकतंत्र हैं या बड़े वाले लोकतंत्र? हमने कहा दोनों हैं। वे बोले कैसे? बड़े तो वोटरों की संख्या से है और बड़े वाले अपने लिबरल होने के तरीके से। वो भी इस कदर हैं कि इस मुद्दे पर रामायण और महाभारत से भी बड़े ग्रन्थ लिखे जा सकें, फिर भी हमारी लिबर्टी की गाथाएं कलमबद्ध होना सम्भव नहीं। अपने देश की डेमोक्रेसी ही ऐसी है कि चाहे जो- कानून, नेता या जनता की ऐसी-तैसी करता रहे, पर हम शांति और सहनशीलता की दुहाई में सीना फुलाए नहीं अघाते। कुछ रोज पहले कसाब को बड़ी मश्क्कत व जिल्लत ङोलने और करोड़ों की कबाब, बिरयानी की जिबाने के बाद उसे लटका पाए, वो भी चोरी छिपे। 'क्लियर कट' देश के दुश्मन को टांगने में इतनी लिबरर्टी इंडिया में ही सम्भव है।
इसीलिए अफजल अभी तक एक दशक से 'लिबर्टी' को 'इंज्वाय' रहा है। वो तो देश की नासपिटी जनता है जो बीच-बीच में आवाज उठा देती है कि, टांगों इन कमबख्तों को, वरना अब तक वह आरोपों से भी रिहा हो गया होता। आखिर दुनिया के सबसे हम बड़े वाले लिबरल लोकतंत्र जो हैं।
आतंकवाद का लोकतांत्रिक चेहरा है 'अलगाववाद' और उसके नेता गिलानी देश के दिल, दिल्ली में आकर, अलग राष्ट्र, अलग करेंसी की डिमांड करके व चैलेंज देकर चला जाता है। सरकार, लोकतंत्र (वोटतंत्र) के नाम पर सब सुन लेती है। सहनशीलता और आजादी की बेमिशाल नजीर है यह देश। और अब तो हिट हो गई बड्डे क्योंकि,आंध्र के एक विधायक अकबरुद्दीन ओबैसी जिसने खुल्लम खुल्ला ताल ठोंकी है कि भारत सरकार में दम है तो पंद्रह मिनट के लिए पुलिस हटा ले तो हम 25 करोड़, 100 करोड़ भारतीयों का क्या हाल करते हैं। ऐसे कथित एमएलए हमारी व्यवस्थापिका के अंग हैं जो कालिदास के आचरण की भांति व्यवस्था में बैठे व्यवस्था को चैलेंज कर रहे हैं। इनके लिए हमारी सरकारें लिबर्टी के नाम पर शुतुरमुर्ग टाइप आंखें मूदें खामोश है! आखिर क्यों? दामिनी की चिता तो तुरत-फुरत जला दी, वो भी माता-पिता की मर्जी के खिलाफ, लेकिन इनके गलीज बयानों का भी असर नहीं होता सरकारों पर!
लिबर्टी की हद तो यह है कि भारत में मुम्बई के नाला सोपारा में लक्ष्मीनगर का नाम बदलकर 'छोटा पाकिस्तान' और 'लादेन नगर' जैसी बस्तियां भी अस्तित्व में हैं। हाईट तो यह है कि इन इलाकों के बिजली बिल भी इसी नाम आते हैं। देश व सरकार की नाक खुले आम कट रही और वह बेखबर है, लिबरल है। बड्डे यह सब इसलिए पॉसिबल है कि हम दुनिया के सबसे 'बड़े' नहीं, बल्कि 'बड़े वाले लिबरल लोकतंत्र' है।