Monday 31 December 2012

मैं समय हूं, गतिमान हूं सदा



सा ल 2012 की शुरुआत जिस जोश-ओ-खरोश से हुई थी, उसका अंत उतना ही गमजदा और निराशाजनक रहा।
मनमोहन सिंह ने कहा था कि यह वर्ष 2012, लोकपाल के नाम होगा, रोजगार के अवसरों में वृद्धि और काले धन पर अंकुश व महंगाई पर नियंत्रण का होगा। लेकिन 2013 के मुहाने पर खड़े होकर देखें तो ऐसी खबरें या बातें कम ही नजर आती हैं जिसे हम, समाज या देश के स्तर पर इजाफे के तौर पर सहेज सकें या उन पर फख्र कर सकें।
कई तरह के विकास के दावों और वादों के बीच भ्रष्टाचार, महंगाई, धांधली की परम्परागत अंधेरगर्दी के बावजूद, दिसम्बर का आखिरी पखवाड़ा दामिनी के दंश से देश को झकझोर गया।
साल की शुरुआत में माया कलेंडर का डर भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में दिखा कि 21-12-12 को मानव का धरती से अंत हो जाएगा। इस अफवाह ने आम चर्चाओं व खबरों में सुर्खियां बटोरीं। मगर सकारात्मक सोच रखने वालों का मत था कि ऐसी बातें आधारहीन हैं और गलत साबित भी हुईं। समय चक्र है जो अपने नियम से सदा गतिमान रहता है और रहेगा। आपको याद होगी महाभारत धारावाहिक में हरीश भिमानी की आवाज-'मैं समय हूं..'समय' किसी का इंतजार नहीं करता..इतिहास के पन्नों पर अपनी छाप छोड़कर आगे बढ़ जाता है। 'समय' इतिहास के पन्नों पर ऐसे अध्याय लिख जाता है कि वे समाज में सदियों तक दोहरये जाते हैं। बालात्कार और स्त्री शीलहरण की न जाने कितनी घटनाएं मानव इतिहास में घटी होंगी और घट रही हैं, मगर हस्तिनापुर में दुस्साशन द्वारा द्रोपदी के चीरहरण की नजीर आज भी दी जाती है और अब दामिनी की घटना समाज पर ऐसा दाग है जो सदियों तक करुण याद के रूप में दर्ज रहेगी।
तारीख (31 दिसम्बर 2012) की गणना के हिसाब से, ऐसा ही दिन है आज, जो अच्छी-बुरी स्मृतियों को पीछे छोड़कर आगे की तारीख (1 जनवरी 2013) को उम्मीदों से देख रहा है। सच कहा जाए तो देखना भी चाहिए। हां मगर यह भी कि जो समाज अपने इतिहास से सबक नहीं लेता, उसकी उम्र ज्यादा नहीं होती।
इसलिए नव वर्ष सिर्फ तारीखों का बदल जाना नहीं है, यह इससे परे कई तरह की घटनाओं-गणनाओं के परिवर्तन से जुड़ा है। यह महज एक तारीख है जो पिछले वक्त का आंकलन और नए के लिए संकल्प का विकल्प लेकर आती है।
इस तारीख से किसी की बढ़ती उम्र के वर्ष गिने जाते हैं, तो किसी की नौकरी के वर्ष, लेकिन हर नया वर्ष गांव, नगर, शहर, देश-दुनिया की सभ्यता और प्राचीनता में हौले से एक वर्ष और दर्ज कर देता है। बहरहाल, इस समूची प्रक्रिया में बधाई, संदेशों का तांता और अधिकतम लोगों को याद कर लेने की चाह में ई-मेल, मोबाइल, फोन, फेसबुक, ट्विटर जैसे साधन अब संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बनकर उभरे हैं।
लेकिन यह कोरी प्रक्रिया है, जो परम्परा की लीक पीटने सिवा कुछ नहीं रह गई। इस तमाम उत्सवी कवायद के बीच, यदि आज के दिन, हम एक पल एकांत में बिता कर सोचें कि हमारा समाज, हमारी सभ्यता, यहां तक की हमारा समूचा विकास, मानव के हितार्थ कितना हुआ और विनाश के लिए कितना? तब सामान्य व्यक्ति भी बड़ी साफगोई से यह स्वीकारेगा कि हमने सुविधा के नाम पर अपने विनाश का सामान खुद-ब- खुद तैयार कर लिया है और जो रही-सही कसर है उसे दिन-ब-दिन पूरा करने पर आमदा हैं। तो जिन पर समाज, राष्ट्र और पूरी दुनिया का दरोमदार है, खासकर जो विशेष समझ और बुद्धि से युक्त हैं, उनकी निगाहें न सिर्फ उस विनाशकारी मंजर की तस्वीर को तजबीज पा रही होंगी बल्कि साफ-साफ देख भी रही होगी। क्योंकि आज हमारा जीवन ही पूरी तरह साधनों की गिरफ्त में है। विकास के इस सफर में हम सुख-साधनों के जितने करीब आये हैं, प्रकृति से उतने ही दूर हुए हैं। हमारा खान-पान जिस कदर प्रदूषण युक्त हुआ है, उससे सर्वथा नई तरह की लाइलाज बीमारियों का प्रादुर्भाव हुआ है। जीवन की गति बढ़ी है पर जिसके लिए जीवन है वही पीछे छूट रहा है। विडम्बना है कि इस गचर-पचर को हम महसूस भी करते हैं, पर कौन कदम उठाए, कैसे अमल करे, इसकी तरकीब नहीं सूझती।
लेकिन 'समय' है कि सब देखता रहा है और देख रहा है- मनुष्य का सामान्य स्वभाव है कि वह अपने लिए हर स्थिति में सुख की कल्पना और चाह करता है।
संसार में एक भी ऐसा प्राणी नहीं होगा जो अकारण सुख से वंचित रहने की सोचे भी। इसी फेर में साधनों का ध्रुवीकरण इतना बेतरतीव हुआ है कि भारत सहित दुनिया इसी मुद्दे पर दो स्पष्ट पाटों में बंट चुकी है। इस असमानता का अंतर कम कर पाए तो आगामी वर्ष जरूर शुभ हो सकता है। वरना, साल और भी आएंगे- जाएंगे मगर इतिहास के पन्ने पड़े निशान हमें झकझोरते रहेंगे। फिर भी उर्मिलेश दो पंक्तियों के सहारे आगे बढ़ते रहें कि - बेवजह दिल पे कोई बोझ न भारी रखिए, 
  जिंदगी जंग है इस जंग को जारी रखिए।

Friday 21 December 2012

राजनीती के रीटेल मे मोदी ब्रांड

पिछले कुछ दिनों से अर्थव्यवस्था में एफडीआई में रीटेल की सुर्खियां अभी खुर्द-बुर्द भी नहीं हुईं थी कि राजनीति के रीटेल में मोदी ब्रांड चल निकला। खिसियाये लोग खंभा नोच कर स्टेटमेंट देते चैनलों के पर्दो पर भटक रहे हैं कि मोदी पिछले चुनाव के मुकाबले दो सीटें कम हासिल कर पाए और वे दो सीटें ज्यादा। रिजल्ट भले सत्ता को रीटेन करने का रहा हो, लेकिन विरोधी खम ठोंक सकते हैं कि दो सीटों का ही सही पर मोदी का बाल बांका तो कर दिया ना। यह कहते हैं कि खुश होने की वजह विरोधी नेता ढ़ूंढ निकालते हैं चाहे इसके लिए कितना भी ठीठ बनना पड़े तो क्या है। अब आलम है कि चाहे उनके विरोधी हों या उनके ही दल में रंजिश रखने वाले नेता, मोदी से जलें-भुने या कोसें-कुढ़ें पर मोदी सबकी छाती पर मूंग दलते हुए आज की राजनीति की 'व्यक्ति पूजा' की नई टेक्नोलॉजी के नए सूरमा बनकर उभरे हैं। और सट्टेबाजों की गणित सात हाथ नीचे गड़ गई।
बड्डे. पुराने जमाने के ज्योति बाबू को छोड़ दें तो मोदी ऐसे अकेले मुख्यमंत्री हैं जो अपने दम पर सत्ता की हैट्रिक लगाने में कामयाब रहे हैं। हो न हो, भारतीय राजनीति के छितिज पर सभी दलों के लिए मोदी का मुद्दा अनुसंधान का विषय बना होगा कि उन्होंने 'इंपासिबिल' को 'पॉसिबिल' कैसे बना दिया गया।
यहां तक कि भाजपा की केंद्रीय इकाई में वर्षो से तंबू गाड़े शीर्ष नेता मौका ताककर पीएम बन् का ख्वाब, उम्र दराज होने से पहले संजो हैं और ऐसा लाजिमी भी है और भय भ् क्योंकि पूरी जिंदगी खपाकर भाजपा को खड़ा करने वाले आडवाणी की आंख् का पानी, पीएम बनने की प्रतीक्षा में सू गया, 'पर' कट कर गिर गए और अंत उन्होंने दुखी मन से अपने अरमानों को आंसुओं में बह जाने देना ही मुनासिब समझ। लेकि संघ और भाजपा की छवि से परे मोदी राजनीति रीटेल में ऐसा ब्रांड बनकर उभरे हैं कि केंद्र की राजनीति में लिपे-पुते नेता सन्निपात के आघात को ङोल रहे हैं। क्योंकि बिना किसी की छत्र छाया और खाद पानी के मोदी की अमरबेल गुजरात को लप् लेने के बाद दिल्ली की ओर देख रही है। बड्डे बोले- 'बड़े भाई सो तो है।' इन फैक्ट मोदी की माया अब गुजरात से निक कर समूचे देश को मोह रही है तो उसकी वजह भी इसलिए 'नरेंद्र दामोदर दास मोदी' अब "नेशनल दमदार मोदी" की छवि के रूप में राजनीति की खरपतवार को सफा चट करके स्वयंभू बनने कगार पर हैं। सफल् से अहम और अहम से पतन की बड़ी वैज्ञानिक गणित है। इसलिए बड्डे बोले - बड़े भाई डेमोक्रेसी में अच्छे-अच्छों की ऐसी-तैसी होती भी खूब देखी गई है। वी सिंह की नजीर क्या कम है समझने-बूझने के लिए।

Thursday 13 December 2012

विकास का बाईप्रोडक्ट ' बेईमानी'

बड्डे ने सबेरे-सबेरे अपना सुर अलापा कि बड़े भाई देश अराजक होने कगार पर है। हमने पूछा- देश या जनता या फिर नेता। बोले कोई भी हो बात 'सेम' है। नेता पक्ष का हो या विपक्ष का अथवा उभय पक्ष का, तीनों की पैदाइश देश में 'म्यूचुअल' है। यानी तीनों जनता से जन्मते हैं और जनता में विलीन हो जाते हैं। लेकिन जब तक नेता अपने सफेद चोले में रहता है, तब तक वह अपने जन्मदाता से विशिष्ट बना रहता हैं। क्योंकि जिसके पास सत्ता का पत्ता है वह किसी की सुनता नहीं और जो इससे मरहूम है वह किसी को सुनने देना नहीं चाहता।
अलबत्ता, चिंता की बात यह नहीं कि कौन किसको गाजर-मूली समझ रहा, क्योंकि इस नूराकुश्ती का कल्चर देश की राजनीति में ओल्ड है।
फिर भी जो दिखता है वही बिकता है। यानी माहौल में बमचक है। बेईमानी की तू-तू, मैं-मैं की मचमच के बीच अब सवाल लूट का नहीं बल्कि तुलना का है।
जब विकास की तुलना दो भिन्न सरकारों के बीच करके, उनके अलम्बरदारों मूंछ ऐंठ और सीना ठोंक सकते हैं, तो इस दौरान लूटी गई राशि और स्विस खातों में जमा रकम की तुलनात्मक विवेचना किये बिना भी यह तय करना सम्भव नहीं कि कौन छोटा और कौन बड़ा बेईमान था। कई बार यह दबी जुबां से कानाफूसी में माना और स्वीकारा गया कि विकास और बेईमानी अनुपातिक हैं, पूरक हैं।
इसलिए विकास को देखकर बेईमानी या भ्रष्टाचार का 'पर्सन्टेज' निकालना बेहद आसान है। देश के नेताओं की नई पौध को इसका विश्लेषण पढ़ाने और समझने के लिए, आजादी से लेकर अब तक के आंकड़े पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाने चाहिए, ताकि हमारी पीढ़ी अपने करियर का चुनाव करते समय कोई चूक न कर बैठे कि बेहतर कैरियर का मार्ग कौन सा था?सेवा चाहे सरकारी हो या जनता की, दोनों में 'लाभ का तत्व' 'इक्वल' है।
इस 'तत्व' का बोध नेताओं की जमात ने बेहतर समझ और अपने वारिसों को समय आने पर सौंपा है।
दरअसल, इस करियर में आजीवन यूनीफार्म एक सी यानी 'फक्क सफेद' जिसमें काला धन छिपाना 'कम्फरटेबल' होता है। मुद्दे भी रटे रटाये जो सालों से जनता को 'फूल' बना रहे हैं। ऑल पार्टी के लीडर वर्षो से, बेशर्मी से, किसान, गरीब, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के तवे में अपना पराठा सेंकते रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, गरीबी के चिरंजीवी मुद्दे थे और बने रहेंगे। क्योंकि इन्हीं में विकास और बेईमानी का राज 'इनक्लूड' है। करना बस इतना है कि विकास की लीपापोती दिखे और बेईमानी 'लीक' न हो, वो भी चुनाव के ऐन वक्त पर। क्योंकि पहले के विकास और घपले-घोटालों को जनता भूल जाती है।


Friday 7 December 2012

उसी से ठंडा उसी से गरम

जनतंत्र में "तंत्र" "जन" को कैसे बुद्धू बनाता है, इसका इग्जाम्पल संसद में एफडीआई की बहस के बहाने देश और दुनिया ने खुले आम देखा सुना। सपा और बसपा के दोहरे आचरण की सबने खबर ली। क्योंकि हमारे यहां "बहती गंगा में हाथ धोने" की प्रवृत्ति एक संस्कार के रूप में प्रतिष्ठित है। बावजूद इसके सपा, बसपा के चरित्र चिंतन को कोसने वाले लोग "फुलिश" हैं। क्योंकि इन दलों का बर्थ ही विशेष वर्ग को लेकर, विशेष तरह की राजनीति के लिए हुआ है और इसीलिए सत्ता का पत्ता उनके हाथ में ऑलवेज बना रहता है। अवसरवाद एक बड़ा राजनैतिक गुण है।
जिसकी भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक पहचान अब जाकर दर्ज हो रही है। पर बड्डे तुम हो कि इसे दुर्गुण मानते हो और चाहते हो कि नेता अपने धवल वस्त्रों की तरह अपनी करतूतों में भी दिखें। दरअसल, देश पिछले 60 वर्षो से इसी मुगालते में रहा है कि हमें छोड़कर सभी लोग बेहद ईमानदार, स्वच्छ छवि के हों। बस यही चूक चिल्लपों की वजह बनती रही है।
बड्डे बड़बड़ाये बोले- आप भी पत्रकार होकर बेहूदा बात करते हो, कांग्रेस का समर्थन करने और न- नुकुर करने में विशेष वर्ग की बात कहां से आ गई। यह तो देश में एफडीआई को लेकर विरोध और समर्थन से उत्पन्न चिकचिक और किचकिच का मसला है। और फिर ये नेचुरल है कि जब दो या अधिक दल एक साथ रहेंगे तो दलदल होगा ही। यानी "तुम्ही से मोहब्बत तुम्ही से बेवफाई" जैसे हालात लाजिमी है। उधर सर्वविदित है कि सपा और बसपा दो धुरंधर पैदाईशी प्रतिद्वन्दी हैं। पर लोभ वश छत्तीस का आंकड़ा रखने के बावजूद दोनों कांग्रेस को साईकिल और हाथी पर बैठाने के लिए 24 घंटे तत्पर हैं। दोनों एक साथ सरकार का साथ नहीं छोड़ सकते, इसका इल्म सरकार को बाकायदा है और उसका यही कॉनफिडेंस एफडीआई को लाने के पीछे है। बड्डे बोले- बड़े भाई पर संसदीय भाषण में सरकार को गाली और वोटिंग में पप्पी। ये सब किसलिए। जब मुलायम सख्त होते हैं तो माया पिघल जाती हैं और जब माया सख्त तो फिर उनका नाम ही मुलायम है। बड्डे मैसेज बड़ा क्लियर है, जिसके दस पंद्रह सांसद होंगे वे ही सरकार की कार ड्राईव करेंगे। केजरीवाल ने इस सीक्रेट को समय रहते
समझ बूझ के अन्ना से पल्ला झड़ लिया। क्योंकि "कुर्सी की गर्मी" ये अंदर की बात है बड्डे। अरविंद ने अपने सरकारी पद का बलिदान जनता के लिए दिया था, तो अब जनता की रिस्पॉसिबिलिटी है कि वह उन्हें सरकारी पद के बदले, सरकार में पदासीन करे। केंद्र की सरकार, सपा और बसपा कार में "एसी" सिस्टम की तरह हैं। जब ठंडा हो तो ब्लोअर चलाओ और गरम हो तो कूलिंग यानी "उसी से ठंडा उसी से गरम"