Sunday 29 September 2013

राजनीति में नेता तीन तरह के

पिछले दिनों मध्य प्रदेश की दो बड़ी चुनावी सभाओं को बारीकी से तजबीजने और मथापच्ची करने के बाद बड्डे ने विश्लेषण दिया कि- देश की राजनीति में तीन तरह के नेता हैं। पहले वे जो पार्टी में वर्षो से जमे हैं, साठ के ऊपर हैं(कुछ खानदानी अपवादों को छोड़कर) आज भी पूजे जा रहे हैं,जो खांटी के हैं, जिनका एक गुट और आभामंडल है। ये वे नेता है जो पार्टी में परमानेंट हैं, जिनमें टिकट पाने, विधायक या मंत्री बनने की ललक नहीं, क्योंकि यह तो उनका, उनकी पार्टी में मौलिक अधिकार है। अब तो जो कुल कवायद है, वह केवल मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनने की लालच में निहित है। क्योंकि देश प्रदेश में राजनीतिक मोक्ष के दो ही साधन(पद) हैं- प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री। इसी मोक्ष के निमित्त वे हैलीकॉप्टर से इधर-उधर उड़ते, निरीह जनता को वादों के उपहार बांटते, वर्तमान सरकारों की धज्जियां उड़ाते, बखिया उधेड़ते नजर आते हैं। इनका काम इतना है कि वे शहर-शहर जाएं, फिल्मी हीरो के माफिक उड़नखटोले से वहां अवतरित हों, जहां पब्लिक उनके दर्शनों को उमड़े और वे मंच से हाथ हिलाएं, दिल मिले न मिले, लेकिन अपने साथियों के हाथ से हाथ जोड़कर, उन्हें हवा में लहराकर बनावटी यूनिटी का उद्घोष करें। ताकि संदेश दिया जा सके कि पार्टी के सिपहसालारों अब सत्ता हासिल करने के मिशन में पिल पड़ो, क्योंकि अब गुटबाजी का नहीं गांठ जोड़कर, हरकत करने का टाईम है। दूसरे वे नेता हैं जो 'लोकल' और 'वोकल' (बतोलेबाज) हैं। जिन पर इन बड़ी सभाओं में अपने-अपने दल बल के साथ 'पार्टीशिपेट' करने की जिम्मेदारी होती है। क्योंकि यही वह मौका और मंच हैं, अपने आकाओं के सम्मुख अपनी ताकत दिखाने का, कि वे टिकिट के असल दावेदार क्यों हैं? दरअसल, इनमें भी मंचासीन 'परमानेंट' नेताओं के 'सेप्परेट' समर्थक होते हैं, जिसके संकेत पोस्टरों, विज्ञापनों और सभा स्थल पर लगे नारों और पिटवाई गई तालियों से मिलते हैं। इनका 'ओनली टारगेट टिकट' होती है। तीसरे वे नेता हैं जो नई पौध कहलाती है। भले ये औसतन चालीस के आस-पास हैं, पर ऊर्जावान हैं। इनमें भी विधयक बनने की ललक है, मगर अनुशासन के नाम पर इनका शोषण पहले और दूसरे टाईप के नेता आजीवन करते हैं। इनका काम स्टेशनों में, हैलीपैड पर, सड़कों के किनारे, वंदन द्वार लगाकर, फूल-माला लिए, गगनचुम्बी नारों का उद्घोष मात्र है। इनके साथ फोकटिए टाईप के कुछ लड़कों की फौज फौरी तौर पर इकट्ठी होती और विलीन हो जाती है। आखिर बड्डे के इस विश्लेषण को गौर से सुनकर हमें तसल्ली हुई कि अब नेताओं की असलियत किसी से छिपी नहीं।

Friday 20 September 2013

मोदी रे..अब देश हुआ बेगाना.


देश में मोदी विरोध के नए-नए तरीकों का इजाद हो रहा है। बड्डे बोले- सो तो है बड़े भाई। लोकतंत्र में सबको 'इक्वल राइट' है, 'इलेक्शन फाइट' करने का। 'इवन' उन्हें भी जो जेल में हैं।
आज की डेट में तो संसद में सौ से ऊपर की संख्या ऐसी है जिन पर किसी न किसी तरह के आरोप लगे हैं। मोदी पर भी गुजरात दंगों में राजधर्म न निभाने का आरोप है। तो क्या इसका अर्थ है कि वे चुनाव न लड़ें? 1984 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व में तो पूरे देश में दंगे हुए।
सरदारोंको ढ़ूंढ-ढ़ूंढ कर निपटाया और लूटा गया।
तब भी राजधर्म निभाया नहीं गया। लेकिन किसी ने चूं तक न की। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने यह कहकर चुप्प्प्प्प्पी साध ली थी कि जब बड़ा पेड़(इंदिरा की हत्या) गिरता है तो धरती हिलती है। लेकिन सब भुला दिया गया। तब से तीन सरकारें कांग्रेस की बनी। किसी ने देश नहीं छोड़ा। असम जहां की सीट से मनमोहन सिंह पीएम पद पर एपांइट हुए हैं, वहां दंगे हुए, समुदाय विशेष के लोग कत्लेआम किए गये, लेकिन खामोशी छाई रही। किसी ने देश नहीं छोड़ा, न ही राजधर्म न निबाहने की बात हुई। अब मुजफ्फरनगर के दंगों में कौन-कौन देश छोड़ता है देखना होगा। लेकिन मोदी को लेकर लोगों की निष्ठा हिल गई, उन्हें अछूत मानकर कथित दलों, जिन्होंने भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगा, उन्हें वही दल अब रावण दिख रहा है, वह भी दस नहीं सौ सिरों वाला। अभी तो मोदी केंद्र में जीते नहीं, मात्र अभियान पर हैं तो कथितों का हाजमा खराब होने लगा है। गर जीत गए तो क्या लोग बाग देश छोड़ देंगे, क्योंकि मोदी तानाशाह हैं, मोदी निरंकुश हैं,मोदी जीत गए तो देश के नियम कायदे कानून उनके चरणों की दासी हो जाएंगे।
क्या मोदी संविधान को रौंद डालेंगे? सोचो बड्डे कितनी कमजोर आस्था के लोग इस देश में रह रहे हैं। गुजरात में तीन बार से लगातार जनता उन्हें चुन रही है तो वहां के किसी नागरिक ने देश नहीं छोड़ा, उल्टे सव्रे कहते हैं कि गुजरात का कुछेक कमियों के बावजूद विकास ही हुआ। यहां तक कि योजना आयोग ने मोदी के विकास कार्यो को 'एप्रिशिएट' किया है। फिर भी 'सरप्राईजिंगली' कन्नड़ साहित्यकार डॉ यू आर अनंतमूर्ति टाईप के लोग किस बात पर मोदी के नाम से देश छोड़ने चले हैं। हां उनको जरूर देश छोड़ना पड़ सकता जिनका माल विदेशों में जमा है। अलबत्ता मोदी की आड़ में समुदाय विशेष में भय उत्पन्न कर, उनका भयादोहन वोट की गोटी फिट करने के लिए हो रहा है। चुनाव में दांव सबको आजमाने का अवसर है। सबका फैसला जनता की उंगलियों में है। इसलिए उंगली करनी है तो वोटिंग पैड पर करें, देश के प्रति निष्ठा पर नहीं। जिसको देश ने सब दिया उनके द्वारा देश का तिरष्कार शर्मसार करता है।

Sunday 15 September 2013

दामिनी के दमन का विमर्श

आखिरकार दामिनी के दोषियों को ‘फांसी की फरमाइश’ जो घटना के दिन से हो रही थी, पूरी हुई। निश्चित रूप  इस मामले में इससे कम दंड पर बात नहीं बनती। दामिनी की जान पहले जा चुकी थी और अब बचे हुए अपराधियों की चौकड़ी का जीवन भी कानून ले लेगा। यह फैसला (इस चौकड़ी और उनके परिजनों छोड़कर) समस्त समाज को संतोष देता है। दूसरी ओर ऐसे ही सुकून का अनुमान दामिनी की आत्मा के लिए भी किया जा सकता है...। 
टी वी चैनलों और अखबारों में बड़ी-बड़ी बहसें चलीं, छपीं और इतिहास बन गर्इं। फेसबुक और ट्विटर पर उपजा गुस्सा भी चंद दिनों में काफूर हो जाएगा। लेकिन सवाल जो बेहद अहम है कि क्या अब ऐसी हरकत दोबारा नहीं होगी? क्या फांसी की सजा से उत्पन्न भय अपराध निरोध का काम करेगा? क्या यह फांसी नजीर बनेगी जिससे कामुक मानसिकता के लोग किनारा काट लेंगे या उनकी इन्द्रियां भोगवृत्ति से भयवश उदासीन हो जाएंगी...? जवाब आसान है की ऐसा हरगिज नहीं होगा। भले कानून या समाज, सजा को अपराधियों में भय का आधार मानता हो, मगर यह आधार सदियों से गलत साबित हुआ है। सच्चाई यह है कि ऐसी वारदातों से इतिहास के पन्ने पटे पड़े हैं। स्त्री हिंसा समाज में नासूर की तरह सतत बनी हुई है। और फिर दिल्ली की घटना  के बाद से तो और तेजी से ऐसी खबरें देखने, सुनने, और पढ़ने को सतत मिलती रही हैं...संभव है की जब आप यह आलेख पढ़ रहे हों उसी दिन अखबार के अन्य पन्नों में कोई न कोई एक और हादसा घटा और छपा हो।
 ज्वलंत प्रश्न है कि अब आगे क्या? कितनी फांसी, कितनों को हम और देगें और कितनी ज्योतियां बुझेंगी? फांसी में समाधान खोजने वाले समाज को इसकी पड़ताल करनी होगी कि स्त्री के विरुद्ध यौन हिंसा इतनी आक्रामक क्यों हो गयी है?
 बर्बर समाज से सभ्य समाज की विकास यात्रा, मूल्यों के आधार पर हुई। यह तथ्य है कि मूल्यों(हर तरह की नैतिकता) के खंम्भों पर समाज का तानाबाना खड़ा है। जब मूल्यों का पतन होता है तो हम पुन: बर्बर युग की और खिसकते नजर आते हैं। लब्बोलुआब यह कि ‘मूल्य’ मानव जीवन और समाज का बीज हैं। मूल्य जितने मजबूत होंगे समाज की बुनियाद उतनी दृढ़ होगी। स्त्री यौन हिंसा में असल मसला इसी बात का है। लेकिन आधुनिकता की बयार में मूल्य गिरे तो समाज की संरचना ढीली पड़ी। इसलिए बिना मूल्यों की प्राणप्रतिष्ठा किए चाहे वह पुरुषों में हो या स्त्रियों में बात नहीं बनने वाली। यह ऐसा अनुशासन जिसकी शुरूआत पारिवारिक जीवन में शुरू होती है। जिसका निर्वहन हर शख्स को निजी जिम्मेवारी के तौर पर करना होता है। लेकिन समाज में स्त्री स्वतंत्रता, समानता और पुरुषों की कुत्सित मानसिकता पर भौंडी बहसें चल रही हैं। यह समस्या के जड़ पर कुल्हाड़ी चलाने के बजाय शाखाओं को नोचने जैसा काम है। कथित लोग स्त्रियों के पहनावे पर आपत्ति करते हैं तो आधुनिकता के पोषक ऐसों की कुत्सित मानसिकता पर सवाल खड़े करते हैं।  लेकिन कभी-कभी आधुनिकता के ध्वजवाहकों द्वारा सम्पूर्ण समाज की समझ को एक स्तर पर देखने की चूक हो जाती है। पहनावे की स्वतंत्रता के संदर्भ में कोई बंधन न हों यह मांग बार-बार उठती है। यह मांग तालीबानी न हो जरूरी है मगर लेकिन यह अव्यवहारिक न हो इतना ख्याल तो किया ही जाना चाहिए।  लेकिन जो लोग बच्चों के साथ घिनौनी हरकतें करते हैं उनके मूल्य पाताल में जा धंसे है। 
लेकिन इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि बगैर नियंत्रण की स्वच्छंदता, अपराधिक कृत्यों की समानुपाती होती है। आज नवयुवक से लेकर बुजुर्गों के पास मोबाईल, इंटरनेट के संसाधन हाथों में हैं, जिसमें एक क्लिक पर वह समस्त यौन सामग्री को प्ले कर सकता है, जिसे देखने के लिए पहले पाबंदी है।  इसके समर्थन में कथित लोग यौन शिक्षा का अंधा समर्थन करते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि ऐसा खुला, समझदार समाजिक वातावरण हम निर्मित नहीं कर पाएं हैं। यौन शिक्षा वह भी कम उम्र में और विवाह अधिक उम्र में बात गले नहीं उतरती। हर शिक्षा की परीक्षा होती है। यही यौनिक विकृत की एक अहम वजह है। 
स्त्री स्वंतत्रता व समानता की बातें और उनको बढ़ावा हर स्तर पर हर हाल में दिया जाना चाहिए। रूढ़िवादी पुरुषों को यह समझना होगा कि स्त्री को लिंग भेद के आधार पर भेदभाव के भंवर में देर तक उलझाये नहीं रखा जा सकता। क्योंकि आधुनिक समय में स्त्री का चेहरा बदला है। आज वह मात्र सम्मान का नहीं, समानता का व्यवहार चाहती है। सदियों से समाज ने उसे पूज्य बनाकर उसकी देह को आभूषणों से लाद कर परंपरगत आदर्शों की घुट्टी पिलाकर उसके दिमाग को कुंद करने का काम किया है। इस दीवार को तोड़ने की उसकी हर कोशिश पर अब बवाल मचता है। 
सवाल है कि स्त्री करे क्या? भले यह बात अटपटी लगे मगर स्त्रियों को खुद से संवाद करना होगा। धोखे से बचने का यही कारगर उपाय है कि वह खुद को वहां की समाजिक स्थितियों के मुताबिक रखे। भावुक होना उसका स्वभाव है और इसी भावुकता का दोहन उसके शोषण का कारण बनता है। वैचारिक मजबूती के लिए स्वाध्याय पर खुद को केंद्रित करें। एक मजबूत कैरियर उन्हें वह खुशी दे सकता है जिसे वे किसी के अन्य तरीकों से हासिल नहीं कर सकतीं। ब्बॉय फ्रेंड की बजाय अध्ययन पर अधिक ध्यान जीवन में रंग भर सकता है।   और फिर स्कूल-कॉलेज का जीवन सिर्फ बेहतर अध्ययन और सुनहरे भविष्य के निर्माण का अवसर है, यह वक्त दोबारा नहीं आता। इस बात को वे अपने दिल दिमाग को जितना बेहतर समझा सकती हैं, तो खुशहाल जिंदगी की ओर एक कदम बढ़ा देंगी।
हर काम का एक निश्चित समय है,उसे समय के मुताबिक अंजाम दें तभी समाजिक स्थितियों में बदलाव लाए जा सकते हैं। तभी अबला को सबला में तब्दील किया जा सकता है, जहां तक सम्भव हो वह अपने जीवन की प्राथमिकताएं खुद तय करे, जिसमें स्वतंत्रता का बोध तो हो, मगर वह उच्छृखंलता से परे हो। कथित पुरुषों की मानसिकता को भले प्रत्यक्ष तौर न बदला जा सके, मगर इतना तय मानिए कि खुद को समय के साथ मजबूत करके ऐसी मन: स्थिति के समाज को सबक सिखाया जा सकता है। 
दिल्ली, मुम्बई की घटनाएं तो वे हैं जो मीडिया की सुर्खियां बनी लेकिन अनेक ऐसी वारदातें है जिनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह जाती है। स्त्री के विरुद्ध यौन हिंसा के बीज समाज में सदियों से विद्यमान रहे हैं, इन्हें कानून के भय से समाप्त तो नहीं किया जा सकता हां कम अवश्य किया जा सकता है। 
फिर भी पर्दे के पीछे से आगे तक के सफर में महिलाओं को कई पहाड़ लांघने पड़े हैं और अभी कई शेष हैं। कहते हैं कि शिक्षा के साथ संपन्नता और सभ्यता में भी इजाफा होता है। लेकिन फिर भी आदमी के दरिंदा होने की नजीरें हमारे समाज में बढ़ रही हैं। दामिनी के स्मृति में इस विषय पर गहन मनन करने का यही समय है।

हिंदी देश के माथे की बिंदी

ब ड्डे ने प्रात:काल ‘सुप्रभात’ के सम्बोधन के साथ सूचित किया कि आज चौदह सितम्बर है। इस तारीख को हिन्दी में ‘हिन्दी दिवस’ और अंग्रेजी में ‘हिन्डी डे’ कहते हैं। हां बड्डे! आज के दिन हिन्दी-हिन्दी के कीर्तन का उत्सव नुमा वातावरण चतुर्दिक नजर आयेगा है। अखबारों में हिन्दी की दयनीय दशा पर  बड़े-बड़े बल्लमों (जिनके बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ते हैं) के लेख छपेंगे, हिन्दी के पिछड़ेपन पर रुदन-क्रंदन भी भव्य समारोहों के जरिए जाहिर किया जाएगा, हिन्दी के संरक्षण, प्रयोग और विकास के बरक्स गगनचुम्बी संकल्प लिए जाएंगे। और तो और आज के दिन अंग्रेजी परस्त भी ‘इमोशल’ हो कह ही देते हैं कि ‘टुडे इज हिन्डी डे’। लेकिन शाम होते-होते हिन्दी प्रेम की खुमारी उतरने लगेगी। तब हिन्दी, हिन्दुस्तान के माथे की मात्र बिंदी बनकर रह जाएगी, जो साफ संकेत है कि देश की राष्टÑभाषा हिन्दी का महत्व शीर्ष पर है, लेकिन उसका स्थान बिन्दी जित्ता है। इस बिन्दी की आड़ में सरकार और समाज के समस्त काम-काज, पढ़ाई-लिखाई से लेकर रोजगार हासिल की अंतिम सत्ता अंग्रेजी के चरणों में गिरवी है। बड्डे बोले कि- भाषायी हालात तो जे हैं कि देश के नुमार्इंदे देश में ही अंग्रेजी पेलते हैं। वहां भी जहां हिन्दी से काम चलाया जा सकता है। सो इनसे भाषायी प्रेम की उम्मीद करना पाप है। बड़े-बड़े विद्वान, सिनेमा के सितारे हिन्दी बोलते वक्त जब अपनी बात कहते अटक जाते हैं तो ‘यू नो आई मीन टू से दैट’ से शुरू करते हुए, बिना अंग्रेजी अपनी बात ठीक से नहीं कह पाते। न्याय की भाषा अंग्रेजी में उनके लिए भी है जो अंग्रेजी की ‘ए,बी, सी, डी’ नहीं जानते। अब मोदी ने भी ‘ए, बी, सी, डी’ के संकेत शब्दों में सरकार पर इल्जाम लगाया है तो कांग्रेस के मनीष तिवारी ने ‘एफ’ के कोड में जबाव दिया है। बड्डे! हिन्दी प्रेम का आडम्बर तो आजादी के बाद से जारी है..लेकिन हकीकत में हिन्दी की वाट लग चुकी है। शासन का एक ठईया स्कूल अंग्रेजी माध्यम का नहीं है मगर अंग्रेजी में दीक्षित और दक्ष हुए बिना एकउ नौकरी हासिल नहीं की जा सकती। द्विवेदी युग में हिन्दी में कठिन शब्दों का प्रयोग बढ़ा तो भाषा की कठिनाईयों पर फिकरे भी कसे गए। बड्डे के छोटे भाई बनबारी ने, जो इंगलिश मीडियम में अध्ययनरत हैं, ने चंद उदाहरणों से इसकी खिल्ली कुछ यूं उड़ाई कि विद्युत के ‘स्विच’ को हिन्दी में- ‘विद्युत गमन आगमन नियंत्रक’। ‘हैलीकॉप्टर’ को ‘उदग्ररोही’ तो, ‘गॉगल’ को ‘कर्ण चिपकित नासिका स्थित पारदर्शक यंत्र’। इन फिकरों के बावजूद आज देश अपने माथे पर हिन्दी की बिन्दी लगाए अपनी राष्टÑभाषा के लिए, अपने ही देश में, अपने लोगों के बीच जिन्दा रहने के लिए संघर्षरत है।

Saturday 14 September 2013

हिंदी देश के माथे की बिंदी

बड्डे ने प्रात:काल ‘सुप्रभात’ के सम्बोधन के साथ सूचित किया कि आज चौदह सितम्बर है। इस तारीख को हिन्दी में ‘हिन्दी दिवस’ और अंग्रेजी में ‘हिन्डी डे’ कहते हैं। हां बड्डे! आज के दिन हिन्दी-हिन्दी के कीर्तन का उत्सव नुमा वातावरण चतुर्दिक नजर आयेगा है। अखबारों में हिन्दी की दयनीय दशा पर बड़े बड़े  बल्लमों (जिनके बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ते हैं) के लेख छपेंगे, हिन्दी के पिछड़ेपन पर रुदन-क्रंदन भी भव्य समारोहों के जरिए जाहिर किया जाएगा, हिन्दी के संरक्षण, प्रयोग और विकास के बरक्स गगनचुम्बी संकल्प लिए जाएंगे। और तो और आज के दिन अंग्रेजी परस्त भी ‘इमोशनल’ हो कह ही देते हैं कि ‘टुडे इज हिन्डी डे’। लेकिन शाम होते-होते हिन्दी प्रेम की खुमारी उतरने लगेगी। तब हिन्दी, हिन्दुस्तान के माथे की मात्र बिंदी बनकर रह जाएगी, जो साफ संकेत है कि देश की राष्टÑभाषा हिन्दी का महत्व शीर्ष पर है, लेकिन उसका स्थान बिन्दी जित्ता है। इस बिन्दी की आड़ में सरकार और समाज के समस्त काम-काज, पढ़ाई-लिखाई से लेकर रोजगार हासिल की अंतिम सत्ता अंग्रेजी के चरणों में गिरवी है। बड्डे बोले कि- भाषायी हालात तो जे हैं कि देश के नुमार्इंदे देश में ही अंग्रेजी पेलते हैं। वहां भी जहां हिन्दी से काम चलाया जा सकता है। सो इनसे भाषायी प्रेम की उम्मीद करना पाप है। बड़े-बड़े विद्वान, सिनेमा के सितारे हिन्दी बोलते वक्त जब अपनी बात कहते अटक जाते हैं तो ‘यू नो आई मीन टू से दैट’ से शुरू करते हुए, बिना अंग्रेजी अपनी बात ठीक से नहीं कह पाते। न्याय की भाषा अंग्रेजी उनके लिए भी है जो अंग्रेजी की ‘ए,बी, सी, डी’ नहीं जानते। अब मोदी ने भी ‘ए, बी, सी, डी’ के संकेत शब्दों में सरकार पर इल्जाम लगाया है तो कांग्रेस के मनीष तिवारी ने ‘एफ’ के कोड में जबाव दिया है। बड्डे हिन्दी प्रेम का आडम्बर तो आजादी के बाद से जारी है..लेकिन हकीकत में हिन्दी की वाट लग चुकी है। शासन का एक ठईया स्कूल अंग्रेजी माध्यम का नहीं है मगर अंग्रेजी में दीक्षित और दक्ष हुए बिना एकउ नौकरी हासिल नहीं की जा सकती। द्विवेदी युग में हिन्दी में कठिन शब्दों का प्रयोग बढ़ा तो भाषा की कठिनाईयों पर फिकरे भी कसे गए। बड्डे के छोटे भाई बनबारी ने, जो इंगलिश मीडियम में अध्ययनरत हैं, ने चंद उदाहरणों से इसकी खिल्ली कुछ यूं उड़ाई कि विद्युत के ‘स्विच’ को हिन्दी में- ‘विद्युत गमन आगमन नियंत्रक’। ‘हैलीकॉप्टर’ को ‘उदग्ररोही’ तो, ‘गॉगल’ को ‘कर्ण चिपकित नासिका स्थित पारदर्शक यंत्र’। इन फिकरों के बावजूद आज देश अपने माथे पर हिन्दी की बिन्दी लगाए अपनी राष्टÑभाषा के लिए, अपने ही देश में, अपने लोगों के बीच जिन्दा रहने के लिए संघर्षरत है।

Saturday 7 September 2013

भटकल पर कमाल के भटकाव

बड्डे ने पहले टीवी पर कमाल फारूकी का कमाल का बयान सुना कि 'यदि आतंकवादी भटकल को इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि वह मुसलमान है, तो इस गिरफ्तारी की जांच करके यह सुनिश्चित किया जाए कि भटकल को मुस्लिम होने की सजा न मिले।' फिर हमें फोन मिलाया कि बड़े भाई देश में राजनीति का स्तर कितना गिर गया है।
सोचता हूं कि क्या रुपए की गिरावट और राजनीति परस्पर समानुपाती हैं? पहले रुपया मजबूत था तो इतनी गिरावट न थी जितना 68 रुपया तक गिर जाने के बाद है। 'इट मीन्स' रुपया मजबूत, तो देश मजबूत और देश तो राजनीति भी। लेकिन रुपया से लेकर हर स्तर पर गिरावट है चाहे बाबाओं को देख लो, या लुच्चे टाईप लड़कों को। अब जो बचा है वह ओनली 'टुच्ची राजनीति' है। चाहे सदन में देख लो, या फिर सड़क पर। जो कथित नेताओं के निजी टाईप के दलों के मार्फत गाहे बगाहे बिजली की तरह कड़कती और लुप्त हो जाती है। इस पर बड़े भाई ने एक शेर मारा-
 "देखो बड्डे बिजली कैसे चमक तुरत छिप जाती है,
 जैसे मुहब्बत लुच्चे की, पल भर में खमत हो जाती है।"
इत्ता तो मानना होगा बड़े भाई कि भले लोकतंत्र संस्था का अविष्कार यूरोप में हुआ हो पर उसका असल प्रयोगकर्ता देश भारत है। इसलिए लोकतंत्र की 'ओरिजनल' स्वतंत्रता केवल अपनी कंट्री में दिखती है कि कैसे 'लोक' स्वतंत्र रूप से 'तंत्र' को चलाने के लिए पहले नुमाईंदो को चुनता है, फिर ये नुमाईंदे इसी 'तंत्र' में बैठकर 'लोक' पर मनचाही सवारी गांठत् हैं कि जो जी में कहो, करो लेकिन पांच् साल 'सेफ' है। अब बड्डे की बारी थी टुच्चा टाईप शेर दागने की, कि-
 "यहां चाहे जो करो वाह! क्या शमा है,
 कुछ बको इस लोकतंत्र में सब क्षमा है।"
अब टुंडा की तरह भटकल भी भटकते-भटकत् किस्मत से गिरफ्त में आया तो देश के 'सो कॉल्ड सेक्युलर' नुमाईंदों को इनमें आंतकी कम 'मुस्लिम् फैक्टर' ज्यादा दिख रहा है। ऐसे में हमें अटल विहारी वाजपेयी का स्टेटमेंट याद हो आया कि- 'यह सच है कि हर मुसलमान आतंकी नहीं मगर अफसोस की बात है कि हर पकड़ा गया आतंकी मुसलमान निकलता है।' मगर इन कथितों को यह गवारा नहीं कि कोई आतंकी मुसलमान है, गर है तो यह मुसलमान् के सम्मान के खिलाफ है। इतनी चिंता इसलिए क्योंकि उनका मुसलिम वोट पर कॉपीराईट है। वर्षो से वे इसी वोट की रोटी और वोटी खा रहे हैं। ऐसों के लिए वोट प्राथमिक और देश द्वितीयक है। इसीलिए आतंकी नेता को नहीं, जनता को निपटाते हैं। यानी दोनों का टारगेट 'जनता' है, हां तरीके अलग-अलग हैं। सो बड़े भाई कमाल भल् भटकें भटकल पर मगर पब्लिक है कि सब जानती है।

Sunday 1 September 2013

बाबाओं के जबड़े में समाज

     बाबाओं पर मचे बवाल को लेकर भगवती चरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ में तीन चरित्रों (बीजगुप्त, चित्रलेखा और कुमारगिरी)की स्मृति हो आती है। जिसमें बीजगुप्त और चित्रलेखा अपना सांसारिक जीवन समाज में स्पष्ट छवि के तौर पर जीते हैं। लेकिन कुमारगुप्त आध्यात्मिक संत की तरह आदर्श जीवन। कुमारगुप्त सभाओं ईश्वर की श्रेष्ठता और चारित्रिक निष्ठा की गाथा गाते हुए संसार को भटकाव की वजह मानते तिरिष्कृत करते। लेकिन जब उनकी इसी श्रेष्ठता से अभिभूत होकर चित्रलेखा उनके आश्रम में दीक्षा के लेने जातीं तो... बाबा कुमारगुप्त उन्हें हवस का शिकार बनाने के लिए उन पर टूट पड़ते। उनका संतत्व विलीन हो जाता। यह प्रसंग इसलिए कि देश आज भी कमोबेश ऐसे बाबाओं की यही दुर्दशा चहुं ओर दिखाई देती है।
बाबा या संत शब्द ऐसी उम्र के शख्सियत की तस्वीर सामने लाती है जो न सिर्फ उम्र में बड़ा हो बल्कि उसका ज्ञान, चरित्र और स्वभाव क्रमश: श्रेष्ठ, उज्जवल और विनम्र एवं अनुभव से युक्त हो। कुल मिलाकर एक विश्वसनीय चेहरा जिस पर हर तरह से ऐतबार किया जा सके। भारत में यह पदनाम इन्हीं गुणों के समुच्चय का प्रतीक रहा है। इसीलिए इन्हें समाज में अधिकतम आस्था और श्रद्धा के साथ देखा और स्वीकारा जाता है। लेकिन वक्त के साथ समाज के स्वरूप में आये परिवर्तन ने इन बाबाओं के प्रति कई तरह की भ्रांतियां तोड़ी और जोड़ी। संतों का जीवन  समाज के लिए समर्पित होता है, इसीलिए उनका सर्वोच्च सम्मान समाज में रहा है। लेकिन अब बाबाओं की गतिविधियां समाज कल्याण की कम, व्यवसायिक अधिक होती जा रही हैं। धन और भोग को मोह और पतन की वजह बताने वाले ये कथित संत खुद इसी माया के मोह-भोग में बुरी तरह लिप्त हैं। इनके आलीशान मठ और आडम्बरों की चकाचौंध से प्रभावित जनसमुदाय लौकिक(सांसारिक) लाभ को, अलौकिक कृपा से पाने लिए बाबाओं के चरणों में लोटता दिखता है।
इसी परंपरागत समाज की भावनात्मक आस्था का दोहन धर्म की आड़ में करके सयाने बाबाओं ने इस व्यवसाय को कुटीर उद्योग का रूप दे दिया। क्योंकि महिलाएं तुलनात्मक रूप से अधिक आस्था से इनके चरणों में वंदन करती हैं। इसलिए वे किसी भी पंडाल अथवा मठ में ताली पीटती सहज देखी जा सकती हैं। इसलिए बाबाओं के लिए महिलाएं अधिक ‘साफ्ट टारगेट’ होती हैं। यही वजह है कि वे आये दिन इनके झांसे में फंसती और पछताती हैं। आसाराम का हालिया झांसा भले उजागर हो गया हो पर ऐसे अनेक बाबाओं के प्रकरण होंगे, जिनका सच स्त्री संकोच और जांच के आभाव में दफ्न हो गया होगा। स्त्री के इसी शर्मीले स्वभाव के चलते अनैतिक क्रियाओं को करने की हिम्मत इन बाबाओं में जन्मती है। 
इसलिए बाबा या संतों के प्रति अगाध अंध आस्था ही स्त्री शोषण इनका हथियार बनता है। हैरत तब होती है जब पढ़ी लिखी स्त्रियां भी इनके चंगुल में आ जाती हैं। यह बात समझी जानी चाहिए कि ईश्वर ने हमें मनुष्य के रूप जन्म दिया इससे बड़ा चमत्कार और क्या हो सकता है। क्या कोई बाबा ऐसा चमत्कार कर सकता है? उत्तर है नहीं। लेकिन फिर भी हम अज्ञानता या लालचवश चमत्कारों के फेर में उलझते रहते हैं। घोर सांसारिक बाबा या संतों से ईश्वरीय चमत्कार के साकार हो जाने की अभिलाषा रखते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि मनुष्य और ईश्वर के बीच संवाद में कथित बाबा या संत जैसे दलालों का क्या काम हो सकता है। हां सच्चे सद्गुरू या संत का मार्गदर्शन निश्चित हमारे जीवन की राह प्रशस्थ करता है। लेकिन संत के सामान्य लक्षण- सादगी, सरलता, विनम्रता, आडम्बर से दूर, शुचिता और भेदभाव से परे जैसे गुणों का धारण करने वाले व्यक्ति ही कल्याण की राह दिखा सकता है। मात्र संतों का चोला, बढ़ी हुई दाढ़ी, चंदन लगाने जैसे रंगे सियार के उपाय कर लेने से ये कथित महानुभाव संत नहीं हो सकते। इसीलिए माया और वैभव को देखते ही सियार की तरह अपनी औकात में अवतरित हो हुआ हुआ करने लगते हैं।
 आज सवाल मात्र आसाराम पर कोहराम का नहीं है बल्कि चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि हम इन संतों के पीछे किस भय या लिप्सा से अंधे बनकर दौड़ रहे हैं। यों तो हम बात-बात में अपने ज्ञान का दम्भ जताते अघाते नहीं, लेकिन अज्ञात सुख की चाह में हमारा विवेक बाबाओं के फेर में बिलबिला सा जाता है। हम इतना भी विचार नहीं करते कि आत्मा की बड़ी इकाई परमात्मा है और हम उसी का विस्तार हैं। यानी मनुष्य और प्रकृति का विस्तार उसका ही विस्तार है। जैसे समुद्र की एक बूंद में वही सारे तत्व हैं, जो   समूचे समुद्र में। बस फर्क है तो दोनों की लघुता और महत्ता का। इसलिए समय है कि जब हम अपनी इस समझ से संवाद करें। कि हम भी उन सभी क्षमताओं से युक्त हैं, न कि उनसे जो ऐसे नाटकीय बाबाओं के छद्म अवरण में छुपी है। 
हास्यास्पद है कि अपने सामान्य व्यवहार में हम हर बात का तर्कपूर्ण उत्तर देते और चाहते हैं मगर बाबाओं की शरणागति में हमारा तार्किक ज्ञान कुंद हो जाता है। वर्तमान क्षण ही जीवन है जो बीत गया वह मात्र इतिहास और जो आने वाला है उस पर हमारा कोई निश्चित हक नहीं। इसलिए वर्तमान को जिएं। अंग्रेजी में वर्तमान को ‘प्रेजेन्ट’ कहते हैं और ‘प्रेजेन्ट’ का एक अर्थ उपहार भी है। अत: वर्तमान से बड़ा जीवन का कोई दूसरा उपहार नहीं। इसलिए भविष्य के काल्पनिक सुखों के लिए वर्तमान को नष्ट न कर दें। ...और फिर जिस देश में स्त्री को देवीस्वरूपा माना गया है, देवता भी इनकी स्तुति करते हों, वहां देवियों को कम से कम फर्जी बाबाओं की संगति से तो परहेज करना ही चाहिए। पहले जो जीवन मिला है उस आस्था रखें, स्वाध्याय करें, खुद पर विश्वास करें..यकीन मानिये आप उनसे खुद को सुखी और संतुष्ट पाएंगे जो मायावी बाबाओं के जबड़े में जकड़े हैं।