Friday 22 February 2013

विस्फोटों की टेस्ट भूमि है भारत !

हैदराबाद मे विस्फोट के जरिए दो दजर्न नागरिकों की हत्या से छुब्ध बड्डे बोले- बड़े भाई फिर ये विस्फोट, फिर इत्ते 'इनोसेंट' लोग असमय काल के गाल में, इससे कमीनी हरकत क्या हो सकती है। तो क्या अल्लाह ऐसे जेहादियों को भी जन्नत देगा जो उसके बन्दों को मात्र मजे के लिए मार कर सड़कों को कसाई घर बनाने से गुरेज नहीं करते।हमने बड्डे की भावना को समझ और फिर हिन्दी में समझने की कोशिश की, कि देखो बड्डे कोई भी निर्माण हो उसका परीक्षण जरूरी है। बिना टेस्ट के सब 'मीनिंगलेस' है। इसलिए ऐसे विस्फोटकों का निर्माण फिर उसका परीक्षण पड़ोसी मुल्क में करना ही निर्माण का लक्ष्य होता है। 'फॉर दिस' भारत की भूमि पाकिस्तान को सहज और सुविधाजनक लगती है, क्योंकि यहां पकड़-धकड़ के 'चांस' कम है और फिर ओसाम टाईप से बदला लेने की औकात भी भारत में नहीं है। हालांकि 'सिंस लास्ट फ्यू ईयर' से अफगान के तालिबानी भी विस्फोटों के प्रयोग पाकिस्तान में करने लगे है। हमारे देश की सरकार ऐसे विस्फोटों को रोकने में खुद को असहाय मानती रही हैं। उनके युवा चहेते और प्रधानमंत्री के दावेदार ने तो पिछले मुम्बई विस्फोटों के बाद कहा था कि देश बड़ा है, इनको रोकना संभव नहीं है। सिर्फ नियंत्रण के उपाय किये जा सकते हैं। जैसे हमने अपने लिए उपाए कर रखें हैं, वैसे जनता भी अलर्ट रहे। सरकार का बस इत्ता काम थोड़े ही है। सच है बड्डे मरना-जीना तो लगा रहता है। कोई आज, तो कोई कल। फिर उनका आशय भी यही था कि देश में विस्फोट होने का भी समय और मुहूर्त है। कोई भी बड़ा त्योहार हो, पंद्रह अगस्त हो, छब्बीस जनवरी हो, किसी आंतकी को फांसी दी गई हो, देश में कोई टीम मैच खेलने आई हो.बगैरा-बगैरा। और विस्फोट का पहला निशाना चेन्नई में शुरू हो रहे टेस्ट मैच में कंगारुओं को डराना था सो सध गया। टीम ने भी लगे हाथ कह दिया कि वह हैदराबाद में मैच नहीं खेलेगी। उधर धमाकों के बाद अपने मौनी बाबा की चुप्पी टूटी है और उन्होंने एक तैयार स्क्रिप्ट को बांच दिया कि-दोषी बख्शे नहीं जाएंगे..देश की आवाम मेरी तरह शांति बनाए रखे! हिन्दू आंतक का 'परफ्यूम' लगाने वाले गृहमंत्री शिंदे ने गर्व से घोषणा की है कि सुरक्षा एजेंसियों के अलावा आईबी, रॉ की टीमों को नींद से जगा कर काम पर लगा दिया गया है और मुआवजे की पंजीरी देने की तैयारी भी। खैर बड़े भाई लकीर पीटने में तो हम उस्ताद रहे हैं। 'बट' अब तो 'डाउट' यह भी है कि कहीं एक दिन इन विस्फोटों आड़ में पाकिस्तान परमाणु बम का भी टेस्ट भारत की भूमि पर न कर ले, क्योंकि निर्माण का लक्ष्य तो उसके परीक्षण में है और भारत से बेहतर भूमि उसे कहां मिलेगी।

Monday 18 February 2013

महंगाई किश्तों में

गत सप्ताहांत एक बार फिर पेट्रोलियम पदार्थों में इजाफा हुआ मगर शांतिपूर्वक। न कहीं कोई विरोध के स्वर गंूजे, न ही सरकार में शामिल घटक दलों ने चूं चपड़ की। उल्टे ममता बनर्जी के अड़ंगे से आजाद कांग्रेस की कप्तानी में यूपीए सरकार अब बिना ब्रेक के दौडऩे लगी है। पहले रेल किरायों में बढ़ोतरी फिर डीजल सुधारों के नाम पर तेल का काला खेल चल पड़ा है। पेट्रोल के दामों के करीब डीजल के दामों को लाने की कवायद में अब हर महीने डीजल के दाम 50 पैसे बढ़ाने का निर्णय (साजिशन) लिया गया है, उससे आवाम को महंगाई की कीमत अब थोक में नहीं किश्तों में चुकानी होगी।
दरअसल, डीजल पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी अब आये दिन की खबर बन चुकी है और जब कोई बात आम हो जाती है तो उसका असर भी कमजोर पड़ जाता है। सरकार ने इसका बड़ा ही सटीक और चोर रास्ता ईजाद कर लिया है कि कीमतें तो बढ़ें, मगर आहिस्ता-आहिस्ता। दर्द बढ़े मगर मजे-मजे। यकायक कीमतों में इजाफा, सरकार के विरुद्ध बदनामी का माहौल निॢमत कर देता है। इसलिए सरकार की किचन कैबिनेट में यह तय हुआ है कि अब डीजल पेट्रोल के दामों में कसाई की तरह नहीं, प्यार से बढ़ोतरी करेगी। सरकार का भी यह मानना है कि डीजल कीमतों में इजाफे की यह छोटी-छोटी खुराक जनता आसानी से सहन कर सकती है और कंपनियों की आर्थिक सेहत भी दुरुस्त हो सकती है। सरकार भी बखूबी समझने लगी है कि बढ़ती कीमतों से देश में सिवा विरोध के और क्या होता आया है। इससे विपक्ष और मीडिया को भी कुछ कहने सुनने और लिखने का मौका मिल जाता है, तो जनता की भड़ास भी कुड़कुड़ा कर निकल लेती है।
हर बार तेल कंपनियां बाजार भाव की बनिस्पत हो रहे नुक्सान की भरपाई का राग अलापती हैं और इसी ओट में पेट्रोलियम पदार्थों पर चोट करती हैं। ऊपर से रोना रोया जाता है कि अभी कंपनियों को घाटा सहना पड़ रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि कंपनियों का यह घाटे का गणित महज एक छलावा है। यह दुष्प्रचारित किया जाता है कि तेल सब्सिडी समूची अर्थ व्यवस्था को अस्थिर कर देगी। लेकिन कडुआ सच यह है कि भारत के उपभोक्ता दुनिया में तेल की ऊंची कीमत चुका रहे हैं। मसलन पेट्रोल की कीमत पिछले एक बरस से 70 रुपए लीटर से अधिक रही है। वहीं पाकिस्तान में 53 रुपए लीटर। जबकि भारत की भांति पाकिस्तान भी पूरी तरह तेल के आयात पर निर्भर है। अमेरिका में कोई सब्सिडी नहीं है फिर भी वहां पेट्रोल 50 रुपए प्रति लीटर ही है। अन्य एशियाई देश भी भारत से कम दामों पर तेल बेच रहे हैं। तो फिर सवाल है कि दुनिया में भारतीय ही सबसे अधिक दाम क्यों चुकाएं? घाटे के नाम पर सिर पीटने वाली तीनों तेल कंपनियों ने वर्ष 2010-11 में सरकार को 3,287 करोड़ रुपए का लाभांश दिया है। आलम है कि यह मुनाफा वर्ष-दर-वर्ष बढ़ता जा रहा है। अक्सर आवाजें उठती हैं कि तेल क्षेत्र में सुधार होना चाहिए, जिसके बरक्स समाधान देने के नाम पर सुंदरराजन, रंगराजन, किरीट पारिख, चतुर्वेदी और विजयकेलकर समितियां गठित हो चुकीं हैं। पर लगता है कि जो कुछ भी सुधार के नाम पर हुआ है वह बस कंपनियों का लाभांश कैसे बढ़ाया जाय न कि अवाम को राहत कैसे मिले?
तेल के इस नए खेल सारा मजमा डीजल को लेकर है, क्योंकि जहां पेट्रोल व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था को डगमगाता है, तो डीजल समूची व्यवस्था को। सर्वविदित है कि डीजल परिवहन का प्रमुख साधन है यह चाहे व्यक्तियों  का हो अथवा वस्तुओं का। डीजल की हर बढ़ोतरी पर माल भाड़ा बढ़ता है जिसका बोझ उत्पादक वस्तुओं के दाम बढ़ाकर पूरा कर लेता है और घूम फिरकर सारा बोझा उपभोक्ता के सिर पर लद जाता है। इसलिए आने वाले दिनों वस्तुओं के दाम जिस तेजी से बढेंगे कि अवाम देखकर अवाक रह जाएगी। एेसा नहीं कि सरकार या कंपनियां इस सच्चाई से वाकिफ नहीं पर सरकारों का रवैया शुतुरमुर्गी होता जा रहा है। जो भी हो, इतना तो तय है कि तेल के जरिए महंगाई को किश्तों में परोसने का नया फॉर्मूला जनता का तेल निकाल कर ही दम लेगा। पहले ही गैस सिलेंडरों से सब्सिडी हटने की तलवार सर पर लटक रही थी अब डीजल की माह-दर-माह बढ़ोतरी रही सही कसर को पूरा कर देगी। हो न हो यह बात सरकार के संज्ञान में है कि अभी चुनाव में वर्ष से अधिक का समय शेष है और यदि वह समय रहते अधिक राजस्व जुटा लेगी तो अपने कैश ट्रांसफर स्कीम में उतनी ही कारगर रहेगी। साथ ही लोकलुभावन घोषणाएं कर पाने में खुद को सहज पाएगी। लेकिन बस,रेल, खाद्य वस्तुओं सहित चौतरफा महंगाई को आक्रमण हो चुका है। कहना पड़ता है कि यह यूपीए सरकार का द्वितीय संस्करण देश को बहुत महंगा पड़ा। क्या एेसे में अवाम सरकार के झांसे में आकर उसके तृतीय संस्करण को भी देखना चाहेगी!
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Friday 15 February 2013

हम थे जिनके सहारे..

बड्डे बोले- बड़े भाई खबर है कि अबकी सरकार ने नहीं बल्कि जिस कंपनी ने जनता की 'वाट' लगा दी है, उसका नाम 'सहारा' है। ऐसा नाम जिसको सुनकर ही 'जी' में भरोसा पैदा होता है। यह बड़ा मनोवैज्ञानिक नाम है। किसी भी शख्स की संवेदना हासिल करनी हो या उससे कुछ काम निकालना हो तो, उसकी मदद कर दो, मुसीबत में उसका सहारा बनो। लेकिन जब सहारा देने वाले का मकसद सध जाता है जो वह अपनी 'जात' दिखाने से बाज नहीं आता। यही नियम है, यही चलन है और युगधर्म भी।क्योंकि विकास भावनाओं के व्युतक्रमानुपाती होता है। इसलिए चाहे किसी कंपनी को, व्यक्ति को या सरकार को अथवा नेताओं को हित साधना हो, तो पहले 'तेल लगाओ' फिर 'तेल निकाल' लो का सूत्र रास आता रहा है। बड्डे बोले सुना भाई है कि सहारा कंपनी की शुरूआत मात्र दो हजार रुपए से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुई थी, जिसमें तब दो लोग काम करते थे। और निवेश के गोरख धंधे की गणित सेआज भी 'एक्चुअल' में यह केवल दो लोगों सुब्रत राय सहारा और जयब्रत राय सहारा की कंपनी बन कर रह गयी है। कहने को तो कंपनी रियल एस्टेस से लेकर, मीडिया, वित्त, सूचना प्रौद्योगिकी, निर्माण, खुदरा व्यापार में मौजूद है। यह आईपीएल में पुणो वारियर्स भी प्रायोजक है। साथ ही भारतीय हॉकी टीम और महिला क्रिकेट टीम की भी प्रायोजक सहारा ही है। हालांकि पहले उसके पास एक विमान कंपनी भी होती थी जिसे बाद में बेचना पड़ा। जो सहारा की पोल पट्टी खोलने का एक 'एग्जाम्पल' था। मगर देश के लोग गर मिसालों से सीखे होते तो बार-बार ठगी का शिकार क्यों बनते? अब बड़े भाई देखो विश्वास का भी कुछ आधार होता है। इतना नाम तामझम बनाने के बाद कौन होगा जो ऐसों पर दांव न खेले। लाभ के लिए लालच में बिना श्रम के पका पकाया पा लेने की हसरत किसमें नहीं है और फिर भारत तो दांव लगाने वालों का देश है। यहां चुनाव, मौसम, खेल,संभावनाओं सब पर सट्टा लगता है। लाईफ का रोमांच भी 'सडनली' कुछ मिल जाने में जो 'एनज्वाय' है, वह पसीना बहा के कहां।
फिर चाहे इसका ताल्लुक भौतिक लाभ से हो अथवा आध्यात्मिक। 'सहारा' मीडिया में भी है पर मजाल है कि अपने खिलाफ एक 'रुक्का' भी छापा हो। बड्डे ऐसी ही सोच रखने वालों की गिरफ्त में देश का अधिकतर मीडिया है। बहरहाल सतना सहित देश भर वे जन जिन्होंने सहारा के झांसे में अपनी गाढ़ी या काली कमाई लगा दी और अब खुद को बेसहारा पाकर गम में गा रहे होंगे होंगे कि- 'हम थे जिनके सहारे वे हुए न हमारे..डूबे जब रुपईया हमारे, तब हम थे बे-सहारे..'

Sunday 10 February 2013

मोहब्बत है क्या चीज



हर साल की तरह कल भी यानी ‘वेलेन्टाईन डे’ को हम भारतीय ‘प्रेम दिवस’ के रूप में कहीं खुलेआम, तो कहीं चोरी छुपे मना लेने की तरकीबें तजबीजते पाए जाएंगे। ताकि जिनको इसमें रुचि है, वे यह महसूस कर सकें कि उन्होंने प्रेम को पा लिया। लेकिन यह कैसा भ्रम सा हमारे मन मतिष्क में पैठ गया है, कि प्रेम को भी किसी वस्तु की तरह हासिल किया जा सकता है। इस समूचे आयोजन के दरम्यिां कई सवाल भी उठते हैं कि क्या संत वेलेंटाइन के पहले प्रेम का विनिमय नहीं होता था? क्या प्रेम को भी किसी एक दिवस की सीमा में बांधा जा सकता है? क्या प्रेम संस्थागत है? क्या इसको भी किया या पाया जा सकता है? 
इन सवालों के झुरमुट में सत्य यह है कि प्रेम एक ऐसी अलौकिक अनुभूति है, जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं। इसी सवाल को फिल्म ‘प्रेम रोग’ के गीत में इसके इतिहास को टटोलने की कोशिश हुई थी कि -‘मोहब्बत है क्या चीज हमें भी बताओ, ये किसने शुरू की हमें भी सुनाओ..’ इसलिए प्रेम की उत्पत्ति ऐतिहासिक संदर्भ में नहीं की जा सकती, क्योंकि यह कोई खोज का नहीं, अलबत्ता अनुभूति का विषय है,जो सदा से शाश्वत है। प्रेम ही ऐसा मूल्य है जो हमें, हमारे संबंधों को, घर, परिवार, समाज और यहां तक कि राष्टÑ से राष्टÑ को जोडेÞ रखता है। हमारे देश में प्रेम की इतनी जीवंत गाथाएं इतिहास के पन्नों पर अंकित हैं कि जिन्हें सप्रयास याद रखने की जरूरत नहीं है। अनायास ही ऐसी प्रेम कथाएं हमारे दैनिक जीवन संस्कृति से जुड़ी हैं, जो समूची मानव जाति के लिए प्रेरक रही हैं और रहेंगी। 
अलबत्ता संत वेलेन्टाइन का उत्सर्ग प्रेम के प्रश्रय और उसकी महत्ता के लिए याद किया जाता है। कबीरदास जी कहते हैं कि-  प्रेम न बाड़ी उपजी प्रेम न हाट बिकाय, राजा परजा जेहि रुचे सिर हैं सोई लै जाय!  यह तथ्य है कि ‘प्रेम’ एक मूल्य है, न कि कोई बाजारी वस्तु, जिसको हाथ से स्पर्श किया जा सके या देखा जा सके या मापा जा सके अथवा उसकी चर्चा आसानी से तर्क-वितर्क और ज्ञान के सहारे की जा सकती है।  तो जो स्वरूप में अदृश्य हो, सिर्फ अनुभूत हो, उसको समझना, उसे कहना या बता पाना उतना ही कठिन है। दरअसल प्रेम विशुद्ध दैवीय गुणों से युक्त होता है। क्योंकि जिस हृदय में प्रेम होगा वह क्रोध, लोभ, ईष्या, हिंसा के भावों से सर्वथा स्वतंत्र होगा। मगर हकीकत में ऐसा नहीं दिखता। समाज में लोग प्राय: दोहरे आवरण को ओढ़े अधिकांशत: प्रतिस्पर्धी, ईर्ष्यालु, स्वार्थी, कपटी, क्रोधी  बने रहते हैं। ऐसे में क्या निश्छल प्रेम को पहचाना जा सकता है और क्या उसके हकदार हम बन सकते हैं? इन सवालों के समझा जाना चाहिए कि प्रेम का केन्द्रीय तत्व है ‘समर्पण’ जो इसके लिए अनिवार्य है। जिसे मात्र तर्क रहित संबंधों की व्याख्या से आत्मसात किया जा सकता है।
इस प्रेम के सत्संग में एक और महीन बात स्वीकारते चलें कि - प्रेम करना या होना एक ‘प्रक्रिया’ है, यह ‘लक्ष्य’ कदापि नहीं। जब हम मनुष्यों के बीच प्रेम को पा लेने और फिर उस ओर से लापरवाह हो जाने के रास्ते पर कदम बढ़ाते हैं तो, उसी क्षण से प्रेम का क्षरण होने लगता है और प्रेम अपना सौंदर्य खोने लगता है। खासकर यह नौबत तब उत्पन्न होती है जब प्रेम केवल भौतिक स्वरूप तक जुड़ पाता है, जो कि इसका स्वभाव नहीं। प्रेम रचनात्मक और बौद्धिक व्यायामों से जुड़ा होता है। क्योंकि तभी यह एक प्रक्रिया के रूप में अनवरत प्रवाहमान रहता है।
सवाल बड़ा और बारीक है कि दुनिया कई वर्षों से प्रेम दिवस को जोश-ओ-खरोश से मनाती आ रही है, फिर भी प्रेम का समूचा सूचकांक निरंतर गिरता जा रहा है। संत वेलेन्टाईन तो प्रेम की महत्ता को स्मरण करने का जरिया बस हैं। क्योंकि प्रेम अलौकिक हैं, शाश्वत हैं। प्रेम किसी को भी हो सकता हैं। यह जाति, धर्म, सरहद, संस्कृति को नहीं मानता हैं। यह जल की भांति रंगहीन हैं तो इंद्रधनुष की तरह सतरंगी भी।  फिल्म रिफ्यूजी के गीत बरबरस याद आ जाता है कि -‘पंछी नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके..’  प्रेम अलौकिक हैं मगर यह तो इसी लोक में घटित होता हैं। सभी ने अपने-अपने ढंग से प्रेम की व्याख्या की है। प्रेम में लोग निहाल और बेहाल भी हो जाते हैं तो कुछ ऐसे हैं जो रोगी भी होते देखे गए हैं जैसे यह गीत कि - ‘मैं हूं प्रेम रोगी, मेरी दवा तो कराओ, जाओ जाओ जाओ किसी वैद्य को बुलाओ..’  ऐसा प्रेम पर बल पूर्वक अधिकार के अंधकार में जन्मता है। 
दरअसल, यह मौसम ही प्रकृति को प्रेममय बनाता है यह महज संयोग है कि इस बार 14 फरवरी को ‘प्रेम दिवस’ तो 15 को ‘बसंत पंचमी’ है। भारत में बंसत ऋतु देवताओं को प्रिय रही है। कृष्ण ने कहा भी है कि मैं ऋतृओं में बसंत हूं। मगर आज 14 फरवरी का अंदाजा महज इससे लगाया जा सकता है कि इस दिन बाजार में रौनक छा जाती है। लेकिन ‘वेलेन्टाइन डे’ भारतीय काव्यशास्त्र में बताए गए मदनोत्सव का यह पश्चिमी संस्करण बनता जा रहा है। इसलिए कहना पड़ता है कि प्रेम का बाजारीकरण अधिक हुआ बजाए इसके संस्कारीकरण के। शायद यही वजह है कि प्रेम मात्र बाह्य आकर्षण का विषय बनता जा रहा है और अब इसे उपहारों के चश्में से अधिक देखा जा रहा है। मगर हमें इस मंत्र को नहीं भूलना चाहिए कि - ‘मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती’

श्रीश पांंडेय.

Saturday 9 February 2013

कण-कण में हैं 'करप्शन देवतागण'




मध्य प्रदेश में पड़ रहे दनादन छापों से 'हैप्पी मूड' में बड्डे बोले- बड़े भाई केंद्र या राज्य से चलने वाले 100 रुपयों में 85 से 95 रुपया कहां चला जाता है, की गणित को अब समझना और पकड़ना पहले की बनिस्पत ज्यादा आसान हुआ है। हमने कहा- अरे बड्डे! करप्शन तो सड़कों पर सरेआम दशकों से बह रहा है, सबको दिख रहा है, जो कर रहे उनको और जो करवा रहे उनको भी, मगर जो इसके शिकार हैं 'ओनली' वे ही चिल्लपों करते रहे हैं। अब हो-हल्ला इसलिए ज्यादा है कि अब करोड़ों के कुबेर पकड़े जा रहे हैं। चाहे बाबू हो या साहब सब की एक ही जात है, एक ही कर्म और एक ही लक्ष्य है। वह है लूट के मार्फत कुबेर टाईप से समाज में इस्टेबलिश हो जाना। कुबेर भी ईश्वरीय सत्ता के अंश हैं। परन्तु अब करप्शन और अधिक व्यापक हो, कण-कण में अपनी मौजूदगी दर्ज करा, सर्वव्यापी ईश्वर को चुनौती दे रहा है। सो, बड्डे जो ज्यादा व्यपाक है, सर्वत्र व्याप्त है,वही आज का देवता है। याद करो वर्षो पहले दिलीप सिंह का कॅरिअर करप्शन के केश में कलंकित हो जाने के बाद कहे सद्वाक्य को कि- 'पैसा खुदा तो नहीं, पर खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं।' तब तो लाखों का मसला था और अब यही खुदा करोड़ों के देवता करप्शन के आसन पर विराजमान है। बड्डे अपने सीएम भी कहते फिरते हैं कि 'मध्यप्रदेश मेरा मंदिर है, जनता उस मंदिर की देवता और वे खुद उसके पुजारी हैं।' बड्डे बोले देखो अपने सीएम कितने 'इनोसेंट' हैं, कितना समर्पण है उनमें प्रदेश की जनता के लिए। हमने कहा- तुम बोका हो और प्रदेश की जनता भोली है। क्योंकि वह 'नेताओं की भावुक बातों में फंस जाती है, उनकी बातों के गूढ़ अर्थ नहीं बांच पाती।' 'नाऊ यू शुड थिंक एण्ड टेल मी बड्डे, कि- मंदिर में चढ़ा प्रसाद कौन खाता है.! बड्डे बोले- पुजारी। तो बात बड़ी 'क्लियर' है जनता भगवान बने प्रसाद मात्र ताक रही है, मगर उसका सेवन तो पुजारी किए जा रहा है।
बड्डे बोले- बड़े भाई आप पत्रकार लोग बड़े बारीक- बारीक भेद निकालते हो, बात में छिपी उनकी जन भावना को नहीं समझते। अब यकीन न हो तो उनके गणों को देख लो, जितने पकड़े जा रहे हैं सब के सब करोड़ों के देवता हैं। जनता इनको कुछ यूं पुकारती है कि बीके सिंह 65 करोड़ी, डॉ. विनोद लहरी 60 करोड़ी, अरविंद टीनू जोशी 43 करोड़ी, अजरुनदास लालवानी 40 करोड़ी, एसके पालाश 40 करोड़ी, एनकेव्यास 35 करोड़ी, उमेश गांधी 30 करोड़ी, रमेश द्विवेदी 25 करोड़ी, हुकुमचंद पाटीदार 20 करोड़ी,एएन मित्तल 20 करोड़ी, कैलाश सांगरे 10 करोड़ी।
आखिरकार बड्डे की खमोशी टूटी और बोले किअब तो वाकई कण-कण में करप्शन देवतागण मौजूद हैं।

सरकारी स्कूलों का सच



शिक्षा किसी भी सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार है। इसलिए वही देश दुनिया में आगे हैं, जिन्होंने अपनी शिक्षा- व्यवस्था का वर्तमान जरूरतों के मुताबिक मजबूत ढांचा खड़ा कर रखा है। शिक्षा को गुणवत्तायुक्त व रोजगारपरक होने के साथ राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत होना चाहिए। लेकिन देश सहित मध्य प्रदेश में शिक्षा महकमा का क्वांटिटी में विस्तारित होता रहा, मगर क्वालिटी में फिसड्डी रह गया है। क्योंकि भीषण महंगाई में मजूदरी से भी कम वेतन पर कार्यरत शिक्षकों से गुणवत्ता युक्त शिक्षा की उम्मीद बेमानी है। फिर भी सरकार गर मानती है कि उसके स्कूलों की व्यवस्था दुरुस्त है, चौकस है, तो इस बात का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है कि सरकार सच्चाई से कितने परे जा चुकी है।आये दिन अखबारों में छपता हैं कि इतने प्राइमरी पाठशाला या माध्यमिक विद्यालय खोले गए हैं अथवा इतनों का उन्नयन करके उन्हें हाई स्कूल या हायर सेकेंड्री में तब्दील कर दिया गया है। लेकिन इसका खुलासा कभी नहीं किया जाता कि सरकार किन कामलाऊ तरीकों से प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था को घसीट रही है।
गौरतलब है शिक्षकों की अंतिम नियमित नियुक्ति 1993 में हुई थी। उसके बाद दिग्विजय शासन काल में शिक्षकों की शिक्षाकर्मी के रूप में भर्ती का काला अध्याय शुरू हुआ, जिसमें योग्यता अंकसूची में हासिल नंम्बरों को आधार मानकर भर्तियां की गई थीं। लेकिन तब नकल जुगाड़ से हासिल किये गये नम्बरों की बिना पर कुछ ऐसे शिक्षकों की भर्ती हो गई थी जो अपेक्षाकृत काबिल नहीं थे। भाजपा शासनकाल में भर्ती प्रकिया को एक प्रतियोगी परीक्षा के जरिए आयोजित किया गया ताकि संविदा पर ही सही मगर योग्य शिक्षकों की भर्ती की जा सके। मगर अब लगता है कि सरकार और कम वेतन में 'अतिथि शिक्षकों' के जरिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण महकमें को हांकना चाहती है। सड़कों, नहरों और खनन में लूट और खराब गुणवत्तापूर्ण कार्यो में, सरकार पानी की तरह धन बहा रही है, पर जिस विधा से देश का भविष्य बनता-बिगड़ता है, उसकी घोर उपेक्षा करने पर आमदा है। शुतुरमुर्ग की तरह आंखें मूंदे सरकार इस मुगालते में है कि चंद रुपए वेतन वृद्धि कर उसने अपने दायित्वों की इति कर दी है।
ध्यान देने की बात है कि प्रदेश में शिक्षा विभाग शिक्षा प्रदाय के साथ-साथ रोजगार देने वाला सबसे बड़ा विभाग है। कुछ अरसे पहले प्रदेश सरकार ने संविदा शाला शिक्षकों की वर्ग-एक, दो और तीन में भर्ती के निमित्त वर्ष 2011- 12 में प्रतियोगी परीक्षा का आयोजन किया था जिसमें लगभग 15 लाख परीक्षार्थियों में भाग लिया। इस परीक्षा के लिए शुल्क के रूप में प्रति प्रतियोगी वर्ग-एक, दो, तीन के लिए क्रमश: 500, 400, 300 रुपए परीक्षा शुल्क यानी करोड़ों वसूला गया। अब जबकि परीक्षा परिणाम को आये पूरा सत्र बीतने को है, लेकिन सरकार की चुप्पी और 'अतिथि शिक्षकों' के जरिए कम वेतन पर काम चलाऊ तरीके स्कूलों का संचालन, उसकी नीयत पर सवाल खड़े करती है। एक ओर प्रशिक्षत शिक्षकों की नियुक्ति की नीति को अनिवार्य शर्त माना गया है, वहीं अतिथि शिक्षक जिनमें अधिकांश अप्रशिक्षित हैं, के दम पर पूरा सत्र व्यतीत कर दिया गया है। जबकि शिक्षा का अधिकार कानून 1 अप्रैल 2010 से लागू हो चुका है, जिसके तहत प्रावधान है कि 31 मार्च 2013 तक प्रदेश के विद्यालयों में प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति होनी चाहिए। जिसके बरअक्स सुप्रीम कोर्ट भी स्पष्ट निर्देश जारी कर चुका है। यहां तक कि पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है। ऐसा समझ आता है कि मध्यप्रदेश सरकार को न तो उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का ख्याल है, न बेरोजगारों की तकलीफों और न ही बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता का। शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थियों की उपेक्षा न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि चिंता का सबब भी।
मुम्बई प्रवास के दौरान मैंने होटल में लिखा एक वाक्य पढ़ा था कि 'होटल का मालिक भी खाना यहीं खाता है' यानी ग्राहक यहां खाने की गुणवत्ता के प्रति निश्चिंत होकर भोजन कर सकता है। मगर सरकारी स्कूलों का सबसे बड़ा सच यह है कि यहां न तो किसी कर्मचारी-अधिकारी के बच्चे, न ही इन स्कूलों की नीति निर्माण करने वाले ब्यूरोक्रेटस, नेता, विधायकों के बच्चे और यहां तक कि स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षकों के बच्चे भी नहीं पढ़ते हैं। क्या अपने बच्चों को यहां पढ़ाने का दावा शिक्षक, कर्मचारी-अधिकारी और विधायिका के लोग कर सकते हैं? यह तय मानिये जिस दिन इनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने लगेंगे, स्कूलों और शिक्षकों का भविष्य स्वमेव दुरुस्त हो जाएगा। क्या मुख्यमंत्री यह भरोसा प्रदेश की आम जनता को दिला पाएंगे? या नेता प्रतिपक्ष सत्ता में आने की स्थिति में यह कदम उठायेगी। अथवा सरकारी स्कूल सिर्फ कागज पर गणना और साक्षरता के आंकड़े दर्शाने के उपकरण बने रहेंगे।
 सम्पर्क- 09424733818.