Saturday 31 August 2013

बहुत रस है "मिडिल क्लास"

बड्डे ने अर्ली मॉर्निग चुटकी ली कि अपने मौन मनमोहन जी, अब अपना मुख गाहे बगाहे खुद भी खोलने लगे हैं।मगर बड़े भाई उन्होंने मुखड़ा भी तब खोला जब पानी सर पर आ गया और देश पानी-पानी (बारिश से और साख से भी) हो रहा है। तिस पर घोषणा कि हमारे भरोसे न रहो देश कठिन आर्थिक स्थितियों में घिरा हुआ है। ई ससुरी इस सरकार ने दस बरस में देश को ऐसे हालातों में लाकर धर दिया कि आवाम की लानत मलानत हो रही है। लोग जी जी कर मर रहे हैं और मर मर कर जी रहे हैं। हालांकि अब पीएम की कुर्सी ही 'डेंजरजोन' में है। जब अर्थशात्री पीएम ही खतरा मान ले तो फिर पब्लिक कहां सर पटके, और राहत की उम्मीद बांधे। और फिर अब तो चला चली की बेला है, सो जनता से सच छुपाने का कोई औचित्य नहीं। यह तो 'कनफेशन' का टाईम है, क्योंकि अब चुनाव दूर नहीं। जो करना है सो जल्दी करना है। खाद्य सुरक्षा बिल को लाने की हड़बड़ी इसी का नतीजा है। रुपया चाहे गिरावट का शतक मार ले।मगर रुपइया, दो रुपइया में अन्न देकर सरकार गरीबों का रहनुमा क्यों न बन लें। क्योंकि अंत भला सो सब भला। पॉसिबल है कि 'पेट के बदले वोट' कार्ड चल निकले। राजनीति अपार संभावनाओं का मैदान है इसलिए इस नए खेल में अंतिम क्षणों में गुल खिल जाए तो क्या बुरा है? उधर कुछेक सव्रे के मुताबिक मनमोहन और राहुल की उम्र के लगभग औसत उम्र(80+44=62)वाले मोदी ने बिना प्रधानमंत्री बने जिस तरह से आभासी प्रधानमंत्रीय भूमिका निभाने का जज्बा दिखाया है। उससे गत दस बरस से पीएम की कुर्सी पर नियुक्त मनमोहनजी से, बिना पीएम बने लोकप्रियता की टीआरपी में आगे निकल गए। उधर इनके खजांची चिदम्बरमजी ने रुपए की रोज-रोज की गिरावट पर पहले तो फिल्मी 'स्टाइल' में तसल्ली दी कि 'डोन्ट वरी' सब दुरुस्त हो जाएगा, लेकिन फिर भी रुपया है कि मानता ही नहीं, निरंतर लुढ़क रहा है, सो कुढ़कर कह दिया कि 'रुपया के गिरने से मेरे जेब में रखे पांच सौ का नोट क्या 342 का हो गया?' मुसीबत में ज्ञान बिलबिला जाता है सो मंत्री जी ताव में भूल गए कि जब तेल आयात होगा तो डॉलर में होगा, तब जित्ता 500 रुपईया में तेल आता था अब उत्ता नहीं आयेगा। यानी धरे रहो अपना नोट जेब में मगर गाड़ी की टंकी में तेल तली में रह जाएगा, न कि छलकेगा। अरे बड्डे सरकार जानती है कि इस देश की में मिडल क्लास में बहुत रस है। वह इसी रस को निचोड़ना चाहती है। सो जितनी भी चिल्लपों है वह इसी क्लास में। इसीलिए मनमोहन जी ने 'मिडिल क्लास' के बरक्स कठिन स्थितियों का जिक्र किया है। क्योंकि गरीब का पेट सरकार भरेगी और अमीर खुद सक्षम है।

Tuesday 20 August 2013

समाज का दायरा

   जीवन के विकास और विनाश का क्रम, चाहे वह साधनों के स्तर पर हो अथवा संरचना के, समय के साथ क्रमिक रूप से अप्रत्याशित तरीकों से होता रहता है। आज हमारा वर्तमान जितने साधनों, सुविधाओं से लबरेज है, वह किसी दौर में अकल्पनीय, असम्भव सा और मानव सोच से परे था। ज्यादा पहले नहीं महज चार सौ बरस पहले यदि अकबर के युग में कोई बादशाह से कहता कि हुजूर आगे ऐसा युग आयेगा जब मोबाइल जैसे बित्ते भर यंत्र से लोग-बाग दूर-दूर तक बात कर सकेंगे अथवा टेलीवीजन व इंटरनेट के माध्यम से सुदूर इलाकों की घटनाओं को  न सिर्फ देख सकेंगे बल्कि सचित्र संवाद भी कर सकेंगे, तो शायद उस शख्स को बेबकूफ या विक्षिप्त मानकर कारागार में डाल दिया जाता। थोड़ा और पहले के इतिहास पर नजर करें तो यूरोप के खगोलविद कोपरनिकस के यह जब घोषित किया कि धरती और समस्त ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर गतिमान हैं। इस बात का बतंगड़ खड़ा हो गया लेकिन बाद वर्षों में इस खगोलीय प्रघटना की पुष्टि जब गैलिलिओ ने की तो उनकी आँख फोड़ दी गयी. लेकिन तब असम्भव सी लगने वाली बात बाद में सत्य साबित हुई। अज्ञानता और वक्त के गर्भ में छिपे रहस्यों पर जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं पड़ता वे अविश्वसनीय होते हैं। एक और वाकया मुझे बचपन का स्मरण हो आता है। करीब 30-32 साल पहले का जब मैं अपने गांव के बड़े से आंगन में दादी के साथ चारपाई पर खुले आसमां तले लेटे-लेटे किस्से कहानियां सुन रहा था। वह  स्वच्छ धवल आकाश वाली काली रात थी। आसमान ऐसे लग रहा था मानो तारों की बारात सजी हो। ऐसे दृश्य शहरी जीवन में बहुमंजिला इमारतों में कहीं नहीं हैं। अलबत्ता कुछ लोग बाजार से खरीदे रेडियम के सितारे अपने बेड रूम की छत में चिपका कर प्रकृति के नजारे को कृत्रिम रूप से देखने और अपने बच्चों को दिखाने की कोशिश जरूर करते हैं। ...हां तो कहानी सुनते वक्त मेरे कान तो दादी की आवाज पर थे, मगर निगाहें उन बेहद चमकीले तारों पर और बादलों में छिपते निकलते चन्द्रमा की चंचलता पर। तभी मैंने और दादी ने एक साथ एक तारा आसमान से टूटते हुए देखा, जो धरती की ओर आते हुए बुझ सा गया। दादी ने कहानी को बीच में रोककर इस प्रघटना पर शोक नुमा आवाज में राम-राम कहकर एक अल्पविराम के बाद कहानी को आगे बढ़ाना शुरू ही किया था। मैंने कौतूहलवश दादी से सवाल किया कि ये क्या था? तो उन्होंने कहा कि बेटा यह तो ईश्वरीय लीला है। किसी तारा का टूटना जीवधारी के धरती से स्वर्गवास होने का संकेत है। तब मेरे मन में दादी की बात किसी सत्य तथ्य की भांति पैठ गई थी और तब तक बैठी रही जब तक भूगोल की पुस्तकों में खगोलीय घटनाओं के बारे में पढ़ समझ नहीं लिया कि यह किसी उल्कापिंड का धरती की ओर गिरने के दौरान उसके वायुमंडल में आते ही जल उठने की चमक है, न कि तारे का टूटना। इस तरह ऐसे अनेक मिथक हमारे जीवन का हिस्सा सदियों तक बने रहे हैं, जब तक उनका उदघाटन नहीं हो गया। 
जब से मनुष्य ने समुदाय में रहना शुरू किया तब से लेकर कोई सौ साल पहले तक उसके जीवन और समाज  का दायरा बहुत अधिक नहीं था। शादी-संबंध आस-पास के गांवों में होते थे और सारा जीवन एक निश्चित दायरे में समाप्त हो जाता था। लेकिन आजादी के बाद के वर्षों में यह सामाजिक वृत्त बढ़ा है, तो इसके नेपथ्य में काफी हद तक इस दौर का तकनीकि विकास है। इस बड़े वृत्त का क्षेत्रफल तो अधिक हुआ मगर इसकी मिठास घटती गई है। फिर शुरू हुआ नए तकनीकि संसाधनों पर आधारित समाज को दौर। आज से तीन दशक पहले सोशल मीडिया के अंतर्गत फेसबुक और टिवटर जैसे अभिव्यक्ति के प्लेटफार्म की किसी ने कल्पना भी न की होगी। लेकिन आज ये जिन्दगी के ऐसे अंग बनते जा रहे हैं कि अब इनके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। अभी तक समाज में हमारे विस्तार का तरीका पास-पड़ोस, रिश्ते-नाते और स्कूल-कॉलेज या दफ्तरों में सहपाठी और सहयोगियों के बीच पनपता और विकसित होता रहा है। ऐसे समाज में हमारी अंतरक्रिया प्रत्यक्ष और वास्तविक होती है। लेकिन विकास के इस क्रम में ज्यों-ज्यों साधनों और सुविधाओं का प्रादुर्भाव हुआ त्यों-त्यों प्रत्यक्ष सामाजीकरण का दायरा भी सिकुड़ता हुआ घर की चहादीवारी से कमरे तक सीमित होता गया। इसकी वजह पहले टेलीवीजन था अब इंटरनेट है।  इंटरनेट के विस्तार ने एक वर्चुअल समाज की अवधारणा हमारे सामने ला दी है। जिसका रास्ता वास्तविक समाज से ऐसे काल्पनिक समाज की ओर जाता है, जो हो के भी नहीं है, मगर विचारों, भावनाओं, चिंतन में नित्य, सतत विद्यमान है। यह ऐसा विस्तार है जिसका आधार एक छाया चित्र और शब्दों के संवाद के सिवा और क्या है? लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता यह कब हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन जाता है अनुभव कर पाना कठिन है, लेकिन एक बार यह आकार ले ले तो फिर इसके बिना रहना भी कठिन है। गर इस व्यवस्था के मनोविज्ञान पर गौर करें तो ऐसा समाज हमारी गैर-जिम्मेवारी की बढ़ती स्वच्छंद प्रवृत्ति का प्रतीक है। आधुनिक दौर में मनुष्य वही चाहता है जो पुराने समय में, क्योंकि उसकी इंद्रिया आज भी उतनी ही हैं जितनी सदा से थीं। बस फर्क है तो जिम्मेदारियों से बचने का गणित। इसकी एक बड़ी वजह है   इंटरनेट पर वर्चुअल दुनिया का तेजी से उदय और विस्तार। लेकिन आज जब हम ज्ञात या परिचित के साथ यदि समायोजित होने में असहज महसूस करने लगे हैं। तब यह मानना पड़ता है कि देह के स्तर पर भले हम परिवर्तित न हुए हों, मगर मानसिक, महत्वाकांक्षाओं या लालच के स्तर पर हममें बड़ी तब्दीली आ चुकी है। छद्म आवरण, बनावटी बातें, दिखावे का प्रदर्शन हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। इसलिए टिवटर और फेसबुक की जमीन पर कुकरमुत्तों की तरह उदय और अस्त होते रिश्तों का आधार मात्र यह बनता जा रहा कि कौन किसकी कही बात पसंद करता, टिप्पणी करता या ऐसा नहीं करता है। यहां भी एक प्रतियोगिता है कि किसके कितने मित्र हैं जिसका फेसबुकिया स्टेटस इस पैमाने पर उच्च या निम्न श्रेणी में देखा जाता है कि उसके स्टेटस पर कितने लाईक और टिप्पणी आर्इं। ख्याली पुलाव की तरह इन दोस्तों से लोग रू-ब-रू होते हैं। यह बात दीगर है कि रोज रोज के सत्संग से कुछ लोग वाकई अजीज और घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं। यह प्रयोग नया है इसलिए आकर्षक है। मगर यह भूलना बड़ी भूल होगी कि स्वाचालित खिलौने या तकनीकि संसाधन वास्तविक मानवीय संगत का विकल्प हो सकते।