Monday 16 January 2012

मप्र पीएससी में उम्र सीमा का पाखंड

  राजतंत्र में राज्य की अवधारणा इस रूप में नकारात्मक थी कि शासक, राज्य में महज कानून व्यवस्था बनाये रखने के निमित्त अस्तित्व में थे। जिसमें कर वसूलने, राज्य का विस्तार और उसकी जनता को सुरक्षा मुहैया कराना ही प्रमुख कार्य थे। समय के साथ दुनिया भर में बदली व्यवस्था के तहत भारत में भी लोकतंत्र की स्थापना हुई और इस व्यवस्था के तहत अस्तित्व में आई सरकारों में लोककल्याण की प्रवृत्ति पनपी। जिसके चलते नई व्यवस्था में राज्य के काम-काज कानून व्यवस्था से इतर जनकल्याण कार्यों पर अधिक केन्द्रित हुए। राज्य नियोजन के लिए है। अत: उसका दायित्व है कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ-साथ रोजगार के अवसर जुटाए। इस निमित्त संविधान के अनुच्छेद 315 में केंद्रीय स्तर पर संघ लोक सेवा आयोग और अनु. 321 के तहत विभिन्न राज्यों में लोक सेवा आयोगों की स्थापना की गई।
   1956 में मप्र लोक सेवा आयोग भी प्रदेश के निर्माण के साथ अस्तित्व में आया। इसके तहत लगभग पैंतीस तरह के पदों की भर्ती का प्रावधान उनकी वार्षिक कैलेण्डर में उपलब्धता के आधार पर, प्रतिवर्ष किये जाने का प्रावधान रखा गया। ऐसी भर्ती का आधार है कि हर साल कुछ न कुछ सेवानिवृत्तियां, आसमयिक मृत्यु अथवा किन्हीं कारणों से सेवा छोड़ने की वजह से पद रिक्त होंगे। इसलिए मप्र लोक सेवा आयोग के भर्ती नियम संख्या 49-सी-3 में उल्लेख है कि उपलब्ध भर्ती योग्य पदों में से जिन-जिन पदों में रिक्तियां होंगी, उनके लिए प्रतिवर्ष एक प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की जाएगी। यह प्रावधान स्नातक  विद्यार्थियों को बिना विज्ञापन आये तैयारी करने का विश्वास देता है कि रिक्तियां वर्ष में एक बार तो आयेंगी ही। यद्यपि आरंभ में इस नियम का पालन नियमित रूप से हुआ। लेकिन दिग्विजय शासन ने सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे वर्ष 2000-05  यानी  निरंतर पांच वर्षों तक म.प्र. लोक सेवा की परीक्षाओं का आयोजन नहीं हो सका। यह कालावधि आयोग के इतिहास में काला धब्बा है, जिसमें लाखों प्रतियोगियों के सपनों का दम घुट कर रह गया। अहम सवाल है कि इन पांच वर्षों में क्या एक भी सेवानिवृत्ति नहीं हुर्इं थी?
    बहरहाल, बमुश्किल प्रतियोगी परीक्षाएं 5 वर्ष के अंतराल के बाद वर्ष 2005 में पुन: शुरू तो हुर्इं, मगर इस बीच जो हजारों छात्र उम्रदराज हो गए, उनके स्वप्नों की कब्रगाह बन गई, क्योंकि उनको उम्र सीमा में कोई छूट नहीं दी गई। इसके लिए उठाई गई आवाज को, एकतरफा अनसुना कर दिया गया। मैं स्वयं इस अभियान का हिस्सा रहा हूं। सैकड़ों रजिस्टर्ड चिठ्ठियां और पत्र मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और अध्यक्ष लोकसेवा आयोग को लिखने के बावजूद, जब सरकार कान में तेल डाले बैठी रही, तब मैंने न्याय के निमित्त उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और सरकार व म.प्र. लोक सेवा आयोग के विरुद्ध केस फाइल किया था। न्यायालय ने संज्ञान लिया, सरकार व आयोग को नोटिस भी जारी हुआ, पर तब तक दो परीक्षाएं संचालित हो चुकीं थी। पर मामले की गंभीरता का अंंदाजा सरकार को न्यायालय की नोटिस से हो गया था, सम्भवत: इसीलिए उसने उम्र सीमा 35 से 38 वर्ष तो की, पर मात्र तीन अवसरों के लिए। जबकि लगातार 5 वर्ष परीक्षाएं नहीं हुर्इं थी।
   बात परीक्षा के अवसरों और अधिकतम आयु सीमा तक सीमित नहीं है। इसमें भी बड़े भेद और पाखंड वर्षों से ढ़ोये जा रहे हैं। मसलन कुछ विशेष पदों के लिए षड्यंत्र के तहत उम्र सीमा इस तरह से तय की गई है कि लॉर्ड लिटन की याद ताजा हो आती है जबकि उसने, भारतीयों के लिए सिविल सेवाओं में अधिकतम उम्र सीमा घटाकर 19 वर्ष कर दी गई थी, ताकि भारतीयों को इस सेवा में प्रवेश न मिल सके। ऐसा ही घालमेल आज भी जारी है। प्रदेश की लोक सेवाओं में उप पुलिस अधीक्षक की न्यून्यतम आयु सीमा 20 वर्ष और अधिकतम 25 वर्ष है। जबकि सरकारी शिक्षा नीति कहती है कि बच्चों को कक्षा एक में प्रवेश न्यूनतम 6 वर्ष में दिया जाए। इस लिहाज से वह 18 वर्ष में तो बारहवीं और कम से कम तीन साल का ग्रेजुएशन, जो कि परीक्षा में बैठने की न्यूनतम आर्हता है, को बिना किसी बाधा के पूरा करे तो भी 21 वर्ष लग जाते हैं।  फिर वह 20 वर्ष में कैसे स्नातक उत्तीर्ण हो सकता है। मध्यप्रदेश एक पिछड़ा राज्य है, जहां एक ग्रामीण अंचल के सामान्य विद्यार्थी को अक्सर स्नातक होने में 22 अथवा वह इंजीनियरिंग (4 वर्षीय) कर रहा है, तो 23 वर्ष भी लग सकते हैं और फिर कभी नियमित विज्ञापन न आया अथवा आया भी तो डीएसपी के पद ज्ञापित न हुए तो, ऐसे में डीएसपी की बाट जोहे तमाम विद्यार्थियों की भ्रूण हत्या सी हो जाती है। गौरतलब है कि संघ लोकसेवा आयोग द्वारा भी आईपीएस बनने की उम्र सीमा 21-30 वर्ष निर्धारित की गई है। तो क्या मप्र देश के संविधान से परे है? भर्ती नीति बनाने के अधिकार का यह तानाशाहीकरण नहीं तो और क्या है? उम्र की दास्तां और भी है। डीएसपी के अलावा एक्साइज डीओ, जिला जेल अधीक्षक जैसे कुछ चुनिंदा पदों के लिए भी अधिकतम आयु सीमा 35 वर्ष से कम करके 30 वर्ष रखी गई है। जबकि पड़ोसी राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा और उत्तराखंड में सभी पदों की अधिकतम आयु सीमा 35 वर्ष यहां तक कि 38 वर्ष भी रखी गई है। दूसरी ओर पहले से ही मप्र शासन में सेवारतों के लिए 5 वर्ष की छूट दी जा रही है। यानी जो पहले से नियोजित है उसे और सुविधा है कि वह उच्च पदों   के लिए प्रयास कर सके। पर जो बेरोजगार है उसे कथित नियमों की आड़ में छला जा रहा है ?
 यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रदेश के जनप्रतिनिधि चाहे वे सत्ता पक्ष के हों अथवा विपक्ष के, को यह पाखंड और भेदभाव क्यों नहीं दिखता? आज तक किसी जनप्रतिनिधि ने अपनी बांहे नहीं मोड़ी, न ही इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई। जबकि अब तक  हजारों प्रतिभागियों का दम इसी तानाशाही रवैये के चलते घुट चुका है। अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में कोई भी व्यक्ति कभी भी, किसी भी उम्र में इन सेवाओं में आ-जा सकता है। पर प्रदेश में तो परीक्षाओं में बैठने की उम्र में ही बंधन थोपे गए हैं। दिलचस्प बात है कि प्रतियोगी परीक्षाएं नौकरी पाने का एक अवसर मात्र हैं न कि इनकी ग्यारंटी। तो फिर अवसर देने में कोताही क्यों? इसके लिए कौन जिम्मेवार है? प्रदेश सरकार अथवा कथित ब्यूरोक्रेसी जो सरकार को मशविरे देती रहती है।
 इस तरह के आयु सीमा के बंधन लोकल्याण का दम भरने वाली सरकार के तो हरगिज नहीं हो सकते। भारत में जहां नेताओं के राज करने की कोई उम्र सीमा नहीं है, वहीं बच्चों के भविष्य पर उम्र के बंधन किसी पाखंड से कम नहीं कहे जा सकते और फिर यह राज्य नियोजन के लिए है की धारण के विपरीत भी। इनदिनों आयोग मुख्य परीक्षा के साथ साक्षात्कार भी आयोजित कर रहा है, ऐसे में इसका समाधान अविलम्ब होना चाहिए ताकि इस आयु को लेकर मौजूद भेदभाव को समाप्त किया जा सके।
                                         -  श्रीश पांडेय      
                                         सम्पर्क- 09424733818.

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