Thursday 16 January 2014

आदमी तो आदमी है, लेकिन उसको देखने का नजरिया समाज में सदियों से अलग रहा है। संसार के हर धर्म-दर्शन में आदमी को परमात्मा की प्रतिकृति माना गया है। इसका समर्थन संस्कृत की चर्चित सूक्ति भी करती है कि 'यथा पिण्डे तथा ब्रम्ह्मण्डे’ यानी जो मानव शरीर में है उसी का विस्तार समूचे ब्रह्मांड में है। लेकिन इस वृहद दर्शन के बावजूद मानवीय स्वभाव, समाज में स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने और अपना लोहा मनवाने का रहा है।

आदि मानव का जब से सामाजीकरण हुआ है, उसने अपने वर्चस्व के निमित्त संघर्ष शुरू कर रखे हैं। इतिहास साक्षी है कि दुनिया में विभिन्न संस्कृतियों और राष्ट्रों का उदय और पराभव इसी वर्चस्व की जद्दोजहद से हुआ है। कमोवेश आज भी यह संघर्ष विभिन्न स्वरूपों में जारी है। इसी का नतीजा है कि आदमी का विभाजन कई बार, कई रूपों हुआ है। पहले वह वर्ण-जाति के तौर विभाजित हुआ, फिर इन्ही में आदमी के बरक्स 'अमीर’ और 'गरीब’ दो वर्ग बने। कालांतर में इसके बीच का एक और 'मध्यम’ वर्ग का 'टर्म’ चल निकला। बाद में इस 'मिडिल’ के भी दो विभाजन हुए- 'लोअर मिडिल क्लास ’और 'अपर मिडिल क्लास’ जिसमें रखकर आदमी की हैसियत देखी जा रही है। आदमी के ऐसे 'क्लासिफिकेशन’ चिरंतन हैं। इतना ही नहीं इतिहास में झांके तो वहां भी बाकायदे 'दीवाने-ए-खास’ और 'दीवाने-ए-आम’ जैसी व्यवस्थाएं इस विभाजन को रेखांकित करती दिखाई देती हैं। लेकिन अब अरविद केजरीवाल ने आम आदमी को नए अर्थ देते हुए कहा है कि 'जो ईमानदारी के साथ हैं, वे सब आम आदमी हैं। चाहे वह झुग्गी में रहता हो या दिल्ली के पॉश इलाके ग्रेटर कैलाश में।’ यानी बात बड़ी साफ है कि यहां आदमी चाहे अमीर हो या गरीब गर वह ईमानदार है तो 'आम आदमी’ है, लेकिन जिस तरह से कथित लोग देश में अर्थिक दृष्टि से रातों-रात बड़े आदमी बने हैं, उनके लिए मानना पड़ता है कि यह रास्ता ईमानदारी की तंग गली से कम ही गुजरा है। फिर भी आज जिसे 'आम आदमी’ कहा जाता है वह सदियों से जूझता रहा है और जूझता रहेगा।

पाश्चात्य समाज मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैस्लो ने मानव की आवश्यकताओं के पांच सोपान बताए हैं। प्रथम- 'शारीरिक’ यानी भूख प्यास और जैविक जरूरतें। दूसरी- 'सुरक्षा’ यानी जो आज उपलब्ध है वह कल कैसे मिलेगा, की फिक्र। तीसरी- 'सामाजिक’ है, जो प्रथम दो आवश्यकताएं पूरी होने के बाद स्वत: रोशन हो आती है। इसके तहत रिश्ते-नाते, मित्र-यार और व्यक्ति का सामाजीकरण शामिल है। ये तीनों जरूरतें प्राय: हर शख्स अपने-अपने स्तर पर हासिल कर लेता है। लेकिन असल संघर्ष चौथी जरूरत के लिए शुरू होता है, वह है- 'पहचान’ यानी खुद की यश-कीर्ति अथवा लोहा मनवाने के लिए जद्दोजहद करना है। इसी की झगड़ा दुनियाभर में नजर आता है। पांचवीं जरूरत है- 'स्वसम्मान’ की। यह जरूरत सबसे जुदा है, क्योंकि इसमें व्यक्ति अपनी कार्य दक्षता में आडम्बर से परे लीन रहता है।
तो, इस चौथी जरूरत के बरक्स जब एक सामान्य व्यक्ति, आसामान्य या विशेष यानी 'आम से खास’ बनने की कोशिश करता है तब वह 'आम आदमी’ की पदवी से बेदखल हो जाता है। लेकिन हम यह भूलते हैं कि इनदिनों लोगबाग 'आप पार्टी’ ज्चाइन करने के लिए महज इसलिए उतावले नहीं है कि उनमें रातोंरात जनसेवा का गुबार उमड़ पड़ा है, बल्कि इसलिए कि इसके जरिए जो मानव आवश्यकताओं का चौथा पायदान 'पहचान’ है को हासिल करने का यह सुलभ मंच दिख रहा है। देश में कई राजनीतिक दल पहले से मौजूद हैं, सभी आम आदमी की चिता के लिए मोर्चा खोले बैठे हैं। लेकिन आज यही दल जनता को दलदल दिख रहे हैं, तो इनकी कारगुजारियों के चलते। 'दल’ एक अमूर्त संस्था है, जबकि इसको संचालित करने वाले मूर्त और चेतन नेता हैं। इसलिए 'आप-तुम-हम’ जैसी कितनी भी पार्टियां देश में बन जाएं, नीयत को दुरुस्त किए बगैर हालात बदलने वाले नहीं। लेकिन फौरी तौर पर बेशक 'आप’ ने भारतीय राजनीति को नई दिशा दी है। ईमानदार होना और इसको सतत बनाए रखना किसी कठिन साधना से कम नहीं। राजनीति में मौजूद 'ग्लैमर’ से खुद को ओझल रख पाना आसान नहीं। गोस्वामी जी ने लिखा है कि- 'प्रभुता पाए काहि मद नाहि’। आचार्य चाणक्य ने कहा था कि 'सत्ता में अथवा राजकोष में बैठे व्यक्ति से यह उम्मीद करना कि वह उस धन का कुछ भाग निजी लाभ के लिए नहीं करेगा ठीक वैसा सोचना है जैसे जिह्वा में रखी शहद की बूंद का स्वाद न लेना।’
आप की सफलता से न सिर्फ दिल्ली में उम्मीदों का आसमान उजला हुआ है बल्कि देश भी इसी ओर देख रहा है। खासकर तब जब देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा बेहद गरीब है, दबा है, मैला-कुचला है, शोषित-पीड़ित है। इसी अवधारणा के नेपथ्य में 'आम आदमी पार्टी’ का जन्म हुआ है। केजरीवाल ने फिलहाल अपने कार्यकलाप और सादा जीवन पद्धति के जरिए देश के तमाम पॉलिटीशियनों को संदेश दिया है कि आने वाले वक्त में राजनीति का परिदृश्य कैसा होने जा रहा है।
फिर भी, देश की मनोदशा बेहद भावुक है। कई ऐसे मौके आए हैं, जब एकाएक कोई देश की राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरा, मगर समय के साथ यों लुप्त हुआ कि बाद में उसका कोई नामलेवा नहीं बचा। इस चर्चा में पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिह के जिक्र करने भर से बात समझी जा सकती है। तब उन्हें यह कह कर सर आंखों में बैठाया गया था कि- 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’ हालांकि आज केजरीवाल और वीपी सिह के दौर के हालातों में बड़ा फर्क है। देश भीतर ही भीतर कुव्यवस्थाओं के चलते सुलग रहा है। ऐसे में आम आदमी को केरीवाल एंड कम्पनी नई सोच, नया जोश, नई उड़ान के साथ नए अर्थ देने को आतुर हैं।