Thursday 22 December 2011

हम भारत के लोग

                                  
अच्छी बारिश के बाद उम्मीद जतायी गई थी इस वर्ष जल स्तर बढ़ेगा, कृषि उत्पादन बेहतर होगा, बाजार में रौनक लौटेगी, किसानों के चेहरे खिलेंगे और कुल मिलाकर आगामी वर्ष अपेक्षाकृत चिंता से मुक्त होगा। इधर सरकार भी खुश थी कि घोटाले-घपलों के बीच प्रकृति अनुकूल होने से जनता का ध्यान उसके कथित कारनामों से भंग होगा और वह भी कुछ बेहतर कदम उठाकर देशवासियों को महंगाई से राहत देने का प्रबंध करेगी। उधर अण्णा का ‘अगस्त अनशन’ भी अनुनय-विनय से  इस आश्वासन के साथ समाप्त करा दिया गया था कि एक मजबूत लोकपाल बिल शीतसत्र में लाया जाएगा। क्योंकि सरकार के ऊपर दबाव था कि भ्रष्टाचार और लोकपाल को लेकर जितना बवाल बीते और इस साल हुआ, उतना हड़कम्प देश के इतिहास में संसद से सड़क तक, नेता से जनता तक, किसी अन्य मामले में नहीं हुआ था। खैर अब लोकपाल के आने और न आने का सवाल नहीं रह गया। अब जो भी बहस, विवाद और माथापच्ची है, वह इसके स्वरूप, संगठन, इसमें नियुक्ति और इसकी क्षमता को लेकर ज्यादा है। अण्णा  समूह और सरकार के बीच टकराव भी मुख्यत: इसी पर केन्द्रित है। अब तो इस भिड़ंत के पीछे दोनों पक्षों का अहम भी कहीं न कहीं झलकने लगा है।
 बहरहाल, इस बहस के समानांतर एक ज्वलंत प्रश्न और है कि क्या लोकपाल ही भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा ‘प्रतिजैविक’ साबित होगा? और यह भी कि क्या कानून और संस्थान मात्र बना देने से भ्रष्टाचार मिटाया जा सकता है? तो मौजूदा सीबीआई, सीआईडी, सीवीसी जैसी केंद्रीय संस्थाओं अलावा प्रदेश स्तर पर अपराध ब्यूरो शाखाएं, क्या नकारा साबित हुर्इं हैं? यदि हां तो  इस बात की क्या ग्यारंटी है कि आने वाले वक्त में लोकपाल भी इन्हीं संस्थाओं की जमात में खड़ा दिखाई न देगा? यदि ऐसा हुआ तो, क्या फिर एक और ‘सुपर लोकपाल’ की मुहिम जनता में से किसी अण्णा को चलानी होगी?
    दरअसल, कानूनी संस्थाएं ऐलोपैथिक दवाओं की तरह हंै, जो मर्ज को दबाने का काम तो करती हैं, पर उनका उन्मूलन नहीं। क्योंकि जब एक समय की लाइलाज बीमारियों - टीबी, चेचक, खसरा, प्लेग का इलाज खोजा लिया गया, तब यह माना गया कि अब हम रोग मुक्त दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। पर जल्दी ही यह भ्रम भी जाता रहा, क्योंकि दूसरी अन्य लाइलाज बीमारियां यथा डेंगू, एड्स, बर्डफ्लू के रूप में सामने आ गर्इं। लेकिन कैंसर तब भी उपचार विहीन था आज भी है। ठीक ऐसे ही भ्रष्टाचार का कैंसर आज भी कानून की किताब में बना हुआ है और बना रहेगा; तब तक, जब तक इसका ऐसा आयुर्वेदिक इलाज न खोजा जाय,जो भले इसे जड़ मूल से समाप्त न भी कर सके, पर इतना न्यून तो कर सके कि इससे व्यापक जनहित प्रभावित न हों।
  पर सवाल है कि यह कैसे होगा? इसका समाधान जनता के चरित्र, उसके आचरण में निहित है। भारतीय संविधान की आत्मा ‘प्रस्तावना’ में पहला वाक्य है- ‘हम भारत के लोग भारत को...’  कैसा  बनाना चाहते हैं? और एक नागरिक की हैसियत से हमारा देश के प्रति कर्त्तव्य क्या होगा! भारतीय संविधान की ‘प्रस्तावना’ में जनता की शक्ति का मूल मंत्र निहित है। जिसकी प्राणप्रतिष्ठा घर-घर के पूजा स्थलों के साथ-साथ सार्वजनिक रूप से मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरिजाघरों आदि में होनी चाहिए और इसकी सिर्फ प्रतिष्ठा न हो,बल्कि इसका नित्य स्मरण भी होना चाहिए। ताकि हमें यह सतत याद रहे कि आज जैसा भी भारत है और उसकी जो दशा है, उसके निर्माता हम ही हैं, नेता नहीं। हमारा ही अक्स, हमारी सोच, हमारे चरित्र का प्रतिविम्ब देश की राजनीतिक व्यवस्था में है। हममें से ही नेता जन्मता है और हमीं उसकी आॅक्सीजन हैं, फिर अपने किए पर, अव्यवस्थाओं व समस्यायों के लिए सड़क चौराहों से लेकर गांव गलियारों तक बवाल करने से क्या हासिल होगा! भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी के लिए दोषी यदि नेता और सरकारी नीतियां हैं, तो हमें यह भी नहीं भूलना होगा कि सरकार भी हमने बनाई है और हमीं बदल सकते हैं। अहम सवाल है कि देश का नेतृत्व गढ़ते वक्त संविधान प्रदत्त यह सूत्र वाक्य क्यों विस्मृत जाते हैं कि हमीं ‘भारत भाग्य विधाता हैं।’ पर दुर्भाग्यवश हम सिर्फ भीड़ का हिस्सा है और यही बने रहना चाहते हैं, चाहे वह भीड़ जाति की हो अथवा समुदाय की। चुनाव आते ही हम एक चैतन्य भारतीय की तरह प्रत्याशियों का चयन नहीं करते, तब हमें नजर आता है, तो सिर्फ अपने जाति-समुदाय का प्रतिनिधि, इसी दवा की घुट्टी हमें कथित नेताओं ने पिला रखी है और हम अलमस्त है इसे पीकर। इसी सूत्र ने राजनीति के छोटे-छोटे कबीले तैयार कर दिए हैं, जिनसे मिल कर सत्ता बनती है, जिनके  दायित्वों में अपने समुदाय के हित प्राथमिक हैं, न कि देश के। यही जाति-समुदाय विशेष के लोग, दशकों से राजनीतिज्ञों के राजनैतिक तवा बने हुए हैं जिन पर कथित राजनेता अपनी सत्ता की रोटी सेंकते आ रहे हैं। ऐसे राजनीति के कबीलों का ध्येय एक विशेष वर्ग को उनका रहनुमा साबित करने और इसकी आड़ में अपनी राजनीति चमकाने में ही पूरा समय जाया होता है। इस तरह से जैसे देश में अनेक संस्कृतियां पल्लवित हो रही हैं वैसे ही एक भारत के भीतर कई भारत एक साथ पृथक-पृथक रूप में मौजूद हैं। और फिर नेताओं की बिरादरी यह भली-भांति समझ चुकी है कि जनता फुटबाल की तरह   है, चाहे टीम पक्ष की हो या विपक्ष उसे लात ही नसीब होनी है, गोल चाहे इधर हो, चाहे उधर, विजय होगी तो सिर्फ नेताओं की और राजनीति की होनी है। मुठ्ठी भर अंगे्रजों ने भी फूट डालो राज करो की तर्ज पर देश को जी भर लूटा था और अब हमने अपने-अपने अंग्रेज (दलित, पिछड़ा, अगड़ा, हिन्दू, मुस्लिम, किसान, गरीब न जाने और क्या क्या वर्गों के रहनुमा) तैयार कर लिए हैं।
     दरअसल, भ्रष्टाचार हमारे अभौतिक संस्थानों- मन, विचार में स्थान बना चुका है, जिसका उन्मूलन भौतिक कानून के जरिए हरगिज नहीं किया जा सकता। यह बात साबित हो चुकी है। हो न हो, इसका अनुभव सरकार को भी है और लोकपाल के गुब्बारे में सवार अण्णा हजारे और उनके करोड़ों अनुयायियों को भी। अब यह बात समझी जानी चाहिए कि भ्रष्टाचार की मूल वजह आधुनिक जीवन शैली की अति उपभोगवादी प्रवृत्ति और चकाचौंध से भरी देश की राजनीति है। दोनों की प्रवृत्तियों को लेकर हम लालायित और प्रभावित हैं। वर्तमान परिदृश्य में देश की राजनीति, हॉलीवुड या वॉलीवुड से कमतर ग्लैमराइज्ड नहीं है। नेताओं की हर रैली, सभाओं के निमित्त भीड़ जुटाने, बड़े-बडेÞे कटआउट, बैनर-पोस्टर चिपकाने अधिकाधिक गाड़ियों की संख्या का प्रदर्शन ही, राजनीति का चरित्र व चलन बन गया है। ऐसा होने के पीछे संविधान की प्रस्तावना में मूर्तिवत दर्ज हम भारत के लोग ही हैं, जो इनके धनबल,जनबल के मायाजाल से मोहित हैं। एक कथा हम सब ने पढ़ी है कि शिकारी आता है जाल फैलाता है हमें जाल में नहीं फंसना चाहिए... पर हम हर बार फंसने गलती दोहराते  रहे हैं। चुनाव के वक्त हमारे विरोध की समस्त ऊर्जा इन्हीं शिकारियों द्वारा दिए गए मीठे आश्वासनों, इनामों और अंगूरी पीकर अंगूठा लगाने में नष्ट हो जाती है। कितनी विचित्र बात है कि हम अण्णा को मानते हंै, पर अण्णा की नहीं मानते। कैसा पाखंड हमने पाल लिया है। दिल्ली में अण्णा के अगस्त अनशन का सर्मथन करने के लिए , जिन पंद्रह करोड़ लोगों ने एसएमएस के जरिए अपना-अपना समर्थन व्यक्त किया था, तो वे सक्रिय रूप से चुनावों के समय मतदान केंद्रों पर मत के जरिए बदलाव लाने का नैष्ठिक प्रयास क्यों नहीं करते। इसीलिए तथाकथित बुद्विजीवी वर्ग पर यह आरोप लगता रहा है कि वह बहस-मुबासिहों में तो बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है, लेकिन मतदान केंद्रों की लम्बी लाइन देखकर और इसे दोयम दर्जे का काम मानकर मतदान नहीं करता, जबकि 11 करोड़ लोगों का मत प्राप्त करने वाली कांग्रेस पार्टी देश की सत्ता चला रही है। इससे यह भी जाहिर है कि कुछ लोगों की दुष्टता सज्जन लोगों की तटस्थता के कारण चल रही है। शायद इन्हीं लोगों को केन्द्रित करके धरमवीर भारती ने लिखा है कि - ‘जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध’।
लोकपाल जैसा भी आयेगा वह एक और कानूनी अस्त्र तो होगा, जो भ्रष्टाचार के कैंसर पर अनुसंधान तो करेगा पर कितना कामयाब होगा यह बात देखने वाली होगी। पर आज  यह बात दावे से कही जा सकती है कि यदि हम भारत के लोग, अण्णा जैसे व्यक्तियों को ढूंढ़-ढूÞंढ़ कर, उन्हें न सिर्फ चुनाव में खड़ा करे बल्कि उन्हें चयनित भी करे तो भ्रष्टाचार ही क्या समस्त अव्यवस्थाएं, चाहे वे देश के भीतर की हों अथवा बाहर की, सभी का एक हद तक समाधान हो सकता है। आज हम ऐसे दौर में हैं,जहां से यदि हम कथित नेताओं का तवा न बने और आवाम राष्टÑीयता से ओत-प्रोत होकर, समाज से ऐसे निष्ठावानों को चुने जो पूरे देश, पूरे समाज की सोचता हो, न किसी विशेष वर्ग की। यह कदापि नहीं भूलना होगा कि भ्रष्टाचार एक वैचारिक समस्या है, जिसका भौतिक समाधान (कानूनी) कभी सम्भव नहीं। जरूरत है कि प्रस्तावना में निहित अपनी ताकत ‘हम भारत के लोग’ पहचाने और  अण्णा जैसे चरित्र के लोगों को समाज से खोज निकाले और उन्हें राष्टÑ के लिए चुने। जो सिर्फ देश की बात करे। जैसे अन्ना  मराठी हैं, पर सिर्फ राष्टÑ की बात करते हैं, विकास की बात करते हैं, वे आमची मुम्बई का राग या मोदी की तरह आपणों गुजरात का राग नहीं अलापते। ठीक ऐसे चलन हमें लाने होंगे। चुनाव में उसे ही चुनें जिसके पास चरित्र हो न कि ग्लैमर। प्रदर्शन और चकाचौंध की राजनीति को सिरे से खारिज करने का वक्त आ पहुंचा है। क्या ‘हम भारत के लोग’ संविधान की प्रस्तावना में निहित अपनी शक्ति को पहचानेंगे और जैसे भारत की कल्पना हमने सैद्धांतिक रूप से कर रखी है उसे व्यवहार रूप में साकार कर पाएंगे।      
                                      
      श्रीश पांडेय                              
   मो. न. 09424733818.

Tuesday 6 December 2011

जाडेÞ की सर्द धूप में...

जाड़े के दिन और गुनगुनी धूप का रिश्ता युवाओं के लिए किसी प्रेमी युगल के
संबंधों से कमतर नहीं होता, तो बुजुर्गों के लिए किसी औषधि से कम नहीं।
वहीं प्रौढ़ों के लिए यादों को टटोलने के लिए बेहतरीन अवसर देती है, यह
जाडेÞ की धूप। वैसे तो ‘प्रेम’ का मामला बेहद नाजुक होता है चाहे वह
लड़के -लड़की के दिलों में पनपने वाला ‘प्रेम’ हो या बेटे-बेटी के प्रति
मां-बाप का ‘प्रेम’। पर प्रेम की आत्मा एक ही है सिर्फ उसका चेहरा और
चोला बदलता रहता है। ‘प्रेम’ कैसा भी हो पर यह देखकर बड़ी तकलीफ होती है
कि फिल्मों ने इस सौंदर्य बोध को बुरी तरह मार दिया है। एक कथित विद्वान
का कथन है कि ‘प्रेम में कोई बिजली के स्विचनुमा बटन नहीं होती कि इसे
कहीं भी आॅन या आॅफ किया जा सके’ बल्कि ‘प्रेम’ तो करंट की भांति है, जो
सतत प्रवाहमान है, जिसे देखने का माध्यम भले विद्युत के स्विच हों। दूसरी
ओर आज भले ही ‘प्रेम’ की परिभाषा दैहिक सुख से जोड़ कर देखी जा रही हो, पर
यह इससे परे यह एक चिरस्थाई अनुभूति है। जो अमिट है, जिसकी अमरता आत्मा
की अमरता से संबंद्ध है और जिसका विस्तार अनंत है।
‘प्रेम’ चाहे दोहरा हो अथवा एक तरफा क्यों न रहा हो, उसको कनखियों से
देखने का सुख जिसने भी स्कूल कॉलेज की उम्र के दिनों में अनुभव किया
होगा, वही उसकी सघन गर्माहट को इस जाडेÞ की धूप में निहित आंच में बांच
सकता है। यह ठीक से नहीं कहा जा सकता कि आज ऐसा दौर या वातावरण कितना
समाज में मौजूद है, जहां लोग नितांत अपने लिए वक्त निकाल पाते हंै। पर
हां! इतना तो दावे से कहा जा सकता है कि ऐसे चिरंजीवी आनंद या तो मर-खप
गए हैं अथवा आधुनिक जीवन शैली ने छीन लिए हैं। किसी छत या लॉन में बैठे
चाय की चुस्कियों के बीच, चाय का लुफ्त और हाथ में समाचार-पत्रों के
पन्नों की सरसराहट के बीच, पीठ पर पड़ती जाडेÞ की धूप का आनंद वे ही जान
समझ सकतेहैं, जिन्होंने जिन्दगी को मुक्ताकाश में जीने का अवसर पाया
होगा, या गाहे-बगाहे आज भी कोशिश करते होंगे। ये सच है कि न अब लॉन हैं,
न पेड़, न ही छत और हैं भी तो समय नहीं। छोटे कस्बों और शहरों में तो ये
अब भी पाये जा सकते हैं, पर इसका आनंद लेने का वक्त न गांव-कस्बों में
है,न शहरों में। क्योंकि अनंत आकाश सी महत्वाकांक्षा की पूर्ति की अदम्य
इच्छा, हमारे मनोभावों को मशीनीकृत बनाती हंै, न कि मानवीय और भावुक।
वर्तमान दौर का यह तर्क ज्यादा गाढ़ा और हमें प्रभावित भी करता है कि
‘इतना टाईम कहां है सेंटीमेंटल होने का’ क्योंकि हमें दौड़ना है अपनी
ललचाई जीभ के लिए, दैहिक सुखों के लिए और पद, प्रतिष्ठा व सम्मान के लिए।
हम इतना ही नहीं बल्कि इससे भी अधिक पाने के लिए आतुर है...दिन-रात कैसे
भी। इसी आतुरता ने हमें चमड़ी के सुख तो अवश्य दिये हैं, पर दमड़ी हासिल
करने की फिराक में हम क्या-क्या हारते जा रहे हैं- मूल्यों, प्रकृति और
संसाधनोंके स्तर पर?
लेकिन बड़ा सवाल है कि ऐसे भावों को पढ़ते वक्त हम कितनी गहराई से मानव की
इस विडम्बना को अपने हृदय में धारण कर पाते हैं। इस पर, जाड़े की धूप मिले
फुरसत के क्षणों में चिंतन होना चाहिए। क्योंकि तेजी से बदलते समय में
मानव से उसके मानवीय गुण तीव्र गति से निर्जन होते जा रहे हैं, मनुष्य
भावनाशून्य होकर मशीन बनने को आतुर है और तो प्रकृति भी तीव्र गति से
शोषित होकर भयावह वीराने की ओर उन्मुख है, सिर्फ हमारी लालच और भोगवादी
प्रवृत्ति के चलते। ऐसी स्थितियों के बीच राजेश रेड्डी की दो पंक्तियां
रोशन हो आती हैं कि -
उलझकर हम हिसाबे जिंदगी को गड़बड़ा बैठे,
बहुत कुछ जोड़ने के फेर में खुद को घटा बैठे।
तो जाडेÞ की सर्द धूप के मध्यम ताप में जीवन का गणित लगाया जाना चाहिए,
चाहे वे युवा हों, प्रौढ़ अथवा बुजुर्ग। हकीकत में सौभाग्य से मिले जीवन
को हम कितना सौभाग्यशाली और सार्थक बना पाए हैं। दरअसल, ‘प्रेम’ जनक है
मानवता का, सामाजिकता का, परस्पर सौहार्द का और सद्भाव का। संसार की सारी
भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति का औचित्य तभी तक है, जब तक दुनिया में प्रेम
की धारा अविरल प्रवाहित है। आज जो अविश्वास एवं अमानवीयता का कचरा हमारे
चहुं ओर एकत्रित होता जा रहा है, उसके मूल में ‘प्रेम’ का ही आभाव है।
आज ‘प्रेम’ जिस भी रूप में हमारे मध्य विद्यमान है उसमें से इसका लावण्य,
इसकी आत्मा, इसका अमिट सौंदर्य नदारत है। हमारा जीवन ऐसी अंतहीन लिप्सा
की लालच में लिप्त है जो जीवन को लीलने के बाद भी अतृप्तता केदंश से
अभिशप्त रहती है। कहना पड़ता है कि मानवीय सभ्यता ऐसी अंधी सुरंग में
धंसती जा रही जहां भोग तो हंै, पर तृप्ति नहीं।
जैसे अधिक धूप चाहे जाडेÞ की क्यों न हो, हमें नुक्सान पहुंचाती है ठीक
वैसे ही संसाधनों के अत्यधिक भोग ने हमारे प्राकृतिक जीवन को छिन्न-भिन्न
कर दिया है। सैकड़ों ‘रोगों की पोटली’ बांधे सुबह की चाय के साथ दवा का
डब्बा हमारी जीवन शैली का अंग बनता जा रहा है। क्योंकि लाइफ स्टाइल में
भागम-भाग है, हड़बड़ी है, तनाव हैं और दिखावे के मिथ्या अहम् की कृत्रिमता
ने हमें घेर रखा है। हम इसके मोह पाश में ऐसे बंधते जा रहे है कि समय
नहीं है अपने किए पर चिंतन-मनन करने, अधिक मानवीय होने और जीवन को करीब
से देखने का।
समय की जरूरत है कि जिंदगी को प्रकृति के अधिक करीब ले जाया जाय,
सर्दी की इस धूप में इसका अनुसंधान होना चाहिए। धूप में एक नशा होता है
जैसे प्रेम में होता है, जो हमें स्वास्थ्यगत लाभ तो देता ही है, साथ ही
बेहतर जिंदगी से साक्षात्कार भी कराता है। लेकिन दुर्भाग्यवश स्वचालित
खिलौने (मोबाईल, टीवी, आईपैड, इंटरनेट) ही जीवन के वाहक बनते जा रहे हैं।
फिर ये सभी संसाधन ‘मानव संगत’ का विकल्प हरगिज नहीं हो सकते। संवेदनशील
होना हमारा प्राथमिक और मूलभूत गुण है और इसी आधार से हम कटते जा रहे
हैं। प्रेम संवेदनायुक्त होता है और यही हमारी संजीवनी बन सकता है। लेकिन
यह तभी सम्भव है जब हमारी जीवनशैली से भागमभाग और अस्थिरता का लोप हो। तो
आइए इस जाडेÞ की धूप में ‘प्रेम’ के मर्म को आत्मसात करते हुए गुनगुनाएं
कि ...
दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन,
बैठे रहे तसव्वुरे जाना किए हुए.....