Saturday 12 September 2015

हिंदी की दशा, दुर्दशा और व्यथा


भाषा कोई भी हो, वह उसे जानने वालों के मध्य संचार का अचूक माध्यम होने के साथ ही वह सभ्यता व संस्कृति के विकास का वाहक भी होती है। इतिहास साक्षी है कि दुनिया के अलग-अलग भू-भागों में अनेक भाषाओं और बोलियों ने मानव की नैसर्गिक प्रतिभा को पल्लवति, पोषित किया है। आदि मानव में बर्बरता इसीलिए थी, क्योंकि उसकी कोई बोली या भाषा नहीं थी। बस थी तो- भूख, प्यास, नींद और मौजूद थे कहने, सुनने व समझने के लिए कुछ अस्पष्ट स्वर व संकेत। समय के साथ भाषा का निर्माण बड़े जतन से अक्षरों, शब्दों के गढ़ने के बाद हुआ।
आज भारत में लगभग 1618 भाषा एवं बोलियां है और दुनिया में लगभग 6912 भाषाएं एवं बोलियां हैं। जिनके माध्यम से कई मानवपयोगी अनुसंधान व अविष्कार हुए हैं, लेकिन आज इनमें से अधिकांश लुप्त हो चुकी हैं और न जाने कितनी ही इसके कगार पर हैं। जैसे बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है ठीक वैसे ही बड़ी भाषाएं छोटी भाषा और बोली को लीलती जा रही हैं और भाषा के साथ नष्ट होती है, वहां की मौलिकता, सभ्यता और संस्कृति के साथ एक समूची व्यवस्था, जिसे सदियों से हमारे पूर्वज सहेजते और विकसित करते आ रहे हैं। कैसे एक विदेशी भाषा हमारी मौलिकता को नष्ट करती जा रही है, उसका एक सूक्ष्म एहसास मुझे अपने बेटे मानस श्री को उसके स्कूल में मिले गृहकार्य (होमवर्क) की एक अंग्रेजी कविता पढ़ाते वक्त हुआ। कविता थी 'ओल्ड मेक्डोनॉल्ड हैड अ फॉर्म ईया ईया ओ... विथ सम डॉगस, बाऊ-बाऊ हेयर एण्ड बाऊ- बाऊ देयर’ और इसी प्रकार 'विथ सम कॉऊ,.. मूं-मूं हेयर एण्ड मूं-मूं देयर’ इस कविता में कुत्ते के भौंकने (भों-भों) को बाऊ-बाऊ और गाय के रम्भानें (म्हां-म्हां) को मूं-मूं कहकर बच्चों से रट्टा लगवाया जा रहा है। धर्म क्षेत्र में देखें तो, बच्चे अब देवताओं के नाम गणेश नहीं 'गणेशा’, राम-कृष्ण नहीं 'रामा-कृष्णा’ जैसे सम्बोधन के आदी होते जा रहे हैं। कैसे बचपन से ही मूल स्वरों व आवाजों से इनकी महक छिनती जा रही है। इन्हीं एक-एक शब्दों के जरिए हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा और संस्कृति से परे होती जा रही है। कार्ययालयों, रोजमर्रा के मेल मुलाकातों के सम्बोधनों गुडमॉîनग, गुडईवðनग, गुडनाईट ने हमारे नमस्कार, प्रणाम, शुभरात्रि जैसे शब्दों को विस्थापित कर दिया है और जो भी बचा है वह बिना प्रभावित हुए नहीं रहने वाला। आचार-विचार और सोच में यह तब्दीली तथाकथित अंग्रेजी दा सोसायटी में तो पूरी तरह उतर ही चुकी है और अब इसका अवतरण कस्बाई इलाकों में हो रहा है। 
सृजन किसी भी तरह का हो वह मौलिक बोली या भाषा में ही उत्कृष्ट और पूर्ण हो सकता है। बात गौर करने लायक है कि मौलिकता ही रचनात्मकता की जनक है और यह अपनी मातृ भाषा में ही सम्भव है। तभी तो टैगोर द्बारा बांग्ला में लिखी 'गीतांजलि’ भारत में एकमात्र नोबल पुरस्कार पाने वाली पुस्तक बन कर रह गई। पर राष्टु भाषा हिन्दी को लेकर जिस तरह से दोयम दर्जे का रुख भारत में अख्तियार किया गया है, वैसा दुनिया के किसी और मुल्क में हरगिज नहीं होगा। 
इतिहास साक्षी है कि दुनिया के अधिकांश अविष्कार मौलिक भाषा में हुए हैं। यथा आज भी चीन में मंदारिन, फ्रांस में फ्रेंच, रुस में रशियन, जापान में जैपनीज भाषा में ही समस्त कार्य जारी हैं। यहां तक कि उनके राजनयिक अपने देश-विदेश की यात्राओं में अपने देश की राष्ट्रभाषा बोलने में नहीं हिचकते। लेकिन भारत में ऐसी स्थितियों में नेता अंग्रेजी के पक्ष में रहते हैं, न कि राष्ट्रभाषा के। भारत में स्थितियां दिनोंदिन विपरीत होती जा रही हैं। 
पर देश में अंग्रेजी को रोजगार से जोड़ देने की साजिश चल पड़ी है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर रहे बच्चों को एक अलग समूह के रूप में देखा जाने लगा है, जैसा पहले कभी ब्रितानी हुकूमत के दौर में था। आज भारत की शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी की अनिवार्यता बना दी गई है। पिछले दो वर्षों में इसे पढ़ाने का एक नया चोर रास्ता गढ़ दिया गया। प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता, पास होने के स्थान पर चयन का कारक बना दी गई है। क्या इसके मायने यह नहीं कि जो बच्चे कस्बाई या ग्रामीण क्षेत्रों में हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में मध्यान भोजन की सुविधा के मध्य अध्ययन कर रहे हैं, वे प्रतियोगी परीक्षा के लिए अयोग्य हैं? उनके नसीब में अभी मुफ्त का मध्यान भोजन है, बाद में मनरेगा की मजदूरी का होगा। सवाल बड़ा है पर उठाया नहीं जाता कि ऐसे स्कूलों से निकले प्रतिभाशाली बच्चों के लिए अंग्रेजी का अतिरिक्त अतिरिक्त बोझ क्यों?
देश में इससे बड़ा भाषाई भ्रष्टाचार और क्या हो सकता है? जो तथाकथित अंग्रेजीदां नीति नियंताओं द्बारा फैलाया गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार से तो मात्र भौतिक स्तर पर देश को नुक्सान पहुंचाता है, जिस पर कठोर कानूनी उपायों और भ्रष्ट व्यक्तियों के सामाजिक तिरिष्कार द्बारा नियंत्रण पाया जा सकता है, लेकिन भाषा को लेकर हो रहा भेदभाव समाज की रचनाशक्ति, उसकी प्रतिभा यहां तक की सभ्यता के लिए धीमा जहर साबित हो रही है। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया है कि आज-कल बड़े हिन्दी दैनिकों में छपने वाले आलेख कई बार अंग्रेजी भाषा के लेखकों के होते हैं, जिनके निमित्त दफ्तरों में बाकायदा हिन्दी अनुवादकों को रखा जाता है। मित्र यह कहने से नहीं चूके कि यदि हिन्दी अखबार में बने रहना (सरवाइव करना) है, सो अंग्रेजी में पढ़ना-लिखना सीखिए वरना...! उनकी यह चेतावनी हिन्दी भाषा से विरक्ति को लेकर नहीं थी, बल्कि रोजगार को बरकरार रखने को लेकर थी। मेरे रिश्ते में पितृवत भाई स्वर्गीय डा. रामजी पांडेय जो आजीवन इलाहाबाद में महादेवी वर्मा के साथ पुत्रवत स्नेह पाते रहे, उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी लेखन जगत में अंग्रेजी की अनिवार्यता का जिक्र मुझसे नहीं किया था। पर आज जो वातावरण देश के भाषायी पर्यावरण में फैलता जा रहा है, उससे यह आशंका जरूर पैदा होती है कि यही हाल रहा तो आने वाले 2०-25 सालों में राष्ट्रभाषा हिन्दी जरूर हाशिए पर होगी। 
जनवरी 2०12 के पहले सप्ताह में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिल्ली में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में संस्कृत भाषा के धार्मिक कार्यों तक सीमित हो जाने पर क्षोभ प्रकट किया था। हो सकता है कि भविष्य में कोई दूसरा प्रधानमंत्री यही क्षोभ हिन्दी भाषा को लेकर भी प्रकट करे। जैसे कभी 'कुपोषण’ के काले सच को राष्ट्रीय शर्म बताया गया, उसी तरह 'राष्ट्रभाषा हिन्दी’ की उपेक्षा भी राष्ट्रीय नहीं शर्म होनी चाहिए।
हाल में दसवां विश्व हिदी सम्मलेन भोपाल में संपन्न हुआ। जितने लोग उतनी बातें, इस सम्मलेन के बरक्स, जमकर कानी फूसी हुईं। यही इस सम्मलेन के अंदर का असल सम्मलेन था। मोदी आये, शिवराज ने भी आसन लिए। पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि कह देते कि प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की जाती है। भले ये दोनों आजाद भारत में जन्मे पर संस्कार तो बोल गए, हिम्मत डोल गयी। एक-एक सरकारी स्कूल हिदी माध्यम का है, पर एक भी नौकरी बिना अंग्रेजी में दक्षता लिए नही है। जब ऐसा पाखंड, देश का पीएम और प्रदेश का सीएम पाले हों तो फिर किससे आस लगाई जा सकती है।
 पर अब तो बस एक तिथि है 14 सितम्बर यानी 'हिन्दी दिवस’ जिसकी रस्म मना कर राष्ट्र भाषा को श्रद्धांजलिनुमा याद कर लिया जाता। शायद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की दी गई सीख हमने विस्मृत कर दी है कि -
 निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।। 

Thursday 3 September 2015

"बदल गए शिक्षा के मूल्य"


 समूची कायनात में मनुष्य का जीवन ही ऐसा है जिसे जन्म से लेकर उठने , बैठने, चलने, बोलने, पढ़ने, लिखने की समस्त गतिविधियों में विभिन्न तरह के सहयोग की आवश्कता होती है। इस लिहाज से जन्म के चार पांच वर्षों तक अभिभावक समेत घर के वातावरण में मौजूद सभी वरिष्ठों से वह अबोध नित नयी गतिविधियां सीखता है। उम्र के विभिन्न पड़ावों पर समयानुरूप जो भी व्यक्ति उसको सीखने समझने जैसी गतिविधियों में सहयोग करता है वही उसका तात्कालिक आचार्य या शिक्षक होता है। लेकिन अपनी विधिवत शिक्षा को विद्यालय से महाविद्यालय तक हासिल करने के सफर में हर शख्स को शिक्षकों की आवश्यकता होती है। अलबत्ता हमारी यह सामान्य धारणा बन चुकी है कि जो हमें निर्धारित पाठ््यक्रम पढ़ाये वही क्रमिक रूप से हमारा शिक्षक होता है। किन्तु सत्य इसके परे है। शिक्षा के समानांतर अनुशासन की सीख, चरित्र, नैतिकता जैसे मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा कर एक अनुशासित नागरिक का निर्माण भी शैक्षणिक दायित्वों में शुमार होता है। इसीलिए कहा जाता है कि यदि शिक्षक राष्ट्र निर्माण का कारीगर है, तो हम विद्यार्थी उसकी सामग्री। इतिहास साक्षी है कि जिस राज्य के गुरुकुल श्रेष्ठ शिक्षकों से सुसज्जित रहे उनकी यश-कीर्ति आज भी गाई जाती है। बात बड़ी साफ है कि शिक्षक भूमिका कितनी अहम थी, है और रहेगी। यह श्रेष्ठ सभ्यताओं से समझा जा सकता है। अत: आज भी शिक्षकों का व्यक्तित्व इतना आकर्षक और मुखरित होना चाहिए कि उसे सम्पूर्ण समाज पहचाने। एक शिक्षक अपनी विद्बता से समाज में पहचान बनाता है।
लेकिन इतने व्यापक महत्व के विषय पर जहां दुर्भाग्यवश सरकारों के रवैये और नित हो रही उपेक्षा से शिक्षकों, अध्यापन व्यवस्था और उनकी कार्यदशाओं में बेहद गिरावट आई है। वहीं अध्यापक भी शिक्षा दान के दायित्व न तो समझ रहे हैं, न ही अनुभव कर पा रहे हैं। उनकी दृष्टि में अध्यापक का वैसा ही कार्य है जैसा कि किसी क्लर्क या ऑफिस में कर्मचारी काम है। स्कूलों में घंटों में अपनी ड्यूटी पूरी कर देने, पुस्तक पढ़कर सुना देने अथवा उसकी व्याख्या कर देने भर को ही अध्यापक अपना काम समझते हैं। इसलिए अब शिक्षण का कार्य दायित्व न रह कर व्यवसाय बन चुका है और व्यवसाय संवेदना से परे होता है। इसलिए संवेदनहीन हो चुकी शिक्षा व्यवस्था से कैसे आपेक्षा की जा सकती है कि वह राष्ट्र के लिए नैतिक और निष्ठा से लबरेज युवाओं की फौज खड़ी कर सकेंगे। 
शिक्षा की महत्ता और गरिमा, उपयोगिता और आवश्यकता को अनादिकाल से अब तक मनीषियों ने रेखांकित किया है। यही वजह है कि विद्या से अमृत प्राप्त होने जैसे सूत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इसीलिए विद्यादान को किसी भी दान से श्रेष्ठ माना गया और इसको देने वाले शिक्षकों के लिए कहा गया कि 'आचार्य देवो भव:’ अर्थात जो तुम्हारा शिक्षण करता है उसे उसे देवता मानकर सम्मान दो। इसके लिए जरूरी है कि अध्यापक और विद्यार्थी के बीच सौहार्द्र, समीपता की आवश्यकता है। जो आज नहीं दिखती और यही कारण है कि आज का विद्यार्थी डिग्री, डिप्लोमा तो ले लेता है, लेकिन व्यवहारिक जीवन का शिक्षण, चरित्र, ज्ञान व उत्कृष्ट व्यक्तित्व का उसमें आभाव बना रहता है। जिसका असर तब दिखता है जब व्यक्ति सामाजिक जीवन में सहजता से खुद को समायोजित नहीं कर पाता। इसलिए मूल्यों के बगैर शिक्षा न सिर्फ अधूरी है, बल्कि अनुपयोगी भी है। ऐसी शिक्षा जो जीवन को प्रकाशित न करे, उसे समुन्नत न बनाए वह विद्या किस काम की। शिक्षा का दायरा सिर्फ पढ़ाई नहीं बल्कि व्यक्तित्व विकास से भी जुड़ा है। अच्छी शिक्षा और संस्कारों से जीवन में आत्मविश्वास, सफलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का विकास होता है।
आज देश में नीचे से ऊपर तक जिस कदर लूट-खसोट का वातावरण है, चाहे सरकारी मुलाजिम हों या हाकिम अथवा नेता सभी में नैतिकता, आचरण और अनुशासन का लोप साफतौर पर देखा जा सकता है। हम और हमारी व्यवस्था यह भूलती है कि किसी रोग का उपचार तो दवाओं से किसी भी उम्र और दशा में किया जा सकता है। परन्तु चरित्र और नैतिकता का बीजारोपण बचपन और स्कूली अवस्था में ही किया जाता है। कहीं इसमें एक बार चूक हो गई तो इसका खमियाजा समूचे राष्ट्र को लम्बे समय तक भोगना पड़ता है। सवाल बड़ा और बारीक है कि क्या आज शिक्षकों को इस बात का अहसास है कि वे राष्ट्रनिर्माता हैं और क्या इस महकमें को हांकने वाले मंत्रियों का ध्यान इस ओर है कि उनकी योजनाएं कक्षा पास कराने और परिणामों को कागजों की शोभा बढ़ाने अलावा, वे छात्रों की अन्य गतिविधियों को लेकर कितनी व्यवहारिक रूप से चितित और सक्रिय हैं? शायद नहीं!! यह समूची गड़बड़ी प्राथमिक स्तर से शुरू हो जाती है और फिर यही क्रम उच्च कक्षाओं तक बरकरार रहता है।
बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के सरकारी मुलाजिमों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने की हिदायत अगले सत्र से दी है। यह निर्णय भले जिरह का विषय हो पर कम फीस और सस्ती किताबों के बीच सरकारी स्कूली से परहेज बताता है कि यहां शिक्षा की गुणवत्ता का हश्र क्या है। ये वही सरकारी स्कूल हैं जिसने देश को अनेक क्रांतिकारी, जनप्रतिनिधि और अफसर दिए है। लेकिन बीत तीन-चार दशकों में ऐसा क्या हो गया कि महज गरीबों और अक्षम लोंगो के बच्चों का स्कूल बन कर रह गए। शिक्षक, व्यवस्था और विद्यार्थी तीनों स्तर पर जांचने की जरूरत है।
 इसलिए शिक्षक दिवस के दिन दो बातें जरूर स्मरण की जानी चाहिए। एक- शिक्षकों की दयनीय सेवा दशाएं और इस ओर किए जा रहे प्रयास, दूसरा उनको उनके मूल दायित्वों के निर्वहन में आ रही बाधा का विकल्प खड़ा करना। ताकि वे सिर्फ शैक्षणिक कार्यों से सम्बद्ध रहें। साथ ही वे अपने दायित्वबोध को समझें। दूसरी ओर इसमें महत्वपूर्ण जबाबदारी विद्यार्थियों की भी है कि वे अपने शिक्षकों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का भाव रखें। क्योंकि विद्या विनय से आती है और विनय से पात्रता... और फिर पात्र व्यक्ति ही परिवार, समाज और राष्ट्र सेवा में दक्षता से जुट सकता है। आइए अपने वर्तमान और भूतपूर्व शिक्षकों का सम्मान,उनके प्रति अपनी श्रृद्धा, विश्वास और सम्मान को प्रकट करते हुए सभी शिक्षकों को 'शिक्षक दिवस’ पर शत शत नमन करें.... ! 


Sunday 5 July 2015

तहजीब बदन की






सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में महिलाओं की सुरक्षा और उनके प्रति हो रहे अपराध के विरुद्ध सर्वथा नया निर्णय सुनाया है कि- 'यदि कोई महिला जिसके साथ किसी भी तरह का दुष्कर्म किया जाता है, तो उसका निदान समझौते के आइने में नहीं देखा जाना चाहिए, न ही इसे उस महिला को दी जाने वाली प्रतिपूर्ति माना जा सकता है।’ इसके पीछे कोर्ट की दलील है कि मानसिक आघातों से उसका जीवन घुटन भरा हो जाता है और आजीवन वह इससे मुक्त नहीं हो पाती। निश्चित तौर पर किसी स्त्री का शील ही उसका सर्वोत्तम आभूषण है, उसकी मार्यादा की पराकाष्ठा है और इसको भंग करने के किसी भी प्रयास को कानून से कुचलने के कड़े प्रयास होने चाहिए। लेकिन बड़ा महीन सवाल है कि गर स्त्री का शरीर मंदिर है तो क्या पुरुष का शरीर कसाई घर है। पुरुष की देह देवालय क्यों नहीं हो सकती? माननीय न्यायधीश भी भौतिक जगत के कार्यकलापों को कानून की नजर में सही गलत ठहराने के हिसाब से ईश्वर कहे जाते हैं और वे न्याय के जिस भवन में विराजते हैं उन्हें न्याय का मंदिर कहा जाता है। लेकिन कितनी बार ये न्याय के मंदिर में बैठे हुए देवता अपमानित हुए और कठघरे में खड़े हुए कहने की जरूरत नहीं।
अपराध मनुष्य ही करता है, पशु नहीं। मनुष्य की संज्ञा में दोनों स्त्री-पुरुष समाहित हैं। इसीलिए जब कोई स्त्री किसी तरह का अपराध करती है तो क्या उसे में मंदिर में घटा हुआ अपराध माना जाएगा? तब हमें एक और विभाजन करना होगा कि जिस स्त्री का अपराध प्रमाणित हुआ उसका शरीर मंदिर की संज्ञा से बेदखल किया जाता है। दरअसल, जब हम कहते हैं कि आत्मा 'परमात्मा’ का अंश है और परमात्मा मंदिरों में विराजते हैं तो स्वयंमेव 'आत्मा’ भी उन मंदिरों की सांकेतिक प्रतिकृति बन जाते हैं। इस लिहाज शरीर चाहे किसी का हो वह होता मूलत: मंदिर ही है।
इसलिए जब तक जीवन के रसायन को उनके स्वाभाविक स्वरूप में समझा और व्यवहार में नहीं लाया जाएगा तब तक कानून कितने बन जाएं, निर्णय और व्याख्याएं कितनी क्यों न कर दी जाएं, मगर समाधान की बजाय उलझाव ही देखने को मिलेंगे और मिल रहे हैं। मानवीय रिश्तों को, उसकी भावनाओं, आवेगों, संवेगों का समाधान कानून में अलगाव और दंड के रूप में हो सकता है। जेल या फांसी अपराधी को समाज से मुक्त कर सकती है, लेकिन क्या गांरटी है कि फिर कोई नया अपराधी तैयार नहीं होगा? दुनिया भर की अदालतों में महिला विरुद्ध अपराधों को रोकने कानूनों का आम्बार लगा है, मगर समस्याएं और अपराध इन कानूनों का बौना साबित कर देते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर क्या किया जाए ताकि स्त्री-पुरुष दोनों को ऐसे कंलकों से मुक्ति मिल सके।
मनुष्य के मन-मस्तिष्क के इस विज्ञान को समझने और इस पर अनुसंधान करने की जरूरत है कि इनको किसी बाहरी ताकत से अवरुद्ध नहीं किया जा सकता। ये मात्र स्वनियंत्रित हो सकते हैं। क्या दिमाग या मन में कोई ऐसा स्विच या बटन सम्भव है जिसे ऑन या ऑफ करने से वह विश्ोष मोड में आकर कार्य करने लगे, नहीं। मनुष्य के संवेग अच्छे या बुरे एक ही मस्तिष्क से संचालित हैं। यानि सत्कर्म और दुष्कर्म एक व्यक्ति की दो वैचारिक अवस्थाएं हैं। डाकू अंगुलिमाल से संत बाल्मीकी बनने की प्रक्रिया इसी परिवर्तन का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसके लिए किसी कानून नहीं बल्कि उनकी पत्नी के वचनों ने ही उनमें व्यापक परिवर्तन ला दिया था।
व्यक्ति में आचरण का अवतरण परिवारिक वातावरण पर बहुत हद तक निर्भर है। मनुष्य एकाकी जीवन के लिए है नहीं, उसकी समाजिक जरूरतें हैं और उसी को प्रवाह में बनाए रखने के लिए वह है। इसी प्रवाह में जब-जब समाजिक संरचना टूटती है, उसकी पकड़ ढीली पड़ती है अपराधों का जन्म होता है। इसलिए कानून की भूमिका भयात्मक हो सकती है मगर नियंत्रक नहीं, क्योंकि शरीर की इंद्रियां कानून से नहीं उसके वैचारिक मनोदशा से संचालित होती हैं। फिर कानून मनुष्य ने बनाए हैं, कानून ने मनुष्यों को नहीं।
 शरीर का मंदिर इंद्रियों के स्तम्भों पर खड़ा है। जब तक इंद्रियां संयमित रहती हैं, मंदिर की मजबूती और मर्यादा बरकरार रहती है। इन्हें नियंत्रित करने के लिए जानवरों से जुदा विवेक हमें मिला है। फिर वह मनुष्य ही क्या जो इंद्रियों के वशीभूत शरीर में रचे बसे देवत्व की नींव हिला बैठे। यह तो कालिदास जैसी उस मूर्खता की द्योतक है जो जिस डाल पर बैठे उसी को काटने में जुट जाएं। अलबत्ता, भले यह कहावत है पर जर, जमीन, जोरू को लेकर विवाद सदियों से हैं और बने रहेंगे। इन पर अधिकार की वृत्ति मनुष्य की संरचना में है। चाहे रामायण हो या महाभारत इन्हीं तीनों को लेकर घटित हुए और आज भी इन्हीं पर अनैतिक अधिकार के बरक्स घट रहे हैं। विवाह संस्था में प्रवेश के बाद इन तीनों पर अधिकार का वार शुरु होता है, लेकिन स्त्री को लेकर अंतहीन हवस, किसी समझ से परे है। सुप्रीम कोर्ट ने महिला की देह को मंदिर बता कर कोई नयी व्याख्या नहीं की बल्कि इस परिभाषा से पुरुषों को बाहर रखकर इसे एकांगी कर दिया है। दुनिया की हर स्त्री को पुरुषों का साथ चाहिए और पुरुषों का स्त्रियों का। और जब तक दोनों की देह में मंदिर के तत्व हैं तब तक वे एक छत के नीचे रह सकते हैं। फिर स्त्री ही संसार की जननी है, इसलिए उसमे वात्सल्य है, वह कोमल है, भावुक है। लेकिन अपने ही जनक (स्त्री) के विरुद्ध मनुष्य का आचरण अक्षम्य है। हो सकता इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने स्त्री विरुद्ध हुए दैहिक अपराध को क्षतिपूर्ति से परे रखने की बात कही है। सुषमा स्वराज ने भी कहा था कि बलात्कार की पीड़िता जिदा लाश होती है?
आज जरूरत कानून की भाषा से इतर कथित पुरुषों को यह समझने की है कि जिसके साथ वे दुष्कर्म करने जा रहे हैं वह भी किसी न किसी की बहन, बेटी, पत्नि है। देह के मंदिर को इंद्रियों के क्षणिक आवेग में ध्वस्त करने पर सौ बार विचार करें वर्ना बकौल जांनिसार अख्तर-
" सोचो तो बड़ी चीज है तहजीब बदन की,
  वर्ना तो बदन आग बुझाने के लिए है।"

Friday 26 June 2015

कमल में कीचड

कहते हैं कि 'इरादा(वादा)करो तो पूरा करो, कोई काम न अधूरा करो’, लेकिन लोकतंत्र में 'उसी से ठंडा, उसी गरम’ जैसी भ्रमपूर्ण बातें और व्यवहार पग-पग पर नमूदार होेतीं हैं। इस तंत्र में बात-व्यवहार में सतयुग जैसी व्यवस्था न कभी रही है और न रह सकती है। केजरीवाल जो सतयुग (सच)की राजनीति के प्रण्ोता बनकर उभरे थ्ो उनके कानून मंत्री ही गैर-कानूनी काम करके सत्ता में उनके साथी बन बैठे थ्ो। राजनीति की तासीर ही ऐसी है जिसमें दोगलापन न हो वह 'सरवाइव’ नहीं कर सकती। इसलिए राजनीति की इस मजबूरी को उसके दोगलेपन के साथ या तो हम स्वीकार कर लें अथवा उससे दो-दो हाथ आजीवन करते-करते एक दिन मर खप जाएं। लेकिन इसका बाल बांका न कर पाएंगे। लोकतंत्र का बीता इतिहास इसी बात का साक्षी है और जो जनमानस इतिहास में दर्ज हजारों नजीरों से कुछ नहीं सीखता उसका कुछ हो नहीं सकता। आजादी के बाद से आज तक सक्रिय राजनीति में एक नाम ढूंढ़े नहीं मिलेगा जिस पर तोहमतें न लगीं हों, जिसकी लोक निदा न हुई हो। जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र दामोदर दास मोदी तक कुछेक अपवादों(लाल बहादुर शास्त्री, अटल बिहारी और निजी तौर पर मनमोहन सिह)को छोड़ दें तो सबके दामन दागदार हुए हैं। 
बहरहाल, मोदी सरकार की पहली वर्षगांठ ठीक-ठाक बीती, लेकिन उसके बाद तो मानों मोदी के सिपहसालार कीचड़ में एक के बाद एक धंसते जा रहे हैं, ऊपर से मोदी का मौन तो मानो मनमोहन सिह रिकार्ड तोड़ने पर आतुर हो। मनमोहन सिह पर सोनिया का रिमोट होने का ठप्पा था, लेकिन मोदी तो अपने बूते प्रधानमंत्री हैं। आम बोल-चाल में, यहां तक की लिखने-पढ़ने में भी प्राय: 'मोदी सरकार’ कहने का रिवाज है, उन्होंने जो चाहा सो किया। अपनी पार्टी के बड़े-बड़े दिग्गजों को उम्र का वास्ता देकर इतने प्यार से किनारे लगाया. लेकिन अब उनके उस दंभ पर सवाल उठने लगे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि 'न खाउंगा, न खाने दूंगा’। इस सद्वाक्य के दूसरे हिस्से (न खाने दूंगा)को मानो लकवा मार गया हो। वे मौन हैं या ध्रतराष्ट्र बने रहना चाहते हैं अथवा शुतुर्गमुगã की भंति आफत आने पर अपना सर रेत में गड़ा लेने को विवश हैं। सुषमा, वसुंधरा और अब पंकजा जैसी तीन देवियों के अलावा अब चौथी देवी और उनकी चहेती शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी भी फर्जी डिग्री की होल्डर हैं? पर बवाल कट रहा है और आगे कौन-कौन होगा देखने वाली बात होगी।
इनदिनों तो सरकार की दो कैबिनेट मंत्री सुषमा स्वराज और स्मृति ईरानी, एक मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे एवं महाराष्ट्र सरकार में पार्टी की एक मंत्री पंकजा मुंडे पर कीचड़ उछला है। यह बात सच है कि 'कीचड़ में कमल’ खिलता है, पर जब 'कमल में कीचड़’ पड़ने लगे तो बात घृणास्पद हो जाती है। यही मौका है जब प्रधानमंत्री कड़े कदम उठाकर अपनी छवि को और चमका सकते हैं। साथ ही संदेश दे सकते हैं कि 'जो जैसा करेगा, सो वैसा भरेगा’। लेकिन पद पर चिपके रहने से 'चोर की दाढ़ी में तिनका’ और 'दाल में काला’ जैसी कहावतें जन की जबान पर चढ़कर सरकार की छीछालेदर करती नजर आती हैं। ऊपर से मोदी जी का मौन मानों इस उक्ति की गवाही हो कि 'मौनम स्वीकृतम लक्षणं।’ प्रधानमंत्री जिस कमल को अपने कोट में लगाकर 'सेल्फी’ खींचते नजर आते थ्ो, उसमें वे गर गौर से देख्ों तो अब चार देवियों के कीचड़ के छींटे नजर आएंगे। हालांकि सरकार ने ऐसे कई काम काज और योजनाएं अपने हाथ में ले रखी हैं जो गर बेहतरी से लागू हुईं तो इनके सकारात्मक परिणाम दिखाई देंगे। बहरहाल, चारों देवियों के कारनामे मोदी सरकार के लिए प्रारम्भिक चेतावनी हैं, क्योंकि बीते एक साल में सिर्फ बातें हुई हैं, योजनाएं बनी हैं, अब कामकाज को अमलीजामा पहनाने की बारी है। यही वह वक्त जब धांधली के हजार रास्ते खुलते हैं। इसलिए अभी ये कीचड़ के छींटे तो मात्र प्री मानसूनी चेतावनी हैं यही हाल रहा तो कहीं पूरा कमल ही कीचड़ की बारिश में न ढंक जाए। 
आखिर में प्रसंगवश एक रोचक तथ्य यह कि नरेन्द्र मोदी ने विवाह किया और पत्नी का त्याग किया। भारतीय संस्कृति में पत्नी का दर्जा लक्ष्मी का है और लक्ष्मी कमल में विराजती है। कहीं मोदी को त्याज्य पत्नी(लक्ष्मी)का अभिशाप इन चार देवियों के कीचड़ के रूप में तो उन्हें नहीं झेलना पड़ रहा है!

Tuesday 2 June 2015

गाँव में बदलाव

उत्तर भारत में साधारणतया गर्मियों का मौसम उनपयन, विवाह आदि संस्कारों के लिए जाना जाता रहा है, क्योंकि इस समय विद्यालयों में छुटियाँ होती हैं, कृषि कार्य समाप्त  हो जाते और खाली समय पर्याप्त  होता था। इन्हीं महीनों में बेटियों के मायके आने से घर गुलजार रहते थे। लेकिन अब समय चक्र बदला है और दिनोंदिन तेजी से बदलता जा रहा है। मनुष्य उसके प्रवाह में चाहते हुए और न चाहते हुए भी बह रहा है। गांव सिमट गए और शहरों का क्षेत्रफल बढ़ गया है, मगर दिलों का दायरा सिकुड़ गये हैं। इस पलायन की प्रमुख वजह गांवों की अपेक्षाकृत शहरों में अधिक सुख सुविधाएं का होना है। संसार भोगमय है, यह तथ्य शास्त्रोक्त है, लेकिन इनदिनों जिस तरह के भोग का बोध हो चला है वह मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध और मशीन के करीब है। मजा मारने के लिए आतुर समाज कुछ भी करने को तैयार है, जो सुविधा भोगी हैं वे हर कुछ अतिक्रमित करने को आतुर हैं। संवेदना, सहृदयता जैसे मूल मानवीय गुण लुप्त  होने के कगार पर हैं। यह पश्चिम का अंधानुकरण है अथवा संस्कारों का पतन है जिसमें मनुष्य अपने गुणों के विपरीत आचरण करने लगा है। चमड़ी के सुख प्रधान हो चुके हैं और इससे बाहर झांकने का दायरा अपने जन्मे बच्चों से आगे नहीं बढ़ पाता। क्या पहले लोग अपने परिवार से मोह नहीं रखते थे? या अब ज्यादा समझदार हो गए हैं? या इसके बरक्स अति करने लगे हैं? खैर इस पर तर्क और बहस को लेकर ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। लेकिन समाज से अर्जित(कानूनी और गैर-कानूनी) सम्पदा का दुरुपयोग यह मानकर करना कि वह उसका नैतिक हकदार है, गलत है। दरअसल, आज इस कथित नैतिकता ने अपने पांव तेजी से पसारे हैं। तो इन्हीं फुरसत के क्षणों में एक शादी समारोह में सतना नगर के पड़ोस के गांव कंचनपुर जाना हुआ। वहां एक पट्टीदार परिवार में बिटिया की शादी में जो प्रबंध किए गए थे, उसका स्तर किसी शहर में किए समारोह से कमतर नहीं था, बल्कि कहें तो कुछ मामले में शहरी संस्कृति से बेहतर और अत्याधुनिक था, जिसे देख कर मन चकित था। खूबसूरत मंच के बगल में सुसज्जित ऑर्केस्ट्रा और उसके सामने वर वधु के लिए दस फुट ऊंचा रिवालविंग मंच जिसमें एक पाइप के द्बारा पुष्प वर्षा के लिए मशीनीकृत प्रबंध था। यानि आशीर्वाद देने के लिए अब संबंधियों/शुभचिंतकों की जगह डीजल चलित एक पम्प ने ले रखी थी। खाने के टेबल पर पाउडर, लिपिस्टिक में लिपी-पुती लड़कियों, को देखकर एक बारगी लगा कि यह किसी मैं किसी गांव में नहीं अत्याधुनिक शहरी विवाह कार्यक्रम के दर्मिया खड़ा हूं। लेकिन स्वरूप में यह विवाह संस्कार न होकर साज-सज्जा इसमें किए किए गए खर्चा की चर्चा में लिप्त  था। हालांकि शहरों में भी विवाह कार्यक्रम पूरी नाटकीय हो चुके हैं। जहां मेहमान और मेजबान दोनों हद दर्जे की औपचारिकता को पार कर चुके हैं। परन्तु गांवों में ऐसा नजारा जरा यकीन करना मुश्किल था। टेलीवीजन की संस्कृति ने जिस गहराई से अपनी पैठ गांव में बनाई है वह शहरों को कहीं अधिक पीछे छोड़ती दिखती है। परन्तु साधनों और धन के एवज में संस्कार और सलीका तो खरीदा नहीं जा सकता इसलिए खाने के आहाते में जूूठी डिस्पोजेबल प्लेटों का बिखराव कुछ यों था जैसे पतझड़ के मौसम में पत्ते आस-पास की धरती को ढंक लेते हैं और उन पर चलने से कर्र-कुर्र, चर्र-मर्र की आवाज आती है। फिर बच्चे बूढ़े स्त्री पुरुष यहां तक गांव के लगुआ भी चाउमिन चाट के लिए जूझते दिखे। पाउच को मुट्ठी में लिए पानी चूसते देखकर सहसा याद हो जब गांव में बारातियों का स्वागत किस्म-किस्म के आम चूसने से होता था। अब सब ध्वस्त है न आम बचे और न सरल स्वभाव के आम लोग। यह सब देखकर लगता है कि शहरी संस्कृति की बराबरी और आधुनिकता की अंधी दौड़ में गांव अपनी तासीर गंवा के कहीं के नहीं रहे। न तो वे शहर बन सके और न ही गांव बने रह सके। चाहे अधूरा ज्ञान हो अथवा अधकचरा कल्चर, से समाज विशेष को कुछ हासिल नहीं होता। मौलिकता में संसार का सबसे अप्रतिम सौंदर्य है. मौलिकता, सरलता से बड़ा मनुष्य का आभूषण और कुछ नहीं हो सकता, लेकिन दिनोंदिन वस्तुपरक, प्रदर्शनपरक हो रहे समाज में मनुष्य कहां शेष है यह गम्भीरता से चिंतन का विषय है। क्योंकि मनुष्य न तो मशीन और न हो सकता है, लेकिन ऐसा बनने को वह चतुर्दिक लालायित दिखता है। शहर तो वैसे भी संबंधों की मिठास से रीते हुए हैं, लेकिन गांव को भी इसकी जद में आते देखकर पीड़ा होती है। लेकिन यह संक्रमण किसी बीमारी के संक्रमण तीव्र व तीक्ष्ण है। गाँव आये इस बेतरतीव बदलाव हमें कहाँ ले जायंगे और हमारी संस्क्रती थाती किस गर्त में गाड़ देंगे यही सोचते हुए पंडाल से बहार आया.