Monday 27 February 2012

पटवारी परीक्षा में प्रयोगधर्मिता

लोकतंत्र में जनता, सरकारों को चुनने और उनसे जनहित में कार्य करने की आशा व उम्मीद करती है। पर कभी-कभी सरकारें अति उत्साह में अथवा खुद को हाई-फाई दर्शाने की होड़ में ऐसे अव्यवहारिक कदम उठा लेती हैं, जो न सिर्फ अविवेकी होते हैं, बल्कि जिनके लिए कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है, वह उन्हीं के लिए दुष्कर हो जाते हैं।
   ऐसा ही इनदिनों मध्यप्रदेश की शासकीय सेवाओं की भर्तियों में हो रहा है। पिछले तीन-चार माह मेें संविदा शिक्षकों की भर्ती का दौर चला, जिसमें अनेक तरह की विसंगतियां देखने में आई थी और अब राजस्व की सबसे निचली इकाई पटवारी के पदों की भर्ती के लिए जिस उच्च तकनीकी का सहारा लिया जा रहा है, उसको लेकर ऊहापोह की स्थिति है। खासकर उन ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए जिनके पास कम्यूटर और इंटरनेट की सुविधा घरों में अथवा उनके कस्बाई इलाकों मेंआद्यतन नहीं है। उन्हें अपनी शिक्षा को रोजगार में तब्दील करने के लिए आॅन लाइन परीक्षा से गुजरना होगा। इनके दुर्गति की हालत यह है कि ऐसे हजारों परीक्षार्थी हैं, जिन्हें अपना फार्म तक भरने के लिए इंटरनेट कैफै में मौजूद एक्सपर्ट की शरणागत होना पड़ता है तो, आॅन लाइन परीक्षा इनके लिए कितनी मुफीद होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। बावजूद इसके 25 फरवरी को आॅनलाइन फार्म भरने की आखिरी तारीख के बाद 25 मार्च से होने वाली आॅनलाइन परीक्षा व्यवस्था की कवायद शुरू हो गई है।
  विडम्बना है कि अभी तक आईआईटी, पीईटी, पीएमटी जैसी परीक्षाओं सहित यूपीएससी और राज्यों की लोकसेवा परीक्षाओं में इस तरह से परीक्षा लेने का चलन अस्तित्व में नहीं आया है। यानी जब राजस्व के उच्च पदों कलेक्टर और डिप्टी कलेक्टर के चयन के लिए इस तकनीकि का सहारा नहीं लिया गया, जिसमें स्नातक अथवा उच्च योग्यता के विद्यार्थी हिस्सा लेते हैं, तो सवाल है कि पटवारी जैसी परीक्षा के लिए उच्च तकनीकी से युक्त परीक्षा का निर्णय किस बुद्धिमत्ता के चलते मध्यप्रदेश शासन द्वारा ले लिया गया। ऐसा करते वक्त यह भी ख्याल नहीं रखा गया इस परीक्षा के लिए न्यूनतम योग्यता बारहवीं है और जिन छात्रों ने कभी आॅनलाइन परीक्षा अपने शैक्षणिक जीवन में एक बार भी न दी हो, अपने कॅरियर निर्माण के वक्त इसे कैसे साध पाएंगे! यहां तक कि जिस कम्यूटर की योग्यता का मापदण्ड (पीजीडीसीए या डीसीए) रखा गया है उसका इम्तिहान भी उन्होंने कभी आॅनलाइन नहीं दिया है और न ही इस तरह की सुविधा प्रदेश के किसी कॉलेज में उपलब्ध है। और फिर कुकुरमुत्तों की तरह गली-चौराहों में उगे आए कम्यूटर कालेजों में पढ़ाई की गुणवत्ता किससे छिपी है। ऐसे ये कथित  कॉलेज शिक्षा के कम, धन कमाने के कुटीर उद्योग अधिक साबित हुए हैं। प्राय: देखने में आया है कि विद्यार्थियों को तकनीकि परीक्षाओं (डीसीए व पीजीडीसीए) की थ्योरी रटा कर कैसे भी जुगाड़-तुगाड़ से कॉलेज प्रबंधन द्वारा उत्तीर्ण कराके, अपने धन कमाने के धंधे को अंजाम दिया जाता रहा है। फिर यह तथ्य है कि कम्यूटर में व्यवहारिक ज्ञान और कार्य की गुणवत्ता तो काम करके ही हासिल की जा सकती है। बावजूद इसके भी आॅनलाइन परीक्षा के लिए आतुर नीति निर्माताओं की अदूरदर्शिता इस कथित प्रयोगधर्मिता में परिलक्षित होती है।
    गौरतलब है कि पिछले दिनों संविदा शिक्षकों (वर्ग-3) की भर्ती में बुकलेट भरने का परीक्षा पूर्व से कोई दिशा निर्देश न तो ठेके पर लगाए गए पर्यवेक्षकों को ज्ञात थे, न ही विद्यार्थियों को होने की वजह से, परीक्षा कक्ष में गलत तरीकों से उत्तर भर देने के लाखों उदाहरण सामने आये थे। कमोबेश इन्हीं में से अधिकतर विद्यार्थी हैं, जो पटवारी की परीक्षा में सम्मिलित हो रहे हंै। ऐसे में पटवारी परीक्षा के आॅनलाइन होने से ऐसे परीक्षार्थियों का क्या हाल होगा, ठीक से समझा जा सकता है। यद्यपि इस तर्क से बचने के लिए के एमपीआॅनलाइन संस्था ने प्रैक्टिस के निमित्त एक प्रश्न पत्र अपनी वेब साइट में डाला है। जिसमें कई खामियां उजागर हुई हैं।  परीक्षार्थी को परीक्षा पूर्व जिस माध्यम(हिन्दी या अंग्रेजी) में परीक्षा देनी है उसका चयन करना होगा। और जो प्रश्न पत्र इंटरनेट पर उपलब्ध हैं उनका हिन्दी रूपांतरण कुछ इस तरह है कि ‘खुद पढ़ो, खुदा समझे’। दरअसल, नमूने के तौर पर तैयार प्रश्न पत्रों की हिन्दी भाषा ऐसी रखी गई है कि अच्छे-अच्छे व्याकरणविद का दिमाग चकरा जाए। ऐसा इसलिए है कि मूलत: प्रश्न पत्र अंग्रेजी में तैयार किए गये हैं और फिर उनका मानक हिन्दी भाषा में रूपांतरण कर दिया गया है। ऐसी क्लिस्ट हिन्दी न तो कहीं पढ़ने में आती है और न ही बोचचाल के व्यवहार में। तो फिर परीक्षा में यह प्रयोग क्यों? बात बड़ी साफ है कि यदि हिन्दी माध्यम को अपनाया गया तो निर्धारित समय प्रश्न की भाषा को समझने में बीत जाएगा, तब 90 मिनट में उत्तर देना दूर की कौड़ी हो सकती है।
 एक अन्य खामी यह कि - कहने को यह प्रतियोगी परीक्षा है पर हकीकत यह है कि इसमें आधे अंक 12वीं की अंकसूची के आधार पर दिए जाने तय किए गये हैं और आधे प्रतियोगी परीक्षा के प्राप्तांक के आधार पर। गौरतलब है कि 12वीं उत्तीर्ण करने के लिए प्रदेश में तीन तरह के बोर्ड मप्र शिक्षा मंडल, सीबीएससी और आईसीएससी संचालित हैं। जिनके सिलेबस और पढ़ाई के स्तर के साथ 12वीं में आने वाले प्रतिशतों में काफी भिन्नता रहती आई है। ऐसे में सभी के नंबर   एक ही तराजू पर रख कर मेरिट बनाने से प्रतियोगिता में विसंगति स्वभाविक रूप से उत्पन्न हो जाती है। यह भी देखने में आया है ओपन स्कूल या कभी नकल जोर-जुगत से भी 12वीं में अच्छे अंक हासिल कर लिए जाते हैं और फिर जब प्रतियोगी परीक्षा आयेजित की जा रही ऐसे में अंकसूची को आधार बनाने का औचित्य क्या है?
 एक अन्य विसंगति में डीसीए और पीजीडीसीए की मान्यता और स्वीकार्यता को लेकर सवाल हैं। आमतौर पर यूपीएससी और पीएसी की परीक्षाओं में स्नातक योग्यता है, जहां यदि परीक्षार्थी उस वर्ष स्नातक की फाइनल परीक्षा में बैठ रहा है तो उसे इन परीक्षाओं में बैठने की अनुमति होती है। पर पटवारी की परीक्षा जो कि मिड शेसन में आयेजित की जा रही है और जो बच्चे धन खर्च कर इस वर्ष इन तकनीकि परीक्षाओं में बैठ रहे हैं, जिनके कि परिणाम भी जून तक घोषित हो जाएंगे, को परीक्षा वंचित रखने के क्या औचित्य हो सकता है। जबकि यह प्रावधान रखा गया है कि परीक्षा के बनने वाली मेरिट आगामी तीन वर्षों तक वैध रहेगी। ये सभी गंभीर सवाल हंै कि सरकार किस बात की जल्दी में है की परीक्षाओं के सारे प्रयोग पटवारी चयन में ही करने को आतुर क्यों है? जिस पर नए सिरे से विचार होना ही चाहिए। ये सच है कि प्रतियोगिता से योग्यता का चुनाव होता है। जिसके लिए  परीक्षा का स्तर कुछ भी हो पर उसकी शर्तों और तरीकों के निर्धारण की तकनीकी खामियों से समय रहते तो बचा ही जा सकता है।
                                   श्रीश पाण्डेय
                                  

Monday 13 February 2012

न उम्र की सीमा हो...

  आज ‘वेलेंटाइन डे’ पर बरबरस जगजीत सिंह की आवाज में गाई गई इस गजल को स्मरण हो आया कि...                
        न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन 
ओठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो...
शायद ही कोई होगा जिसने सुना और गुनगुनाया  न हो। इस गीत का दर्शन हर उम्र में अलग-अलग तरीकों देखा, सुना और समझा गया और यही क्रम आज भी जारी है। फिल्म ‘प्रेमगीत’ में फिल्माये गये इस गीत में गीतकार और फिल्मकार ने यह संदेश देने की कोशिश की थी कि किसी कार्य की कोई उम्र नहीं होती, बस क्षमता और लगन होनी चाहिए। लेकिन मैं प्रेम के अलावा इस गीत में निहित उम्र के एक और दर्शन को बांचने और समाज में दशकों से प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध मौजूद विसंगति को लेकर चिंतित हंू। मन और तन से मजबूत व्यक्ति किसी भी उम्र में स्वस्थ्य रहते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकता है। जैसे 78 वर्ष में भी मनमोहन सिंह देश का नेतृत्व करने में सक्षम हैं और प्रधानमंत्री ही क्या देश के ज्यादातर नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, की उम्र 60 से ऊपर ही ज्यादा सक्रिय हैं। इन्हीं नेताओं की जमात जो देश की नीति नियंता भी हैं,ने जनसामान्य के लिए शासकीय सेवा में आने और सेवा निवृत्ति की आयु सीमा तय कर रखी हैं।
   पर सवाल है कि उम्र का ताल्लुक व्यक्ति की कार्य क्षमता से है न कि उसके पद से। एक विभाग का छोटा या बड़ा कर्मचारी 60-62 की उम्र में सेवानिवृत्त इसलिए कर दिया जाता है कि वह कार्य करने की दृष्टि से शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम नहीं रहा, तो फिर 75 और 85 वर्ष की उम्र में देश की बागडोर सम्भालने वाले नेताओं ने भला कौन सी घुट्टी पी रखी है, जो इन्हें कब्र में पैर लटकाये रखने की नौबत तक, देश के राष्टÑीय और अर्न्तराष्टÑीय दायित्वों के निर्वहन की ताकत व ऊर्जा देती रहती है। इस पर विचार करने का समय आ गया है।
     पिछले दिनों मप्र के पुलिस विभाग में हुई पुलिस उपनिरीक्षकों की भर्ती में अधिकतम आयु सीमा (सामान्य) 28 वर्ष रखी गई थी वहीं डीएसपी की 25 वर्ष।  पटवारी के इम्तिहान के लिए 33 वर्ष। यानी इससे अधिक उम्र का युवा शारीरिक, मानसिक रूप से सक्षम होने के बावजूद इस सेवा के लिए अयोग्य करार दिया जाता है। इसी तरह की अनेक सेवाओं में उम्र के बंधन रखे गए हैं। गौरतलब है कि देश की जीवन प्रत्याशा 52 से बढ़कर 62 वर्ष हो चुकी है, तो फिर सेवाओं में प्रवेश की आयुसीमा को क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता? यदि उम्र को शारीरिक दक्षता अथवा मानसिक योग्यता में कमी का आधार बनाया गया है। तो क्या शासन में 40 से 50 वर्ष के अफसर इस सेवा में नहीं होते? और क्या उनकी शारीरिक क्षमता नहीं घटती? क्या पद पर आसीन होने के बाद उनकी इन कथित क्षमताओं में वृद्धि हो जाती है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका कोई ठोस उत्तर नहीं दिया जा सका है, सिवाय इसके कि हर कर्मचारी पर ट्रेनिंग का खर्च आता है इसलिए कार्मिकों का अधिकतम उपयोग किया जा सके, इसलिए उम्र सीमा के बंधन रखे गए हैं।
     तो फिर क्या यह सवाल नहीं होना चाहिए कि हर पांच साल में चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों पर अरबों के खर्च का आधार क्या हो सकता है? अत: इस पाखंडयुक्त मापदंड के विरुद्ध आवाज बुलंद करने का वक्त आ गया है कि युवा बेरोजगारों के लिए कदम-कदम पर उम्र के बंधन लगाने का घृणित कार्य करने वाले शासन-सत्ता विराजे लोगों की मानसिक और शारीरिक क्षमताओं को लेकर सवाल क्यों नहीं उठते? जो व्यवहार उन्हें खुद के लिए पसंद नहीं, उसे वे युवाओं के लिए किस आधार पर प्रवृत्त कर सकते हैं। हो न हो, इस देश में अब तक सबसे बड़ा घोटाला और भ्रष्टाचार उम्र के भेदभाव को लेकर हुआ है। जिसमें करोड़ों प्रतिभाएं उम्र के बंधन में दम तोड़ चुकी हैं और न जाने कितनों की बलि होने वाली है। पर आज तक नेताओं ने इसके खिलाफ अपनी आस्तीने नहीं चढ़ार्इं, न ही कभी इस देश के 70 करोड़ युवाओं से जुड़े इस मुद्दे पर अनशन किए गए। जबकि उनकी ही बिरादरी अंतिम सांस तक सत्ता के निमित्त अपनी जीभ लपलपाती रहती है।
 यह दशा सिर्फ नौकरी की लाइन में लगे युवाओं की नहीं है बल्कि इसका खामियाजा विभिन्न राजनीतिक दलों में तैयार हो रही नई पौध को भोगना पड़ रहा है। आज हम अपने आस-पास देखें तो यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि हर दल में युवा नेता, कथित 60 के ऊपर के नेताओं के लिए नारे लगाने, स्टेशन में फूल-माला लेकर आवभगत करने और पैर छूने जैसे कार्यों में लगे-लगे उम्रदराज हो जाते हैं। केवल उन युवाओं को छोड़ दें, जिन्हें विरासत में राजनीति की चांदी का चम्मच मुंह में मिला है। त्रासदी है कि हरेक दल युवाओं की, उनकी शक्ति की बातें तो करता है, पर यह मात्र पायलटिंग करने, नारों का उद्घोष करने और चुुनाव के समय पर्ची काटने के लिए है, न की प्रत्याशी बनाने और प्रमोट करने के लिए। देश के लिए यह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि करोड़ों युवाओं को हताश करने वाली बात है कि जिस युवाशक्ति को राष्टÑ का भविष्य कहा जा रहा है,वही पग-पग पर उपेक्षित है और छला जा रहा है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस देश की 70 फीसदी आबादी युवाशक्ति से लबरेज हो, वहां का 80 फीसदी नेतृत्व बुजुर्गों के हाथ में आजादी के बाद से बरकरार है।
  अब समय है जबकि इसका हिसाब-किताब होना चाहिए कि नेताओं को जनता से मिले शासन के   अधिकारों का प्रयोग इस रूप में भी हो कि, जैसे सरकारी सेवाओं में प्रवेश के लिए ज्ञान और उम्र के कड़े मानदंड हंै, कमोवेश ऐसे ही प्रक्रिया वे स्वयं अपने लिए भी बनाएं। उनकी भी निश्चित योग्यता का परीक्षण हो और एक तय उम्र सीमा हो अथवा उम्र के बंधन किसी क्षेत्र में न चाहे वह राजनीति हो अथवा शासकीय सेवा में हो। दक्षता एवं क्षमता ही मात्र आधार हो। क्योंकि जब एक विभाग का अदना सा मुलाजिम बनने के लिए एक व्यक्ति को अपने ज्ञान और क्षमता का टेस्ट गलाकाट प्रतियोगिता के बीच तय आयु में देना होता है, तो देश सेवा की आड़ मेवा खाने वाले नेताओं के कबीले सिर्फ इसलिए इस स्वछंदता का आनंद ले कि वह नीति नियंता है। यह लोकतंत्र का लक्षण हरगिज नहीं हो सकता।
     गौरतलब है कि प्रतियोगी परीक्षाएं, किसी नौकरी के लिए हो रही स्पर्धा में बैठने का एक अवसर हैं, न कि सेवा में नियोजित होने की ग्यारंटी। तो फिर कथित नियमों की आड़ में इस तरह बंधन क्यों? सवाल यह भी कि जब हर परीक्षा के लिए ज्ञान और शारीरिक दक्षता के लिए एक टेस्ट की व्यवस्था है तो जिसमें क्षमता है उसे लिया जाए, इसमें उम्र के बंधन का क्या औचित्य रह जाता है? यह नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध है।
                                   - श्रीश पाण्डेय 
                                    सम्पर्क - 09424733818.

Sunday 12 February 2012

ईश्वर का प्रतिनिधि ‘मन’


जिन्दगी में प्राय: किसी को सहायता या सहयोग के लिए हम ‘तन, मन, धन’ से करने का वचन  देते रहते हैं। इन तीनों में ‘तन’ और ‘धन’ भौतिक हैं, जिसका हम स्पर्श कर सकते हैं, पर ‘मन’ का नहीं। शरीर के संचालक अंगों के लिहाज से इसके के दो मुख्य भागों में- एक ‘तन’ है, तो दूसरा है ‘मन’। एक भौतिक है तो दूसरा पूरी तरह अभौतिक। ‘मन’ और ‘तन’ अथवा ‘देह’ जितना आपस में गुम्फित हैं, उतना और किसी की कल्पना करना मुश्किल है। ऐसा इसलिये भी की दोनों की अवस्था एक ही संरचना के भीतर है। फिर भी इनकी संरचना, इनकी अवस्था में जो फर्क है, उसे भौतिक और आध्यात्मिक अथवा दार्शनिक दृष्टियों से  बेहतर ढंग से देखा और समझा जा सकता है।  ‘मन’, ‘तन’ का संचालनकर्ता तो है, पर ‘तन’, ‘मन’ का नहीं। क्योंकि तन ‘जड़’ है, तो मन ‘चेतन’। हालांकि मन का आधार भी एक हद तक तन ही है।
   दरअसल ‘मन’ है क्या? यह प्रश्न सदियों से बहस और शोध का विषय रहा है और रहेगा। क्योंकि जिसका कोई भौतिक अस्तित्व न हो, उसके रंग, रूप और प्रकृति की कल्पना कैसे की जा सकती है। तभी तो मन के स्वरूप, आकार और कार्यशैली पर किये गये अध्ययनों के परिणाम, आज भी वैज्ञानिक दृष्टि से सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत नहीं हो पाये हैं। हां मनोवैज्ञानिकों ने कई निष्कर्ष अनुभवजन्य अध्ययन के आधार पर निकालकर मनोविज्ञान के ग्रंथ तो रच डाले हैं, पर शरीर की भांति मन के अध्ययन पर वैज्ञानिक दृष्टि आभाव है। इसलिए आज भी मानव मन की अवस्था, उसके चित्त, उसकी कार्यशैली पर शोध जारी हैं और अनंत काल तक जारी रहेंगे। यही मन का रहस्य है, जैसे ईश्वर के अस्तित्व की संकल्पना के सैकड़ों आयाम हम विभिन्न धर्मों में पाते हैं। पर जब हम धर्म विहीन होकर उसकी कल्पना एक मनुष्य के रूप में करते हैं, तो उसकी एक अस्पष्ट तस्वीर उभरती है। कभी-कभी तो यह भी सवाल उपजता है कि ईश्वर है भी, कि नहीं। कहीं यह हमारे ‘मन’ की एक कल्पना मात्र तो नहीं।
    वर्ष 2003 की बात है, ऋषिकेश के गीताआश्रम में ईश्वर की स्थिति को लेकर एक वयोवृद्ध द्वारा पूछे गए सवाल कि- ‘स्वामी जी ईश्वर की पूजा, उपासना, आराधना करते-करते जीवनसंध्या निकट आ पहुंची है, पर मन में उसके अस्तित्व को लेकर संशय बना हुआ है।’जबाव में स्वामी रामसुखदासजी कह रहे थे कि ईश्वर जानने की नहीं मानने की बात है। यानी ‘मानो तो गंगा मां हूं न मानो तो बहता पानी’। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को एक उदाहरण से कुछ यूं समझाया कि एक बच्चा यदि जन्म के तुरन्त बाद बिछड़ गया और उसका पालन पोषण किसी भिन्न वतावरण, संस्कृति में हुआ और  बड़े होने पर उसके माता पिता के बारे में किसी को कुछ भी ज्ञात न हो तो, क्या यह माना जा सकता है कि बच्चा आसमान से टपका होगा! नि:संदेह न तो विज्ञान और न ही आध्यात्म आसमान से टपकने की बात को स्वीकार सकता है। भले ही हम उसके जन्मदाता को न जानते हों, फिर भी मानना पड़ता है कि वह है तो मां-बाप हैं और मां-बाप हैं, तो उनके भी मां-बाप होंगे ही। स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि ठीक यही अवस्था ईश्वर की है, हम हैं तो वह भी है। जैसे उक्त बच्चे के मां-बाप का पता ज्ञात करने के निमित्त दुनियां के अरबों मां-बाप के डीएनए टेस्ट की दुरूह प्रक्रिया से गुजरना होगा, ठीक इसी तरह ईश्वर को भी जानने की प्रक्रिया उतनी ही दुरूह है। मन की भी ऐसी ही अवस्था है। वह भी अज्ञात है बस उसके जितने भाग से हम परिचित है उसी को पूरी जानकारी मानकर खुद को भरमाये रखते हैं। मन जिसे हम ईश्वर का पीआरओ भी कह सकते हैं। मन की अवस्थाओं को लेकर साहित्य और आध्यात्म जगत में बहुत कुछ कहा गया है। मूल रूप से मन ही हमारे जड़ शरीर का संचालक है यानी ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’
  इस विमर्श का लब्बोलुआब यह है कि दुनिया में बेहतर जीवन बसर करने का मूलमंत्र है, अपने ‘मन’ को नियंत्रित रखना।  इस संसार में जितना भी सुख-दुख, हर्ष-विषाद, अच्छाई-बुराई, प्यार-दुतकार  विद्यमान है वह सब ‘मन’ की प्रकृति पर निर्भर है। वरना क्या वजह है कि तमाम जड़ साधनों (धन सम्पदा)से सम्पन्न व्यक्ति के दुखी रहने और विपन्न व्यक्ति के सुखी रहने की नजीरें हमें जगत में दिखाई देतीं। इसलिए हम जितनी भी साधना, उपासना विभिन्न धर्मों के माध्यम से करते आये हैं, उसमें ‘मन’ को साधने की साधना सबसे अपरिहार्य है। जिसका ‘मन’ नियंत्रित है वह ईश्वर के और ईश्वर उसके करीब है और वही मानवीय है।
यहां यह प्रश्न जनसाधारण के मन-मतिष्क में उपजना लाजिमी है कि मन, बुद्धि और आत्मा में फर्क कैसे किया जाए। इसे कुछ इस तरह से समझा जाए तो बेहतर होगा कि- जब कोई विचार यकायक मतिष्क में आये तो इसे मन का विचार माना जा सकता है जैसे मुझे आज फलां जगह घूमने जाना है। पर जब वहां जाने के तरीके या साधन,समय आदि पर विचार किया जाए तो वहां बुद्धि की उपस्थिति मानी जानी चाहिए। लेकिन किसी काम के करने की अथवा उसके सही गलत होने का निर्धारण जिस भाग द्वारा किया जाए उसे आत्मा माना जा सकता है। यानी मन हमारी समस्त गतिविधियों का कारक है। यही हमें लोक-परलोक से जोड़ता है। मन के विचार पर ही व्यक्ति की बुद्धि और आत्मा क्रियाशील होती है। यद्यपि यह कोई अंतिम दर्शन नहीं फिर भी इस लिहाज से मन को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जा सकता है।
   आज दुनिया में जितनी भी लालच,   लिप्सा और लड़ाई है वह हमारे ‘मन’ के अनियंत्रित होने का कारक है। इसलिए यह बात अब समझी जानी चाहिए कि ‘जड़’ चाहे वह शरीर हो अथवा साधन, चेतन ‘मन’ के द्वारा संचालित हैं। इसीलिए यह कहा गया है कि ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’क्योंकि ‘मन’ के स्वस्थ होने का सीधा ताल्लुक ‘तन’ से है और जब दोनों स्वस्थ हैं तो ‘धन’ भी अर्जित किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि हमारा ‘मन’ स्वस्थ, सधा हुआ और नियंत्रित हो और तभी हम किसी अपने की ‘तन, मन और धन’ से सहायता कर सकते हैं।

प्रेम का मर्म

 आधुनिक युग का नया चलन है कि हम प्राय: हर दिन कोई न कोई दिवस मनाते हैं। इनके मनाने और मानने का औचित्य भी यही है कि हम दिवस विशेष के प्रति अपनी कृतज्ञता, सम्मान दर्शाकर व्यक्ति या घटना का स्मरण कायम रखें।
  वेलेंटाइन डे मनाने की परंपरा हमारे देश में भले ही कुछ सालों से हो, लेकिन संसार के कुछ हिस्सों में प्रेमी यह पर्व एक लंबे अरसे से मनाते रहे हैं। किवदंती है कि रोम के शासक क्लोडियस द्वितीय ने अपने शासनकाल में अपने सिपाहियों पर अपनी प्रेमिकाओं से मिलने व शादी करने पर रोक लगा दी थी। तब इस प्रेम पुजारी वेलेंटाइन ने लोगों की छुपकर शादियां करवाई और प्रेम करने वालों को मिलाया। इसी वजह से क्लोडियस ने वेलेंटाइन को 14 फरवरी 1269 ई. को मृत्युदण्ड दे दिया। वेलेंटाइन ने मृत्यु से पहले अपनी दोस्त जो कि जेलर की बेटी थी, के नाम एक खत लिखा- जिसमें उसने लिखा-फ्रॉम योर वेलेंटाइन और इसी दिन को प्यार के प्रतीक के दिन में संत वेलेंटाइन के नाम पर ‘वेलेंटाइन डे’ के नाम से विश्व में मनाया जाने लगा।
    प्रेम है क्या? इसके मायने क्या है? क्या किसी को पूर्वनिश्चित तरीकों से प्रेम किया जा सकता है? या यह स्वत: उत्पन्न और जीवंत शाश्वत रहने वाली अवस्था है? यह भी माना जाता है कि प्रेम इबादत है, ईश्वर भी अपने बंदों से प्रेम करता है। संत वेलेंटाइन ने भी इसी प्रेम पर लगे बंधन से निवृत्ति के लिए गुप्त रास्ता निकाला, कानून तोड़ा और अपना बलिदान दे दिया। बड़ा स्वाभाविक सवाल है कि प्रेम इतनी पवित्र क्रिया है तो इस पर इतने पहरे क्यों? दरअसल आज प्रेम का दर्शन इस रूप में लुप्त होता जा कि यह एक भाव है जो है तो है, बकौल  एहतराम इस्लाम-
          ‘मूर्ति सोने की निरर्थक वस्तु है, उसके लिए
          मोम की गुड़िया अगर बच्चे को प्यारी है तो है’

 या फिर प्रेम कोई वस्तु है जिसे उत्पन्न किया जा सके! जैसा कि इनदिनों देखने में आ रहा है। गर्ल या ब्बाय फ्रेंड की अवधारणा भी इसी आधुनिक पाश्चात संस्कृति की देन है और जिनके पास ये कथित संबंध नहीं उन्हें आधुनिकता के दौर में पिछड़ा, हीन दृष्टि से देखा जाने लगा है। जो जोड़े सफल होकर विवाह, परिवार में रूपांतरित हो गए वे तो ठीक पर जिन्हें मंजिल न मिली वे कटी पंतग की तरह दिशहीन भी देखे गए हैं।
प्यार को वस्तु की भांति नहीं पाया जा सकता, यह तो स्वत: उद्भूत होने वाली प्रघटना है।  शायद इसीलिए गाया गया कि-
         ‘प्यार किया नहीं जाता हो जाता है...।
पर इसे उत्पन्न करने, जानबूझकर या कभी-कभी तो जोर जबरदस्ती से पैदा करने के वाकये हमारे बीच देखने में आते हैं।  बचपन में एक कहानी सुनी थी कि कोकिल का स्वर सुनकर राजा उसे पकड़वा लेते थे पर वह चुप हो जाती थी। कहा जाता है कि कोकिला को पकड़ा जा सकता है पर गान को बंदी नहीं बनाया जा सकता। आज के तकनीकि युग में हमारा ज्ञान-विज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ा है, जिसने हमें बोध कराया है कि श्रम, धन, साधनों से वस्तु की तरह प्रेम को भी पाया और प्रभावित किया जा सकता है। ऐसे प्रेम के चंगुल में ‘मूल्यों’ जिस पर समाज का ताना-बाना बुना गया है उन्हीं का पतन होता जा रहा है। क्योंकि हम मूल्यों से अधिक वस्तुओं के वशीभूत हैं, वस्तुओं के जरिए ही प्रेम के विनमय को सम्पूर्ण मानते हैं और इन्हीं गतिविधियों से हद से ज्यादा प्रभावित हैं, किसी का रुतबा इस रूप में देखने के आदी हो चले हैं कि वह किन साधनों से युक्त है, कितना ग्लैमराइज्ड है, न इससे कि उसने यह सब संसाधन कितनी नैतिकता से अर्जित किए हैं। दरअसल, ऐसा करके हम जाने-अनजाने उस मूल्यहीन कथित समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं जिसकी आलोचना प्राय: जगह-जगह करते रहते हैं। ‘मूल्य’ और ‘प्रेम’ समानुपाती हैं, जो जीवन में मूल्यों को तव्वज्जो देगा वही प्रेम के मर्म को बांच सकेगा, उसको अपना सकेगा और उसका प्रसार कर सकेगा। आज जितनी भी विकृतिओं से समाज घिरा है उसकी मूल वजह प्रेम का आभाव है।
  ‘वेलेंटाइन डे’ को प्रेम के पर्व के रूप में भारतीय भी मनाएं यह कोई अनिवार्य नहीं पर इसका विरोध हो यह भी गलत है। पर जिस तरह से मोहब्बत को समझाने के प्रयास दिवस विशेष के जरिए इनदिनों किए जा रहे हैं, उससे ऐसे प्रेम पर सवाल जरूर उठता है कि क्या प्रेम कोई याद दिलाने या इसके सार्वजनिक प्रदर्शन का भाव बन चुका है। जिसे वस्तु की तरह उपहारों के माध्यम से, प्रेम के स्तर को प्रदर्शित कर,प्रेम की मात्रा, उसकी सघनता को जताया जा सकता है?  हमारे यहां फिल्मों में 50-60 के दशक में ही प्रेम के दर्शन को बड़ी सरलता गुनगुनाया दिया गया था कि- ‘मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती....’ या फिर ‘ये जिन्दगी उसी की है/ जो किसी का हो गया / प्यार में ही खो गया ...’ भारतीय समाज व उसके दर्शन में, प्रेम की जितनी प्रगाढ़ सत्य कथाएं विद्यमान हैं शायद ही ऐसा दुनिया की किसी अन्य व्यवस्था में हो। प्रेम में सर्वस्व यहां तक कि जीवन का उत्सर्ग कर देने वाले सोनी-महवाल, लैला-मजनूं, सीरी-फरहाद, पारो-देवदास की गाथाओं से परिचित होने के बावजूद हमें प्रेम को पाश्चात जगत के उदाहरणों से समझने और इसकी व्याख्या की जरूरत पड़ रही है क्यों? हमें यह नहीं भूलना होगा कि भारत वही देश है जहां जिन्दगी क्या जिन्दगी के बाद भी प्रेम करने की नज्में गुनगुनाई गई हैं-
                जिन्दगी में प्यार तो सभी किया करते हैं,
       मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा..’
 लेकिन अब तो शर्तों और परीक्षण के आधार पर प्रेम को, देह के रूप में निरखने और उसका लुफ्त लेना ही इसका एकमात्र आधार बनता जा रहा है। गर एक से प्रेम न हुआ तो दूसरा सही या फिर तीसरा, चौथा...ऊपर से संदेह और संशय ने इसे विकृ त रूप में ला खड़ा किया है। इसीलिए इसके दुखांत दृश्य भी देखने में आना आम बात है। शायद इसीलिए गाया गया कि-
अगर सच्ची होती, मुहब्बत तुम्हारी/ तो घबरा के तुम यूं, शिकायत न करते.../अगर बेवफा, तुझको पहचान जाते, खुदा की कसम, हम मोहब्बत न करते
फिर भी प्रेम दिवस मनाया गया और आगे भी मनाया जाता रहेगा। पर प्रेम के मर्म को, इसके मूल्य को यदि आज का समाज, संवेदनशील होकर समझे और स्वीकारे तो ऐसे आयोजन किसी एक दिन नहीं, बल्कि वर्ष भर क्या  जीवनभर नित्य अनुभव किए जा सकते हैं। प्रेम हमारी अमूल्य निधि है जिसके जीवन में प्रेम नहीं,जिस समुदाय में दया व करुणा नहीं, वे देह का इश्क तो कर सकते हैं, पर प्रेम नहीं। क्योंकि प्रेम, मात्र प्रेमालाप या विवाह नहीं इससे भी बढ़कर, किसी का किसी के प्रति सम्पूर्ण समर्पण है। जिसे ‘वेलेंटाइन डे’ के बाजारी संस्करण द्वारा तो कतई हासिल नहीं किया जा सकता।
श्रीश पाण्डेय