Monday 30 December 2013

वक़्त के साथ

  समय का सांकेतिक अर्थ बदलाव भी है। समय एक बार फिर बदला है, क्योंकि आज हमने नए साल में कदम रख दिया है। बीते बरस हमने कम उपलब्धियां हासिल नहीं कीं, लेकिन महंगाई, घोटाले,भ्रष्टाचार, यौनाचार के कलंक के साथ-साथ संसदीय लोकतंत्र के मूल सरोकारों से खिलवाड़ की कालिख ने 2013 की तस्वीर को एक हद तक स्याह कर दिया था। सरकार और समाज दोनों के लिए गया साल कमोवेश ऐसा ही रहा है। जिसकी कुछ तस्वीरों को आप अपने अलबम में महफूज करना चाहेंगे तो, कई बातों को किसी दुस्वप्न की तरह भूलना पसंद करेंगे। इसलिए नव प्रभात के मुहाने पर खड़े होकर बीते वक्त को सोचना और आने वाले वक्त की ओर निहारना, दो ऐसे मिश्रित पल हैं, जो अकुलाहट और प्रसन्नता दोनों देते हैं। बीता वक्त जिसे आप ने जी भरकर जिया है, उस पर चिंतन-मनन के साथ भविष्य पर दृष्टि होना मानवीय स्वभाव है। ऐसे मौके पर गर आंखमूंद कर अंतरमन को टटोलें तो, जो बीता है, रीता है उसकी मीठी-नमकीन यादें, मन मस्तिष्क को उमड़-घुमड़ कर कोहरे की चादर की तरह ढंक लेती है। लेकिन दूसरी ओर दिन भर उत्साह से लबरेज शुभकामना भरे संदेशों की मोबाईल में  बजती ‘बीप-बीप’ की धुन जिन्दगी को आगे और आगे देखने को प्रेरित करती है।
दरअसल एक जनवरी ऐसी मनोवैज्ञानिक तारीख है जो समय के विभाजन को रेखांकित करती है। यह तिथि घरों के कैलेंडर बदल देती है, तो अखबारों की टाईम लाइन में नए वर्ष को दर्ज कर देती है। नए संकल्पों को जन्म देती है, तो बीते वर्ष को इतिहास के पन्नों में अंकित करके, नए इतिहास को गढ़ने के लिए आगे बढ़ जाती है। ‘वक्त’ की विवेचना को करते वक्त दो दशक पहले टेलीवीजन पर प्रसारित महाभारत धारावाहिक के उस घूमते चक्र के नेपथ्य से आती हरीश भिमानी की आवाज बरबस जेहन में रोशन हो उठती है कि- ‘मैं समय हूं..’ समय जो कभी ठहरता नहीं, बस साक्षी बनता है कई पलों का। आगे बढ़ते जाना उसका असल स्वभाव है। बीता वक्त गर अच्छा हो तो इसलिए सुहाना होता है कि उसको हम बार-बार कुरेद सकते हैं उसके बारे में खुद से और अपनों से बात कर सकते हैं। और गर बीता वक्त खराब रहा हो तो,  जो आज अच्छा है वह उसे और बेहतर अनुभूत करने का वह हमें मौका देता है। इसीलिए कहा जाता है कि समय के स्वभाव को जिसने वक्त रहते पहचाना और तालमेल बनाया, वह सफलता की सीढ़ियां चढ़ता गया। सफलता और असफलता  को लेकर ये जुमला भी बात-बात में वक्त के बरक्स बोला-कहा-सुना जाता है कि ‘सब वक्त-वक्त की बात है’। धनुर्धर अर्जुन की विवशता और भीलों द्वारा गोपियां लूटने की दुखांतिका के पीछे वक्त की ही बिसात है।  इस तरह दु:ख और सुख, समय और जीवन एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। सच तो यह है कि हमारे जन्म लेते ही समय, जीवन की आयु कम करने लगता है। यानी सब कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाना ही समय की प्रकृति है। समय निष्ठुर है, निरपेक्ष है, वैज्ञानिक है। इसीलिए उसे घड़ी जैसी मशीन से नापा जाता है। क्योंकि मशीन संवदेना से मुक्त, निश्चित नियमों में कर्मरत होती है। संसार के समस्त नियम कायदे ‘समय’ के आगे बेबस हैं, उसके आधीन है। मानव ने दुनिया में कितनी भी ऊंचाईयां हासिल कर ली हों, लेकिन वह समय पर न तो नियंत्रण पा सका है और न पा सकता है। यह प्रक्रिया इतने आहिस्ते से घटती है कि कब हम बच्चे से बड़े और फिर बूढेÞ हो गए यकबयक महसूस नहीं होता। लेकिन हर दिन बीत रहे जीवन के बीच में ही संसार है। समय हर चीज का पैमाना है। वक्त, व्यक्ति ही नहीं वस्तुओं की आयु भी तय करता है। यानी चाहे निर्जीव हो या सजीव दोनों का सृजन और समापन उसके मातहत है। कहने को वक्त बड़ा निरंकुश है... लेकिन चाहे वह दवाओं की ‘एक्सपायरी’ तारीख को निश्चित करता हो या राजनीतिक सत्ता के निश्चित कार्यकाल को। समय की इस निरपेक्ष गति को देखकर कहना पड़ता है कि-
‘अब यही मुनासिब है आदमी के लिए
  वह वक्त के साथ-साथ  चलता रहे..’ 
बहरहाल नववर्ष हमें अतीत से सबक लेने और आसन्न चुनौतियों से निपटने का अवसर दे रहा है। पहले तो यही उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार और संसद में, संवाद और विश्वास की बाहाली हो। क्योंकि बिना संवाद के न तो हम अपने भविष्य की दिशा तय कर सकते हैं, न ही किसी नीति या निर्णय को तार्किक ठहरा सकते हैं।अलबत्ता यह बात सरकार और विपक्ष दोनों को याद रखनी होगी कि किसी मुद्दे पर एक सहमति का वातावरण विकसित हो। मात्र छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति से बचना होगा, विरोध के लिए विरोध जैसी मानसिकता से बाहर निकलने का समय है। दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां रोशन हो आती है कि-
‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है’ 
नए साल का सूरज यदि इस उम्मीद से चमके कि शब्दों का संसार शालीन और मर्यादित बना रहेगा तो, यह एक सूकूनदेह अहसास होगा। वर्ष 2013 में वैश्विक मंदी के दबाव में अर्थव्यवस्था की जो चाल सुस्त पड़ गई थी, वह 2014 में फिर मजबूत होगी। नया वर्ष इस लिहाज से ऐतिहासिक हो सकता है कि हम प्रकृति और पर्यावरण के साथ दोस्ताना रिश्ते की अनिवार्य जरूरत को न सिर्फ समझें बल्कि इस बाबत सक्रिय बने। क्योंकि गर हम अब भी नहीं चेते तो सचमुच देर हो जाएगी। सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हांकिन्स की कुछ   वर्षों पहले की गई टिप्पणी क्या काफी नहीं कि- ‘मानवजाति ने धरा के संसाधनों का पिछले 1000 वर्षों का दोहन, महज100 वर्षों में कर डाला है, अब दोहन की यही गति प्रति 10 वर्ष हो गई है और यह हाल रहा तो यह 1000 वर्षों का दोहन प्रति 1 वर्ष होने के करीब है। इस लिहाज से यदि मानव का अस्तित्व बरकरार रखना है तो आने वाले 200 वर्षों के बाद कोई दूसरा ग्रह रहने के लिए तलाश करना ही होगा।’
तो आज पूरी दुनिया में उत्सव का स्वरूप ले चुकी अंग्रेजी कलेंडर की तारीख ‘एक जनवरी’ दुनिया के सभी मुल्कों में तो नहीं पर कई देशों में नए वर्ष की तिथि घोषित है। कई सवाल भी खड़े किए जाते हैं कि इस मनोवैज्ञनिक तिथि से लोगों के दैनिक जीवन के रसायन में, उसके कार्यकलाप में क्या फर्क आता है। वही चंदा, वही सूरज, वही तारे और वही नजारे। फिर भी यह समय का मनोविज्ञान ही तो है जो जीवन प्रवाह में एक नया अध्याय जोड़ता चलता है। बहरहाल, शुभकामना की भारतीय परम्परा ‘स्व’ के बजाय ‘सर्व’ कल्याण की कामना करती है। लिहाजा हम उम्मीद करते हैं कि न सिर्फ व्यक्ति, परिवार, मित्र-यार, देश-प्रदेश बल्कि समस्त संसार की सम्पूर्ण मानवजाति के लिए वर्ष 2014 सुखद, शांतिमय और उन्नतिदायी-फलदायी हो। 

Sunday 1 December 2013

साख का संकट

  इनदिनों टीवी में एक विज्ञापन प्रसारित हो रहा है कि ‘इज्जत (साख)बड़ी मेहनत और मुश्किल से आती है और एक बार चली गई तो फिर लौट के नहीं आती। यानी साख को बनाना जितना कठिन है उससे मुश्किल है उसको बरकरार रखना। अत: इनदिनों देश-दुनिया में महंगाई, असुरक्षा के साथ जो सबसे बड़ा संकट है वह है किसी व्यक्ति या संस्था की साख का संकट, जो चतुर्दिक दिखाई देता है। क्रेडिबिलटी यानी साख किसी के बारे में वह अवधारणा है जो उसके भरोसे को कायम रखता है। बाजार में व्यक्ति की साख अच्छी हो तो उसे धन लेने और देने में कोई महाजन/व्यापारी संकोच या डर का अनुभव नहीं करता। यह साख कई तरह की हो सकती है। जैसे बैंकों की साख, हुंडी की साख, मीडिया की साख, व्यक्ति स्तर पर समाज सेवियों, नेताओं और धर्म गुरुओं की साख आदि।
सभी स्तर पर साख का बना रहना हर लिहाज से व्यक्ति, किसी संस्था, देश-दुनिया के लिए बेहतर अवस्था है। लेकिन दुर्भाग्यवश सबसे अधिक क्षरण इसी प्रवृत्ति में देखने में आया है। इसका सबसे बड़ा नुक्सान जो उठाना पड़ रहा है वह यह कि सोसायटी में मानवीय स्वभाव के प्रतिकूल बेहद अविश्वास और निराशा का वातावरण निर्मित होने लगा है। यदि कहें दे कि ऐसा हो चुका है तो कदाचित किसी को कोईआपत्ति न हो। जो कि हमारे विकास का लक्ष्य कतई नहीं है। लेकिन विकास की इस यात्रा में जिस बात की सर्वाधिक बलि दी गई है वह मात्र ‘साख’ यानी विश्वास की है।
अभी बहुत दिन नहीं हुए जब माने-जाने बुजुर्ग संत आसाराम को छल से धर्म की आड़ में यौन शोषण और विश्वासघात करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। वर्षों की कमाई इज्जत और धर्म गुरू की उनकी साख को एक छुद्र हरकत ने उन्हें सलाखों के पीछे न सिर्फ ढकेल दिया बल्कि इतने सालों में जो नाम, इज्जत, शोहरत बटोरी थी, वह पल झपकते ही बर्बाद हो गई। अपनी यादाश्त को थोड़ा फ्लैश बैक करें तो नब्बे के दशक में उत्तरप्रदेश के एक मंत्री अमरमणि ने कवियत्री मधुमिता शुक्ल के मोह में सब गवां दिया था। हरियाणा के बहुचर्चित मंत्री कांडा जो जूता बेचने के व्यापार से लेकर सरकार के कारोबार में शामिल हो, समाज में एक बड़ा मुकाम हासिल किया था। वे एयर होस्टेज गीतिका के फेर में ऐसे उलझे कि सब कुछ मुट्ठी में बंधी रेत की तरह फिसल गया। एनडी तिवारी का डीएनए टेस्ट और उससे हुई बदनामी ने उनसे क्या कुछ नहीं छीन लिया है। इतना ही नहीं ऐसी घटनाओं को मसाला की तरह परोसने वाला जनप्रिय मीडिया हाऊस ‘तहलका’ के एक चर्चित स्तंभ तरुण तेजपाल अपने ही एक कमसिन मुलाजिम के जाल में ऐसे उलझे कि उनके प्रोडक्शन हाऊस ‘तहलका’ में वाकई तहलका मच गया। आपको याद होगा कि नब्बे के दशक में तरुण तेजपाल ने ‘तहलका’ के जरिए देश भर में जिस धमक के साथ अपनी धाक बनाई थी, उनकी साख भी यौन शोषण के एक प्रकरण के कारण तार-तार हो गई।
ये सही है कि स्त्री शोषण की प्रवृत्ति सदा से समाज में विद्यमान रही है और इतिहास देखकर यह लगने लगता है कि अनेक कानूनी उपायों के बावजूद यह कम ज्यादा तौर पर बनी रहेगी। दरअसल, इसे कानून और बंधन के बाहरी दबाबों से निषिद्ध नहीं किया जा सकता। यह सारा मसला नैतिकता का है जो स्वनियंत्रण के जरिए ही नियंत्रित हो सकता है। क्योंकि गर कानून से इसे रोका जा सकता होता तो ईरान जैसे देशों में जहां इस अपराध की बेहद कठोर और अमानवीय सजाएं मुकर्रर हैं वहां ऐसे क्राईम कदापि न होते पर ऐसा नहीं है। बावजूद  इस बहाने से कानून को लचर नहीं छोड़ा जा सकता। नि:संदेह कठोर कानून भय का वातावरण बनाता है, जिससे अपराधियों में डर और अपराधों में अपेक्षाकृत कमी देखने में आती है। एक अहम सवाल इन घटनाओं के नेपथ्य में है, जो अक्सर या तो उठाया नहीं जाता अथवा जब उठाया जाता है तो उसे स्त्री स्वंतत्रता के पर कतरने की नकारात्मक पोंगापंथी विचारधारा के तौर पर देखा जाता है। हमारा मानना है कि कई मामलों में गर स्त्री तय कर ले कि उसे ऐसे बहकावों में आना ही नहीं है, जो उसके शोषण का कारण बन सकते हैं, तो यकीन मानिये की समस्या का अस्सी फीसदी हल तो इसी संकल्प से निकल सकता है। लेकिन समस्या के मूल में निहारने की बजाए उसकी शाखाओं में लग रहे रोगों पर कानून और पहरों की तलवार चलाई जाती है। लेकिन इस छंटाई के बाद हर बार उस ग्रंथि का प्रस्फुटन हो आता है।
स्त्री-पुरुष संबंधों में आज जो अविश्वास यानी साख का संकट है वह कोई नवीन परिघटना नहीं है। हां अब इनके तरीकों में विश्वासघात और निरंकुशता का पुट अधिक दिखता है। स्वभाव या वृत्ति ऐसी अवस्था है जो सहज नहीं बदल सकती। और फिर अब न तो गरिमामय, नैतिकता पूर्ण नेतृत्व है, न ही ऐसा  न ही ऐसा समाज।