अमेरिका में औद्योगिक क्र ांति के बाद समाजशास्त्री आर के मर्टन ने अपने एक अध्ययन में पाया था कि उनदिनों अमेरिकी नागरिकों की सामान्य धारणा थी कि ‘सफल बनो चाहे उसका मार्ग (नैतिक अथवा अनैतिक) कुछ भी हो’। लेकिन यह सूत्र वहां की राजनीति के बजाय व्यापार और विदेश नीति में ज्यादा देखने में आया था। बाद के वर्षों में सफल बनने का यही सूत्र हमने भी अपनाया, मगर व्यापार अथवा विदेश नीति में नहीं, बल्कि राजनीति में। इनदिनों इसी अमेरिकी धारणा का ग्रहण देश की राजनीति में साफतौर पर देखा जा सकता है। खासकर हाल में घोषित पांच राज्यों के चुनावों को लेकर सभी दल, हर वह हथकंड़ा अपनाने से गुरेज नहीं कर रहे, जिसको लेकर पिछले वर्ष भर से अन्ना ने देश में राजनीतिक शुचिता की बहस छेड़ रखी है।
दरअसल, राहुल गांधी के यूपी में सक्रिय होने और मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा छेड़ देने से, बसपा और सपा से मुसलमानों का मोह भंग होने ही सम्भावना बनी है, जिसके चलते मायावती और मुलायम तिलमिलाए हुए हैं। यद्यपि धर्म के आधार पर आरक्षण का विरोध संविधान की भाषा में निहित है, पर चुनाव में साम, दाम, दंड सभी का इस्तेमाल करना देश की राजनीति का चरित्र बन चुका है। इधर मायावती भ्रष्टाचार विरोधी होने का तमगा बसपा पर चस्पा करने की मुहिम में रात दिन मशगूल हैं और इस निमित्त वह एक-एक करके मंत्रियों को हाथी से कुचलने के अभियान में पिल पड़ी हैं। जो सख्श कल तक उनका विश्वासपात्र नुमाइंदा रहा हो और उसके भ्रष्ट कृत्यों पर जानबूझकर गांधारी की तरह आंख में पट्टी बांधी गई हो, वही अब चुनाव के चक्कर में उनकी आंखों की किरकिरी बना है। उसी बाबू सिंह को रातोंरात भ्रष्टाचार के आरोप के चलते यह कह कर धक्का दिया गया है कि कुशवाह भ्रष्टाचार के कीचड़ में आकंठ तक डूबे हैं। ऐसा मात्र इसलिए ताकि आखिरी वक्त जनता में यह संदेश दिया जा सके कि वे भी अन्ना की तर्ज पर भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन की पक्षधर हैं। इस तरह की नाटकीय गतिविधियां हमारे देश में चुनाव के समय दिखना सामान्य बात बन चुकी है। देश के कथित नेता आज भी इस मुगालते में राजनीति चमका रहे हैं कि चुनाव के वक्त बगुलाभगत बनने और बाद में लूटने खसोटने की नीति को जनता नहीं समझती। यह तब और दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है, जब आवाम इनके हथकंडों में फंसकर उन्हीं को फिर मौका दे देती है, जिनको वह पिछले वर्षों में उनके कथित कारनामों के लिए कोसती रही है।
इधर भाजपा द्वारा बसपा से निष्कासित पिछड़े समूह के कद्दावर नेता बाबू सिंह कुशवाह को लपक लिए जाने से पार्टी के भीतर एक नई बहस छिड़ी है कि आखिर उसकी विचारधारा क्या रह गई है? क्योंकि राष्टÑीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटाले के आरोपी पूर्व मंत्री कुशवाहा जिन पर सीबीआई ने प्रकरण दर्ज कर रखा है, को भाजपा में शामिल किये जाने पर पार्टी दो खेमों खड़ी दिखती है।
भाजपा के एक पूर्व मंत्री यशवंत सिन्हा का ज्ञान दुरुस्त है कि कीचड़ में ही कमल खिलता है। इसी आधार पर वे कहते हैं कि कुशवाह पिछड़े वर्ग के एक बड़े नेता हैं और उनके आने से भाजपा फायदा होगा, भले वे भ्रष्टाचार के कीचड़ में सने हैं तो क्या? ऐसा कहते वक्त उन्हें यह भी ख्याल नहीं रहा कि महीने भर पहले उनके वयोवृद्ध नेता आडवाणी ने हजारों किमी की देशव्यापी यात्रा करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध अलख जगायी थी। और तो और कर्नाटक के अपने ही एक मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुर्सी छोड़ने को विवश होना पड़ा था। ऐसे में वरिष्ठों की इस सोच तय है कि बाबूसिंह का पार्टी में प्रवेश आगामी पांच राज्यों के चुनावों में भाजपा की लुटिया डुबो देगा। क्या भाजपा का थिंक टैंक ध्वस्त हो चुका है। क्योंकि जिसको अपने घर से दुतकार दिया गया हो, क्या वह दूसरी पार्टी में खुद को पाक-साफ सिद्ध कर देगा और उससे पार्टी को कै सा फायदा होगा। इसी आशंका से पार्टी का एक धड़ा जिसमें प्रमुख रूप से मेनका गांधी, उमा भारती, कीर्ति आजाद हैं ने विरोध दर्ज किया है। सांसद योगीनाथ ने तो प्रत्यक्ष तौर पर मुखर स्वर में कहा कि हम लोग सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के आधार पर बीजेपी में आए हैं। जब सिद्धांत ही न रहे तो राजनीति और वेश्यावृत्ति में क्या फर्क रह जाएगा? लेकिन शीर्ष नेतृत्व किस मुगालते में है समझ से परे है। फिलवक्त भाजपा, बसपा के दागी मंत्रियों, विधायकों को गले लगाकर वह कीचड़ में कमल खिलने वाली कहावत को चरितार्थ करने के जोड़-तोड़ में दिख रही है। भाजपा के इस कृत्य के बाद उसके ही कुनबे में घमासान छिड़ गया है। कल तक कांग्रेस पर हमला बोलने वाली भाजपा ‘आज आ बैल मुझे मार’ वाली स्थिति में नजर आ रही है। भाजपा के कुछ नेताओं का यह निर्णय पूरी पार्टी के लिए एक बड़ा विवाद, गहरा आक्रोश और चुनाव से पहले ही साख पर बट्टा है। नीति नैतिकता की बड़ी- बड़ी बातें करने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को इस समय सांप सूंघ गया है।
आज भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में सरकार बनाना तो दूर, बल्कि उसे403 सीटों में से 100 का आंकड़ा भी दूर की कौड़ी लगता है। ऐसे में भ्रष्टों को पार्टी में शरण देने का फैसला उन्हें कहां ले जाएगा समझना कठिन नहीं होगा। और अब तो यह भी सवाल उठाए जा रहे हंै कि क्या देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी विकल्पहीनता के कगार पर है? यद्यपि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। 1997 में कल्याण सिंह सरकार का जम्बो मंत्रिमंडल याद करें, तो उसमें 93 मंत्रियों में से 17 हिस्ट्री शीटर मंत्री बने थे। राजा भैय्या को लेकर कुंडा के गुंडों को देख लेने वाले कल्याण सिंह ने उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया था। पूर्वांचल के माफिया हरिशंकर तिवारी को भी मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में शामिल किया था।
बहरहाल, अब जबकि देश में अन्ना आंदोलन ठंडा पड़ता दिख रहा है तो राजनीति का असली चेहरा फिर से उभरने लगा है। भाजपा यह मानकर चल रही थी कि अन्ना समूह के आंदोलन का असली फायदा उसे ही होने वाला है, लेकिन बाबूसिंह को पार्टी में शामिल करने की गणित में वह खुद अपने ही पोस्ट में गोलकर बैठी। विडम्बना है कि भ्रष्टाचार और व्यवस्था दुरुस्त करने के मुद्दे पर कांग्रेस सहित अन्य दलों का विरोध करने वाली भाजपा इतनी बचकानी हरकत कैसे कर बैठी या फिर वही अमेरिकन नारे कि ‘सफल बनो, चाहे जैसे’ की राह राजनीति में अख्तियार करना चाहती है। इन स्थितियों में देश की आवाम ठंड में दुबकी देख और सोच रही होगी कि कमल चाहे प्रकृति में हो या भाजपा का खिलता तो कीचड़ में ही है।
श्रीश पांडेय
सम्पर्क - 09424733818.
दरअसल, राहुल गांधी के यूपी में सक्रिय होने और मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा छेड़ देने से, बसपा और सपा से मुसलमानों का मोह भंग होने ही सम्भावना बनी है, जिसके चलते मायावती और मुलायम तिलमिलाए हुए हैं। यद्यपि धर्म के आधार पर आरक्षण का विरोध संविधान की भाषा में निहित है, पर चुनाव में साम, दाम, दंड सभी का इस्तेमाल करना देश की राजनीति का चरित्र बन चुका है। इधर मायावती भ्रष्टाचार विरोधी होने का तमगा बसपा पर चस्पा करने की मुहिम में रात दिन मशगूल हैं और इस निमित्त वह एक-एक करके मंत्रियों को हाथी से कुचलने के अभियान में पिल पड़ी हैं। जो सख्श कल तक उनका विश्वासपात्र नुमाइंदा रहा हो और उसके भ्रष्ट कृत्यों पर जानबूझकर गांधारी की तरह आंख में पट्टी बांधी गई हो, वही अब चुनाव के चक्कर में उनकी आंखों की किरकिरी बना है। उसी बाबू सिंह को रातोंरात भ्रष्टाचार के आरोप के चलते यह कह कर धक्का दिया गया है कि कुशवाह भ्रष्टाचार के कीचड़ में आकंठ तक डूबे हैं। ऐसा मात्र इसलिए ताकि आखिरी वक्त जनता में यह संदेश दिया जा सके कि वे भी अन्ना की तर्ज पर भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन की पक्षधर हैं। इस तरह की नाटकीय गतिविधियां हमारे देश में चुनाव के समय दिखना सामान्य बात बन चुकी है। देश के कथित नेता आज भी इस मुगालते में राजनीति चमका रहे हैं कि चुनाव के वक्त बगुलाभगत बनने और बाद में लूटने खसोटने की नीति को जनता नहीं समझती। यह तब और दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है, जब आवाम इनके हथकंडों में फंसकर उन्हीं को फिर मौका दे देती है, जिनको वह पिछले वर्षों में उनके कथित कारनामों के लिए कोसती रही है।
इधर भाजपा द्वारा बसपा से निष्कासित पिछड़े समूह के कद्दावर नेता बाबू सिंह कुशवाह को लपक लिए जाने से पार्टी के भीतर एक नई बहस छिड़ी है कि आखिर उसकी विचारधारा क्या रह गई है? क्योंकि राष्टÑीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटाले के आरोपी पूर्व मंत्री कुशवाहा जिन पर सीबीआई ने प्रकरण दर्ज कर रखा है, को भाजपा में शामिल किये जाने पर पार्टी दो खेमों खड़ी दिखती है।
भाजपा के एक पूर्व मंत्री यशवंत सिन्हा का ज्ञान दुरुस्त है कि कीचड़ में ही कमल खिलता है। इसी आधार पर वे कहते हैं कि कुशवाह पिछड़े वर्ग के एक बड़े नेता हैं और उनके आने से भाजपा फायदा होगा, भले वे भ्रष्टाचार के कीचड़ में सने हैं तो क्या? ऐसा कहते वक्त उन्हें यह भी ख्याल नहीं रहा कि महीने भर पहले उनके वयोवृद्ध नेता आडवाणी ने हजारों किमी की देशव्यापी यात्रा करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध अलख जगायी थी। और तो और कर्नाटक के अपने ही एक मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुर्सी छोड़ने को विवश होना पड़ा था। ऐसे में वरिष्ठों की इस सोच तय है कि बाबूसिंह का पार्टी में प्रवेश आगामी पांच राज्यों के चुनावों में भाजपा की लुटिया डुबो देगा। क्या भाजपा का थिंक टैंक ध्वस्त हो चुका है। क्योंकि जिसको अपने घर से दुतकार दिया गया हो, क्या वह दूसरी पार्टी में खुद को पाक-साफ सिद्ध कर देगा और उससे पार्टी को कै सा फायदा होगा। इसी आशंका से पार्टी का एक धड़ा जिसमें प्रमुख रूप से मेनका गांधी, उमा भारती, कीर्ति आजाद हैं ने विरोध दर्ज किया है। सांसद योगीनाथ ने तो प्रत्यक्ष तौर पर मुखर स्वर में कहा कि हम लोग सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के आधार पर बीजेपी में आए हैं। जब सिद्धांत ही न रहे तो राजनीति और वेश्यावृत्ति में क्या फर्क रह जाएगा? लेकिन शीर्ष नेतृत्व किस मुगालते में है समझ से परे है। फिलवक्त भाजपा, बसपा के दागी मंत्रियों, विधायकों को गले लगाकर वह कीचड़ में कमल खिलने वाली कहावत को चरितार्थ करने के जोड़-तोड़ में दिख रही है। भाजपा के इस कृत्य के बाद उसके ही कुनबे में घमासान छिड़ गया है। कल तक कांग्रेस पर हमला बोलने वाली भाजपा ‘आज आ बैल मुझे मार’ वाली स्थिति में नजर आ रही है। भाजपा के कुछ नेताओं का यह निर्णय पूरी पार्टी के लिए एक बड़ा विवाद, गहरा आक्रोश और चुनाव से पहले ही साख पर बट्टा है। नीति नैतिकता की बड़ी- बड़ी बातें करने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को इस समय सांप सूंघ गया है।
आज भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में सरकार बनाना तो दूर, बल्कि उसे403 सीटों में से 100 का आंकड़ा भी दूर की कौड़ी लगता है। ऐसे में भ्रष्टों को पार्टी में शरण देने का फैसला उन्हें कहां ले जाएगा समझना कठिन नहीं होगा। और अब तो यह भी सवाल उठाए जा रहे हंै कि क्या देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी विकल्पहीनता के कगार पर है? यद्यपि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। 1997 में कल्याण सिंह सरकार का जम्बो मंत्रिमंडल याद करें, तो उसमें 93 मंत्रियों में से 17 हिस्ट्री शीटर मंत्री बने थे। राजा भैय्या को लेकर कुंडा के गुंडों को देख लेने वाले कल्याण सिंह ने उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया था। पूर्वांचल के माफिया हरिशंकर तिवारी को भी मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में शामिल किया था।
बहरहाल, अब जबकि देश में अन्ना आंदोलन ठंडा पड़ता दिख रहा है तो राजनीति का असली चेहरा फिर से उभरने लगा है। भाजपा यह मानकर चल रही थी कि अन्ना समूह के आंदोलन का असली फायदा उसे ही होने वाला है, लेकिन बाबूसिंह को पार्टी में शामिल करने की गणित में वह खुद अपने ही पोस्ट में गोलकर बैठी। विडम्बना है कि भ्रष्टाचार और व्यवस्था दुरुस्त करने के मुद्दे पर कांग्रेस सहित अन्य दलों का विरोध करने वाली भाजपा इतनी बचकानी हरकत कैसे कर बैठी या फिर वही अमेरिकन नारे कि ‘सफल बनो, चाहे जैसे’ की राह राजनीति में अख्तियार करना चाहती है। इन स्थितियों में देश की आवाम ठंड में दुबकी देख और सोच रही होगी कि कमल चाहे प्रकृति में हो या भाजपा का खिलता तो कीचड़ में ही है।
श्रीश पांडेय
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