Saturday 12 September 2015

हिंदी की दशा, दुर्दशा और व्यथा


भाषा कोई भी हो, वह उसे जानने वालों के मध्य संचार का अचूक माध्यम होने के साथ ही वह सभ्यता व संस्कृति के विकास का वाहक भी होती है। इतिहास साक्षी है कि दुनिया के अलग-अलग भू-भागों में अनेक भाषाओं और बोलियों ने मानव की नैसर्गिक प्रतिभा को पल्लवति, पोषित किया है। आदि मानव में बर्बरता इसीलिए थी, क्योंकि उसकी कोई बोली या भाषा नहीं थी। बस थी तो- भूख, प्यास, नींद और मौजूद थे कहने, सुनने व समझने के लिए कुछ अस्पष्ट स्वर व संकेत। समय के साथ भाषा का निर्माण बड़े जतन से अक्षरों, शब्दों के गढ़ने के बाद हुआ।
आज भारत में लगभग 1618 भाषा एवं बोलियां है और दुनिया में लगभग 6912 भाषाएं एवं बोलियां हैं। जिनके माध्यम से कई मानवपयोगी अनुसंधान व अविष्कार हुए हैं, लेकिन आज इनमें से अधिकांश लुप्त हो चुकी हैं और न जाने कितनी ही इसके कगार पर हैं। जैसे बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है ठीक वैसे ही बड़ी भाषाएं छोटी भाषा और बोली को लीलती जा रही हैं और भाषा के साथ नष्ट होती है, वहां की मौलिकता, सभ्यता और संस्कृति के साथ एक समूची व्यवस्था, जिसे सदियों से हमारे पूर्वज सहेजते और विकसित करते आ रहे हैं। कैसे एक विदेशी भाषा हमारी मौलिकता को नष्ट करती जा रही है, उसका एक सूक्ष्म एहसास मुझे अपने बेटे मानस श्री को उसके स्कूल में मिले गृहकार्य (होमवर्क) की एक अंग्रेजी कविता पढ़ाते वक्त हुआ। कविता थी 'ओल्ड मेक्डोनॉल्ड हैड अ फॉर्म ईया ईया ओ... विथ सम डॉगस, बाऊ-बाऊ हेयर एण्ड बाऊ- बाऊ देयर’ और इसी प्रकार 'विथ सम कॉऊ,.. मूं-मूं हेयर एण्ड मूं-मूं देयर’ इस कविता में कुत्ते के भौंकने (भों-भों) को बाऊ-बाऊ और गाय के रम्भानें (म्हां-म्हां) को मूं-मूं कहकर बच्चों से रट्टा लगवाया जा रहा है। धर्म क्षेत्र में देखें तो, बच्चे अब देवताओं के नाम गणेश नहीं 'गणेशा’, राम-कृष्ण नहीं 'रामा-कृष्णा’ जैसे सम्बोधन के आदी होते जा रहे हैं। कैसे बचपन से ही मूल स्वरों व आवाजों से इनकी महक छिनती जा रही है। इन्हीं एक-एक शब्दों के जरिए हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा और संस्कृति से परे होती जा रही है। कार्ययालयों, रोजमर्रा के मेल मुलाकातों के सम्बोधनों गुडमॉîनग, गुडईवðनग, गुडनाईट ने हमारे नमस्कार, प्रणाम, शुभरात्रि जैसे शब्दों को विस्थापित कर दिया है और जो भी बचा है वह बिना प्रभावित हुए नहीं रहने वाला। आचार-विचार और सोच में यह तब्दीली तथाकथित अंग्रेजी दा सोसायटी में तो पूरी तरह उतर ही चुकी है और अब इसका अवतरण कस्बाई इलाकों में हो रहा है। 
सृजन किसी भी तरह का हो वह मौलिक बोली या भाषा में ही उत्कृष्ट और पूर्ण हो सकता है। बात गौर करने लायक है कि मौलिकता ही रचनात्मकता की जनक है और यह अपनी मातृ भाषा में ही सम्भव है। तभी तो टैगोर द्बारा बांग्ला में लिखी 'गीतांजलि’ भारत में एकमात्र नोबल पुरस्कार पाने वाली पुस्तक बन कर रह गई। पर राष्टु भाषा हिन्दी को लेकर जिस तरह से दोयम दर्जे का रुख भारत में अख्तियार किया गया है, वैसा दुनिया के किसी और मुल्क में हरगिज नहीं होगा। 
इतिहास साक्षी है कि दुनिया के अधिकांश अविष्कार मौलिक भाषा में हुए हैं। यथा आज भी चीन में मंदारिन, फ्रांस में फ्रेंच, रुस में रशियन, जापान में जैपनीज भाषा में ही समस्त कार्य जारी हैं। यहां तक कि उनके राजनयिक अपने देश-विदेश की यात्राओं में अपने देश की राष्ट्रभाषा बोलने में नहीं हिचकते। लेकिन भारत में ऐसी स्थितियों में नेता अंग्रेजी के पक्ष में रहते हैं, न कि राष्ट्रभाषा के। भारत में स्थितियां दिनोंदिन विपरीत होती जा रही हैं। 
पर देश में अंग्रेजी को रोजगार से जोड़ देने की साजिश चल पड़ी है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर रहे बच्चों को एक अलग समूह के रूप में देखा जाने लगा है, जैसा पहले कभी ब्रितानी हुकूमत के दौर में था। आज भारत की शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी की अनिवार्यता बना दी गई है। पिछले दो वर्षों में इसे पढ़ाने का एक नया चोर रास्ता गढ़ दिया गया। प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता, पास होने के स्थान पर चयन का कारक बना दी गई है। क्या इसके मायने यह नहीं कि जो बच्चे कस्बाई या ग्रामीण क्षेत्रों में हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में मध्यान भोजन की सुविधा के मध्य अध्ययन कर रहे हैं, वे प्रतियोगी परीक्षा के लिए अयोग्य हैं? उनके नसीब में अभी मुफ्त का मध्यान भोजन है, बाद में मनरेगा की मजदूरी का होगा। सवाल बड़ा है पर उठाया नहीं जाता कि ऐसे स्कूलों से निकले प्रतिभाशाली बच्चों के लिए अंग्रेजी का अतिरिक्त अतिरिक्त बोझ क्यों?
देश में इससे बड़ा भाषाई भ्रष्टाचार और क्या हो सकता है? जो तथाकथित अंग्रेजीदां नीति नियंताओं द्बारा फैलाया गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार से तो मात्र भौतिक स्तर पर देश को नुक्सान पहुंचाता है, जिस पर कठोर कानूनी उपायों और भ्रष्ट व्यक्तियों के सामाजिक तिरिष्कार द्बारा नियंत्रण पाया जा सकता है, लेकिन भाषा को लेकर हो रहा भेदभाव समाज की रचनाशक्ति, उसकी प्रतिभा यहां तक की सभ्यता के लिए धीमा जहर साबित हो रही है। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया है कि आज-कल बड़े हिन्दी दैनिकों में छपने वाले आलेख कई बार अंग्रेजी भाषा के लेखकों के होते हैं, जिनके निमित्त दफ्तरों में बाकायदा हिन्दी अनुवादकों को रखा जाता है। मित्र यह कहने से नहीं चूके कि यदि हिन्दी अखबार में बने रहना (सरवाइव करना) है, सो अंग्रेजी में पढ़ना-लिखना सीखिए वरना...! उनकी यह चेतावनी हिन्दी भाषा से विरक्ति को लेकर नहीं थी, बल्कि रोजगार को बरकरार रखने को लेकर थी। मेरे रिश्ते में पितृवत भाई स्वर्गीय डा. रामजी पांडेय जो आजीवन इलाहाबाद में महादेवी वर्मा के साथ पुत्रवत स्नेह पाते रहे, उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी लेखन जगत में अंग्रेजी की अनिवार्यता का जिक्र मुझसे नहीं किया था। पर आज जो वातावरण देश के भाषायी पर्यावरण में फैलता जा रहा है, उससे यह आशंका जरूर पैदा होती है कि यही हाल रहा तो आने वाले 2०-25 सालों में राष्ट्रभाषा हिन्दी जरूर हाशिए पर होगी। 
जनवरी 2०12 के पहले सप्ताह में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिल्ली में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में संस्कृत भाषा के धार्मिक कार्यों तक सीमित हो जाने पर क्षोभ प्रकट किया था। हो सकता है कि भविष्य में कोई दूसरा प्रधानमंत्री यही क्षोभ हिन्दी भाषा को लेकर भी प्रकट करे। जैसे कभी 'कुपोषण’ के काले सच को राष्ट्रीय शर्म बताया गया, उसी तरह 'राष्ट्रभाषा हिन्दी’ की उपेक्षा भी राष्ट्रीय नहीं शर्म होनी चाहिए।
हाल में दसवां विश्व हिदी सम्मलेन भोपाल में संपन्न हुआ। जितने लोग उतनी बातें, इस सम्मलेन के बरक्स, जमकर कानी फूसी हुईं। यही इस सम्मलेन के अंदर का असल सम्मलेन था। मोदी आये, शिवराज ने भी आसन लिए। पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि कह देते कि प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की जाती है। भले ये दोनों आजाद भारत में जन्मे पर संस्कार तो बोल गए, हिम्मत डोल गयी। एक-एक सरकारी स्कूल हिदी माध्यम का है, पर एक भी नौकरी बिना अंग्रेजी में दक्षता लिए नही है। जब ऐसा पाखंड, देश का पीएम और प्रदेश का सीएम पाले हों तो फिर किससे आस लगाई जा सकती है।
 पर अब तो बस एक तिथि है 14 सितम्बर यानी 'हिन्दी दिवस’ जिसकी रस्म मना कर राष्ट्र भाषा को श्रद्धांजलिनुमा याद कर लिया जाता। शायद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की दी गई सीख हमने विस्मृत कर दी है कि -
 निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।। 

Thursday 3 September 2015

"बदल गए शिक्षा के मूल्य"


 समूची कायनात में मनुष्य का जीवन ही ऐसा है जिसे जन्म से लेकर उठने , बैठने, चलने, बोलने, पढ़ने, लिखने की समस्त गतिविधियों में विभिन्न तरह के सहयोग की आवश्कता होती है। इस लिहाज से जन्म के चार पांच वर्षों तक अभिभावक समेत घर के वातावरण में मौजूद सभी वरिष्ठों से वह अबोध नित नयी गतिविधियां सीखता है। उम्र के विभिन्न पड़ावों पर समयानुरूप जो भी व्यक्ति उसको सीखने समझने जैसी गतिविधियों में सहयोग करता है वही उसका तात्कालिक आचार्य या शिक्षक होता है। लेकिन अपनी विधिवत शिक्षा को विद्यालय से महाविद्यालय तक हासिल करने के सफर में हर शख्स को शिक्षकों की आवश्यकता होती है। अलबत्ता हमारी यह सामान्य धारणा बन चुकी है कि जो हमें निर्धारित पाठ््यक्रम पढ़ाये वही क्रमिक रूप से हमारा शिक्षक होता है। किन्तु सत्य इसके परे है। शिक्षा के समानांतर अनुशासन की सीख, चरित्र, नैतिकता जैसे मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा कर एक अनुशासित नागरिक का निर्माण भी शैक्षणिक दायित्वों में शुमार होता है। इसीलिए कहा जाता है कि यदि शिक्षक राष्ट्र निर्माण का कारीगर है, तो हम विद्यार्थी उसकी सामग्री। इतिहास साक्षी है कि जिस राज्य के गुरुकुल श्रेष्ठ शिक्षकों से सुसज्जित रहे उनकी यश-कीर्ति आज भी गाई जाती है। बात बड़ी साफ है कि शिक्षक भूमिका कितनी अहम थी, है और रहेगी। यह श्रेष्ठ सभ्यताओं से समझा जा सकता है। अत: आज भी शिक्षकों का व्यक्तित्व इतना आकर्षक और मुखरित होना चाहिए कि उसे सम्पूर्ण समाज पहचाने। एक शिक्षक अपनी विद्बता से समाज में पहचान बनाता है।
लेकिन इतने व्यापक महत्व के विषय पर जहां दुर्भाग्यवश सरकारों के रवैये और नित हो रही उपेक्षा से शिक्षकों, अध्यापन व्यवस्था और उनकी कार्यदशाओं में बेहद गिरावट आई है। वहीं अध्यापक भी शिक्षा दान के दायित्व न तो समझ रहे हैं, न ही अनुभव कर पा रहे हैं। उनकी दृष्टि में अध्यापक का वैसा ही कार्य है जैसा कि किसी क्लर्क या ऑफिस में कर्मचारी काम है। स्कूलों में घंटों में अपनी ड्यूटी पूरी कर देने, पुस्तक पढ़कर सुना देने अथवा उसकी व्याख्या कर देने भर को ही अध्यापक अपना काम समझते हैं। इसलिए अब शिक्षण का कार्य दायित्व न रह कर व्यवसाय बन चुका है और व्यवसाय संवेदना से परे होता है। इसलिए संवेदनहीन हो चुकी शिक्षा व्यवस्था से कैसे आपेक्षा की जा सकती है कि वह राष्ट्र के लिए नैतिक और निष्ठा से लबरेज युवाओं की फौज खड़ी कर सकेंगे। 
शिक्षा की महत्ता और गरिमा, उपयोगिता और आवश्यकता को अनादिकाल से अब तक मनीषियों ने रेखांकित किया है। यही वजह है कि विद्या से अमृत प्राप्त होने जैसे सूत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इसीलिए विद्यादान को किसी भी दान से श्रेष्ठ माना गया और इसको देने वाले शिक्षकों के लिए कहा गया कि 'आचार्य देवो भव:’ अर्थात जो तुम्हारा शिक्षण करता है उसे उसे देवता मानकर सम्मान दो। इसके लिए जरूरी है कि अध्यापक और विद्यार्थी के बीच सौहार्द्र, समीपता की आवश्यकता है। जो आज नहीं दिखती और यही कारण है कि आज का विद्यार्थी डिग्री, डिप्लोमा तो ले लेता है, लेकिन व्यवहारिक जीवन का शिक्षण, चरित्र, ज्ञान व उत्कृष्ट व्यक्तित्व का उसमें आभाव बना रहता है। जिसका असर तब दिखता है जब व्यक्ति सामाजिक जीवन में सहजता से खुद को समायोजित नहीं कर पाता। इसलिए मूल्यों के बगैर शिक्षा न सिर्फ अधूरी है, बल्कि अनुपयोगी भी है। ऐसी शिक्षा जो जीवन को प्रकाशित न करे, उसे समुन्नत न बनाए वह विद्या किस काम की। शिक्षा का दायरा सिर्फ पढ़ाई नहीं बल्कि व्यक्तित्व विकास से भी जुड़ा है। अच्छी शिक्षा और संस्कारों से जीवन में आत्मविश्वास, सफलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का विकास होता है।
आज देश में नीचे से ऊपर तक जिस कदर लूट-खसोट का वातावरण है, चाहे सरकारी मुलाजिम हों या हाकिम अथवा नेता सभी में नैतिकता, आचरण और अनुशासन का लोप साफतौर पर देखा जा सकता है। हम और हमारी व्यवस्था यह भूलती है कि किसी रोग का उपचार तो दवाओं से किसी भी उम्र और दशा में किया जा सकता है। परन्तु चरित्र और नैतिकता का बीजारोपण बचपन और स्कूली अवस्था में ही किया जाता है। कहीं इसमें एक बार चूक हो गई तो इसका खमियाजा समूचे राष्ट्र को लम्बे समय तक भोगना पड़ता है। सवाल बड़ा और बारीक है कि क्या आज शिक्षकों को इस बात का अहसास है कि वे राष्ट्रनिर्माता हैं और क्या इस महकमें को हांकने वाले मंत्रियों का ध्यान इस ओर है कि उनकी योजनाएं कक्षा पास कराने और परिणामों को कागजों की शोभा बढ़ाने अलावा, वे छात्रों की अन्य गतिविधियों को लेकर कितनी व्यवहारिक रूप से चितित और सक्रिय हैं? शायद नहीं!! यह समूची गड़बड़ी प्राथमिक स्तर से शुरू हो जाती है और फिर यही क्रम उच्च कक्षाओं तक बरकरार रहता है।
बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के सरकारी मुलाजिमों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने की हिदायत अगले सत्र से दी है। यह निर्णय भले जिरह का विषय हो पर कम फीस और सस्ती किताबों के बीच सरकारी स्कूली से परहेज बताता है कि यहां शिक्षा की गुणवत्ता का हश्र क्या है। ये वही सरकारी स्कूल हैं जिसने देश को अनेक क्रांतिकारी, जनप्रतिनिधि और अफसर दिए है। लेकिन बीत तीन-चार दशकों में ऐसा क्या हो गया कि महज गरीबों और अक्षम लोंगो के बच्चों का स्कूल बन कर रह गए। शिक्षक, व्यवस्था और विद्यार्थी तीनों स्तर पर जांचने की जरूरत है।
 इसलिए शिक्षक दिवस के दिन दो बातें जरूर स्मरण की जानी चाहिए। एक- शिक्षकों की दयनीय सेवा दशाएं और इस ओर किए जा रहे प्रयास, दूसरा उनको उनके मूल दायित्वों के निर्वहन में आ रही बाधा का विकल्प खड़ा करना। ताकि वे सिर्फ शैक्षणिक कार्यों से सम्बद्ध रहें। साथ ही वे अपने दायित्वबोध को समझें। दूसरी ओर इसमें महत्वपूर्ण जबाबदारी विद्यार्थियों की भी है कि वे अपने शिक्षकों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का भाव रखें। क्योंकि विद्या विनय से आती है और विनय से पात्रता... और फिर पात्र व्यक्ति ही परिवार, समाज और राष्ट्र सेवा में दक्षता से जुट सकता है। आइए अपने वर्तमान और भूतपूर्व शिक्षकों का सम्मान,उनके प्रति अपनी श्रृद्धा, विश्वास और सम्मान को प्रकट करते हुए सभी शिक्षकों को 'शिक्षक दिवस’ पर शत शत नमन करें.... !