Monday 30 January 2012

हिंदी की दशा

 भाषा कोई भी हो वह उसे जानने वालों के मध्य संचार का अचूक माध्यम होने के साथ ही वह सभ्यता व संस्कृति के विकास का वाहक भी होती है। इतिहास  साक्षी है कि दुनिया के अलग-अलग भू-भागों में अनेक भाषाओं और बोलियों ने मानव की नैसर्गिक प्रतिभा को पल्लवति, पोषित किया है। आदि मानव में बर्बरता इसीलिए थी, क्योंकि उसकी कोई बोली या भाषा नहीं थी। बस थी तो- भूख, प्यास, नींद और मौजूद थे कहने, सुनने व समझने के लिए कुछ अस्पष्ट स्वर व संकेत। समय के साथ भाषा का निर्माण बड़े जतन से अक्षरों, शब्दों के गढ़ने के बाद हुआ।
    आज भारत में लगभग 1618 भाषा एवं बोलियां है और दुनिया में लगभग 6912 भाषाएं एवं बोलियां हैं। जिनके माध्यम से कई मानवपयोगी अनुसंधान वअविष्कार हुए हैं, लेकिन आज इनमें से अधिकांश लुप्त हो चुकी हैं और न जाने कितनी ही इसके कगार पर हैं। जैसे बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है ठीक वैसे ही बड़ी भाषाएं छोटी भाषा और बोली को लीलती जा रही हैं और भाषा के साथ नष्ट होती है, वहां की मौलिकता, सभ्यता और संस्कृति के साथ एक समूची व्यवस्था, जिसे सदियों से हमारे पूर्वज सहेजते और विकसित करते आ रहे थे। कैसे एक विदेशी भाषा हमारी मौलिकता को नष्ट करती जा रही है उसका एक सूक्ष्म एहसास मुझे अपने चार वर्षीय बेटे मानस श्री को उसके स्कूल में मिले गृहकार्य (होमवर्क) की एक अंगे्रजी कविता पढ़ाते वक्त हुआ। कविता थी ‘ओल्ड मेक्डोनॉल्ड हैड अ फॉर्म ईया ईया ओ... विथ सम डॉगस, बाऊ-बाऊ हेयर एण्ड बाऊ- बाऊ देयर’ और इसी प्रकार ‘विथ सम कॉऊ,.. मूं-मूं हेयर एण्ड मूं-मूं देयर’ इस कविता में कुत्ते के भौंकने (भों-भों) को बाऊ-बाऊ और गाय के रम्भानें (म्हां-म्हां) को मूं-मूं कहकर बच्चों से रट्टा लगवाया जा रहा है। धर्म क्षेत्र में देखें तो, बच्चे अब देवताओं के नाम गणेश नहीं ‘गणेशा’, राम-कृ ष्ण नहीं ‘रामा-कृ ष्णा’ जैसे सम्बोधन के आदी होते जा रहे हैं। कैसे बचपन से ही मूल स्वरों व आवाजों से इनकी महक छीनी जा रही है। इन्हीं  एक-एक शब्दों के जरिए हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा और संस्कृति से परे होती जा रही है। कार्ययालयों, रोजमर्रा के मेल मुलाकातों के सम्बोधनों  गुडमॉर्निंग, गुडईवनिंग, गुडनाईट ने हमारे नमस्कार, प्रणाम, शुभरात्रि जैसे शब्दों को विस्थापित कर दिया है। जो भी बचा है वह बिना प्रभावित हुए नहीं रहने वाला। आचार-विचार और सोच में तब्दीली तथाकथित अंग्रेजी दा सोसायटी में तो पूरी तरह उतर ही चुकी है। और अब इसका अवतरण कस्बाई इलाकों में हो रहा है।
     यह बात गौर करने लायक है कि मौलिकता ही रचनात्मकता की जनक है,और यह अपनी मातृ भाषा में ही सम्भव है। तभी तो टैगोर द्वारा बांग्ला में लिखी ‘गीतांजलि’ भारत में एकमात्र नोबल पुरस्कार पाने वाली पुस्तक बन कर रह गई। पर राष्टÑ भाषा हिन्दी को लेकर जिस तरह से दोयम दर्जे का रुख भारत में अख्तियार किया गया है, वैसा दुनिया के किसी और मुल्क में हरगिज नहीं होगा।
     इतिहास गवाह है कि दुनिया के अधिकांश अविष्कार मौलिक भाषा में हुए हैं। यथा आज भी चीन में मंदारिन, फ्रांस में फ्रेंच, रुस में रशियन, जापान में जैपनीज भाषा में ही समस्त कार्य जारी हैं। यहां तक कि उनके राजनयिक अपनी देश-विदेश की यात्राओं में अपने यहां राष्टÑभाषा बोलने में नहीं हिचकते। लेकिन भारत में ऐसी स्थितियों में नेता अंग्रेजी के पक्ष में रहते हैं, न कि राष्टÑभाषा के। भारत में स्थितियां दिनोंदिन विपरीत होती जा रही हैं।
     देश में अंग्रेजी को रोजगार से जोड़ देने की साजिश चल पड़ी है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर रहे बच्चों को एक अलग समूह के रूप में देखा जाने लगा है, जैसा पहले कभी ब्रितानी हुकूमत के दौर में था। आज भारत की शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी की अनिवार्यता बना दी गई है। पिछले दो वर्षों में  इसे पढ़ने का एक नया चोर रास्ता गढ़ दिया गया। पहले देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा ‘संघलोकसेवा’ की मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी का ऐच्छिक प्रश्न-पत्र था, जिसमें  मात्र उत्तीर्ण होना अनिवार्य था, यह तब भी  हिन्दी माध्यम में पढ़कर आये विद्यार्थियों के लिए एक बड़ी बाधा थी, पर तब कैसे भी रट कर काम चल जाता था। लेकिन,अब तो प्रारम्भिक परीक्षा में ही ‘सी-सेट’ टेस्ट के नाम पर अंग्रेजी की अनिवार्यता, पास होने के स्थान पर चयन का कारक बना दी गई है। क्या इसके मायने यह नहीं कि जो बच्चे कस्बाई या ग्रामीण क्षेत्रों में हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में मध्यान भोजन की सुविधा के मध्य अध्ययन कर रहे हैं, वे लोकसेवाओं की परीक्षा के लिए अयोग्य हैं? उनके नसीब में अभी मुफ्त का मध्यान भोजन है, बाद में मनरेगा की मजदूरी का होगा। सवाल बड़ा है पर उठाया नहीं जाता कि ऐसे स्कूलों से निकले प्रतिभाशाली बच्चों के लिए अंगे्रजी का अतिरिक्त अतिरिक्त बोझ क्यों? जब अंग्रेजी देश की सर्वोच्च सेवाओं में चयन का माध्यम बन जाय तो एक राष्टÑभाषा में दीक्षित देखने में आया है कि कई बार उसका अंग्रेजी  ज्ञान दुरुस्त न हो पाने की वजह से, प्रतिभा होने के बावजूद उक्त सेवाओं से वंचित रह जाना पड़ता है।
   देश में इससे बड़ा भाषाई भ्रष्टाचार और क्या हो सकता है? जो तथाकथित अंग्रेजीदां नीति नियंताओं द्वारा फैलाया गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार से तो मात्र भौतिक स्तर पर देश को नुक्सान पहुंचाता है, जिस पर कठोर कानूनी उपायों और भ्रष्ट व्यक्तियों   के सामाजिक तिरिष्कार द्वारा नियंत्रण पाया जा सकता है, लेकिन भाषा को लेकर हो रहा भेदभाव समाज की रचनाशक्ति, उसकी प्रतिभा यहां तक की सभ्यता के लिए धीमा जहर साबित हो रहा है। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया है कि आज बड़े हिन्दी दैनिकों में छपने वाले आलेख कई बार अंग्रेजी भाषा के लेखकों के होते हैं, जिनके निमित्त दफ्तरों में बाकायदा हिन्दी अनुवादकों को रखा जाता है। मित्र यह कहने से नहीं चूके कि यदि हिन्दी अखबार में बने रहना (सरवाइव करना) है, सो अंग्रेजी में पढ़ना-लिखना सीखिए वरना...! उनकी यह चेतावनी हिन्दी भाषा से विरक्ति को लेकर नहीं थी, बल्कि रोजगार को बरकरार रखने को लेकर थी। मेरे रिश्ते में पितृवत भाई स्वर्गीय डा. रामजी पांडेय जो आजीवन इलाहाबाद में महादेवी वर्मा के साथ पुत्रवत स्नेह पाते रहे, उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी लेखन जगत में अंग्रेजी की अनिवार्यता का जिक्र मुझसे नहीं किया था। पर आज जो वातावरण देश के भाषायी पर्यावरण में फैलता जा रहा है, उससे यह आशंका जरूर पैदा होती है कि यही हाल रहा तो आने वाले 20-25 सालों में राष्टÑभाषा हिन्दी जरूर हाशिए पर होगी।
अभी जनवरी माह के पहले सप्ताह में प्रधानमंत्री ने दिल्ली में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में संस्कृत भाषा के धार्मिक कार्यों तक सीमित हो जाने पर क्षोभ प्रकट किया था। हो सकता है कि भविष्य में कोई दूसरा प्रधानमंत्री यही क्षोभ हिन्दी भाषा को लेकर भी प्रकट करे। कितना बड़ा पाखंड और षड्यंत्र देश में राष्टÑभाषा को लेकर चल रहा है। पर क्या कभी इस दिशा में नीति नियंताओं ने खम ठोंका है? जैसे हाल ही में उजागर ‘कुपोषण’ का काला सच को राष्टÑीय शर्म बताया गया, उसी तरह ‘राष्टÑभाषा हिन्दी’ की उपेक्षा भी राष्टÑीय शर्म होनी चाहिए। पर अब तो बस एक तिथि है 14 सितम्बर यानी ‘हिन्दी दिवस’ जिसकी रस्म मना कर राष्टÑ भाषा को श्रद्धांजलिनुमा याद कर लिया जाता। शायद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की दी गई सीख हमने विस्मृत कर दी है कि -
 निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।।

श्रीश पांडेय
09424733818.

Monday 23 January 2012

संविदा शिक्षकों की वेदना

  इनदिनों देश में महंगाई, भ्रष्टाचार और रोजगार के तीन चिरंजीवी मुद्दों  पर चिंतन, पांच राज्यों की चुनावी चर्चा के बीच दबकर रह गया है। इन तीनों में रोजगार एक ऐसा मुद्दा है, जो अधिकांश समस्याओं का समाधान बन सकता है। पर सरकारें बेरोजगारों की पीड़ा को जुबानी जमा खर्च से अधिक कुछ नहीं मानती। इसीलिए बेरोजगारी की चिंता को लेकर सैद्धांतिक तौर पर कितना भी ढिंढोरा पीटा जाता रहा हो, पर इस पीड़ा को देखने-सुनने और महसूस करने में जो व्यवहारिक अंतर है, उसका फर्क इसको झेलने वाले युवाओं से बेहतर और कौन समझ सकता है।
    रोजगार के लिए ‘शिक्षा’ प्राथमिकअस्त्र है। मध्य प्रदेश में शिक्षा सबसे बड़ा विभाग है और रोजगार की बड़ी सम्भावनाओं से युक्त भी। शिक्षा के दो मुख्य पक्ष हैं एक शिक्षक और दूसरा शिक्षार्थी। तीसरा पक्ष भी है जो इस व्यवस्था के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार है, वह है सरकार। शिक्षा को एक कानूनी अधिकार बनाए जाने के बाद से सरकारें स्कूली शिक्षा को लेकर अधिक सक्रिय हुर्इं हैं और इसके लिए वह गांव-गांव में स्कूल खोलने की औपचारिकता से पीछे नहीं है। पर उसकी यह सक्रियता सार्थक होने के बजाय सैद्धांतिक(कागजी) होकर रह गई है। क्योंकि स्कूली शिक्षा में अपनाए जा रहे कामचलाऊ रवैये और मौजूदा शिक्षा के स्तर से एक बात तो तय है कि इन स्कूलों से निकले बच्चों का भविष्य अंधकारमय है। हैरानी की बात तो यह है कि इसका अहसास न सिर्फ समाज, शिक्षक, शिक्षार्थी को है,बल्कि सरकार भी इसकी दुर्दशा से वाकिफ है। पर वह यह दावा करते नहीं अघाती कि उसने शिक्षा के विस्तार के नाम पर अपने शासनकाल में हजारों स्कूल खोल दिए, सैकड़ों भवन पक्के करा दिए और अब हजारों की संख्या में ठेका पद्धति से उनकी भर्ती कर प्रदेश के बेरोजगारों को नियोजित करने जा रही है।
     रविवार को सम्पन्न हुई वर्ग-3 की परीक्षा में जिस अफरातफरी का वातावरण परीक्षा कक्षों में देखा गया, उसकी वजह पहले से प्रवेश-पत्र के साथ बुकलेट और ओएमआर शीट भरने की निमयावली का न होना था और यही दशा 450 रुपए के निमित्त ड्यूटी करने आये परवीक्षकों की देखी गई। इसलिए वे परीक्षार्थियों को ओएमआर शीट कैसे भरना है, की जानकारी देने में असमर्थ देखे गए। परिणामस्वरूप लाखों की संख्या में ओएमआर शीट  अभ्यर्थियों द्वारा गलत तरीकों से भर दी गर्इं। बहरहाल, बेरोजगारी के नाम पर की जा रही भर्ती स्वागत योग्य कदम है, पर इसके लिए अपनाए गए मापदण्डों पर कई गम्भीर सवाल हैं। वर्ग-1 की भर्ती के बाद वर्ग-3 के लिए अपनाए गए पैमाने पर संशय बरकरार है। यथा संविदा शिक्षक की भर्ती के नाम पर पहले से बीएड करने की अनिवार्य शर्त ने जहां शिक्षा माफिया को  धंधा करने का मौका दिया है। वहीं इसमें चयन के पहले ही अभ्यर्थियों पर भारी आर्थिक बोझ डाला है। इसीलिए इससे लाभ कमाने के निमित्त सैकड़ों की संख्या में बीएड कॉलेजों की बाढ़ सी आ गई है। जिला, क्या नगर,कस्बों में बीएड कॉलेज खुल गए हैं, इनमें से अधिकांश तो निर्धारित मापदण्ड को पूरा नहीं करते, फिर भी धड़ल्ले से संचालित हैं। गौरतलब है कि बीएड एक व्यवसायिक उपाधि है जिसके पीछे धारणा है कि एक प्रशिक्षित शिक्षक, गैर-प्रशिक्षित से बेहतर शिक्षण कार्य सम्पन्न कर सकता है। तो फिर यह प्रपंच क्यों कि यदि बीएड उत्तीर्ण अभ्यर्थी व्यापम की पात्रता परीक्षा में 60 प्रतिशत से अंक कम पाता है, तो गैर-बीएड में से, जो 60 फीसदी से अधिक अंक हासिल करेगा, उसे प्राथमिकता दी जायेगी। जिसे अपनी नियुक्ति के बाद बीएड करना होगा। यानी एक स्थिति ऐसी भी आयेगी जबकि पहले से बीएड होना बेमानी साबित हो सकता है।  गौरतलब है कि बीएड करने में न्यूनतम खर्च 30 से 40 हजार रुपए बैठता है और जिसमें उत्तीर्ण होना ही भर्ती प्रक्रिया में निर्धारित बोनस अंक हासिल करने की शर्त है। ऐसे में लोगों का कैसे भी नकल,जुगाड़-तुगाड़ से बिना पढ़े पास होना ही बीएड करने का ध्येय होता है। लब्बोलुआब यह कि 40 हजार तक खर्च और उसके एवज में मिलने वाले 20 नम्बरों का बोनस ही बीएड का बिजनेस बन गया है।
   दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में संविदा शिक्षकों की कार्य दशाओं की हालत क्या है? यह किसी से छुपी नहीं है। अक्सर शिक्षकों को इस वेदना की अनौपचारिक चर्चा करते देखा जा सकता है। इनके वेतन सरकार के नियमित भृत्य और ड्राइवरों से भी आधे हैं। अधिकांश शालाओं की दशा अमानवीय है। जबकि शिक्षण राष्ट्र के भविष्य के निर्माण का पुनीत कार्य है, पर इसे उतने ही उपेक्षित तरीके व कामचलाऊ पद्धति से किया जा रहा है। कागज पर आंकड़ों को सुंदर देखने की आदी हो चुकी सरकारों की संवेदनशीलता समाप्त होती जा रही है। किसी भी सरकार का सबसे अहम दायित्व है कि वह राज्य की जनता के लिए बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रबंध करे। लेकिन वह साइकिल, भोजन, पुस्तक और वस्त्र के वितरण को लेकर अपनी पीठ थपथपाने में ही, अपने दायित्वों की इति मान बैठी है और शिक्षा का मूल ध्येय, उसकी आत्मा लुप्त होती जा रही है। गुणवत्ता युक्त शिक्षा ही छात्र, समाज और राष्ट्र के लिए कारगर हो सकती है।
   भारत की तुलना में यूरोप और अमेरिका में शिक्षकों की सेवा दशाओं और वेतन-भत्तों में जमीन आसमान का फर्क है और शिक्षा के स्तर में भी। देश में एक दौर था जब इन्हीं सरकारी स्कूलों से निकले बच्चों ने देश के उच्चतर पदों पर अपनी सेवाएं दी   थी। तब आज विडम्बनाओं से शिक्षक और छात्र दोनों मुक्त थे। पर आज थोड़ा भी सक्षम व्यक्ति अपने बच्चों को इन विद्यालयों में नहीं पढ़ाना चाहता। इन स्कूलों में किसी न तो किसी अफसर, नेता और न ही वहां पढ़ा रहे शिक्षकों के बच्चे पढ़ते हैं। ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि इन स्कूलों कि दशा क्या होगी? स्कूलों में नियुक्त संविदा शिक्षक को मिलने वाले वेतन से, जानलेवा महंगाई के दौर में आजीविका के न्यूनतम साधनों को जुटा पाना सम्भव नहीं। तो  फिर असंतुष्ट कार्मिकों से बेहतर परिणाम की उम्मीद कैसे की जा सकती। विडम्बना है कि एक ओर जहां उच्च शिक्षा के अध्यापकों को मात्र अध्यापन के निमित्त 50 से 80 हजार तक वेतन दिया जा रहा है। वहीं बच्चों की नींव रखने वाले स्कूलों में ठेका पद्धति से 5 से 9 हजार के निश्चित वेतन पर शिक्षकों को भर्ती किया जा रहा है। इस भेदभाव का दुर्भाग्यजनक पहलू यह है कि एक ही विद्यालय में कार्यरत नियमित शिक्षक और संविदा शिक्षक के वेतनमान में भारी विसंगति है जबकि दोनों के कार्य समान हैं। जो संविधान में मौजूद ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ की अवधारण के विपरीत है। ऐसे में कहना पड़ता है कि नौकरी के लिहाज से सरकारी स्कूल मजबूरी का रोजगार और शिक्षा के लिहाज से मजबूरी की संस्थाएं बन चुकी हैं। कुलमिलाकर राष्टÑ का भविष्य गढ़ने वाले विद्यालय, इनदिनों रोजगार और शिक्षा की विकल्पहीनता के गढ़ बन चुके हैं, जो सरकार की कागजों पर शोभा बढ़ा रहे हैं।
                             श्रीश पाण्डेय  
                         सम्पर्क- 09424733818.

Monday 16 January 2012

लोकपाल पर बिगड़ा कदमताल





 भ्रष्टाचार सिर्फ भारत का ही नहीं दुनिया के कमोबेश सभी देशों का मुद्दा है। लेकिन भारत में आजादी के बाद से ही यह चिरंजीवी मुद्दा बना हुआ है। जिसकी सघनता इधर पिछले दस वर्षों में बढ़ी है, खासकर पिछले डेÞढ वर्ष से तो यह राष्टÑीय मुद्दा बन कर उभरा है। इनदिनों एक बार फिर से देश में प्राय: सभी राष्टÑीय स्तर के न्यूज चैनलों में और समाचार पत्रों में, लोकपाल को लेकर वाद, प्रतिवाद और सम्वाद का सिलसिला शुरू हो गया है। जैसा कि विदित है इस संस्था को अस्तित्व में लाने की कवायद देश में 1968 से चल रही है, अब तक 9 दफा यह ‘विधेयक की शक्ल’ में संसद में पेश भी हुआ, लेकिन हर बार इस मुद्दे को आवश्यक बता कर गर्म तो किया गया, लेकिन वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ की तर्ज पर; इसे कुछ कथित मुद्दों की आड़ में असहमति की बर्फ रखकर ठंडा किया जाता रहा है। बात बड़ी साफ है कि भ्रष्टाचार से निवृत्ति के निमित्त जिस संस्था की आवश्यकता आज से 42 वर्ष पूर्व से महसूस की जा रही हो, उसके जन्म पर हमारी सरकारें और नेताओं की जमात  कितनी संजीदा हैं, इसको पिछले चार दशकों से लोकपाल पर की गई एक्सरसाइज से समझा जा सकता है।   
     बहरहाल,अन्ना समूह के अभियान से एक बात तो तय दिखती है कि लोकपाल संस्था बन कर रहेगी। लेकिन जिन विवादों के चलते इसे गत चार दशकों से फुटबाल की तरह इधर-उधर किक किया जाता रहा है, उसे घुमाफिरा कर पुन: उन्हीं विषयों पर विवाद का केन्द्र बनाया जा रहा है। सवाल दर सवाल इसके स्वरूप को लेकर उठाये जा रहे हैं। अन्ना समूह चाहता है कि इसका स्वरूप इतना सख्त हो कि भविष्य में फिर एक और ‘सुपर लोकपाल’ की जरूरत देश को न महसूस हो, जबकि नेताओं की बिरादरी लोकपाल संस्था के सम्भावित खतरों से चिंतित दिखती और इसे अपनी मर्जी के मुताबिक बनाना चाहती हैं, वरना क्या वजह है कि सांसदों के वेतन-भत्तों की वृद्धि का निर्णय बिना किसी चंू-चपड़ के शालीन तरीके से हो जाता है, जिसके लिए न तो संसद बंद हुई, न विरोध और न ही बहिष्कार। संसदों की एकता व भाईचारे का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। पर लोकपाल के सख्त स्वरूप को लेकर अनेक तरह की शंकाएं जाहिर की जा रही हैं, मसलन कहीं यह सुपर पावर न बन जाए या निरंकुश हो लोकतंत्र के लिए खतरा न खड़ा कर दे अथवा इसमें विराजे लोग भी भ्रष्ट नहीं होंगे इसकी क्या ग्यारंटी है? या फिर इसका कार्य क्षेत्र इतना विस्तृत और अस्पष्ट हो जाय कि जांच की आंच समय के साथ ठंडी पड़ जाय! इसी खींचतान के मध्य इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले लोकपाल की स्थापना के लिए चलाई जा रही सघन मुहिम को, अभिमन्यु के चक्रव्यूह की तरह इसे फांस कर असरहीन बनाने की तैयारी सरकारी स्तर पर चल रही है, तो विपक्ष भी अब तक इस तमाशे को मौन होकर ताकता रहा है कि देखो आगे-आगे होता है क्या?
अब जबकि सरकार के स्तर पर निर्मित लोकपाल के ढांचे को, अन्ना समूह द्वारा सिरे खारिज कर देने और अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा पहली बार  प्रधानमंंत्री, सीबीआई, सिटीजन चार्टर, ग्रुप सी व डी के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाये जाने की वकालत, अन्ना के साथ बैठकर मंच से किये जाने पर, समूचे प्रकरण में रोचक मोड़ आ गया है और सरकार इन मुद्दों पर अलग-थलग पड़ती नजर आती है।  11 दिसम्बर को जंतर-मंतर में पुन: अनशन में बैठते हुए कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अन्ना ने चेताया कि जो भी गड़बड़ी स्थायी समिति (30 में से 17 सदस्यों ने सरकार के ड्रफ्ट का विरोध किया है) के द्वारा की जा रही हंै उसे ठीक करने का समय 27 दिसम्बर तक है,वरना इस बार वे आर-पार की लड़ाई का मन बना चुके हैं।
    एक बड़ा सवाल यह भी है कि उक्त मुद्दों को ही लेकर 42 सालों से लोकपाल चक्कर गिन्नी खा रहा है और इसके निमित्त आज भी राजनीति का रुदन जारी है। कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में सरकार है। उसके और सहयोगी दलों के कारिंदे भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में हैं अथवा दागदार हैं। ऐसे में उसके द्वारा ही लोकपाल के स्वरूप को लेकर की जा रही आनाकानी संदेह उत्पन्न करती है कि ‘तिनका किसकी दाढ़ी में है’। यह बात चकित करती है कि इन स्थितियों में सरकार ही क्यों अड़ी हुई है? क्या वह मानती है कि वह सत्ता में हमेशा बनी रहेगी?  इस विधेयक में शामिल कड़े प्रावधानों से मात्र उसे ही मुश्किल होगी? क्या उसके ही प्रधानमंत्री भ्रष्ट होंगे? क्या केवल उसके लोगों का ही कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है? और क्या सख्त लोकपाल से देश में अराजकता फैल जायेगी? ढेरों सवाल हैं जिनके उत्तर उसे खुद से और अपने सहयोगियों से पूछना होगा! सारा देश इस तमाशे को पिछले वर्ष भर से टकटकी लगाये देख रहा है। ‘चोरी ऊपर से सीना जोरी’ के दर्शन को जनता भी बांच रही है। हरियाणा के चुनाव का सबक कांग्रेस के सामने है और आसन्न पांच राज्यों के चुनावों में भी उसे खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। विडम्बना है कि अन्य पार्टियां भी दूध की धुली नहीं है उन पर भी कदाचार के आारोप हैं, तो क्यों सरकार लोकपाल के मुद्दे पर ‘एकला चलो’ की नीति पर चलकर और अन्य दलों को तुलनात्मक रूप से बेहतर होने का मौका देकर, भस्मासुर बनने को आतुर है। जबकि यही समय था कि कांग्रेस के पास देश के सर्वाधिक युवा दागहीन   शीर्ष नेतृत्व के रूप में राहुल गांधी हंै। ऐसे में वे दोनों हाथों से अन्ना के साथ होकर कांग्रेस के दामन में लगे धब्बों को धोने का संकेत दे सकते थे। इसे प्रतिष्ठा की लड़ाई न मानकर देश में व्याप्त भ्रष्टाचाररूपी महामारी के उन्मूलन की प्रक्रिया माने तो हर लिहाज से कांगे्रस और देश के हित में होगा। और फिर स्वयं सरकार भी कहती रही है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून लायेगी, तो फिर सख्त लोकपाल से परहेज क्यों?
    कहते हैं कि दूध का जला हुआ तो छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। संभवत: कांग्रेस के राजनीतिक चरित्र को लेकर अन्ना अत्यंत सशंकित हो चुके हैं।  लोकपाल को लेकर हो रही खींचतान से इस विधेयक की लय बिगड़ती जा रही है। इसी वास्ते फिर से संग्राम के लिए अन्ना फिर कमर कस चुके हैं। समस्त भारतवर्ष में भ्रष्टाचार विरोधी राष्टÑव्यापी लोगों का कारवां आश्चर्यजनक रूप से पुन: दिखाई दे रहा है। घट-घट व्याप्त भ्रष्टाचार और शासकीय लूट-खसोट का खात्मा करने की गरज से सृजित शक्तिशाली जनलोकपाल बिल को दरकिनार करके, बेहद लिजलिजा नाकारा लोकपाल बिल संसद के पटल पर पेश करने की सरकार की मंशा की धज्जियां उड़ जाएंगी ऐसा माना जा रहा है। जरूरत है कि बजाय बयानबाजी के उदारतापूर्वक देश हित में सख्त कानून के लिए, एक ईमानदार पहल की। 
                                                                                                    सम्पर्क - 09424733818.

मप्र पीएससी में उम्र सीमा का पाखंड

  राजतंत्र में राज्य की अवधारणा इस रूप में नकारात्मक थी कि शासक, राज्य में महज कानून व्यवस्था बनाये रखने के निमित्त अस्तित्व में थे। जिसमें कर वसूलने, राज्य का विस्तार और उसकी जनता को सुरक्षा मुहैया कराना ही प्रमुख कार्य थे। समय के साथ दुनिया भर में बदली व्यवस्था के तहत भारत में भी लोकतंत्र की स्थापना हुई और इस व्यवस्था के तहत अस्तित्व में आई सरकारों में लोककल्याण की प्रवृत्ति पनपी। जिसके चलते नई व्यवस्था में राज्य के काम-काज कानून व्यवस्था से इतर जनकल्याण कार्यों पर अधिक केन्द्रित हुए। राज्य नियोजन के लिए है। अत: उसका दायित्व है कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ-साथ रोजगार के अवसर जुटाए। इस निमित्त संविधान के अनुच्छेद 315 में केंद्रीय स्तर पर संघ लोक सेवा आयोग और अनु. 321 के तहत विभिन्न राज्यों में लोक सेवा आयोगों की स्थापना की गई।
   1956 में मप्र लोक सेवा आयोग भी प्रदेश के निर्माण के साथ अस्तित्व में आया। इसके तहत लगभग पैंतीस तरह के पदों की भर्ती का प्रावधान उनकी वार्षिक कैलेण्डर में उपलब्धता के आधार पर, प्रतिवर्ष किये जाने का प्रावधान रखा गया। ऐसी भर्ती का आधार है कि हर साल कुछ न कुछ सेवानिवृत्तियां, आसमयिक मृत्यु अथवा किन्हीं कारणों से सेवा छोड़ने की वजह से पद रिक्त होंगे। इसलिए मप्र लोक सेवा आयोग के भर्ती नियम संख्या 49-सी-3 में उल्लेख है कि उपलब्ध भर्ती योग्य पदों में से जिन-जिन पदों में रिक्तियां होंगी, उनके लिए प्रतिवर्ष एक प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की जाएगी। यह प्रावधान स्नातक  विद्यार्थियों को बिना विज्ञापन आये तैयारी करने का विश्वास देता है कि रिक्तियां वर्ष में एक बार तो आयेंगी ही। यद्यपि आरंभ में इस नियम का पालन नियमित रूप से हुआ। लेकिन दिग्विजय शासन ने सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे वर्ष 2000-05  यानी  निरंतर पांच वर्षों तक म.प्र. लोक सेवा की परीक्षाओं का आयोजन नहीं हो सका। यह कालावधि आयोग के इतिहास में काला धब्बा है, जिसमें लाखों प्रतियोगियों के सपनों का दम घुट कर रह गया। अहम सवाल है कि इन पांच वर्षों में क्या एक भी सेवानिवृत्ति नहीं हुर्इं थी?
    बहरहाल, बमुश्किल प्रतियोगी परीक्षाएं 5 वर्ष के अंतराल के बाद वर्ष 2005 में पुन: शुरू तो हुर्इं, मगर इस बीच जो हजारों छात्र उम्रदराज हो गए, उनके स्वप्नों की कब्रगाह बन गई, क्योंकि उनको उम्र सीमा में कोई छूट नहीं दी गई। इसके लिए उठाई गई आवाज को, एकतरफा अनसुना कर दिया गया। मैं स्वयं इस अभियान का हिस्सा रहा हूं। सैकड़ों रजिस्टर्ड चिठ्ठियां और पत्र मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और अध्यक्ष लोकसेवा आयोग को लिखने के बावजूद, जब सरकार कान में तेल डाले बैठी रही, तब मैंने न्याय के निमित्त उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और सरकार व म.प्र. लोक सेवा आयोग के विरुद्ध केस फाइल किया था। न्यायालय ने संज्ञान लिया, सरकार व आयोग को नोटिस भी जारी हुआ, पर तब तक दो परीक्षाएं संचालित हो चुकीं थी। पर मामले की गंभीरता का अंंदाजा सरकार को न्यायालय की नोटिस से हो गया था, सम्भवत: इसीलिए उसने उम्र सीमा 35 से 38 वर्ष तो की, पर मात्र तीन अवसरों के लिए। जबकि लगातार 5 वर्ष परीक्षाएं नहीं हुर्इं थी।
   बात परीक्षा के अवसरों और अधिकतम आयु सीमा तक सीमित नहीं है। इसमें भी बड़े भेद और पाखंड वर्षों से ढ़ोये जा रहे हैं। मसलन कुछ विशेष पदों के लिए षड्यंत्र के तहत उम्र सीमा इस तरह से तय की गई है कि लॉर्ड लिटन की याद ताजा हो आती है जबकि उसने, भारतीयों के लिए सिविल सेवाओं में अधिकतम उम्र सीमा घटाकर 19 वर्ष कर दी गई थी, ताकि भारतीयों को इस सेवा में प्रवेश न मिल सके। ऐसा ही घालमेल आज भी जारी है। प्रदेश की लोक सेवाओं में उप पुलिस अधीक्षक की न्यून्यतम आयु सीमा 20 वर्ष और अधिकतम 25 वर्ष है। जबकि सरकारी शिक्षा नीति कहती है कि बच्चों को कक्षा एक में प्रवेश न्यूनतम 6 वर्ष में दिया जाए। इस लिहाज से वह 18 वर्ष में तो बारहवीं और कम से कम तीन साल का ग्रेजुएशन, जो कि परीक्षा में बैठने की न्यूनतम आर्हता है, को बिना किसी बाधा के पूरा करे तो भी 21 वर्ष लग जाते हैं।  फिर वह 20 वर्ष में कैसे स्नातक उत्तीर्ण हो सकता है। मध्यप्रदेश एक पिछड़ा राज्य है, जहां एक ग्रामीण अंचल के सामान्य विद्यार्थी को अक्सर स्नातक होने में 22 अथवा वह इंजीनियरिंग (4 वर्षीय) कर रहा है, तो 23 वर्ष भी लग सकते हैं और फिर कभी नियमित विज्ञापन न आया अथवा आया भी तो डीएसपी के पद ज्ञापित न हुए तो, ऐसे में डीएसपी की बाट जोहे तमाम विद्यार्थियों की भ्रूण हत्या सी हो जाती है। गौरतलब है कि संघ लोकसेवा आयोग द्वारा भी आईपीएस बनने की उम्र सीमा 21-30 वर्ष निर्धारित की गई है। तो क्या मप्र देश के संविधान से परे है? भर्ती नीति बनाने के अधिकार का यह तानाशाहीकरण नहीं तो और क्या है? उम्र की दास्तां और भी है। डीएसपी के अलावा एक्साइज डीओ, जिला जेल अधीक्षक जैसे कुछ चुनिंदा पदों के लिए भी अधिकतम आयु सीमा 35 वर्ष से कम करके 30 वर्ष रखी गई है। जबकि पड़ोसी राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा और उत्तराखंड में सभी पदों की अधिकतम आयु सीमा 35 वर्ष यहां तक कि 38 वर्ष भी रखी गई है। दूसरी ओर पहले से ही मप्र शासन में सेवारतों के लिए 5 वर्ष की छूट दी जा रही है। यानी जो पहले से नियोजित है उसे और सुविधा है कि वह उच्च पदों   के लिए प्रयास कर सके। पर जो बेरोजगार है उसे कथित नियमों की आड़ में छला जा रहा है ?
 यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रदेश के जनप्रतिनिधि चाहे वे सत्ता पक्ष के हों अथवा विपक्ष के, को यह पाखंड और भेदभाव क्यों नहीं दिखता? आज तक किसी जनप्रतिनिधि ने अपनी बांहे नहीं मोड़ी, न ही इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई। जबकि अब तक  हजारों प्रतिभागियों का दम इसी तानाशाही रवैये के चलते घुट चुका है। अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में कोई भी व्यक्ति कभी भी, किसी भी उम्र में इन सेवाओं में आ-जा सकता है। पर प्रदेश में तो परीक्षाओं में बैठने की उम्र में ही बंधन थोपे गए हैं। दिलचस्प बात है कि प्रतियोगी परीक्षाएं नौकरी पाने का एक अवसर मात्र हैं न कि इनकी ग्यारंटी। तो फिर अवसर देने में कोताही क्यों? इसके लिए कौन जिम्मेवार है? प्रदेश सरकार अथवा कथित ब्यूरोक्रेसी जो सरकार को मशविरे देती रहती है।
 इस तरह के आयु सीमा के बंधन लोकल्याण का दम भरने वाली सरकार के तो हरगिज नहीं हो सकते। भारत में जहां नेताओं के राज करने की कोई उम्र सीमा नहीं है, वहीं बच्चों के भविष्य पर उम्र के बंधन किसी पाखंड से कम नहीं कहे जा सकते और फिर यह राज्य नियोजन के लिए है की धारण के विपरीत भी। इनदिनों आयोग मुख्य परीक्षा के साथ साक्षात्कार भी आयोजित कर रहा है, ऐसे में इसका समाधान अविलम्ब होना चाहिए ताकि इस आयु को लेकर मौजूद भेदभाव को समाप्त किया जा सके।
                                         -  श्रीश पांडेय      
                                         सम्पर्क- 09424733818.

Sunday 8 January 2012

कुशवाह के कीचड़ में कमल

  अमेरिका में औद्योगिक क्र ांति के बाद समाजशास्त्री आर के मर्टन ने अपने एक अध्ययन में पाया था कि उनदिनों अमेरिकी नागरिकों की सामान्य धारणा थी कि ‘सफल बनो चाहे उसका मार्ग (नैतिक अथवा अनैतिक) कुछ भी हो’। लेकिन यह सूत्र वहां की राजनीति के बजाय व्यापार और विदेश नीति में ज्यादा देखने में आया था। बाद के वर्षों में सफल बनने का यही सूत्र हमने भी अपनाया, मगर व्यापार अथवा विदेश नीति में नहीं, बल्कि राजनीति में। इनदिनों इसी अमेरिकी धारणा का ग्रहण देश की राजनीति में साफतौर पर देखा जा सकता है। खासकर हाल में घोषित पांच राज्यों के चुनावों को लेकर सभी दल, हर वह हथकंड़ा अपनाने से गुरेज नहीं कर रहे, जिसको लेकर पिछले वर्ष भर से अन्ना ने देश में राजनीतिक शुचिता की बहस छेड़ रखी है।
     दरअसल, राहुल गांधी के यूपी में सक्रिय होने और मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा छेड़ देने से, बसपा और सपा से मुसलमानों का मोह भंग होने ही सम्भावना बनी है, जिसके चलते मायावती और मुलायम तिलमिलाए हुए हैं। यद्यपि धर्म के आधार पर आरक्षण का विरोध संविधान की भाषा में निहित है, पर चुनाव में साम, दाम, दंड सभी का इस्तेमाल करना देश की राजनीति का चरित्र बन चुका है। इधर मायावती भ्रष्टाचार विरोधी होने का तमगा बसपा पर चस्पा करने की मुहिम में रात दिन मशगूल हैं और इस निमित्त वह एक-एक करके मंत्रियों को हाथी से कुचलने के अभियान में पिल पड़ी हैं। जो सख्श कल तक उनका विश्वासपात्र नुमाइंदा रहा हो और उसके भ्रष्ट कृत्यों पर जानबूझकर गांधारी की तरह आंख में पट्टी बांधी गई हो, वही अब चुनाव के चक्कर में उनकी आंखों की किरकिरी बना है। उसी बाबू सिंह को रातोंरात भ्रष्टाचार के आरोप के चलते यह कह कर धक्का दिया गया है कि  कुशवाह भ्रष्टाचार के कीचड़ में आकंठ तक डूबे हैं। ऐसा मात्र इसलिए ताकि आखिरी वक्त जनता में यह संदेश दिया जा सके कि वे भी अन्ना की तर्ज पर भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन की पक्षधर हैं। इस तरह की नाटकीय गतिविधियां हमारे देश में चुनाव के समय दिखना सामान्य बात बन चुकी है। देश के कथित नेता आज भी इस मुगालते में राजनीति चमका रहे हैं कि चुनाव के वक्त बगुलाभगत बनने और बाद में लूटने खसोटने की नीति को जनता नहीं समझती। यह तब और दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है, जब आवाम इनके हथकंडों में फंसकर उन्हीं को फिर मौका दे देती है, जिनको वह पिछले वर्षों में उनके कथित कारनामों के लिए कोसती रही है।
 इधर भाजपा द्वारा बसपा से निष्कासित पिछड़े समूह के कद्दावर नेता बाबू सिंह कुशवाह को लपक लिए जाने से पार्टी के भीतर एक नई बहस छिड़ी है कि आखिर उसकी विचारधारा क्या रह गई है? क्योंकि राष्टÑीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटाले के आरोपी पूर्व मंत्री कुशवाहा जिन पर सीबीआई ने प्रकरण दर्ज कर रखा है, को भाजपा में शामिल किये जाने पर  पार्टी दो खेमों खड़ी दिखती है।
   भाजपा के एक पूर्व मंत्री यशवंत सिन्हा का ज्ञान दुरुस्त है कि कीचड़ में  ही कमल खिलता है। इसी आधार पर वे कहते हैं कि कुशवाह पिछड़े वर्ग के एक बड़े नेता हैं और उनके आने से भाजपा फायदा होगा, भले वे भ्रष्टाचार के कीचड़ में सने हैं तो क्या?  ऐसा कहते वक्त उन्हें यह भी ख्याल नहीं रहा कि महीने भर पहले उनके वयोवृद्ध नेता आडवाणी ने हजारों किमी की देशव्यापी यात्रा करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध अलख जगायी थी। और तो और कर्नाटक के अपने ही एक मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुर्सी छोड़ने को विवश होना पड़ा था। ऐसे में वरिष्ठों की इस सोच तय है कि बाबूसिंह का पार्टी में प्रवेश आगामी पांच राज्यों के चुनावों में भाजपा की लुटिया डुबो देगा। क्या भाजपा का थिंक टैंक ध्वस्त हो चुका है। क्योंकि जिसको अपने घर से दुतकार दिया गया हो, क्या वह दूसरी पार्टी में खुद को पाक-साफ सिद्ध कर देगा और उससे पार्टी को कै सा फायदा होगा।  इसी आशंका से पार्टी का एक धड़ा जिसमें प्रमुख रूप से मेनका गांधी, उमा भारती, कीर्ति आजाद हैं ने विरोध दर्ज किया है। सांसद योगीनाथ ने तो प्रत्यक्ष तौर पर मुखर स्वर में कहा कि हम लोग सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के आधार पर बीजेपी में आए हैं। जब सिद्धांत ही न रहे तो राजनीति और वेश्यावृत्ति में क्या फर्क रह जाएगा? लेकिन शीर्ष नेतृत्व किस मुगालते में है समझ से परे है। फिलवक्त भाजपा, बसपा के दागी मंत्रियों, विधायकों को गले लगाकर वह कीचड़ में कमल खिलने वाली कहावत को चरितार्थ करने के जोड़-तोड़ में दिख रही है। भाजपा के इस कृत्य के बाद उसके ही कुनबे में घमासान छिड़ गया है। कल तक कांग्रेस पर हमला बोलने वाली भाजपा ‘आज आ बैल मुझे मार’ वाली स्थिति में नजर आ रही है। भाजपा के कुछ नेताओं का यह निर्णय पूरी पार्टी के लिए एक बड़ा विवाद, गहरा आक्रोश और चुनाव से पहले ही साख पर बट्टा है। नीति नैतिकता की बड़ी- बड़ी बातें करने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को इस समय सांप सूंघ गया है।
आज भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में सरकार बनाना तो दूर, बल्कि उसे403 सीटों में से 100 का आंकड़ा भी दूर की कौड़ी लगता है। ऐसे में भ्रष्टों को पार्टी में शरण देने का फैसला उन्हें कहां ले जाएगा समझना कठिन नहीं होगा। और अब तो यह भी सवाल उठाए जा रहे हंै कि क्या देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी विकल्पहीनता के कगार पर है? यद्यपि ऐसा पहली बार   नहीं हो रहा है। 1997 में कल्याण सिंह  सरकार का जम्बो मंत्रिमंडल याद करें, तो उसमें 93 मंत्रियों में से 17 हिस्ट्री शीटर मंत्री बने थे। राजा भैय्या को लेकर कुंडा के गुंडों को देख लेने वाले कल्याण सिंह ने उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया था। पूर्वांचल के माफिया हरिशंकर तिवारी को भी मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में शामिल किया था।
बहरहाल, अब जबकि देश में अन्ना आंदोलन ठंडा पड़ता दिख रहा है तो राजनीति का असली चेहरा फिर से उभरने लगा है। भाजपा यह मानकर चल रही थी कि अन्ना समूह के आंदोलन का असली फायदा उसे ही होने वाला है, लेकिन बाबूसिंह को पार्टी में शामिल करने की गणित में वह खुद अपने ही पोस्ट में गोलकर बैठी। विडम्बना है कि भ्रष्टाचार और व्यवस्था दुरुस्त करने के मुद्दे पर कांग्रेस सहित अन्य दलों का विरोध करने वाली भाजपा इतनी बचकानी हरकत कैसे कर बैठी या फिर वही अमेरिकन नारे कि ‘सफल बनो, चाहे जैसे’ की राह राजनीति में अख्तियार करना चाहती है। इन स्थितियों में देश की आवाम  ठंड में दुबकी देख और सोच रही होगी कि कमल चाहे प्रकृति में हो या भाजपा का खिलता तो कीचड़ में ही है।
                          श्रीश पांडेय
                          सम्पर्क - 09424733818.

Tuesday 3 January 2012

स्वाध्याय का संकल्प



नव वर्ष के अवसर पर शुभकामनाओं के आदान-प्रदान के बीच यह तथ्य रोचक है कि भारत में गृहस्थी के कार्यों के अलावा कामकाजी  महिलाओं की संख्या आज आजादी के समय 0.3 फीसदी से बढ़कर10 फीसदी के आस-पास है। आगे भी इस आंकड़े में उत्तरोत्तर वृद्धि दर्ज हो रही है। यह संकेत भी उत्साहजनक है कि अब स्त्रियों के घर से बाहर कार्यरत होने को सम्मान की दृष्टि से ही नहीं बल्कि उसकी उपयोगिता को स्वीकार किया जा रहा है। यह सब उसकी बढ़ती ‘ज्ञानशक्ति’ का नतीजा है। बात बड़ी साफ है कि अब वे दिन हवा हुए जब स्त्रियां जन्मती थी बहन-बेटी बनकर और फिर पत्नी, मां , सास,दादी या नानी मात्र बनकर दुनिया से विदा हो जाती थीं। यह बदलाव खासकर वैश्वीकरण के बाद देखने में आया है। यहां स्त्री समुदाय को नहीं भूलना होगा कि यह परिवर्तन किसी का उपहार नहीं है, बल्कि यह तो समय व युग की आवश्यकता  के मुताबिक उसने स्वयं मुकाम गढ़ा है। इसमें संदेह नहीं कि एक सुदृढ़ परिवार व समाज के निर्माण में स्त्री का योगदान केंद्रीय है। पर दुर्भाग्य से इस केंद्रीय भूमिका को पहचानने में उसी की ओर से चूक होती आयी है।
 ‘ज्ञानशक्ति’ वर्तमान युग का सबसे कारगार अस्त्र है।  एक ज्ञानवान स्त्री ने सिर्फ खुद को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बनाया है, बल्कि उसको लेकर समाज में सदियों से चले आ रहे इस मिथक का भी समापन सम्भव हुआ है कि वह सिर्फ भोग्या है। भारत के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो प्राचीन भारत में स्त्रियों को समाज में हर लिहाज से बराबरी और सम्मान का दर्जा हासिल था। मध्यकाल को विदेशी आक्रांताओं व मुसलिमों के लूट खसोट के चलते स्त्रियों के दमन का समय माना जाता है, पर भारत की आजादी के संघर्ष के दौर में यह बात समझी जाने लगी थी कि आने वाले समय में स्त्री की भूमिका समाज में फिर से अपने प्राचीन गौरव की ओर उन्मुख होगी और ऐसा हुआ भी। क्योंकि आज जिस युग में हम हैं वहां हर क्षेत्र में स्त्रियों को समान अवसर, समाजिक और सरकारी स्तर पर सुविधा के रूप में उपलब्ध हैं। प्रदेश में पंचायतों चुनावों में 50 प्रतिशत के आरक्षण के साथ नौकरियों में 30 प्रतिशत स्थान सुरक्षित होने और आयु सीमा में 45 वर्ष तक अवसर उपलब्ध होने जैसी प्रोत्साहन जनक योजनाएं के बीच यदि वह इसका सदुपयोग नहीं कर पा रही है तो उसे अपने गिरेबां झांकना होगा, कि चूक कहां हो रही है। आज के दौर में स्त्रियों का आर्थिक सामर्थ्य उनमें विश्वास पैदा करता है कि वे मात्र गृहकार्य के निमित्त और परजीवी नहीं हैं। मौजूदा10 फीसदी का आंकड़े में असमानता है, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में कॅरियर को लेकर जितनी चेतना दिखती है उसके बनिस्बत ग्रामीण क्षेत्र पीछे हैं। जबकि शासन का सर्वाधिक ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों में केंद्रित है। स्त्रियों को इस मन:स्थिति से उबरना होगा कि सब कुछ अनुकूल हो तब वे अध्ययन/ स्वाध्याय को समय देंगी। अध्ययन की प्रवृत्ति पर हुए शोध बतलाते हैं कि अनुकूलता में अध्ययन उतना कारगर नहीं होता जितना प्रतिकूलता में और सब कुछ हमारे मनमाफिक होगा तभी स्वाध्याय होगा इस भ्रम से बाहर आना होगा। दुनिया में हर विकास को देखें तो वह संघर्षों और आवश्यकताओं के बीच जन्मा है। जीवन की इन कठिनाईयों के बरक्स दो पंक्तियां स्मरण हो आती हैं कि -
      जीवन के हर पथ पर माली पुष्प नहीं बिखराता है,
       प्रगति का पथ अक्सर पथरीला ही होता है।
और फिर अध्ययन तो हमेशा से कठिन पथ रहा है, पर  निरंतर अध्ययन, ही जीवन में लाभदायक बदलाव और प्रगति का कारक भी है। तो नए वर्ष में कम से कम यह संकल्प लिया जाना चाहिए हर आयु समूह की महिलाएं प्रतिदिन ‘दो घंटे’ का अनिवार्य स्वाध्याय अवश्य करेंगी, चाहे वे पूरी तरह एक गृहणी क्यों न हों। क्योंकि जब एक ज्ञानवान स्त्री जब मां बनती है तो वह अपने बच्चों को भी बेहतर शिक्षित कर सकती है। प्राय: देखने में आया है कि छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन के लिए या तो घर से बाहर जाना पड़ता है या घर में  शिक्षक को धन खर्च कर बुलाना पड़ता है। जबकि कक्षा पांच तक की पढ़ाई को एक सामान्य गृहणी स्वयं संभाल सकती है। अत्यधिक टीवी देखने या फिर गप्प-शप्प लगाने में समय जाया करने की बजाय थोड़ा समय वह इस ओर दे तो उसे लाभ होगा साथ ही उसके बच्चे को भी।
     इसलिए नये साल को गीत संगीत, मौज मस्ती और संदेश भेजने और पाने के अलावा इसे एक संकल्प का दिन भी बनाया जा सकता है। ऐसा संकल्प जिसका कोई विकल्प न हो, जो उसकी शसक्तीकरण का एक अहम पड़ाव हो। तो इस नववर्ष में महिलाएं एक यादगार संकल्प  लें कि वे ‘ज्ञानशक्ति’ के महत्व को सिर्फ समझे ही नहीं उसे जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा भी बनाए।
अहम सवाल है कि  जिस देश में स्त्री को शक्तिस्वरूपा का दर्जा हासिल है, उस देश में उसका सर्वाधिक पतन कैसे होता जा रहा है। क्या इसके लिए पुरुष प्रधान व्यवस्था जिम्मेवार है या स्वयं वह? यदि इस मुद्दे पर यदि स्त्रियां  सूक्ष्म विवेचन करे तो बात आसानी से समझी जा सकती है कि यह पुरुष दमन का मिथ्या रुदन है। जब-जब महिलाओं ने स्वयं की ताकत (ज्ञानशक्ति) को पहचाना है तब-तब उसने खुद को दृढ़ता से सामाजिक व्यवस्था में खड़ा पाया है।
तो वर्ष 2011 के जाने और 2012 के आने के बीच कई तरह की दु:खद और सुखद घटनाओं को हमने अपने आस-पास, घर-परिवार, पड़ोस, समाज और देश-विदेश में देखा और   महसूस किया होगा। जिनको लेकर कभी खुशी से खुद पर से काबू खो बैठे तो कभी दु:ख के पहाड़ ने हमारे संसार को नीरस बना हमें चिंतित किया। पर नए साल को लेकर दुनिया भर में मनाए गए उत्सवों में जिस तरह का उत्साह देखने में आया है, उससे यह माना जा सकता है कि दुनिया में सुख और दु:ख कोई स्थाई स्थितियां नहीं जिन्हें हम पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं। बस ये दोनों आते हैं और बीत जाते हैं। तो फिर जो निरंतर वर्तमान नहीं रहता उसके लिए न तो बेहद हर्षित होने और न ही अधिक दुखित होने के  दर्शन को, इस नए वर्ष में आत्मसात करें। यह तभी सम्भव है जब इस वर्ष नियमित स्वाध्याय का संकल्प लें। तब न सिर्फ इस वर्ष को बल्कि आगामी वर्षों को हम और बेहतर बना पाएंगे। यह संकल्प पूर्ण हो इस निमित्त स्टार वुमेन के पाठकों को नववर्ष की शुभकामनाएं हैं।

श्रीश पांडेय
09424733818