Tuesday 2 June 2015

गाँव में बदलाव

उत्तर भारत में साधारणतया गर्मियों का मौसम उनपयन, विवाह आदि संस्कारों के लिए जाना जाता रहा है, क्योंकि इस समय विद्यालयों में छुटियाँ होती हैं, कृषि कार्य समाप्त  हो जाते और खाली समय पर्याप्त  होता था। इन्हीं महीनों में बेटियों के मायके आने से घर गुलजार रहते थे। लेकिन अब समय चक्र बदला है और दिनोंदिन तेजी से बदलता जा रहा है। मनुष्य उसके प्रवाह में चाहते हुए और न चाहते हुए भी बह रहा है। गांव सिमट गए और शहरों का क्षेत्रफल बढ़ गया है, मगर दिलों का दायरा सिकुड़ गये हैं। इस पलायन की प्रमुख वजह गांवों की अपेक्षाकृत शहरों में अधिक सुख सुविधाएं का होना है। संसार भोगमय है, यह तथ्य शास्त्रोक्त है, लेकिन इनदिनों जिस तरह के भोग का बोध हो चला है वह मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध और मशीन के करीब है। मजा मारने के लिए आतुर समाज कुछ भी करने को तैयार है, जो सुविधा भोगी हैं वे हर कुछ अतिक्रमित करने को आतुर हैं। संवेदना, सहृदयता जैसे मूल मानवीय गुण लुप्त  होने के कगार पर हैं। यह पश्चिम का अंधानुकरण है अथवा संस्कारों का पतन है जिसमें मनुष्य अपने गुणों के विपरीत आचरण करने लगा है। चमड़ी के सुख प्रधान हो चुके हैं और इससे बाहर झांकने का दायरा अपने जन्मे बच्चों से आगे नहीं बढ़ पाता। क्या पहले लोग अपने परिवार से मोह नहीं रखते थे? या अब ज्यादा समझदार हो गए हैं? या इसके बरक्स अति करने लगे हैं? खैर इस पर तर्क और बहस को लेकर ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। लेकिन समाज से अर्जित(कानूनी और गैर-कानूनी) सम्पदा का दुरुपयोग यह मानकर करना कि वह उसका नैतिक हकदार है, गलत है। दरअसल, आज इस कथित नैतिकता ने अपने पांव तेजी से पसारे हैं। तो इन्हीं फुरसत के क्षणों में एक शादी समारोह में सतना नगर के पड़ोस के गांव कंचनपुर जाना हुआ। वहां एक पट्टीदार परिवार में बिटिया की शादी में जो प्रबंध किए गए थे, उसका स्तर किसी शहर में किए समारोह से कमतर नहीं था, बल्कि कहें तो कुछ मामले में शहरी संस्कृति से बेहतर और अत्याधुनिक था, जिसे देख कर मन चकित था। खूबसूरत मंच के बगल में सुसज्जित ऑर्केस्ट्रा और उसके सामने वर वधु के लिए दस फुट ऊंचा रिवालविंग मंच जिसमें एक पाइप के द्बारा पुष्प वर्षा के लिए मशीनीकृत प्रबंध था। यानि आशीर्वाद देने के लिए अब संबंधियों/शुभचिंतकों की जगह डीजल चलित एक पम्प ने ले रखी थी। खाने के टेबल पर पाउडर, लिपिस्टिक में लिपी-पुती लड़कियों, को देखकर एक बारगी लगा कि यह किसी मैं किसी गांव में नहीं अत्याधुनिक शहरी विवाह कार्यक्रम के दर्मिया खड़ा हूं। लेकिन स्वरूप में यह विवाह संस्कार न होकर साज-सज्जा इसमें किए किए गए खर्चा की चर्चा में लिप्त  था। हालांकि शहरों में भी विवाह कार्यक्रम पूरी नाटकीय हो चुके हैं। जहां मेहमान और मेजबान दोनों हद दर्जे की औपचारिकता को पार कर चुके हैं। परन्तु गांवों में ऐसा नजारा जरा यकीन करना मुश्किल था। टेलीवीजन की संस्कृति ने जिस गहराई से अपनी पैठ गांव में बनाई है वह शहरों को कहीं अधिक पीछे छोड़ती दिखती है। परन्तु साधनों और धन के एवज में संस्कार और सलीका तो खरीदा नहीं जा सकता इसलिए खाने के आहाते में जूूठी डिस्पोजेबल प्लेटों का बिखराव कुछ यों था जैसे पतझड़ के मौसम में पत्ते आस-पास की धरती को ढंक लेते हैं और उन पर चलने से कर्र-कुर्र, चर्र-मर्र की आवाज आती है। फिर बच्चे बूढ़े स्त्री पुरुष यहां तक गांव के लगुआ भी चाउमिन चाट के लिए जूझते दिखे। पाउच को मुट्ठी में लिए पानी चूसते देखकर सहसा याद हो जब गांव में बारातियों का स्वागत किस्म-किस्म के आम चूसने से होता था। अब सब ध्वस्त है न आम बचे और न सरल स्वभाव के आम लोग। यह सब देखकर लगता है कि शहरी संस्कृति की बराबरी और आधुनिकता की अंधी दौड़ में गांव अपनी तासीर गंवा के कहीं के नहीं रहे। न तो वे शहर बन सके और न ही गांव बने रह सके। चाहे अधूरा ज्ञान हो अथवा अधकचरा कल्चर, से समाज विशेष को कुछ हासिल नहीं होता। मौलिकता में संसार का सबसे अप्रतिम सौंदर्य है. मौलिकता, सरलता से बड़ा मनुष्य का आभूषण और कुछ नहीं हो सकता, लेकिन दिनोंदिन वस्तुपरक, प्रदर्शनपरक हो रहे समाज में मनुष्य कहां शेष है यह गम्भीरता से चिंतन का विषय है। क्योंकि मनुष्य न तो मशीन और न हो सकता है, लेकिन ऐसा बनने को वह चतुर्दिक लालायित दिखता है। शहर तो वैसे भी संबंधों की मिठास से रीते हुए हैं, लेकिन गांव को भी इसकी जद में आते देखकर पीड़ा होती है। लेकिन यह संक्रमण किसी बीमारी के संक्रमण तीव्र व तीक्ष्ण है। गाँव आये इस बेतरतीव बदलाव हमें कहाँ ले जायंगे और हमारी संस्क्रती थाती किस गर्त में गाड़ देंगे यही सोचते हुए पंडाल से बहार आया. 

4 comments:

  1. आयातित संस्कृति ले डूबेगी एक इन हमारी गढ़वाली संस्कृति को ... कई मौकों पर यह बात खलती हैं की आखिर क्यों हम उस शहरी संस्कृति को अपना लेते हैं जो वास्तव में संस्कृति है ही नहीं .....
    बहुत कुछ मन में याद आने लगा है ...

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  2. कविता जी नमस्कार, देर प्रत्युत्तर देने के लिए हमें खेद है, आपने वाजिब बात कही है, एक नकली जीवन हमारे चारो ओर पसर रहा चुका, ऐसे में निश्चित तौर पर गर कुछ बचाना है नकली से परे है, तो उसके लिए बड़े जतन करने होंगे .

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  3. bat to aapne thik uthayi hain mgr chahe gaun wale ho ya shahri, nya aur bhavya krne ki ichha sbko hoti hain aur yah mujhe glt nhee lgta...ye alg bat ki kisi bhee kam me sampoornta krte krte aati hain

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  4. bat to aapne thik uthayi hain mgr chahe gaun wale ho ya shahri, nya aur bhavya krne ki ichha sbko hoti hain aur yah mujhe glt nhee lgta...ye alg bat ki kisi bhee kam me sampoornta krte krte aati hain

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