अच्छी बारिश के बाद उम्मीद जतायी गई थी इस वर्ष जल स्तर बढ़ेगा, कृषि उत्पादन बेहतर होगा, बाजार में रौनक लौटेगी, किसानों के चेहरे खिलेंगे और कुल मिलाकर आगामी वर्ष अपेक्षाकृत चिंता से मुक्त होगा। इधर सरकार भी खुश थी कि घोटाले-घपलों के बीच प्रकृति अनुकूल होने से जनता का ध्यान उसके कथित कारनामों से भंग होगा और वह भी कुछ बेहतर कदम उठाकर देशवासियों को महंगाई से राहत देने का प्रबंध करेगी। उधर अण्णा का ‘अगस्त अनशन’ भी अनुनय-विनय से इस आश्वासन के साथ समाप्त करा दिया गया था कि एक मजबूत लोकपाल बिल शीतसत्र में लाया जाएगा। क्योंकि सरकार के ऊपर दबाव था कि भ्रष्टाचार और लोकपाल को लेकर जितना बवाल बीते और इस साल हुआ, उतना हड़कम्प देश के इतिहास में संसद से सड़क तक, नेता से जनता तक, किसी अन्य मामले में नहीं हुआ था। खैर अब लोकपाल के आने और न आने का सवाल नहीं रह गया। अब जो भी बहस, विवाद और माथापच्ची है, वह इसके स्वरूप, संगठन, इसमें नियुक्ति और इसकी क्षमता को लेकर ज्यादा है। अण्णा समूह और सरकार के बीच टकराव भी मुख्यत: इसी पर केन्द्रित है। अब तो इस भिड़ंत के पीछे दोनों पक्षों का अहम भी कहीं न कहीं झलकने लगा है।
बहरहाल, इस बहस के समानांतर एक ज्वलंत प्रश्न और है कि क्या लोकपाल ही भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा ‘प्रतिजैविक’ साबित होगा? और यह भी कि क्या कानून और संस्थान मात्र बना देने से भ्रष्टाचार मिटाया जा सकता है? तो मौजूदा सीबीआई, सीआईडी, सीवीसी जैसी केंद्रीय संस्थाओं अलावा प्रदेश स्तर पर अपराध ब्यूरो शाखाएं, क्या नकारा साबित हुर्इं हैं? यदि हां तो इस बात की क्या ग्यारंटी है कि आने वाले वक्त में लोकपाल भी इन्हीं संस्थाओं की जमात में खड़ा दिखाई न देगा? यदि ऐसा हुआ तो, क्या फिर एक और ‘सुपर लोकपाल’ की मुहिम जनता में से किसी अण्णा को चलानी होगी?
दरअसल, कानूनी संस्थाएं ऐलोपैथिक दवाओं की तरह हंै, जो मर्ज को दबाने का काम तो करती हैं, पर उनका उन्मूलन नहीं। क्योंकि जब एक समय की लाइलाज बीमारियों - टीबी, चेचक, खसरा, प्लेग का इलाज खोजा लिया गया, तब यह माना गया कि अब हम रोग मुक्त दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। पर जल्दी ही यह भ्रम भी जाता रहा, क्योंकि दूसरी अन्य लाइलाज बीमारियां यथा डेंगू, एड्स, बर्डफ्लू के रूप में सामने आ गर्इं। लेकिन कैंसर तब भी उपचार विहीन था आज भी है। ठीक ऐसे ही भ्रष्टाचार का कैंसर आज भी कानून की किताब में बना हुआ है और बना रहेगा; तब तक, जब तक इसका ऐसा आयुर्वेदिक इलाज न खोजा जाय,जो भले इसे जड़ मूल से समाप्त न भी कर सके, पर इतना न्यून तो कर सके कि इससे व्यापक जनहित प्रभावित न हों।
पर सवाल है कि यह कैसे होगा? इसका समाधान जनता के चरित्र, उसके आचरण में निहित है। भारतीय संविधान की आत्मा ‘प्रस्तावना’ में पहला वाक्य है- ‘हम भारत के लोग भारत को...’ कैसा बनाना चाहते हैं? और एक नागरिक की हैसियत से हमारा देश के प्रति कर्त्तव्य क्या होगा! भारतीय संविधान की ‘प्रस्तावना’ में जनता की शक्ति का मूल मंत्र निहित है। जिसकी प्राणप्रतिष्ठा घर-घर के पूजा स्थलों के साथ-साथ सार्वजनिक रूप से मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरिजाघरों आदि में होनी चाहिए और इसकी सिर्फ प्रतिष्ठा न हो,बल्कि इसका नित्य स्मरण भी होना चाहिए। ताकि हमें यह सतत याद रहे कि आज जैसा भी भारत है और उसकी जो दशा है, उसके निर्माता हम ही हैं, नेता नहीं। हमारा ही अक्स, हमारी सोच, हमारे चरित्र का प्रतिविम्ब देश की राजनीतिक व्यवस्था में है। हममें से ही नेता जन्मता है और हमीं उसकी आॅक्सीजन हैं, फिर अपने किए पर, अव्यवस्थाओं व समस्यायों के लिए सड़क चौराहों से लेकर गांव गलियारों तक बवाल करने से क्या हासिल होगा! भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी के लिए दोषी यदि नेता और सरकारी नीतियां हैं, तो हमें यह भी नहीं भूलना होगा कि सरकार भी हमने बनाई है और हमीं बदल सकते हैं। अहम सवाल है कि देश का नेतृत्व गढ़ते वक्त संविधान प्रदत्त यह सूत्र वाक्य क्यों विस्मृत जाते हैं कि हमीं ‘भारत भाग्य विधाता हैं।’ पर दुर्भाग्यवश हम सिर्फ भीड़ का हिस्सा है और यही बने रहना चाहते हैं, चाहे वह भीड़ जाति की हो अथवा समुदाय की। चुनाव आते ही हम एक चैतन्य भारतीय की तरह प्रत्याशियों का चयन नहीं करते, तब हमें नजर आता है, तो सिर्फ अपने जाति-समुदाय का प्रतिनिधि, इसी दवा की घुट्टी हमें कथित नेताओं ने पिला रखी है और हम अलमस्त है इसे पीकर। इसी सूत्र ने राजनीति के छोटे-छोटे कबीले तैयार कर दिए हैं, जिनसे मिल कर सत्ता बनती है, जिनके दायित्वों में अपने समुदाय के हित प्राथमिक हैं, न कि देश के। यही जाति-समुदाय विशेष के लोग, दशकों से राजनीतिज्ञों के राजनैतिक तवा बने हुए हैं जिन पर कथित राजनेता अपनी सत्ता की रोटी सेंकते आ रहे हैं। ऐसे राजनीति के कबीलों का ध्येय एक विशेष वर्ग को उनका रहनुमा साबित करने और इसकी आड़ में अपनी राजनीति चमकाने में ही पूरा समय जाया होता है। इस तरह से जैसे देश में अनेक संस्कृतियां पल्लवित हो रही हैं वैसे ही एक भारत के भीतर कई भारत एक साथ पृथक-पृथक रूप में मौजूद हैं। और फिर नेताओं की बिरादरी यह भली-भांति समझ चुकी है कि जनता फुटबाल की तरह है, चाहे टीम पक्ष की हो या विपक्ष उसे लात ही नसीब होनी है, गोल चाहे इधर हो, चाहे उधर, विजय होगी तो सिर्फ नेताओं की और राजनीति की होनी है। मुठ्ठी भर अंगे्रजों ने भी फूट डालो राज करो की तर्ज पर देश को जी भर लूटा था और अब हमने अपने-अपने अंग्रेज (दलित, पिछड़ा, अगड़ा, हिन्दू, मुस्लिम, किसान, गरीब न जाने और क्या क्या वर्गों के रहनुमा) तैयार कर लिए हैं।
दरअसल, भ्रष्टाचार हमारे अभौतिक संस्थानों- मन, विचार में स्थान बना चुका है, जिसका उन्मूलन भौतिक कानून के जरिए हरगिज नहीं किया जा सकता। यह बात साबित हो चुकी है। हो न हो, इसका अनुभव सरकार को भी है और लोकपाल के गुब्बारे में सवार अण्णा हजारे और उनके करोड़ों अनुयायियों को भी। अब यह बात समझी जानी चाहिए कि भ्रष्टाचार की मूल वजह आधुनिक जीवन शैली की अति उपभोगवादी प्रवृत्ति और चकाचौंध से भरी देश की राजनीति है। दोनों की प्रवृत्तियों को लेकर हम लालायित और प्रभावित हैं। वर्तमान परिदृश्य में देश की राजनीति, हॉलीवुड या वॉलीवुड से कमतर ग्लैमराइज्ड नहीं है। नेताओं की हर रैली, सभाओं के निमित्त भीड़ जुटाने, बड़े-बडेÞे कटआउट, बैनर-पोस्टर चिपकाने अधिकाधिक गाड़ियों की संख्या का प्रदर्शन ही, राजनीति का चरित्र व चलन बन गया है। ऐसा होने के पीछे संविधान की प्रस्तावना में मूर्तिवत दर्ज हम भारत के लोग ही हैं, जो इनके धनबल,जनबल के मायाजाल से मोहित हैं। एक कथा हम सब ने पढ़ी है कि शिकारी आता है जाल फैलाता है हमें जाल में नहीं फंसना चाहिए... पर हम हर बार फंसने गलती दोहराते रहे हैं। चुनाव के वक्त हमारे विरोध की समस्त ऊर्जा इन्हीं शिकारियों द्वारा दिए गए मीठे आश्वासनों, इनामों और अंगूरी पीकर अंगूठा लगाने में नष्ट हो जाती है। कितनी विचित्र बात है कि हम अण्णा को मानते हंै, पर अण्णा की नहीं मानते। कैसा पाखंड हमने पाल लिया है। दिल्ली में अण्णा के अगस्त अनशन का सर्मथन करने के लिए , जिन पंद्रह करोड़ लोगों ने एसएमएस के जरिए अपना-अपना समर्थन व्यक्त किया था, तो वे सक्रिय रूप से चुनावों के समय मतदान केंद्रों पर मत के जरिए बदलाव लाने का नैष्ठिक प्रयास क्यों नहीं करते। इसीलिए तथाकथित बुद्विजीवी वर्ग पर यह आरोप लगता रहा है कि वह बहस-मुबासिहों में तो बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है, लेकिन मतदान केंद्रों की लम्बी लाइन देखकर और इसे दोयम दर्जे का काम मानकर मतदान नहीं करता, जबकि 11 करोड़ लोगों का मत प्राप्त करने वाली कांग्रेस पार्टी देश की सत्ता चला रही है। इससे यह भी जाहिर है कि कुछ लोगों की दुष्टता सज्जन लोगों की तटस्थता के कारण चल रही है। शायद इन्हीं लोगों को केन्द्रित करके धरमवीर भारती ने लिखा है कि - ‘जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध’।
लोकपाल जैसा भी आयेगा वह एक और कानूनी अस्त्र तो होगा, जो भ्रष्टाचार के कैंसर पर अनुसंधान तो करेगा पर कितना कामयाब होगा यह बात देखने वाली होगी। पर आज यह बात दावे से कही जा सकती है कि यदि हम भारत के लोग, अण्णा जैसे व्यक्तियों को ढूंढ़-ढूÞंढ़ कर, उन्हें न सिर्फ चुनाव में खड़ा करे बल्कि उन्हें चयनित भी करे तो भ्रष्टाचार ही क्या समस्त अव्यवस्थाएं, चाहे वे देश के भीतर की हों अथवा बाहर की, सभी का एक हद तक समाधान हो सकता है। आज हम ऐसे दौर में हैं,जहां से यदि हम कथित नेताओं का तवा न बने और आवाम राष्टÑीयता से ओत-प्रोत होकर, समाज से ऐसे निष्ठावानों को चुने जो पूरे देश, पूरे समाज की सोचता हो, न किसी विशेष वर्ग की। यह कदापि नहीं भूलना होगा कि भ्रष्टाचार एक वैचारिक समस्या है, जिसका भौतिक समाधान (कानूनी) कभी सम्भव नहीं। जरूरत है कि प्रस्तावना में निहित अपनी ताकत ‘हम भारत के लोग’ पहचाने और अण्णा जैसे चरित्र के लोगों को समाज से खोज निकाले और उन्हें राष्टÑ के लिए चुने। जो सिर्फ देश की बात करे। जैसे अन्ना मराठी हैं, पर सिर्फ राष्टÑ की बात करते हैं, विकास की बात करते हैं, वे आमची मुम्बई का राग या मोदी की तरह आपणों गुजरात का राग नहीं अलापते। ठीक ऐसे चलन हमें लाने होंगे। चुनाव में उसे ही चुनें जिसके पास चरित्र हो न कि ग्लैमर। प्रदर्शन और चकाचौंध की राजनीति को सिरे से खारिज करने का वक्त आ पहुंचा है। क्या ‘हम भारत के लोग’ संविधान की प्रस्तावना में निहित अपनी शक्ति को पहचानेंगे और जैसे भारत की कल्पना हमने सैद्धांतिक रूप से कर रखी है उसे व्यवहार रूप में साकार कर पाएंगे।
श्रीश पांडेय
मो. न. 09424733818.
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