बड्डे’ अन्ना समूह के पंच तत्वों में विलीन होने के बाद से खबर सुर्ख है कि उसका प्रक्षेपण अब एक राजनैतिक दल के रूप में होने जा रहा है। ठीक ही तो है जब शरीर भी एक दिन पंच महाभूतों में वायूभूत हो जाता है, तो फिर आंदोलन को चलाने वालों के अधम शरीरों का भी इन्हीं ‘छिति, जल, पावक, गगन, समीरा’ के पंच अवयवों लुप्त हो जाने पर, इतना सिरफुटव्वल क्यों। ‘जीवन नश्वर है’ के इस तथ्य युक्त सत्य का ज्ञान भारत के कथा-पुराणों में पटा पड़ा है। मगर हुआ क्या...सुना तो सब ने पर गुना किसी ने नहीं और जरूरत भी क्या है...ज्ञान होता ही इसीलिए है कि कहा-सुना जाए बड़ी श्रद्धा से मगर अपनाएं दूसरे,हम नहीं। हर व्यक्ति दूसरे का मुंह ताकता है कि जब त्याग फलां नहीं कर रहा तो मैं ही क्यों? मैं ही बॉडीगार्ड क्यों बनूं।
मगर बड्डे हो न हो अब इस ज्ञान दर्शन को सरकार ने बांच लिया लगता है। तभी तोे सरकार को चाहे भ्रष्ट कहो या उसके मुखिया को फिसड्डी अथवा किसी का गुड्डा, क्या फर्क पड़ता है। सरकार ने अपनी चमड़ी पर बेशर्मी को इतनी पर्तें चढ़ा ली हैं कि चाहे भूख से मरो या भूखे रहकर...आवाम की संवेदना उसकी परतों को गीला नहीं कर पाती।
तो बड्डे अभी अन्ना टीम को पंचतत्वों में विलीन हुए दस दिन भी नहीं यानी उसका शुद्ध(दशगात्र) भी नहीं हुआ था कि बाबा रामदेव ने फिर से हुंकार भरी है कि काला धन तो सरकार को वापस लाना ही होगा...वर्ना मैं भूखे रह कर काल कलवित हो जाऊंगा। कुछ रोज पहले भूख से बिलखते केजरीवाल ने जल्दी समझ लिया कि थोड़े दिन और अन्न त्याग कर लिया तो कहीं उनकी देह उन्हें ही न त्याग दे। सरकार भी किसी कलाकार से कम नहीं, उसने अन्ना को अन्ना के अहिंसा अस्त्र से अस्तित्वहीन कर दिया। इस बार मीडिया ने अन्ना की बजाय सरकार से काले पर्दे के पीछे पंजे से पंजा मिला लिया... बस फिर क्या जिस आत्ममुग्ध छवि में टीम अन्ना बाहें मोड़कर अनशन में बैठी थी, पहले दिन से ही उसके मुखडेÞ पर बारह बजते दिखे।
अरे बड्डे समझो भारत में जो दिखता है वही बिकता है। मीडिया ने नहीं दिखाया तो लुट गई लाई टीम अन्ना की। इस बार सरकार के वे गुर्गे भी गुर्राये जो पिछली दफा अन्ना की मानमनौव्वल के लिए उनके धरना स्थल पर लोटते नजर आये थे। पर लगता बाबा की मेधा अभी भी जाग्रत नहीं हुई, क्योंकि जब सरकार ने अन्ना जैसे गांधीवादी, त्यागी, वीतरागी को कान न देकर ठिकाने लगा दिया तो फिर बाबा को तो पहले ही कूट-पीट चुकी..ये किस खेत की मूली है। मगर बाबा की ऐंठन है कि अभी नहीं गई...रस्सी जल गई पर बल नहीं गया। बाबा का कहना है कि मैं देश में हो रही लूट से देश को बचा के रहूंगा...लेकिन ऐसा कहते वक्त 4 जून 2011 की काली रात का स्मरण कर कहीं न कहीं उनका दिलोदिमाग पुलिस के लठ्ठ की आवाजों और समर्थकों की चीत्कार से दहल तो जाता ही होगा। हे बाबा! इस बार भी तुम फिर से तो नहीं भागोगे और यदि भागे तो उम्मीद करनी चाहिए कि साड़ी या सलवार सूट साथ लेकर आए होगे।
बड्डे विडम्बना है कि आजादी की दूसरी लड़ाई कहे जा रहे जनता (अन्ना)के आंदोलन को जनता के द्वारा ही धता बता दिया गया। बाबा, अन्ना के छांव तले पनपे आंदोलन के तबूत में खुद जनता ने ही कील ठोंक दी। जब पीड़ित जनता भी इन सुधारों का माखौल उड़ाने लगी हो तो फिर सरकार का हीमोग्लोबिन कितना बढ़ा होगा समझा जा सकता है। अब ‘अन्ना दल’ बने या ‘बाबा दल’ दोनो राजनीति के दलदल में आये तो कहीं जनता इनको यहां भी पीठ न दिखा दे।
मगर बड्डे हो न हो अब इस ज्ञान दर्शन को सरकार ने बांच लिया लगता है। तभी तोे सरकार को चाहे भ्रष्ट कहो या उसके मुखिया को फिसड्डी अथवा किसी का गुड्डा, क्या फर्क पड़ता है। सरकार ने अपनी चमड़ी पर बेशर्मी को इतनी पर्तें चढ़ा ली हैं कि चाहे भूख से मरो या भूखे रहकर...आवाम की संवेदना उसकी परतों को गीला नहीं कर पाती।
तो बड्डे अभी अन्ना टीम को पंचतत्वों में विलीन हुए दस दिन भी नहीं यानी उसका शुद्ध(दशगात्र) भी नहीं हुआ था कि बाबा रामदेव ने फिर से हुंकार भरी है कि काला धन तो सरकार को वापस लाना ही होगा...वर्ना मैं भूखे रह कर काल कलवित हो जाऊंगा। कुछ रोज पहले भूख से बिलखते केजरीवाल ने जल्दी समझ लिया कि थोड़े दिन और अन्न त्याग कर लिया तो कहीं उनकी देह उन्हें ही न त्याग दे। सरकार भी किसी कलाकार से कम नहीं, उसने अन्ना को अन्ना के अहिंसा अस्त्र से अस्तित्वहीन कर दिया। इस बार मीडिया ने अन्ना की बजाय सरकार से काले पर्दे के पीछे पंजे से पंजा मिला लिया... बस फिर क्या जिस आत्ममुग्ध छवि में टीम अन्ना बाहें मोड़कर अनशन में बैठी थी, पहले दिन से ही उसके मुखडेÞ पर बारह बजते दिखे।
अरे बड्डे समझो भारत में जो दिखता है वही बिकता है। मीडिया ने नहीं दिखाया तो लुट गई लाई टीम अन्ना की। इस बार सरकार के वे गुर्गे भी गुर्राये जो पिछली दफा अन्ना की मानमनौव्वल के लिए उनके धरना स्थल पर लोटते नजर आये थे। पर लगता बाबा की मेधा अभी भी जाग्रत नहीं हुई, क्योंकि जब सरकार ने अन्ना जैसे गांधीवादी, त्यागी, वीतरागी को कान न देकर ठिकाने लगा दिया तो फिर बाबा को तो पहले ही कूट-पीट चुकी..ये किस खेत की मूली है। मगर बाबा की ऐंठन है कि अभी नहीं गई...रस्सी जल गई पर बल नहीं गया। बाबा का कहना है कि मैं देश में हो रही लूट से देश को बचा के रहूंगा...लेकिन ऐसा कहते वक्त 4 जून 2011 की काली रात का स्मरण कर कहीं न कहीं उनका दिलोदिमाग पुलिस के लठ्ठ की आवाजों और समर्थकों की चीत्कार से दहल तो जाता ही होगा। हे बाबा! इस बार भी तुम फिर से तो नहीं भागोगे और यदि भागे तो उम्मीद करनी चाहिए कि साड़ी या सलवार सूट साथ लेकर आए होगे।
बड्डे विडम्बना है कि आजादी की दूसरी लड़ाई कहे जा रहे जनता (अन्ना)के आंदोलन को जनता के द्वारा ही धता बता दिया गया। बाबा, अन्ना के छांव तले पनपे आंदोलन के तबूत में खुद जनता ने ही कील ठोंक दी। जब पीड़ित जनता भी इन सुधारों का माखौल उड़ाने लगी हो तो फिर सरकार का हीमोग्लोबिन कितना बढ़ा होगा समझा जा सकता है। अब ‘अन्ना दल’ बने या ‘बाबा दल’ दोनो राजनीति के दलदल में आये तो कहीं जनता इनको यहां भी पीठ न दिखा दे।
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