नव वर्ष के अवसर पर शुभकामनाओं के आदान-प्रदान के बीच यह तथ्य रोचक है कि भारत में गृहस्थी के कार्यों के अलावा कामकाजी महिलाओं की संख्या आज आजादी के समय 0.3 फीसदी से बढ़कर10 फीसदी के आस-पास है। आगे भी इस आंकड़े में उत्तरोत्तर वृद्धि दर्ज हो रही है। यह संकेत भी उत्साहजनक है कि अब स्त्रियों के घर से बाहर कार्यरत होने को सम्मान की दृष्टि से ही नहीं बल्कि उसकी उपयोगिता को स्वीकार किया जा रहा है। यह सब उसकी बढ़ती ‘ज्ञानशक्ति’ का नतीजा है। बात बड़ी साफ है कि अब वे दिन हवा हुए जब स्त्रियां जन्मती थी बहन-बेटी बनकर और फिर पत्नी, मां , सास,दादी या नानी मात्र बनकर दुनिया से विदा हो जाती थीं। यह बदलाव खासकर वैश्वीकरण के बाद देखने में आया है। यहां स्त्री समुदाय को नहीं भूलना होगा कि यह परिवर्तन किसी का उपहार नहीं है, बल्कि यह तो समय व युग की आवश्यकता के मुताबिक उसने स्वयं मुकाम गढ़ा है। इसमें संदेह नहीं कि एक सुदृढ़ परिवार व समाज के निर्माण में स्त्री का योगदान केंद्रीय है। पर दुर्भाग्य से इस केंद्रीय भूमिका को पहचानने में उसी की ओर से चूक होती आयी है।
‘ज्ञानशक्ति’ वर्तमान युग का सबसे कारगार अस्त्र है। एक ज्ञानवान स्त्री ने सिर्फ खुद को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बनाया है, बल्कि उसको लेकर समाज में सदियों से चले आ रहे इस मिथक का भी समापन सम्भव हुआ है कि वह सिर्फ भोग्या है। भारत के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो प्राचीन भारत में स्त्रियों को समाज में हर लिहाज से बराबरी और सम्मान का दर्जा हासिल था। मध्यकाल को विदेशी आक्रांताओं व मुसलिमों के लूट खसोट के चलते स्त्रियों के दमन का समय माना जाता है, पर भारत की आजादी के संघर्ष के दौर में यह बात समझी जाने लगी थी कि आने वाले समय में स्त्री की भूमिका समाज में फिर से अपने प्राचीन गौरव की ओर उन्मुख होगी और ऐसा हुआ भी। क्योंकि आज जिस युग में हम हैं वहां हर क्षेत्र में स्त्रियों को समान अवसर, समाजिक और सरकारी स्तर पर सुविधा के रूप में उपलब्ध हैं। प्रदेश में पंचायतों चुनावों में 50 प्रतिशत के आरक्षण के साथ नौकरियों में 30 प्रतिशत स्थान सुरक्षित होने और आयु सीमा में 45 वर्ष तक अवसर उपलब्ध होने जैसी प्रोत्साहन जनक योजनाएं के बीच यदि वह इसका सदुपयोग नहीं कर पा रही है तो उसे अपने गिरेबां झांकना होगा, कि चूक कहां हो रही है। आज के दौर में स्त्रियों का आर्थिक सामर्थ्य उनमें विश्वास पैदा करता है कि वे मात्र गृहकार्य के निमित्त और परजीवी नहीं हैं। मौजूदा10 फीसदी का आंकड़े में असमानता है, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में कॅरियर को लेकर जितनी चेतना दिखती है उसके बनिस्बत ग्रामीण क्षेत्र पीछे हैं। जबकि शासन का सर्वाधिक ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों में केंद्रित है। स्त्रियों को इस मन:स्थिति से उबरना होगा कि सब कुछ अनुकूल हो तब वे अध्ययन/ स्वाध्याय को समय देंगी। अध्ययन की प्रवृत्ति पर हुए शोध बतलाते हैं कि अनुकूलता में अध्ययन उतना कारगर नहीं होता जितना प्रतिकूलता में और सब कुछ हमारे मनमाफिक होगा तभी स्वाध्याय होगा इस भ्रम से बाहर आना होगा। दुनिया में हर विकास को देखें तो वह संघर्षों और आवश्यकताओं के बीच जन्मा है। जीवन की इन कठिनाईयों के बरक्स दो पंक्तियां स्मरण हो आती हैं कि -
जीवन के हर पथ पर माली पुष्प नहीं बिखराता है,
प्रगति का पथ अक्सर पथरीला ही होता है।
और फिर अध्ययन तो हमेशा से कठिन पथ रहा है, पर निरंतर अध्ययन, ही जीवन में लाभदायक बदलाव और प्रगति का कारक भी है। तो नए वर्ष में कम से कम यह संकल्प लिया जाना चाहिए हर आयु समूह की महिलाएं प्रतिदिन ‘दो घंटे’ का अनिवार्य स्वाध्याय अवश्य करेंगी, चाहे वे पूरी तरह एक गृहणी क्यों न हों। क्योंकि जब एक ज्ञानवान स्त्री जब मां बनती है तो वह अपने बच्चों को भी बेहतर शिक्षित कर सकती है। प्राय: देखने में आया है कि छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन के लिए या तो घर से बाहर जाना पड़ता है या घर में शिक्षक को धन खर्च कर बुलाना पड़ता है। जबकि कक्षा पांच तक की पढ़ाई को एक सामान्य गृहणी स्वयं संभाल सकती है। अत्यधिक टीवी देखने या फिर गप्प-शप्प लगाने में समय जाया करने की बजाय थोड़ा समय वह इस ओर दे तो उसे लाभ होगा साथ ही उसके बच्चे को भी।
इसलिए नये साल को गीत संगीत, मौज मस्ती और संदेश भेजने और पाने के अलावा इसे एक संकल्प का दिन भी बनाया जा सकता है। ऐसा संकल्प जिसका कोई विकल्प न हो, जो उसकी शसक्तीकरण का एक अहम पड़ाव हो। तो इस नववर्ष में महिलाएं एक यादगार संकल्प लें कि वे ‘ज्ञानशक्ति’ के महत्व को सिर्फ समझे ही नहीं उसे जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा भी बनाए।
अहम सवाल है कि जिस देश में स्त्री को शक्तिस्वरूपा का दर्जा हासिल है, उस देश में उसका सर्वाधिक पतन कैसे होता जा रहा है। क्या इसके लिए पुरुष प्रधान व्यवस्था जिम्मेवार है या स्वयं वह? यदि इस मुद्दे पर यदि स्त्रियां सूक्ष्म विवेचन करे तो बात आसानी से समझी जा सकती है कि यह पुरुष दमन का मिथ्या रुदन है। जब-जब महिलाओं ने स्वयं की ताकत (ज्ञानशक्ति) को पहचाना है तब-तब उसने खुद को दृढ़ता से सामाजिक व्यवस्था में खड़ा पाया है।
तो वर्ष 2011 के जाने और 2012 के आने के बीच कई तरह की दु:खद और सुखद घटनाओं को हमने अपने आस-पास, घर-परिवार, पड़ोस, समाज और देश-विदेश में देखा और महसूस किया होगा। जिनको लेकर कभी खुशी से खुद पर से काबू खो बैठे तो कभी दु:ख के पहाड़ ने हमारे संसार को नीरस बना हमें चिंतित किया। पर नए साल को लेकर दुनिया भर में मनाए गए उत्सवों में जिस तरह का उत्साह देखने में आया है, उससे यह माना जा सकता है कि दुनिया में सुख और दु:ख कोई स्थाई स्थितियां नहीं जिन्हें हम पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं। बस ये दोनों आते हैं और बीत जाते हैं। तो फिर जो निरंतर वर्तमान नहीं रहता उसके लिए न तो बेहद हर्षित होने और न ही अधिक दुखित होने के दर्शन को, इस नए वर्ष में आत्मसात करें। यह तभी सम्भव है जब इस वर्ष नियमित स्वाध्याय का संकल्प लें। तब न सिर्फ इस वर्ष को बल्कि आगामी वर्षों को हम और बेहतर बना पाएंगे। यह संकल्प पूर्ण हो इस निमित्त स्टार वुमेन के पाठकों को नववर्ष की शुभकामनाएं हैं।
श्रीश पांडेय
09424733818
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