Sunday 25 March 2012

जीवन का आधार मां

 

इनदिनों देशभर में नवरात्रि का उत्सव चल रहा है। प्रत्येक वर्ष में यह अवसर चार बार(जिसमें दो बार प्रत्यक्ष और दो बार अप्रत्यक्ष जिसे हम गुप्त नवरात्रि भी कहते है) आता है। चैत्र माह की नवरात्रि से हिन्दू वर्ष का आरम्भ होता है। ये चारों नवरात्रियां तीन-तीन माह के अंतराल पर आती हैं। गौर से देखें तो हर तीन माह में मौसम में परिवर्तन के संधिकाल में इनका प्राकट्य होता है और इससे इनदिनों किये जाने वाले व्रत का वैज्ञानिक आधार भी समझा जा सकता है। पेट की स्वच्छता मौसम के परिवर्तन के साथ अनिवार्य है इसीलिए हमारे मनीषियों ने इनको एक निश्चित अंतराल पर वातावरण से अनुकूलन करने के लिए आरम्भ किया था। इसी वैज्ञानिकता को धर्म के साथ जोड़कर, धर्म और विज्ञान के अदभुत सौन्दर्य को, मानव कल्याण के लिए रखा था। ये नौ दिन शक्ति की आराधना का समय भी माना जाता है। माता एक ही है पर वह हमारे सामने विविध रूपों में आती है। उसकी अनेक शक्तियां और अभिव्यक्तियां हैं, जो इस विश्व में उनका कार्य करती हैं। पर जिनको हम पूजते हैं वह एक ही है और वही भगवान की दिव्य चेतना शक्ति है एवं सृष्टि का कारक है।
   जनसाधरण को प्राय: इस भ्रम में देखा जाता है कि वे इन नौ दिनों में देवी के किस रूप की साधना या पूजा उपासना करें। नौ दिनों में क्रमश: शैलपुत्री, ब्रम्हचारिणी, चंद्रघटा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धदात्री के रूप में मॉं की उपासना पद्धति शास्त्रोक्त है। पर एक गृहस्थ के लिए दैनिक कामकाज के बीच इन रूपों की विधिवत साधना सुगम नहीं हो पाती।  इसलिए  सभी  गृहस्थ  साधक जो मॉं की उपासना करना चाहते हैं उन्हें इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि वे दुर्गा, काली, लक्ष्मी या फिर सरस्वती की उपासना करें। जैसे हमारी जन्मदात्री मॉं यह भली भांति जानती है कि उम्र के विभिन्न पड़ावों में कब बच्चों को दूध देना है,कब किताबें और खेलकूद की सामग्री और कब सुलाना है, ठीक इसी तरह आदि शक्ति मॉं भी अपने भक्तों, साधकों को समयानुसार इच्छित फल बिना मांगे प्रदान करती है। इसलिए जनसामान्य को मॉं की सात्विक उपासना का क्रम करना चाहिए। इसलिए इन नौ दिनों में सिर्फ मॉं का ध्यान और ऊर्जा एकत्रित करने में लगाना चाहिए। क्योंकि मॉं ही जगत का आधार है। लेकिन यह देखकर पीड़ा होती है कि धर्म हमारे लिए आस्था कम आडम्बर की विषय वस्तु अधिक बनकर रह गया है। हम कलेंडर में विराजित मॉं के प्रति तो श्रद्धान्वत तो होते हैं पर घर-घर में विद्यमान जीवन देने वाली मॉं की उपेक्षा कर बैठते हैं। हम भूल जाते हैं कि मॉं तो सिर्फ  मॉं होती है, वह अच्छी या बुरी नहीं होती और न हो सकती है।
 आज की इस भौतिकतावादी सभ्यता में तथाकथित बुद्धिवादी मनुष्य ने अपने सुख और समृद्धि की खोज में स्वयं को भुला दिया है। मानव समाज  किस लक्ष्य की ओर अग्रसर है समझ पाना कठिन है। आज वह तमाम भौतिक साधनों के बीच आत्मविपन्नता, अर्थहीनता और इतनी घनी ऊब के बीच जीने को विवश है कि वह जीवन का स्पंदन तो महसूस करता है पर किसी व्यक्ति में जीने का भाव नहीं दीखता। लगता है मानो हर ओर जीवन तो है, पर लोग उसे बोझ की तरह ढ़ो रहे हैं। न कहीं सौन्दर्य, न सुख, न संतोष और न शान्ति है। जहां जीवन का आनंद न हो, अलोक न हो, वहां निश्चय मानिए कि जीवन नाममात्र का होता है। गौर से देखें तो हम भौतिक समृद्धि की होड़ में जीना ही भूल गए हैं।
     आज के परिवेश में हम विकृतियों की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। मानों हमारे भीतर के जीवन का निश्चित आधार टूट गया हो। जैसे कोई अति आवश्यक  जीवनस्नायु नष्ट हो गए हों और सारा समाज किसी संस्कृति में नहीं, विकृति में जी रहा हो। इस विकृति और विघटन के परिणाम व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो गए हैं। परिवार से लेकर पृथ्वी की समस्त परिधि तक उसकी बेसुरी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। ऐसे वातावरण में आज का जीवन नर्क और समाज मृत, सड़ा हुआ, दुर्गन्ध देता शरीर हो गया है। क्योंकि लोग चित्त की बहुत सी विक्षिप्तताओं को पहचानने में बिलकुल असमर्थ हो गए हैं।  सत्ता की, संग्रह की, शक्ति की दौड़ में समाज बेसुध हो चला है। आत्महीनता से पीड़ित व्यक्ति सत्ता और पद की खोज में अंधा हो चला है। यह भी कहा जा सकता है कि आज मनुष्य की समृद्धि, क्षमता और शक्ति तो दिन-दूनी, रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। भौतिकता की चकाचौंध के बीच स्वयं का अस्तित्व भी एक मशीन के रूप में रह गया है। कहना पड़ता है कि भगवान बचाए मनुष्य को इस तथाकथित समृद्धि से। क्योंकि सच्चाई है कि यह समृद्धि नहीं विनष्टि का किनारा है, जहां मनुष्यता का पहलू लुप्त होता जा रहा है और मनुष्य पशु से बदतर जीवन जीने को विवश है।
  ऐसे में यह कहना सम्भव नहीं कि मनुष्य की समृद्धि बढ़ गई है। हां वस्तुओं की समृद्धि अवश्य बढ़ी है, पर मानवता की समृद्धि उसी अनुपात में घट गई है। यह सच है कि विज्ञान के आलोक ने मनुष्य की निगाहें खोल दी हैं और उसको झकझोरा है। लेकिन साथ ही उसका बचपन भी छीना है और उसे असमय प्रौढ़ता दे दी है। क्योंकि इस युग का मानव केवल शक्ति की खोज में लगा हुआ है और कथित शक्तियों की उपलब्धि उसके लिए ही खतरा साबित हो रही है।
मनुष्य का मनुष्य को ही ठीक से न पहचानना इस आत्मघाती सम्भावना जड़ है। पदार्थ की अनंत शक्ति से आज का   मानव परिचित है,बल्कि परिचित ही नहीं उसका विजेता भी है। मनुष्य ने पदार्थाणु को तो पहचाना है पर वह आत्माणु से दिनोंदिन अपरिचित होता जा रहा है। यही इस युग की सबसे बड़ी भूल है और विडम्बना भी।
हमारी उपासना,साधना पद्धति हमें अधिकाधिक मानवीय होने की प्रेरणा देती है। जब हम मॉं की उपासना करते हैं और मनोवांक्षित फल की आकांक्षा करते हैं तो यह भी अनिवार्य हो जाता है कि मॉं के गुणों को जीवन में धारण करें। यही हमारी साधना की सफलता है। अन्यथा यह सम्पूर्ण पूजा पद्धति एक क्रिया मात्र बनकर रह जाती है। नौ दिन विशेष हैं और वर्ष में दो बार आते हैं। इस तरह से यदि जीवन औसत 70 वर्ष का माने तो यह अवसर जीवन में 140 बार आता है, जबकि हम विशेष ध्यान-साधना के माध्यम से ऊर्जा अर्जित कर मानव जीवन का भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिक भी उन्नयन कर सकते हैं। आखिर यही तो इस जीवन का ध्येय। आइये मॉं के इन नौ आराध्य दिनों की वंदना इस मंत्र के साथ करें-
या देवी सर्वभूतेषु मात्र रूपेण संस्थित:,
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै नमो नम:।

श्रीश पांडेय

Monday 5 March 2012

स्कूल में नक़ल

   मार्च के महीने में सरकार की उपलब्धियों का इम्तिहान वार्षिक बजट के जरिए होता है तो यही महीना प्राय: स्कूलों में विद्यार्थियों के इम्तिहान का भी होता है। इसी क्रम में इनदिनों प्रदेश के  विद्यालयों में हाई स्कूल और हायर सेकेंड्री की  परीक्षा आयोजित की जा रही है। गांव, कस्बों और शहरों में सुबह से स्वच्छ धवल कपड़ों में सजे बच्चों के हाथ में नोट्स के रट्टा मारते समूहों के दृश्य गली, नुक्कड़, चौराहों पर देखे जा सकते हैं। दरअसल, यह स्कूली परीक्षा का ऐसा अंतिम उत्सव  और कॅरियर को मनोवांक्षित दिशा में ले जाने वाला अहम पड़ाव  है,जहां से भविष्य की राह बनती है।
   परीक्षा कैसी भी हो उसमें एकाग्रता, मेहनत और लगन से सफलता पायी जा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य से इसके लिए नकल-जुगाड़ के प्रबंध न सिर्फ छात्रों द्वारा, यहां तक कि सरकारी और कथित निजी सरकारी मान्यता प्राप्त स्कूल के संचालकों द्वारा भी किए जाने के आरोप जब-तब लगते रहते हैं। सरकार के निर्देश हैं कि परीक्षाओं में सफलता का प्रतिशत उत्तरोत्तर बढ़े और ऐसा न होने पर शो-काज नोटिसों कर गाज भी शिक्षकों पर गिरती है। यही वजह है कि दूरस्थ क्षेत्रों में स्थित विद्यालयों में नकल जैसी तकनीकि को अपरोक्ष रूप से प्रश्रय दिया जाता रहा है। वार्षिक परीक्षाओं के माध्यम से किसी विद्यार्थी की वर्ष भर की मेहनत और विद्यालयों द्वारा प्रदत्त शिक्षा का मूल्यांकन किया जाता है। लेकिन सम्पूर्ण प्रदेश में जिस तरह से इन इम्तिहानों में नकल के प्रकरण थोक की दर से दर्ज किये जा रहे हैं, उससे विद्यार्थियों की तैयारी और उनके स्कूल में हुए अध्यापन की कलई भी खुलती दिख रही है, कि साल भर विद्यालयों में विद्यार्थी ने क्या पढ़ा और उन्हें शिक्षकों द्वारा क्या पढ़ाया गया।
    गौरतलब है कि स्कूलों की इन अंतिम परीक्षाओं (12वीं) के लिए प्रदेश में तीन तरह के बोर्ड संचालित हैं- सीबीएससी, आईसीएससी और मध्य प्रदेश बोर्ड। प्रथम दो संस्थाओं का प्रचलन निजी स्कूलों में है, जबकि मध्यप्रदेश बोर्ड प्राय: शासकीय स्कूलों में संचालित है। पाठÞ्यक्रम और परीक्षा के लिहाज से भी मध्य प्रदेश बोर्ड को अन्य बोर्डों के बनिस्बत दोयम दर्जे का माना जाता है। यानी पढ़ाई आसान और पाठ्यक्रम अपेक्षाकृत सरल व सुबोध होता है। बावजूद इसके जितने भी नकल प्रकरण दर्ज किए जा रहे हैं, उनमें से 95 फीसदी सरकारी स्कूलों अथवा सरकारी मान्यता प्राप्त उन निजी स्कूलों में जो ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में अवस्थित हंै। परीक्षाओं में हो रही नकल दो बातों पर मोहर लगाती है, एक तो विद्यालयों में शिक्षक साल भर क्या करते हैं, दूसरे विद्यार्थी भी तमाम शैक्षणिक सुविधाओं के बीच कितना पढ़ाई के प्रति गम्भीर हैं। विडम्बना है कि तीन तरह के बोर्डों में मध्य प्रदेश बोर्ड के प्रश्न-पत्रों का स्तर ऐसा रखा गया है, ताकि अधिक से अधिक छात्र उत्तीर्ण हो सकें और सरकार अपनी पीठ थपथपा कर, खम ठोक सके कि उसके शालाओं की स्थिति बेहतर है। जबकि हकीकत यह है कि उसके पाठ्यक्रम, सीबीएससी और आईसीएससी के पाठ्यक्रमों से 30 फीसदी कम हैं और प्रश्न पत्रों के स्तर में बड़ा अंतर भी। बात बड़ी साफ है कि सरकारी स्कूलों से निकले छात्रों और अन्य केन्द्रीय बोर्डों के छात्रों के स्तर में एक बड़ा अंतर पहले से मौजूद होता है, जिसका खमियाजा उसे आगामी प्रतियोगी परीक्षाओं में भोगना पड़ता है। परिणामत: आईआईटी, पीएमटी और पीईटी की प्रतियोगिता में उच्च स्तरीय सफलताओं में मप्र बोर्ड से उत्तीर्ण बच्चों का प्रतिशत नाममात्र का देखने में आया है।
दरअसल, सरकारी स्कूलों की दशा महज शिक्षा की खानापूर्ति का जरिया बन कर रह गयी है। इस पर नये सिरे से विचार करने का वक्त आ गया है। क्योंकि सिर्फ येन-केन प्रकारेण उत्तीर्ण छात्रों से सरकारी आंकड़े तो चमक सकते हैं, पर विद्यार्थियों का भविष्य एक ऐसी अंधी सुरंग में धंसता जा रहा है जहां से उसे निराशा और अंधेरे ही नसीब होना तय है। शहरी क्षेत्रों के कुछ मॉडल स्कूलों का छोड़ दें तो, अधिकांशत: ऐसे सरकारी स्कूल मजबूरी के स्कूल साबित हो रहे हैं और वे ही छात्र यहां दाखिला लेते हैं, जिनके पास विकल्प हीनता है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर और पढ़ाई की गुणवत्ता किसी से छिपी नहीं है। राष्टÑ निर्माण का पुनीत कार्र्य करने वाले शिक्षकों से मजदूरी के वेतन पर कराया जा रहा शिक्षण कार्य महज एक औपचारिक गतिविधि बनकर रह गया है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार इस पूरे वाकये से अनभिज्ञ है। पर लगता है उसने इस तथ्य से आंखें मंूदना ही बेहतर समझा है। क्योंकि न तो किसी अफसर, न ही किसी नेता के बच्चे इन स्कूलों में दाखिला लेते हैं। यहां तक कि इन स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षकों के बच्चे भी निजी स्कूलों में सीबीएससी और आईसीएससी पाठ्यक्रम के तहत अध्ययन में बेहतर भविष्य की राह देखते और मानते हैं।
   गौरतलब है कि ये परीक्षाएं अब इस रूप में महत्वपूर्ण हो चुकीं हैं कि  आईआईटी की प्रतियोगी परीक्षाओं में 12वीं के प्राप्तांक को भी प्रतियोगिता के बाद बनने वाली मेरिट का आधार बना दिए जाने से इस परीक्षा के अंकों का महत्व बढ़ा है। उधर सरकार ने पटवारी की प्रतियोगी परीक्षा में आधे अंक अंकसूची के आधार पर देने के निर्णय से इसके प्राप्तांकों का महत्व बढ़ा है। ऐसे में सरकारी बनाम निजी स्कूल और मध्यप्रदेश बोर्ड बनाम केंद्रीय बोर्डों में नई बहस छिड़ सकती है। देश के नामचीन   कॉलेजों में दाखिले के लिए भी 12वीं की अंकसूची का स्थान अहम है। ऐसी परिस्थितियों में प्रदेश सरकार को स्कूलों की शौक्षणिक गतिविधियों की गुणवत्ता पर ध्यान देना ही होगा, अन्यथा इन विद्यालयों से निकले बच्चों के लिए शिक्षा के माध्यम से भविष्य निर्माण की राह स्वप्न बनकर न रह जाए। इसके लिए शिक्षकों का मनोबल, उनके वेतन को सुधारकर और उन्हें शैक्षणिक ट्रेंड में आद्यतन करके बढ़ाया जा सकता है, तो छात्रों को भी समझना होगा कि मात्र नकल  या किसी जुगत से परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने मात्र से कुछ हासिल होने वाला नहीं।
  नकल से असल सफलता नहीं पायी जा सकती, इस मर्म को न सिर्फ विद्यार्थी समझें बल्कि उनके अध्यापक और अभिभावक भी। नकल से उत्तीर्ण होने वाले छात्रों की वही ठीक वही स्थिति है, जो पेढ़ की डाल पर बैठकर उसी डाल को काटने वाले कालिदास की थी। अत: छात्रों को नकल के जरिए छोटी उपलब्धियों के फिराक में शिक्षा और ज्ञान की जड़ को खोखला करने वाली प्रवृत्ति से बचना ही होगा।
                                   श्रीश पाण्डेय
                                   सम्पर्क - 09424733818.