Sunday 12 February 2012

प्रेम का मर्म

 आधुनिक युग का नया चलन है कि हम प्राय: हर दिन कोई न कोई दिवस मनाते हैं। इनके मनाने और मानने का औचित्य भी यही है कि हम दिवस विशेष के प्रति अपनी कृतज्ञता, सम्मान दर्शाकर व्यक्ति या घटना का स्मरण कायम रखें।
  वेलेंटाइन डे मनाने की परंपरा हमारे देश में भले ही कुछ सालों से हो, लेकिन संसार के कुछ हिस्सों में प्रेमी यह पर्व एक लंबे अरसे से मनाते रहे हैं। किवदंती है कि रोम के शासक क्लोडियस द्वितीय ने अपने शासनकाल में अपने सिपाहियों पर अपनी प्रेमिकाओं से मिलने व शादी करने पर रोक लगा दी थी। तब इस प्रेम पुजारी वेलेंटाइन ने लोगों की छुपकर शादियां करवाई और प्रेम करने वालों को मिलाया। इसी वजह से क्लोडियस ने वेलेंटाइन को 14 फरवरी 1269 ई. को मृत्युदण्ड दे दिया। वेलेंटाइन ने मृत्यु से पहले अपनी दोस्त जो कि जेलर की बेटी थी, के नाम एक खत लिखा- जिसमें उसने लिखा-फ्रॉम योर वेलेंटाइन और इसी दिन को प्यार के प्रतीक के दिन में संत वेलेंटाइन के नाम पर ‘वेलेंटाइन डे’ के नाम से विश्व में मनाया जाने लगा।
    प्रेम है क्या? इसके मायने क्या है? क्या किसी को पूर्वनिश्चित तरीकों से प्रेम किया जा सकता है? या यह स्वत: उत्पन्न और जीवंत शाश्वत रहने वाली अवस्था है? यह भी माना जाता है कि प्रेम इबादत है, ईश्वर भी अपने बंदों से प्रेम करता है। संत वेलेंटाइन ने भी इसी प्रेम पर लगे बंधन से निवृत्ति के लिए गुप्त रास्ता निकाला, कानून तोड़ा और अपना बलिदान दे दिया। बड़ा स्वाभाविक सवाल है कि प्रेम इतनी पवित्र क्रिया है तो इस पर इतने पहरे क्यों? दरअसल आज प्रेम का दर्शन इस रूप में लुप्त होता जा कि यह एक भाव है जो है तो है, बकौल  एहतराम इस्लाम-
          ‘मूर्ति सोने की निरर्थक वस्तु है, उसके लिए
          मोम की गुड़िया अगर बच्चे को प्यारी है तो है’

 या फिर प्रेम कोई वस्तु है जिसे उत्पन्न किया जा सके! जैसा कि इनदिनों देखने में आ रहा है। गर्ल या ब्बाय फ्रेंड की अवधारणा भी इसी आधुनिक पाश्चात संस्कृति की देन है और जिनके पास ये कथित संबंध नहीं उन्हें आधुनिकता के दौर में पिछड़ा, हीन दृष्टि से देखा जाने लगा है। जो जोड़े सफल होकर विवाह, परिवार में रूपांतरित हो गए वे तो ठीक पर जिन्हें मंजिल न मिली वे कटी पंतग की तरह दिशहीन भी देखे गए हैं।
प्यार को वस्तु की भांति नहीं पाया जा सकता, यह तो स्वत: उद्भूत होने वाली प्रघटना है।  शायद इसीलिए गाया गया कि-
         ‘प्यार किया नहीं जाता हो जाता है...।
पर इसे उत्पन्न करने, जानबूझकर या कभी-कभी तो जोर जबरदस्ती से पैदा करने के वाकये हमारे बीच देखने में आते हैं।  बचपन में एक कहानी सुनी थी कि कोकिल का स्वर सुनकर राजा उसे पकड़वा लेते थे पर वह चुप हो जाती थी। कहा जाता है कि कोकिला को पकड़ा जा सकता है पर गान को बंदी नहीं बनाया जा सकता। आज के तकनीकि युग में हमारा ज्ञान-विज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ा है, जिसने हमें बोध कराया है कि श्रम, धन, साधनों से वस्तु की तरह प्रेम को भी पाया और प्रभावित किया जा सकता है। ऐसे प्रेम के चंगुल में ‘मूल्यों’ जिस पर समाज का ताना-बाना बुना गया है उन्हीं का पतन होता जा रहा है। क्योंकि हम मूल्यों से अधिक वस्तुओं के वशीभूत हैं, वस्तुओं के जरिए ही प्रेम के विनमय को सम्पूर्ण मानते हैं और इन्हीं गतिविधियों से हद से ज्यादा प्रभावित हैं, किसी का रुतबा इस रूप में देखने के आदी हो चले हैं कि वह किन साधनों से युक्त है, कितना ग्लैमराइज्ड है, न इससे कि उसने यह सब संसाधन कितनी नैतिकता से अर्जित किए हैं। दरअसल, ऐसा करके हम जाने-अनजाने उस मूल्यहीन कथित समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं जिसकी आलोचना प्राय: जगह-जगह करते रहते हैं। ‘मूल्य’ और ‘प्रेम’ समानुपाती हैं, जो जीवन में मूल्यों को तव्वज्जो देगा वही प्रेम के मर्म को बांच सकेगा, उसको अपना सकेगा और उसका प्रसार कर सकेगा। आज जितनी भी विकृतिओं से समाज घिरा है उसकी मूल वजह प्रेम का आभाव है।
  ‘वेलेंटाइन डे’ को प्रेम के पर्व के रूप में भारतीय भी मनाएं यह कोई अनिवार्य नहीं पर इसका विरोध हो यह भी गलत है। पर जिस तरह से मोहब्बत को समझाने के प्रयास दिवस विशेष के जरिए इनदिनों किए जा रहे हैं, उससे ऐसे प्रेम पर सवाल जरूर उठता है कि क्या प्रेम कोई याद दिलाने या इसके सार्वजनिक प्रदर्शन का भाव बन चुका है। जिसे वस्तु की तरह उपहारों के माध्यम से, प्रेम के स्तर को प्रदर्शित कर,प्रेम की मात्रा, उसकी सघनता को जताया जा सकता है?  हमारे यहां फिल्मों में 50-60 के दशक में ही प्रेम के दर्शन को बड़ी सरलता गुनगुनाया दिया गया था कि- ‘मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती....’ या फिर ‘ये जिन्दगी उसी की है/ जो किसी का हो गया / प्यार में ही खो गया ...’ भारतीय समाज व उसके दर्शन में, प्रेम की जितनी प्रगाढ़ सत्य कथाएं विद्यमान हैं शायद ही ऐसा दुनिया की किसी अन्य व्यवस्था में हो। प्रेम में सर्वस्व यहां तक कि जीवन का उत्सर्ग कर देने वाले सोनी-महवाल, लैला-मजनूं, सीरी-फरहाद, पारो-देवदास की गाथाओं से परिचित होने के बावजूद हमें प्रेम को पाश्चात जगत के उदाहरणों से समझने और इसकी व्याख्या की जरूरत पड़ रही है क्यों? हमें यह नहीं भूलना होगा कि भारत वही देश है जहां जिन्दगी क्या जिन्दगी के बाद भी प्रेम करने की नज्में गुनगुनाई गई हैं-
                जिन्दगी में प्यार तो सभी किया करते हैं,
       मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा..’
 लेकिन अब तो शर्तों और परीक्षण के आधार पर प्रेम को, देह के रूप में निरखने और उसका लुफ्त लेना ही इसका एकमात्र आधार बनता जा रहा है। गर एक से प्रेम न हुआ तो दूसरा सही या फिर तीसरा, चौथा...ऊपर से संदेह और संशय ने इसे विकृ त रूप में ला खड़ा किया है। इसीलिए इसके दुखांत दृश्य भी देखने में आना आम बात है। शायद इसीलिए गाया गया कि-
अगर सच्ची होती, मुहब्बत तुम्हारी/ तो घबरा के तुम यूं, शिकायत न करते.../अगर बेवफा, तुझको पहचान जाते, खुदा की कसम, हम मोहब्बत न करते
फिर भी प्रेम दिवस मनाया गया और आगे भी मनाया जाता रहेगा। पर प्रेम के मर्म को, इसके मूल्य को यदि आज का समाज, संवेदनशील होकर समझे और स्वीकारे तो ऐसे आयोजन किसी एक दिन नहीं, बल्कि वर्ष भर क्या  जीवनभर नित्य अनुभव किए जा सकते हैं। प्रेम हमारी अमूल्य निधि है जिसके जीवन में प्रेम नहीं,जिस समुदाय में दया व करुणा नहीं, वे देह का इश्क तो कर सकते हैं, पर प्रेम नहीं। क्योंकि प्रेम, मात्र प्रेमालाप या विवाह नहीं इससे भी बढ़कर, किसी का किसी के प्रति सम्पूर्ण समर्पण है। जिसे ‘वेलेंटाइन डे’ के बाजारी संस्करण द्वारा तो कतई हासिल नहीं किया जा सकता।
श्रीश पाण्डेय

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