लोकतंत्र में जनता, सरकारों को चुनने और उनसे जनहित में कार्य करने की आशा व उम्मीद करती है। पर कभी-कभी सरकारें अति उत्साह में अथवा खुद को हाई-फाई दर्शाने की होड़ में ऐसे अव्यवहारिक कदम उठा लेती हैं, जो न सिर्फ अविवेकी होते हैं, बल्कि जिनके लिए कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है, वह उन्हीं के लिए दुष्कर हो जाते हैं।
ऐसा ही इनदिनों मध्यप्रदेश की शासकीय सेवाओं की भर्तियों में हो रहा है। पिछले तीन-चार माह मेें संविदा शिक्षकों की भर्ती का दौर चला, जिसमें अनेक तरह की विसंगतियां देखने में आई थी और अब राजस्व की सबसे निचली इकाई पटवारी के पदों की भर्ती के लिए जिस उच्च तकनीकी का सहारा लिया जा रहा है, उसको लेकर ऊहापोह की स्थिति है। खासकर उन ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए जिनके पास कम्यूटर और इंटरनेट की सुविधा घरों में अथवा उनके कस्बाई इलाकों मेंआद्यतन नहीं है। उन्हें अपनी शिक्षा को रोजगार में तब्दील करने के लिए आॅन लाइन परीक्षा से गुजरना होगा। इनके दुर्गति की हालत यह है कि ऐसे हजारों परीक्षार्थी हैं, जिन्हें अपना फार्म तक भरने के लिए इंटरनेट कैफै में मौजूद एक्सपर्ट की शरणागत होना पड़ता है तो, आॅन लाइन परीक्षा इनके लिए कितनी मुफीद होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। बावजूद इसके 25 फरवरी को आॅनलाइन फार्म भरने की आखिरी तारीख के बाद 25 मार्च से होने वाली आॅनलाइन परीक्षा व्यवस्था की कवायद शुरू हो गई है।
विडम्बना है कि अभी तक आईआईटी, पीईटी, पीएमटी जैसी परीक्षाओं सहित यूपीएससी और राज्यों की लोकसेवा परीक्षाओं में इस तरह से परीक्षा लेने का चलन अस्तित्व में नहीं आया है। यानी जब राजस्व के उच्च पदों कलेक्टर और डिप्टी कलेक्टर के चयन के लिए इस तकनीकि का सहारा नहीं लिया गया, जिसमें स्नातक अथवा उच्च योग्यता के विद्यार्थी हिस्सा लेते हैं, तो सवाल है कि पटवारी जैसी परीक्षा के लिए उच्च तकनीकी से युक्त परीक्षा का निर्णय किस बुद्धिमत्ता के चलते मध्यप्रदेश शासन द्वारा ले लिया गया। ऐसा करते वक्त यह भी ख्याल नहीं रखा गया इस परीक्षा के लिए न्यूनतम योग्यता बारहवीं है और जिन छात्रों ने कभी आॅनलाइन परीक्षा अपने शैक्षणिक जीवन में एक बार भी न दी हो, अपने कॅरियर निर्माण के वक्त इसे कैसे साध पाएंगे! यहां तक कि जिस कम्यूटर की योग्यता का मापदण्ड (पीजीडीसीए या डीसीए) रखा गया है उसका इम्तिहान भी उन्होंने कभी आॅनलाइन नहीं दिया है और न ही इस तरह की सुविधा प्रदेश के किसी कॉलेज में उपलब्ध है। और फिर कुकुरमुत्तों की तरह गली-चौराहों में उगे आए कम्यूटर कालेजों में पढ़ाई की गुणवत्ता किससे छिपी है। ऐसे ये कथित कॉलेज शिक्षा के कम, धन कमाने के कुटीर उद्योग अधिक साबित हुए हैं। प्राय: देखने में आया है कि विद्यार्थियों को तकनीकि परीक्षाओं (डीसीए व पीजीडीसीए) की थ्योरी रटा कर कैसे भी जुगाड़-तुगाड़ से कॉलेज प्रबंधन द्वारा उत्तीर्ण कराके, अपने धन कमाने के धंधे को अंजाम दिया जाता रहा है। फिर यह तथ्य है कि कम्यूटर में व्यवहारिक ज्ञान और कार्य की गुणवत्ता तो काम करके ही हासिल की जा सकती है। बावजूद इसके भी आॅनलाइन परीक्षा के लिए आतुर नीति निर्माताओं की अदूरदर्शिता इस कथित प्रयोगधर्मिता में परिलक्षित होती है।
गौरतलब है कि पिछले दिनों संविदा शिक्षकों (वर्ग-3) की भर्ती में बुकलेट भरने का परीक्षा पूर्व से कोई दिशा निर्देश न तो ठेके पर लगाए गए पर्यवेक्षकों को ज्ञात थे, न ही विद्यार्थियों को होने की वजह से, परीक्षा कक्ष में गलत तरीकों से उत्तर भर देने के लाखों उदाहरण सामने आये थे। कमोबेश इन्हीं में से अधिकतर विद्यार्थी हैं, जो पटवारी की परीक्षा में सम्मिलित हो रहे हंै। ऐसे में पटवारी परीक्षा के आॅनलाइन होने से ऐसे परीक्षार्थियों का क्या हाल होगा, ठीक से समझा जा सकता है। यद्यपि इस तर्क से बचने के लिए के एमपीआॅनलाइन संस्था ने प्रैक्टिस के निमित्त एक प्रश्न पत्र अपनी वेब साइट में डाला है। जिसमें कई खामियां उजागर हुई हैं। परीक्षार्थी को परीक्षा पूर्व जिस माध्यम(हिन्दी या अंग्रेजी) में परीक्षा देनी है उसका चयन करना होगा। और जो प्रश्न पत्र इंटरनेट पर उपलब्ध हैं उनका हिन्दी रूपांतरण कुछ इस तरह है कि ‘खुद पढ़ो, खुदा समझे’। दरअसल, नमूने के तौर पर तैयार प्रश्न पत्रों की हिन्दी भाषा ऐसी रखी गई है कि अच्छे-अच्छे व्याकरणविद का दिमाग चकरा जाए। ऐसा इसलिए है कि मूलत: प्रश्न पत्र अंग्रेजी में तैयार किए गये हैं और फिर उनका मानक हिन्दी भाषा में रूपांतरण कर दिया गया है। ऐसी क्लिस्ट हिन्दी न तो कहीं पढ़ने में आती है और न ही बोचचाल के व्यवहार में। तो फिर परीक्षा में यह प्रयोग क्यों? बात बड़ी साफ है कि यदि हिन्दी माध्यम को अपनाया गया तो निर्धारित समय प्रश्न की भाषा को समझने में बीत जाएगा, तब 90 मिनट में उत्तर देना दूर की कौड़ी हो सकती है।
एक अन्य खामी यह कि - कहने को यह प्रतियोगी परीक्षा है पर हकीकत यह है कि इसमें आधे अंक 12वीं की अंकसूची के आधार पर दिए जाने तय किए गये हैं और आधे प्रतियोगी परीक्षा के प्राप्तांक के आधार पर। गौरतलब है कि 12वीं उत्तीर्ण करने के लिए प्रदेश में तीन तरह के बोर्ड मप्र शिक्षा मंडल, सीबीएससी और आईसीएससी संचालित हैं। जिनके सिलेबस और पढ़ाई के स्तर के साथ 12वीं में आने वाले प्रतिशतों में काफी भिन्नता रहती आई है। ऐसे में सभी के नंबर एक ही तराजू पर रख कर मेरिट बनाने से प्रतियोगिता में विसंगति स्वभाविक रूप से उत्पन्न हो जाती है। यह भी देखने में आया है ओपन स्कूल या कभी नकल जोर-जुगत से भी 12वीं में अच्छे अंक हासिल कर लिए जाते हैं और फिर जब प्रतियोगी परीक्षा आयेजित की जा रही ऐसे में अंकसूची को आधार बनाने का औचित्य क्या है?
एक अन्य विसंगति में डीसीए और पीजीडीसीए की मान्यता और स्वीकार्यता को लेकर सवाल हैं। आमतौर पर यूपीएससी और पीएसी की परीक्षाओं में स्नातक योग्यता है, जहां यदि परीक्षार्थी उस वर्ष स्नातक की फाइनल परीक्षा में बैठ रहा है तो उसे इन परीक्षाओं में बैठने की अनुमति होती है। पर पटवारी की परीक्षा जो कि मिड शेसन में आयेजित की जा रही है और जो बच्चे धन खर्च कर इस वर्ष इन तकनीकि परीक्षाओं में बैठ रहे हैं, जिनके कि परिणाम भी जून तक घोषित हो जाएंगे, को परीक्षा वंचित रखने के क्या औचित्य हो सकता है। जबकि यह प्रावधान रखा गया है कि परीक्षा के बनने वाली मेरिट आगामी तीन वर्षों तक वैध रहेगी। ये सभी गंभीर सवाल हंै कि सरकार किस बात की जल्दी में है की परीक्षाओं के सारे प्रयोग पटवारी चयन में ही करने को आतुर क्यों है? जिस पर नए सिरे से विचार होना ही चाहिए। ये सच है कि प्रतियोगिता से योग्यता का चुनाव होता है। जिसके लिए परीक्षा का स्तर कुछ भी हो पर उसकी शर्तों और तरीकों के निर्धारण की तकनीकी खामियों से समय रहते तो बचा ही जा सकता है।
श्रीश पाण्डेय
ऐसा ही इनदिनों मध्यप्रदेश की शासकीय सेवाओं की भर्तियों में हो रहा है। पिछले तीन-चार माह मेें संविदा शिक्षकों की भर्ती का दौर चला, जिसमें अनेक तरह की विसंगतियां देखने में आई थी और अब राजस्व की सबसे निचली इकाई पटवारी के पदों की भर्ती के लिए जिस उच्च तकनीकी का सहारा लिया जा रहा है, उसको लेकर ऊहापोह की स्थिति है। खासकर उन ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए जिनके पास कम्यूटर और इंटरनेट की सुविधा घरों में अथवा उनके कस्बाई इलाकों मेंआद्यतन नहीं है। उन्हें अपनी शिक्षा को रोजगार में तब्दील करने के लिए आॅन लाइन परीक्षा से गुजरना होगा। इनके दुर्गति की हालत यह है कि ऐसे हजारों परीक्षार्थी हैं, जिन्हें अपना फार्म तक भरने के लिए इंटरनेट कैफै में मौजूद एक्सपर्ट की शरणागत होना पड़ता है तो, आॅन लाइन परीक्षा इनके लिए कितनी मुफीद होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। बावजूद इसके 25 फरवरी को आॅनलाइन फार्म भरने की आखिरी तारीख के बाद 25 मार्च से होने वाली आॅनलाइन परीक्षा व्यवस्था की कवायद शुरू हो गई है।
विडम्बना है कि अभी तक आईआईटी, पीईटी, पीएमटी जैसी परीक्षाओं सहित यूपीएससी और राज्यों की लोकसेवा परीक्षाओं में इस तरह से परीक्षा लेने का चलन अस्तित्व में नहीं आया है। यानी जब राजस्व के उच्च पदों कलेक्टर और डिप्टी कलेक्टर के चयन के लिए इस तकनीकि का सहारा नहीं लिया गया, जिसमें स्नातक अथवा उच्च योग्यता के विद्यार्थी हिस्सा लेते हैं, तो सवाल है कि पटवारी जैसी परीक्षा के लिए उच्च तकनीकी से युक्त परीक्षा का निर्णय किस बुद्धिमत्ता के चलते मध्यप्रदेश शासन द्वारा ले लिया गया। ऐसा करते वक्त यह भी ख्याल नहीं रखा गया इस परीक्षा के लिए न्यूनतम योग्यता बारहवीं है और जिन छात्रों ने कभी आॅनलाइन परीक्षा अपने शैक्षणिक जीवन में एक बार भी न दी हो, अपने कॅरियर निर्माण के वक्त इसे कैसे साध पाएंगे! यहां तक कि जिस कम्यूटर की योग्यता का मापदण्ड (पीजीडीसीए या डीसीए) रखा गया है उसका इम्तिहान भी उन्होंने कभी आॅनलाइन नहीं दिया है और न ही इस तरह की सुविधा प्रदेश के किसी कॉलेज में उपलब्ध है। और फिर कुकुरमुत्तों की तरह गली-चौराहों में उगे आए कम्यूटर कालेजों में पढ़ाई की गुणवत्ता किससे छिपी है। ऐसे ये कथित कॉलेज शिक्षा के कम, धन कमाने के कुटीर उद्योग अधिक साबित हुए हैं। प्राय: देखने में आया है कि विद्यार्थियों को तकनीकि परीक्षाओं (डीसीए व पीजीडीसीए) की थ्योरी रटा कर कैसे भी जुगाड़-तुगाड़ से कॉलेज प्रबंधन द्वारा उत्तीर्ण कराके, अपने धन कमाने के धंधे को अंजाम दिया जाता रहा है। फिर यह तथ्य है कि कम्यूटर में व्यवहारिक ज्ञान और कार्य की गुणवत्ता तो काम करके ही हासिल की जा सकती है। बावजूद इसके भी आॅनलाइन परीक्षा के लिए आतुर नीति निर्माताओं की अदूरदर्शिता इस कथित प्रयोगधर्मिता में परिलक्षित होती है।
गौरतलब है कि पिछले दिनों संविदा शिक्षकों (वर्ग-3) की भर्ती में बुकलेट भरने का परीक्षा पूर्व से कोई दिशा निर्देश न तो ठेके पर लगाए गए पर्यवेक्षकों को ज्ञात थे, न ही विद्यार्थियों को होने की वजह से, परीक्षा कक्ष में गलत तरीकों से उत्तर भर देने के लाखों उदाहरण सामने आये थे। कमोबेश इन्हीं में से अधिकतर विद्यार्थी हैं, जो पटवारी की परीक्षा में सम्मिलित हो रहे हंै। ऐसे में पटवारी परीक्षा के आॅनलाइन होने से ऐसे परीक्षार्थियों का क्या हाल होगा, ठीक से समझा जा सकता है। यद्यपि इस तर्क से बचने के लिए के एमपीआॅनलाइन संस्था ने प्रैक्टिस के निमित्त एक प्रश्न पत्र अपनी वेब साइट में डाला है। जिसमें कई खामियां उजागर हुई हैं। परीक्षार्थी को परीक्षा पूर्व जिस माध्यम(हिन्दी या अंग्रेजी) में परीक्षा देनी है उसका चयन करना होगा। और जो प्रश्न पत्र इंटरनेट पर उपलब्ध हैं उनका हिन्दी रूपांतरण कुछ इस तरह है कि ‘खुद पढ़ो, खुदा समझे’। दरअसल, नमूने के तौर पर तैयार प्रश्न पत्रों की हिन्दी भाषा ऐसी रखी गई है कि अच्छे-अच्छे व्याकरणविद का दिमाग चकरा जाए। ऐसा इसलिए है कि मूलत: प्रश्न पत्र अंग्रेजी में तैयार किए गये हैं और फिर उनका मानक हिन्दी भाषा में रूपांतरण कर दिया गया है। ऐसी क्लिस्ट हिन्दी न तो कहीं पढ़ने में आती है और न ही बोचचाल के व्यवहार में। तो फिर परीक्षा में यह प्रयोग क्यों? बात बड़ी साफ है कि यदि हिन्दी माध्यम को अपनाया गया तो निर्धारित समय प्रश्न की भाषा को समझने में बीत जाएगा, तब 90 मिनट में उत्तर देना दूर की कौड़ी हो सकती है।
एक अन्य खामी यह कि - कहने को यह प्रतियोगी परीक्षा है पर हकीकत यह है कि इसमें आधे अंक 12वीं की अंकसूची के आधार पर दिए जाने तय किए गये हैं और आधे प्रतियोगी परीक्षा के प्राप्तांक के आधार पर। गौरतलब है कि 12वीं उत्तीर्ण करने के लिए प्रदेश में तीन तरह के बोर्ड मप्र शिक्षा मंडल, सीबीएससी और आईसीएससी संचालित हैं। जिनके सिलेबस और पढ़ाई के स्तर के साथ 12वीं में आने वाले प्रतिशतों में काफी भिन्नता रहती आई है। ऐसे में सभी के नंबर एक ही तराजू पर रख कर मेरिट बनाने से प्रतियोगिता में विसंगति स्वभाविक रूप से उत्पन्न हो जाती है। यह भी देखने में आया है ओपन स्कूल या कभी नकल जोर-जुगत से भी 12वीं में अच्छे अंक हासिल कर लिए जाते हैं और फिर जब प्रतियोगी परीक्षा आयेजित की जा रही ऐसे में अंकसूची को आधार बनाने का औचित्य क्या है?
एक अन्य विसंगति में डीसीए और पीजीडीसीए की मान्यता और स्वीकार्यता को लेकर सवाल हैं। आमतौर पर यूपीएससी और पीएसी की परीक्षाओं में स्नातक योग्यता है, जहां यदि परीक्षार्थी उस वर्ष स्नातक की फाइनल परीक्षा में बैठ रहा है तो उसे इन परीक्षाओं में बैठने की अनुमति होती है। पर पटवारी की परीक्षा जो कि मिड शेसन में आयेजित की जा रही है और जो बच्चे धन खर्च कर इस वर्ष इन तकनीकि परीक्षाओं में बैठ रहे हैं, जिनके कि परिणाम भी जून तक घोषित हो जाएंगे, को परीक्षा वंचित रखने के क्या औचित्य हो सकता है। जबकि यह प्रावधान रखा गया है कि परीक्षा के बनने वाली मेरिट आगामी तीन वर्षों तक वैध रहेगी। ये सभी गंभीर सवाल हंै कि सरकार किस बात की जल्दी में है की परीक्षाओं के सारे प्रयोग पटवारी चयन में ही करने को आतुर क्यों है? जिस पर नए सिरे से विचार होना ही चाहिए। ये सच है कि प्रतियोगिता से योग्यता का चुनाव होता है। जिसके लिए परीक्षा का स्तर कुछ भी हो पर उसकी शर्तों और तरीकों के निर्धारण की तकनीकी खामियों से समय रहते तो बचा ही जा सकता है।
श्रीश पाण्डेय
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