Thursday 27 September 2012

मुखिया ने दी ज्ञान की पुडिया

  बड्डे बड़े सबेरे चौगड्डे पर अखबार लिए एक जनसमूह से मुखातिब हो सरकार के मुखिया द्वारा दी हुई ज्ञान की पुड़िया लोगों को दे रहे थे कि उन्होंने मौन त्यागकर मुंह खोला है कि गैस और डीजल के बढ़े हुए दाम जनता को भले अभी जला रहें हों, पर बाद में यही जले पर मरहम सा सुकून देंगे। फिर सस्ते के लिए हम एफडीआई तो ला ही रहे हैं। विकास के बरक्स देश की इज्जत भी तभी होगी जब विदेशी दुकाने गली-गली में सजेंगी, चमकीले स्टोरों में जनता शॉपिंग करने जाएगी और इस ग्लैमराइज्ड माहौल में उनकी कटती जेबें कभी उफ्फ् तक न कर सकेंगी। मौनीबाबा ने ज्ञान की एक और पुड़िया दी है कि देश की अर्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए कड़े आर्थिक कदम उठाना जरूरी हो गया है। इसलिए जनता पेट में पत्थर बांध के जीने की आदत डाल ले। उन्होंने अब तक का सबसे बड़ा खुलासा किया है कि ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते’ और जिन पेड़ों पर उगते भी हैं तो, वे वहां उगते हैं जहां जनता की औकात नहीं कि पहुंच सके।
  दाम बढ़ाने का जो संकट सम्मुख है, उसकी वजह अर्थव्यवस्था में ‘अव्यवस्था’ नहीं बल्कि व्यवस्था में ‘अव्यवस्था’ है। बड्डे बोले ‘बड़े भाई खुलकर बताओ।’ हमने कहा कि देख नहीं रहे पिछले दो बरस से सरकारी खजाने की कैसी लुटाई मची है, इत्ता तो मुगल और अंग्रेज मिलकर भी नहीं लूट पाए जित्ता इस पंचवर्षीय में आलरेडी हो चुकी है। अब जहां लूट है, लाजिमी है कि घाटा भी वहीं होगा। स्पेक्ट्रम, कोयले के पेड़ों से खजाने में आने वाला राजस्व स्विस बैंकों में चला गया। इसलिए खजाना खाली है। जिसकी भरपाई लुट चुके और स्विस के तहखानों में दफ्न हो चुके धन से तो होने से रही। क्योंकि अब वह लूट, लूटकारों की निजी एसेट बन चुकी है।  इस देश में जो लूटा गया उसे वापस लाना तो ब्रम्ह के बूते में नहीं। फिर भी कोशिश के तौर पर जनता, विपक्ष, मीडिया यहां तक कि कोर्ट भी डांट-डपट चुकी है। बाबा, अन्ना का गला चिल्ला-चोट करते चोक हो चुका है। मगर मजाल है कि एक पाई भी टस से मस हुई हो। उल्टे अब तो अन्ना-बाबा भी मौन की मुद्रा अख्तियार कर बैकफुट पर हैं। ऐसे में सरकार तृणमूल को किनारे लगा मुलायम को साथ ले, गुस्से में नथुने फुला, बांहें मोड़ रही है कि कौन है जो सरकार को गिरा सके। सरकार ने मौका ताककर तीसरा नेत्र क्या खोला कि बाबा रामदेव की दुकान झुलस उठी। उधर अन्ना को केजरीवाल खाए जा रहे हैं, चैक से रकम में हेरा-फेरी को लेकर थुक्का-फजीती के चलते वर्षों से बनाई इमेज का जनाजा निकल रहा है। आखिर बड्डे सोच में पड़ गए कि अचानक मौनीबाबा के पीछे इत्ती ऊर्जा किसकी आ गई...मैडम की या मुलायम की...!!

 

Wednesday 19 September 2012

डार्विन की डगर पर सरकार



  सबेरे-सबेरे लकड़ी बेचने वाली महिलाओं के पास बड्डे को गचर-पचर करते देख हम पूछ बैठे कि आज जलाऊ लकड़ी पर मोल भाव... इन्हें कहां जलाओगे, ढ़ाबा खोलोगे या गांव में जा बसोगे। बस फिर क्या था गैस की बढ़ी कीमतों पर  मन में जो गुस्सा मनमोहन सरकार पर था, वह लकड़ी वाली बाई से होता हुआ हम पर बरस पड़ा... बोले समझ लो मरने और खुद जलाने के लिए चिता की लकड़ियन का इंतजाम कर रहे हैं। राशन के रॉ मटेरियल को खरीदते-जुगाड़ते जिंदगी बिखरी जा रही है और अब उसे पकाने के लिए गैस सिलेंडर 800 रुपइया में मिलेगा। बड़े भाई कहां जाएगी यह सरकार इतने पाप करके। कहीं ठौर नहीं मिलेगी इस नासपीटी,करमजली को और न जाने कितने विशेषण अपने मुखाग्र से निकाले कि जो लिखे भी न जा सके। सरकार आम आदमी  को सीधे-सीधे मरने को क्यों नहीं कह देती। हमने कहा बड्डे आखिर लोकतंत्र है उसका भी कुछ लिहाज-लिहाफ होता है। सरकार तो बस इशारों में समझा रही है कि डार्विन की थ्योरी ‘सरवाईवल आॅफ द फिटेस्ट’ के मर्म को समझो कि जो आज की महंगाई में जो फिट है वही हिट है और उसी को जीने का अधिकार है। जंगल की भी यही स्थिति है ‘सिंह’ जो चाहे करे, खुद को जो बचा सके वही सरवाईव करे। इसलिए हाथी जैसे बेपरवाह बनो क्योंकि शेर उस हमला नहीं करता। हिरण, नीलगाय (आम जनता) बने तो कैसे सरवाईव करोगे। ऐसे में सरकार भी जंगली बन जाए तो गलत कहां है बड्डे। वह नेचर के नियम को फालोअप  ही तो कर रही है। अब देखो जो हाथी की स्थिति में हैं जैसे नेता से लेकर अफसर तक, चोर से लेकर डाकू तक, कालाबाजारियों से मुनाफाखोरों तक सब के सब सरवाईव करने के लिए कितने फिट हैं। महंगाई डायन उन्हीं के लिए जो आम हैं। खास के लिए तो विकास की सूचना। बच्चों को अच्छी ऐजुकेशन देना है तो पब्लिक स्कूल में अपनी जेब कटाओ, नहीं तो ‘मिड डे मील’ में पहले खिलाओ-पढ़ाओ और फिर ‘मनरेगा’ में खाओ-कमाओ। गैस  महंगी है तो कच्चा खाओ, बीमार हो जाओ तो सरकारी अस्पतालों में सड़ो, महंगाई है तो भूखे प्राण त्याग दो। और बड्डे तुम हो कि लोककल्याण के नाम पर सरकारी दामाद बनने की तमन्ना कर बैठे हो। पांच बरस में एक मुफ़त का वोट वो भी सरकारी स्टेशनरी पर और नेताओं की गाड़ी में बैठ कर क्या डाल दिया तो मुगालता पाल बैठे कि तुमने सरकार खरीद ली। सरकार बखूबी समझती-बूझती है वह जनता को इतने हिस्सों में बांट चुकी है  कि कि देश में उनका विरोध ज्वाइंट तौर कोई ‘माई का लाल’ नहीं कर सकता। इसलिए सरवाईव करने के डार्विन के मंत्र को समझो क्योंकि अब वही सरवाईव करेंगे जो डार्विन की डगर चलेंगे।    
         

Saturday 8 September 2012

हिंदी की दशा


 भाषा कोई भी हो, वह उसे जानने वालों के मध्य संचार का अचूक माध्यम होने के साथ ही वह सभ्यता व संस्कृति के विकास का वाहक भी होती है। इतिहास  साक्षी है कि दुनिया के अलग-अलग भू-भागों में अनेक भाषाओं और बोलियों ने मानव की नैसर्गिक प्रतिभा को पल्लवति, पोषित किया है। आदि मानव में बर्बरता इसीलिए थी, क्योंकि उसकी कोई बोली या भाषा नहीं थी। बस थी तो- भूख, प्यास, नींद और मौजूद थे कहने, सुनने व समझने के लिए कुछ अस्पष्ट स्वर व संकेत। समय के साथ भाषा का निर्माण बड़े जतन से अक्षरों, शब्दों के गढ़ने के बाद हुआ।
    आज भारत में लगभग 1618 भाषा एवं बोलियां है और दुनिया में लगभग 6912 भाषाएं एवं बोलियां हैं। जिनके माध्यम से कई मानवपयोगी अनुसंधान व अविष्कार हुए हैं, लेकिन आज इनमें से अधिकांश लुप्त हो चुकी हैं और न जाने कितनी ही इसके कगार पर हैं। जैसे बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है ठीक वैसे ही बड़ी भाषाएं छोटी भाषा और बोली को लीलती जा रही हैं और भाषा के साथ नष्ट होती है, वहां की मौलिकता, सभ्यता और संस्कृति के साथ एक समूची व्यवस्था, जिसे सदियों से हमारे पूर्वज सहेजते और विकसित करते आ रहे हैं।                                                                                                                                                                            कैसे एक विदेशी भाषा हमारी मौलिकता को नष्ट करती जा रही है, उसका एक सूक्ष्म एहसास मुझे अपने चार वर्षीय बेटे मानस श्री को उसके स्कूल में मिले गृहकार्य (होमवर्क) की एक अंगे्रजी कविता पढ़ाते वक्त हुआ। कविता थी ‘ओल्ड मेक्डोनॉल्ड हैड अ फॉर्म ईया ईया ओ... विथ सम डॉगस, बाऊ-बाऊ हेयर एण्ड बाऊ- बाऊ देयर’ और इसी प्रकार ‘विथ सम कॉऊ,.. मूं-मूं हेयर एण्ड मूं-मूं देयर’ इस कविता में कुत्ते के भौंकने (भों-भों) को बाऊ-बाऊ और गाय के रम्भानें (म्हां-म्हां) को मूं-मूं कहकर बच्चों से रट्टा लगवाया जा रहा है। धर्म क्षेत्र में देखें तो, बच्चे अब देवताओं के नाम गणेश नहीं ‘गणेशा’, राम-कृ ष्ण नहीं ‘रामा-कृ ष्णा’ जैसे सम्बोधन के आदी होते जा रहे हैं। कैसे बचपन से ही मूल स्वरों व आवाजों से इनकी महक  छिनती  जा रही है। इन्हीं एक-एक शब्दों के जरिए हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा और संस्कृति से परे होती जा रही है। कार्ययालयों, रोजमर्रा के मेल मुलाकातों के सम्बोधनों  गुडमॉर्निंग, गुडईवनिंग, गुडनाईट ने हमारे नमस्कार, प्रणाम, शुभरात्रि जैसे शब्दों को विस्थापित कर दिया है और  जो भी बचा है वह बिना प्रभावित हुए नहीं रहने वाला। आचार-विचार और सोच में यह तब्दीली तथाकथित अंग्रेजी दा सोसायटी में तो पूरी तरह उतर ही चुकी है और अब इसका अवतरण कस्बाई इलाकों में हो रहा है।
    सृजन किसी  भी  तरह  का  हो  वह  मौलिक बोली या भाषा में ही उत्कृष्ट और पूर्ण  हो सकता  है . बात गौर करने लायक है कि मौलिकता ही रचनात्मकता की जनक है और यह अपनी मातृ भाषा में ही सम्भव है। तभी तो टैगोर द्वारा बांग्ला में लिखी ‘गीतांजलि’ भारत में एकमात्र नोबल पुरस्कार पाने वाली पुस्तक बन कर रह गई। पर राष्टÑ भाषा हिन्दी को लेकर जिस तरह से दोयम दर्जे का रुख भारत में अख्तियार किया गया है, वैसा दुनिया के किसी और मुल्क में हरगिज नहीं होगा।
     इतिहास साक्छी है कि दुनिया के अधिकांश अविष्कार मौलिक भाषा में हुए हैं। यथा आज भी चीन में मंदारिन, फ्रांस में फ्रेंच, रुस में रशियन, जापान में जैपनीज भाषा में ही समस्त कार्य जारी हैं। यहां तक कि उनके राजनयिक अपनी देश-विदेश की यात्राओं में अपने यहां राष्टÑभाषा बोलने में नहीं हिचकते। लेकिन भारत में ऐसी स्थितियों में नेता अंग्रेजी के पक्ष में रहते हैं, न कि राष्टÑभाषा के। भारत में स्थितियां दिनोंदिन विपरीत होती जा रही हैं।
   पर  देश में अंग्रेजी को रोजगार से जोड़ देने की साजिश चल पड़ी है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर रहे बच्चों को एक अलग समूह के रूप में देखा जाने लगा है, जैसा पहले कभी ब्रितानी हुकूमत के दौर में था। आज भारत की शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी की अनिवार्यता बना दी गई है। पिछले दो वर्षों में  इसे पढ़ने का एक नया चोर रास्ता गढ़ दिया गया। पहले देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा ‘संघलोकसेवा’ की मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी का ऐच्छिक प्रश्न-पत्र था, जिसमें  मात्र उत्तीर्ण होना अनिवार्य था, यह तब भी  हिन्दी माध्यम में पढ़कर आये विद्यार्थियों के लिए एक बड़ी बाधा थी, पर तब कैसे भी रट कर काम चल जाता था। लेकिन,अब तो प्रारम्भिक परीक्षा में ही ‘सी-सेट’ टेस्ट के नाम पर अंग्रेजी की अनिवार्यता, पास होने के स्थान पर चयन का कारक बना दी गई है। क्या इसके मायने यह नहीं कि जो बच्चे कस्बाई या ग्रामीण क्षेत्रों में हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में मध्यान भोजन की सुविधा के मध्य अध्ययन कर रहे हैं, वे लोकसेवाओं की परीक्षा के लिए अयोग्य हैं? उनके नसीब में अभी मुफ्त का मध्यान भोजन है, बाद में मनरेगा की मजदूरी का होगा। सवाल बड़ा है पर उठाया नहीं जाता कि ऐसे स्कूलों से निकले प्रतिभाशाली बच्चों के लिए अंगे्रजी का अतिरिक्त अतिरिक्त बोझ क्यों? जब अंग्रेजी देश की सर्वोच्च सेवाओं में चयन का माध्यम बन जाय तो एक राष्टÑभाषा में दीक्षित देखने में आया है कि कई बार उसका अंग्रेजी  ज्ञान दुरुस्त न हो पाने की वजह से, प्रतिभा होने के बावजूद उक्त सेवाओं से वंचित रह जाना पड़ता है।
   देश में इससे बड़ा भाषाई भ्रष्टाचार और क्या हो सकता है? जो तथाकथित अंग्रेजीदां नीति नियंताओं द्वारा फैलाया गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार से तो मात्र भौतिक स्तर पर देश को नुक्सान पहुंचाता है, जिस पर कठोर कानूनी उपायों और भ्रष्ट व्यक्तियों   के सामाजिक तिरिष्कार द्वारा नियंत्रण पाया जा सकता है, लेकिन भाषा को लेकर हो रहा भेदभाव समाज की रचनाशक्ति, उसकी प्रतिभा यहां तक की सभ्यता के लिए धीमा जहर साबित हो रहा है। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया है कि आज बड़े हिन्दी दैनिकों में छपने वाले आलेख कई बार अंग्रेजी भाषा के लेखकों के होते हैं, जिनके निमित्त दफ्तरों में बाकायदा हिन्दी अनुवादकों को रखा जाता है। मित्र यह कहने से नहीं चूके कि यदि हिन्दी अखबार में बने रहना (सरवाइव करना) है, सो अंग्रेजी में पढ़ना-लिखना सीखिए वरना...! उनकी यह चेतावनी हिन्दी भाषा से विरक्ति को लेकर नहीं थी, बल्कि रोजगार को बरकरार रखने को लेकर थी। मेरे रिश्ते में पितृवत भाई स्वर्गीय डा. रामजी पांडेय जो आजीवन इलाहाबाद में महादेवी वर्मा के साथ पुत्रवत स्नेह पाते रहे, उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी लेखन जगत में अंग्रेजी की अनिवार्यता का जिक्र मुझसे नहीं किया था। पर आज जो वातावरण देश के भाषायी पर्यावरण में फैलता जा रहा है, उससे यह आशंका जरूर पैदा होती है कि यही हाल रहा तो आने वाले 20-25 सालों में राष्टÑभाषा हिन्दी जरूर हाशिए पर होगी।
  इसी वर्ष जनवरी माह के पहले सप्ताह में प्रधानमंत्री ने दिल्ली में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में संस्कृत भाषा के धार्मिक कार्यों तक सीमित हो जाने पर क्षोभ प्रकट किया था। हो सकता है कि भविष्य में कोई दूसरा प्रधानमंत्री यही क्षोभ हिन्दी भाषा को लेकर भी प्रकट करे। कितना बड़ा पाखंड और षड्यंत्र देश में राष्टÑभाषा को लेकर चल रहा है। पर क्या कभी इस दिशा में नीति नियंताओं ने खम ठोंका है? जैसे पिछले महीनो में  उजागर ‘कुपोषण’ के  काले  सच को राष्टÑीय शर्म बताया गया, उसी तरह ‘राष्टÑभाषा हिन्दी’ की उपेक्षा भी राष्टÑीय शर्म होनी चाहिए। पर अब तो बस एक तिथि है 14 सितम्बर यानी ‘हिन्दी दिवस’ जिसकी रस्म मना कर राष्टÑ भाषा को श्रद्धांजलिनुमा याद कर लिया जाता। शायद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की दी गई सीख हमने विस्मृत कर दी है कि -
 निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।।

श्रीश पांडेय

Friday 7 September 2012

बोल्ड़ बने, वर्ल्ड रखें मुट्ठी में

इं टरनेट पर बड्डे को सर्फिंग करते देख हम पूछ बैठे कि बड़ी-बड़ी आंखें गाड़कर क्या देख रहे हो.. वे बोले बड़े भाई कुछ नहीं बस फिकर में  हूं कि अपने देश में आधुनिकता (नंगापन) का दायरा अब इस कदर पसर चुका है कि पूरब और पश्चिम की संस्कृति में साम्यता नजर आने लगी है। अब तो देश में ही यूरोप, अमेरिका में होने का अहसास होता है। ऐसे में पश्चिम जाने की जरूरतई का है। सब कुछ दस बाई बारह की स्क्रीन में उपलब्ध है। एफएम की तरह जब चाहे, जहां चाहो खोलो और डूब जाओ, देखो दिखाओ, लाइफ बनाओ...।
    याद आती है सत्तर के दशक की कथित हॉट फिल्म ‘बॉबी’ जिसमें डिंपल के एक्सपोजर पर.. संंस्कार और संस्कृति के पोषकों ने ऐसे मुंह बिचकाया था कि मानो अब देश और देशवासियों का नैतिक पराभव शुरू हो गया। कभी पूरब और पश्चिम की नारी की तुलना का ख्याल भी हमें गर्व से भर देता था कि हमारी स्त्रियां कितनी मर्यादित और संस्कारित हैं रहन-सहन से लेकर तौर तरीकों में। पर अब जिस तरह का भौंडापन ड्रेसिंग सेंस को लेकर देश में पांव पसार रहा है। उससे भोतई प्रॉब्लम होने वाली है।
हमने कहा अरे बड्डे किस-किस को रोकोगे-टोकोगे ये देश ‘गरीब की लुगाई’ बन चुका है। जिसको जो मर्जी आये करे। कोई कोयला लूट रहा है, तो कोई स्पेक्ट्रम और जो लूट नहीं पा रहा वह खुद को लुटाकर जिस्म की कीमत पर जो बन पड़े बटोरने पर आमादा है। अब देखो शर्लिन चोपड़ा को ‘प्लेबॉय’ पत्रिका में अपनी न्यूड तस्वीर देर से देने का अफसोस है और उसकी यह स्वीकारोक्ति कि ‘मैंने पैसे के बदले सेक्स किया’ को कुछ यूं रेखांकित किया कि उसने वेश्यावृत्ति नहीं, की यह तो बोल्डनेस है। दूसरी ओर पूनम कह रही कि तू डाल-डाल, तो मैं पात-पात...मीडिया इन घटनाओं में मसाला मार के कुछ यूं पेश कर रहा है..मानो दोनों में एक स्वस्थ प्रतियोगिता चल रही है और देश की आवाम को इस बात की जानकारी होना जरूरी है कि कौन कितने कपडेÞ उतारेगा, कितना बोल्ड बन सकता है।
   बड्डे बोले कपडेÞ उतारने में बोल्ड होने जैसी क्या बात है? हमने कहा जो जितने कम कपड़े पहने और उसके बारे में जितनी ज्यादा बातें बेशर्मी से कर सके उतना बड़ा बोल्ड...। समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है, तब परिभाषाएं क्यों नहीं? कुछ समाचारों की साइटें तो ऐसी हैं जिसमें घपले-घोटाले,लूट, मानवीय संवेदनाओं की खबरों से ज्यादा अहमियत सेक्स और सनसनी से भरी खबरों को दी जा रही है। इसके पीछे तर्क मार्केट के टेंÑड का है, धंधा जैसे  चले, चलाना मजबूरी ही नहीं, जरूरी भी है।
दुनिया की बड़ी-बड़ी मैग्जीनों का धंधा इसी बोल्डता के आवरण में चमक और चल रहा है। टीवी के शो चाहे हास्य-व्यंग्य के क्यों न हों पर बिना बोल्ड हुए न तो चलते हैं न बिकते हैं। नए शोध के मुताबिक अब स्त्रियों को ‘आईक्यू’ पुरुषों की बनिस्बत बढ़ा है। अब उन्हें बेहतर मालूम है कि उनकी कथित बोल्डता का बिजनेस कितना बड़ा हो चुका है। जिन्हें बोल्ड बनना नहीं आता वे जीवन भर संघर्ष करती रहती हैं, शादी करके बच्चे पालती, उसी में दमती, रमती दुनिया से पलायन कर जाती हैं। पर जिसने यह सूत्र जान लिया, उनका पल भर में दुनिया की नजरों में मशहूर होना तय है। इस निमित्त शर्लिन, पूनम जैसी स्त्रियां रोल मॉडल हैं। जापान और कोरिया में तो बाकायदा बोल्ड बनने के प्रशिक्षण शिविर शुरू किए गये हैं। इसलिए बड़्डे आज की नारी का नया सूत्र है -‘बोल्ड बनिए, वर्ल्ड को मुठ्ठी में रखिए’।
आखिर बड्डे बडेÞ उदास हो के बोले बड़े भाई किसी किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि-  
    ‘शोहरतें इस तरह भी मिलतीं हैं कि तुमने अच्छा किया बुरा करके’।
  

Sunday 2 September 2012

आचार्य देवो भवः

  समूची कायनात में मनुष्य का जीवन ही ऐसा है जिसे जन्म से लेकर उठने , बैठने, चलने, बोलने, पढ़ने, लिखने की समस्त गतिविधियों में विभिन्न तरह के सहयोग की आवश्कता होती है। इस लिहाज से जन्म के चार पांच वर्षों तक अभिभावक समेत घर के वातावरण में मौजूद सभी वरिष्ठों से वह अबोध नित नयी गतिविधियां सीखता है। उम्र के विभिन्न पड़ावों पर समयानुरूप जो भी व्यक्ति उसको सीखने समझने जैसी गतिविधियों में सहयोग करता है वही उसका तात्कालिक आचार्य या शिक्षक होता है। लेकिन अपनी विधिवत शिक्षा को विद्यालय से महाविद्यालय तक हासिल करने के सफर में हर शख्स को शिक्षकों की आवश्यकता होती है। अलबत्ता हमारी यह सामान्य धारणा बन चुकी है कि जो हमें निर्धारित पाठ््यक्रम पढ़ाये वही क्रमिक रूप से हमारा शिक्षक होता है।  किन्तु सत्य इसके परे है। शिक्षा के समानांतर अनुशासन की सीख, चरित्र, नैतिकता जैसे मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा कर  एक अनुशासित नागरिक का निर्माण भी शैक्षणिक दायित्वों में शुमार होता है। इसीलिए कहा जाता है कि यदि शिक्षक राष्टÑ निर्माण का कारीगर है तो हम विद्यार्थी उसकी सामग्री। इतिहास साक्षी है कि जिस राज्य के गुरुकुल श्रेष्ठ शिक्षकों से सुसज्जित रहे उनकी यश-कीर्ति आज भी गाई जाती है। बात बड़ी साफ है कि शिक्षक भूमिका कितनी अहम थी, है और रहेगी। यह श्रेष्ठ  सभ्यताओं से समझा जा सकता है। अत: आज भी शिक्षकों का व्यक्तित्व इतना आकर्षक और मुखरित होना चाहिए कि उसे सम्पूर्ण समाज पहचाने। एक शिक्षक अपनी विद्वता से समाज में पहचान बनाता है।
            लेकिन इतने व्यापक महत्व के विषय पर जहां दुर्भाग्यवश सरकारों के रवैये और नित हो रही उपेक्षा से शिक्षकों, अध्यापन व्यवस्था और उनकी कार्यदशाओं में बेहद गिरावट आई है। वहीं अध्यापक भी शिक्षा दान के दायित्व न तो समझ रहे हैं, न ही अनुभव कर पा रहे हैं। उनकी दृष्टि में अध्यापक का वैसा ही कार्य है जैसा कि किसी क्लर्क या आॅफिस में कर्मचारी काम है। स्कूलों में घंटों में अपनी ड्यूटी पूरी कर देने, पुस्तक पढ़कर सुना देने अथवा उसकी व्याख्या कर देने भर को ही अध्यापक अपना काम समझते हैं। इसलिए अब शिक्षण का कार्य दायित्व न रह कर व्यवसाय बन चुका है और व्यवसाय संवेदना से परे होता है। इसलिए संवेदनहीन हो चुकी शिक्षा व्यवस्था से कैसे आपेक्षा की जा सकती है कि वह राष्टÑ के लिए नैतिक और निष्ठा से लबरेज युवाओं की फौज खड़ी कर सकेंगे।
          शिक्षा की महत्ता और गरिमा, उपयोगिता और आवश्यकता की जरूरत अनादिकाल से अब तक मनीषियों ने बताई है। यही वजह है कि विद्या से अमृत प्राप्त होने जैसे सूत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इसीलिए विद्यादान को किसी भी दान से श्रेष्ठ माना गया और इसको देने वाले शिक्षकों के लिए  कहा गया कि ‘आचार्य देवो भव:’ अर्थात जो तुम्हारा शिक्षण करता है उसे उसे देवता मानकर सम्मान दो। इसके लिए जरूरी है कि अध्यापक और विद्यार्थी के बीच सौहार्द्र, समीपता की आवश्यकता है। जो आज नहीं दिखती और यही कारण है कि आज का विद्यार्थी डिग्री, डिप्लोमा तो ले लेता है, लेकिन व्यवहारिक जीवन का शिक्षण, चरित्र, ज्ञान व उत्कृष्ट व्यक्तित्व का उसमें आभाव बना रहता है। जिसका असर तब दिखता है जब व्यक्ति सामाजिक जीवन में सहजता से खुद को समायोजित नहीं कर पाता। इसलिए मूल्यों के बगैर शिक्षा न सिर्फ अधूरी है, बल्कि  अनुपयोगी भी है। ऐसी शिक्षा जो जीवन को प्रकाशित न करे, उसे समुन्नत न बनाए वह विद्या किस काम की। शिक्षा का दायरा सिर्फ पढ़ाई नहीं बल्कि व्यक्तित्व विकास से भी जुड़ा है। अच्छी शिक्षा और संस्कारों से जीवन में आत्मविश्वास, सफलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का विकास होता है।
     आज देश में नीचे से ऊपर तक जिस कदर लूट-खसोट का वातावरण है, चाहे सरकारी मुलाजिम हों या हाकिम अथवा नेता सभी में नैतिकता, आचरण और अनुशासन का लोप साफतौर पर देखा जा सकता है। हम और हमारी व्यवस्था यह भूलती है कि किसी रोग का उपचार तो दवाओं से किसी भी उम्र और दशा में किया जा सकता है। परन्तु चरित्र और नैतिकता का बीजारोपण बचपन और स्कूली अवस्था में ही किया जाता है। कहीं इसमें एक बार चूक हो गई तो इसका खमियाजा समूचे राष्टÑ को लम्बे समय तक भोगना पड़ता है। सवाल बड़ा और बारीक है कि क्या आज शिक्षकों को इस बात का अहसास है कि वे राष्टÑनिर्माता हैं और क्या इस महकमें को हांकने वाले मंत्रियों का ध्यान इस ओर है कि उनकी योजनाएं कक्षा पास कराने और परिणामों को कागजों की शोभा बढ़ाने अलावा, वे छात्रों की अन्य गतिविधियों को लेकर कितनी व्यवहारिक रूप से चिंतित और सक्रिय हैं? शायद नहीं!! यह समूची गड़बड़ी प्राथमिक स्तर से शुरू हो जाती है और फिर यही क्रम उच्च कक्षाओं तक बरकरार रहता है।
      इसलिए शिक्षक दिवस के दिन दो बातें जरूर स्मरण की जानी चाहिए। एक- शिक्षकों की दयनीय सेवा दशाएं और इस ओर किए जा रहे प्रयास, दूसरा उनको उनके मूल दायित्वों के निर्वहन में आ रही बाधा का विकल्प खड़ा करना। ताकि वे सिर्फ शैक्षणिक कार्यों से सम्बद्ध रहें। साथ ही वे अपने दायित्वबोध को समझें। दूसरी ओर इसमें महत्वपूर्ण जबाबदारी विद्यार्थियों की भी है कि वे अपने शिक्षकों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का भाव रखें। क्योंकि विद्या विनय से आती है और विनय से पात्रता... और फिर पात्र व्यक्ति ही परिवार, समाज और राष्टÑ सेवा में दक्षता से जुट सकता है। आइए अपने वर्तमान और   भूतपूर्व शिक्षकों का सम्मान,उनके प्रति अपनी श्रृद्धा, विश्वास और सम्मान को प्रकट करते हुए सभी शिक्षकों को ‘शिक्षक दिवस’ पर शत् शत् नमन करें.... !

श्रीश पांडेय