Sunday 31 March 2013
Friday 22 March 2013
एंटी या 'एंटीक' रेप बिल
कुछ रोज पहले बड्डे ने 'अर्ली मार्निग' खबर पढ़ी और कहा कि जैसा 'वुमेन सिक्यूरिटी बिल' मनचलों के दिल को तंज करने के लिए पारित किया गया है, उससे दामिनी की दुखद आत्मा को क्या मिला होगा! कहना 'टफ' है मगर इतना तो तय है कि अब मजनुओं, मनचलों, टपोरियों की 'वाट' कभी भी लग सकती है। क्योंकि बड़े भाई- दामिनी के दर्द की एंटीबायटिक दवा के रूप में एंटी रेप बिल देश की सर्वोच्च सभा में 'टशन' के बीच पास हो गया। सो बड्डे 'नाऊ थिंक ट्वाईस विफोर स्पीक, सी ऑर टच टू फीमेल्स।' अब तो स्त्री जाति से कोई भी व्यवहार चाहे वह सामान्य बातचीत का ही क्यों न हो, दो नहीं दस बार सोचकर करना होगा। बड्डे बोले- बड़े भाई यह बड़ा फसउव्वल सा एक्ट है। अब सोचो- समाज है, जीवन है, टीका टिप्पणी भी न चले तो फिर जीवन किसलिए। बड़े भाई इस 'एंटी रेप एक्ट' की टेंशन मर्दो को ही नहीं, स्त्रियों को भी है। साथ ही उनके लिए भी जो तमाम फैशन की वस्तुओं के निर्माता हैं। क्योंकि फैशन, फेशियल से लेकर फेयर करने वाली क्रीम तक का ब्यूटी निखारने का प्रयोग जिन पुरुषों के लिए था, वे अब राजी खुशी नहीं बल्कि मजबूरी में मौनी बाबा बनने जा रहे हैं। तो ऐसे में सारी सजावट, सौन्दर्य 'मीनिंगलेस' हो जाएगी। 'एक्चुअली' ऐसा नहीं है बड्डे। अब स्त्रियों से व्यवहार में शिष्टता, शालीनता के तत्व अनिवार्य होंगे। तो क्या अब पुरुषों को कहां, कब, क्या बोलना है उसके बाकायदे चार्ट चौराहों पर लगेंगे? बड्डे 'रिस्पेक्ट' अंदर का मामला है पर हैरत की बात है कि इसे कानून के जरिए इम्लीमेंट किया जा रहा है। गर ऐसा होता तो अपना देश कानून के ग्रंथों से पटा पड़ा है। पर अपराधों की धार हर कानून को हलाक कर देती है। विडम्बना है कि हमारे नेता- नपाड़ियों ने इस बिल की खिल्ली कुछ यूं उड़ाई कि- लड़की को घूरने और पीछा करने के प्रावधानों पर शरद यादव ने कहा कि अगर लड़के लड़कियों का पीछा नहीं करेंगे, तो प्यार होगा कैसे? लालू यादव ने भी बिल के बिंदुओं पर चुटकी ली कि वह तो अपनी पत्नी को देखने पर भी फंस जाएंगे। मुलायम सिंह यादव ने यह कह कर तो हद ही कर दी कि बिल के कड़े प्रावधानों से तो महिला कर्मचारियों का ट्रांसफर रुकवाने वालों को जेल जाना होगा। दरअसल मुलायम ट्रैफिकिंग को ट्रांसफर समझकर कन्फ्यूज थे। अलबत्ता देश में महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अस्मिता संबंधी अपराधों के बरक्स यह बिल एंटी नहीं 'एंटीक' जान पड़ता है। इतने सख्त पहरे तो इतिहास के उस हिस्से में भी दर्ज नहीं हैं, जब समाज आर्थोडॉक्स था। अब तो विकास, खुलेपन का दौर है ऐसे में महज कानून क्या उखाड़ लेगा। फिर भी बिल के बिन्दु इतने सख्त है कि वे हर लिहाज से एंटीक हैं। |
Saturday 16 March 2013
हार्ट में घबराहट देतीं दो डेटें
चौदह मार्च की शाम अचानक आई आंधी-अंधड़ के बाद बड्डे को डॉक्टर के पास जाते देख हम पूछ बैठे कि क्या कोई चोट-ओट लगी है जो चिकित्सक की शरण में हो। वे बोले-'नहीं बड़े भाई इससे बड़े-भयानक तूफान अपने भीतर निरंतर बहते रहते हैं'..और फिर आगे कुछ कहने की बजाए इमोशनली होते हुए उन्होंने एक शेर जड़ दिया कि - 'ये माना कि दिन परेशां है रात भारी है, मगर फिर भी है कि जिन्दगी प्यारी है।' बड़े भाई इस देश में भगवान भरोसे रहने की कीमत और क्या-क्या देंगे हम। कल शाम इंटरनेट पर खबर आई कि सरकार डीजल के जरिए 50 पईसा का एक और जख्म देगी, तो पेट्रोल के रूप में दो रुपईया मरहम लगाएगी। पेट्रोल से पर्सनली आहत या राहत मिलती है, तो डीजल से महंगाई का बहुआयामी डंक डसता है। इस महंगाई के खेल हम बार-बार छले गए। बड्डे ने 'बाईहार्ट' सरकारों को कोसते-कुढ़ते हुए फिर एक और शेर कुछ यूं दागा कि- 'सरकार ने जनता के जख्म़ों का कुछ यूं किया इलाज, मरहम ही गर लगाया, तो कांटे की नोक से।' बस बड़े भाई समझो जब से सरकार ने महीने में दो बार तेल के दाम 'रिव्यू' करने का खेल शुरू किया है, तब से हर महीने में 15 और 30 की डेटें 'हार्ट' में घबराहट पैदा करने लगती है, सो भाई बीपी नपवाने जा रहे हैं। इधर सरकारों का नया रिसर्च सूत्र वाक्य है कि- 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता' इसीलिए सरकारें खुद शुतुरमुर्गी मुद्रा अख्तियार किए हैं और धूर्त आवाम् को मानती हैं। सो 'वे इस हाथ दे, उस हाथ् ले' की (कु)नीति के जरिए इस मुगालत् में खिंच रही हैं। उसे यकीन है कि वह अपनी करतूतों पर 'कभी खुशी, कभी गम' जैसा 'कनफ्यूजन क्रिएट' कर अपना काम (आमचुनाव) निकाल लेगी। हिस्टोरिकल महंगाई के लिए इतिहास मे दर्ज हो चुकी केंद्र सरकार के लिए आज् आवाम यह गीत गाहे-ब-गाहे गुनगुनाती होगी कि 'अगर वेवफा तुङो पहचान जाते तो, खुदा की कसम तुमको न वोटिंग करते' पर बड्डे सरकारें बड़ी सयानी हैं चुनाव के ऐन वक्त ऐसा 'चुग्गा' डालेंगी कि हम् उसके ऊपर पड़ा 'फसउव्वल जाल' 'विजिबल' ही नहीं होगा। पर हम बचपन में पढ़ी कहानी- 'शिकारी आता है, जाल फैलाता है, हमें जाल में नहीं फंसना चाहिए' को गाते दोहराते हुए उसी जाल में उलझ जाएंगे। क्योंकि जाल में उलझने के बाद की कहानी की नैतिक शिक्षा- 'एक साथ जाल समेत उड़ जाने और जाल को कुतरकर आजाद हो जाने' को बिसर गये हैं। हां हमारे एक बार पंख उगे थे, हम फड़फड़ाये थे, जब् अन्ना, बाबा, केजरी टाईप के लोगों ने हमारे अंदर दम् भरा था। मगर हमने आपस में बंटकर अपने ही पंख काट डाले। खैर आखिर में बड्डे ने गहरी सांस ली कि 15 की डेट बीत गई वो भी बिना किसी महंगाई के इंक्रीमेंट के, मगर किसानों को तो सदमा दे ही गया शाम का पानी। हाय.'पानी रे पानी तेरा रंग कैसा!' |
Monday 11 March 2013
ब्याह एक बिआधि है..
बड्डे बोले बड़े भाई देश में दस ऐसे हॉट बैचलर्स (अविवाहित) नौजवान हैं, जिनकी डिमांड भारतीय दूल्हे के रूप में सर्वाधिक हो सकती है। वे हैंराहु ल गांधी, सलमान खान, शाहिद कपूर, सिद्धार्थ माल्या, विराट कोहली, युवराज सिंह, कुणाल कपूर, नेस वाडिया और नील नितिन मुकेश। मगर, बड्डे जो ताजा खबर है, उससे चिंता 'ओनली' उन सुंदरियों के लिए ही नहीं, बल्कि उनके लिए भी है, जो या तो विवाहित हैं या होने के जुगाड़ में हैं। क्योंकि बड्डे कांग्रेस के युवा आईकॉन राहुल ने छल्ला छोड़ा है कि मैं शादी करूंगा तो फंस जाऊंगा। तो क्या विवाह यानी फंस जाना है? हो न हो, राहुल ने वैराग्य के इस मंत्र का कवि रहीम की दोहावली से दोहन किया है क्योंकि बहुत पहले रहीमदासजी ने युवाओं को सावधान करते हुए विवाह के बरक्स दो पंक्तियां लिखी थीं कि- 'रहिमन ब्याह बिआधि है जाहु सको बचाय। पायन बेड़ी पड़त है ढोल बजाय-बजाय।।' इसलिए राहुल बाबा अब अपने युवाओं से यह कहते फिर रहे हैं कि- 'ब्याह एक बिआधि है' और अगर मेरा विवाह हुआ, बच्चे हुए तब मैं संसारी हो जाऊंगा और चाहूंगा कि मेरे बच्चे मेरी जगह लें। तो क्या राहुल- अटल, कलाम, मोदी, माया, ममता और जयललिता से 'इम्प्रेसड' हैं? 'आगे नाथ न पीछे पगहा' की तर्ज पर राजनीति की वैतरणी पार करना चाहते हैं। ऐसे में वे बेचारे युवा कांग्रेसी किसको अपना आदर्श मानेगें जो विवाहित हैं या जो लालायित हैं? या फिर वे युवाओं की ऐसी फौज खड़ी करेंगे जो ब्याह की बिआधि से मुक्त हो। एक युवा कांग्रेसी ने यहां-वहां ताक कर हौले से मुंह खोला कि- हमारे लीडर में 'मैरिज के पांईट ऑफ व्यू' से किसी किस्म की कोई कमी नहीं है। वे तो देश की 125 करोड़ की आबादी को देख चिंता में हैं कि इतने दबाव को देश और कैसे बर्दाश्त करेगा। इस पर अंकुश लगे इसके बरक्स उन्होंने इसकी शुरूआती घोषणा की है। बड्डे 'एक्चुअली' ऐसा हुआ तो, देश में कांग्रेस के हर जिले में वे ही युवा पदाधिकारीआसीन पाए जाएंगे, जो 'ब्याह की बिआधि' से मुक्त हैं। और फिर बड्डे अविवाहित रहने के अनेकानेक फायदे हैं। इससे एक तो जीवन भर क्रेज बना रहता है, दूसरा समय ही समय है और तीसरे व्यक्ति शारीरिक रूप से न भी सही, पर मानसिक तौर से ऑल लाईफ देवानंद टाईप युवा बना रहता या इस मुगालते में तो जीवन काट ही सकता है। बॉलीवुड में कई कथित चालीस को पार कर भी अपनी देह की दुकान इसलिए चला रहे हैं कि वे अब भी युवा हैं। बड्डे बोले- बड़े भाई देश का आम नागरिक इस मुगालते में न पड़े बल्कि समय रहते ब्याह करे और बुढ़ापे में आने वाली ब्याधि की लाठी तैयार करे। |
Saturday 2 March 2013
बजट की ओट में साइलेंट चोट
ब जट बजट..जपते पूरा महीना इसी शोर में निपट गया मगर जब आया तो वह हमें निपटा गया। बड्डे पूछ बैठे कि- बड़े भाई बजट का गणित आप कुछ समझे? हमने कहा- बड्डे बजट का मायाजाल तो अच्छे-अच्छे खां नहीं बूझ पाते तो फिर हम किस खेत की मूली हैं। अरे बड़े भाई अब मूली भी मामूली नहीं रही, गाजर से महंगी है इसलिए इस कहावत को वक्त के साथ कुछ यूं बदल डालो कि "तुम, हम या वो किस खेत की गाजर-मटर हैं।" खैर बड्डे दुनिया में हर रोग की दवा है। जिसकी नहीं है उसके भी टीके ईजाद किए जा रहे हैं। मगर नासपिटी महंगाई का नहीं जो अखंड ला-इलाज बनी है, थी और रहेगी। इसके टीके खोजने के फेर में, 65 बरस से देश वे लोग जो नेता टाईप के थे, इससे मुक्त हो गए और "साइलेंटली" इसी के झोल-झंसे में कुछ "रिच टाईप" के नेता बन चुके हैं, तो कुछ बनने की प्रक्रिया में हैं। ऐसों के लिए बजट एक उत्सव है- टिप्पणी देने और फोटू छपवाने का। दरअसल, बड्डे बजट बड़ा अबूझ है।125 करोड़ में से 124 करोड़ से अधिक लोगों के लिए बजट में "यूज" की जाने वाली शब्दावली "काला अक्षर भैंस बराबर है।" जनता क्या "नाइंटी परसेंट" नेता-नपाड़ियों से पूछ लो कि जीडीपी, एनएनपी, जीएनपी, मुद्रास्फीती, बजट घाटा, राजस्व घाटा, भुगतान संतुलन जैसे "टर्म" के अर्थ क्या हैं, तो एसी चेम्बर में पसीना छूट जाएगा। यकीन न हो तो इसे पढ़ने के बाद अपने आस-पड़ोस में आजमाएं क्योंकि "हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या?"वो तो भला हो कुछ चिदम्बरम, मनमोहन सिंह टाईप के "अपाईंटेड" नेताओं का, जो हावर्ड सरीखी यूनिवर्सिटीज से उपजे लीडर्स हैं। वे इस टर्मिनॉलाजी को बेहतर समझते-बूझते हैं। इसलिए देश में बजट जैसी उठापटक साल में एक बार हो ही जाती है। बड्डे बोले बड़े भाई-इस बार जो बजट है उसमें ऐसी कारीगरी की गई है कि गरीबों को राहत और अमीरों को आफत नजर आती है। पर. "बड़े धोके हैं इस राह में..."सारा खेल तो पहले ही डीजल की ओट में सरकार खेल चुकी है और हर माह यह खेल 'कॉनटीन्यू' रहेगा। जिसका "डाइरेक्ट इफेक्ट" महंगाई पर "ग्यारंटीड" है। क्योंकि तकनीकी युग में तेल महंगाई की जड़ है। जिसे सरकार ने डीजल से सींच-सींच कर दुरुस्त कर दिया है। सरकार की दलील है कि "महंगाई कौन कमबख्त चाहता है, वो तो इसलिए बढ़ाते हैं कि देश चल सके।" पर जब से हम "थिंक ग्लोबल एट लोकल" की थीम पर बढ़े हैं, तब से बजट साइलेंट किलर बनते जा रहे हैं। सरकार के कारिंदे पीठ पीछे वार करने का चोर रास्ता हर माह की शक्ल में ईजाद चुके हैं। बड्डे बोल पड़े हां भाईअब तो सरकार की सारी मार साईलेंट है।
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