Monday, 13 February 2012

न उम्र की सीमा हो...

  आज ‘वेलेंटाइन डे’ पर बरबरस जगजीत सिंह की आवाज में गाई गई इस गजल को स्मरण हो आया कि...                
        न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन 
ओठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो...
शायद ही कोई होगा जिसने सुना और गुनगुनाया  न हो। इस गीत का दर्शन हर उम्र में अलग-अलग तरीकों देखा, सुना और समझा गया और यही क्रम आज भी जारी है। फिल्म ‘प्रेमगीत’ में फिल्माये गये इस गीत में गीतकार और फिल्मकार ने यह संदेश देने की कोशिश की थी कि किसी कार्य की कोई उम्र नहीं होती, बस क्षमता और लगन होनी चाहिए। लेकिन मैं प्रेम के अलावा इस गीत में निहित उम्र के एक और दर्शन को बांचने और समाज में दशकों से प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध मौजूद विसंगति को लेकर चिंतित हंू। मन और तन से मजबूत व्यक्ति किसी भी उम्र में स्वस्थ्य रहते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकता है। जैसे 78 वर्ष में भी मनमोहन सिंह देश का नेतृत्व करने में सक्षम हैं और प्रधानमंत्री ही क्या देश के ज्यादातर नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, की उम्र 60 से ऊपर ही ज्यादा सक्रिय हैं। इन्हीं नेताओं की जमात जो देश की नीति नियंता भी हैं,ने जनसामान्य के लिए शासकीय सेवा में आने और सेवा निवृत्ति की आयु सीमा तय कर रखी हैं।
   पर सवाल है कि उम्र का ताल्लुक व्यक्ति की कार्य क्षमता से है न कि उसके पद से। एक विभाग का छोटा या बड़ा कर्मचारी 60-62 की उम्र में सेवानिवृत्त इसलिए कर दिया जाता है कि वह कार्य करने की दृष्टि से शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम नहीं रहा, तो फिर 75 और 85 वर्ष की उम्र में देश की बागडोर सम्भालने वाले नेताओं ने भला कौन सी घुट्टी पी रखी है, जो इन्हें कब्र में पैर लटकाये रखने की नौबत तक, देश के राष्टÑीय और अर्न्तराष्टÑीय दायित्वों के निर्वहन की ताकत व ऊर्जा देती रहती है। इस पर विचार करने का समय आ गया है।
     पिछले दिनों मप्र के पुलिस विभाग में हुई पुलिस उपनिरीक्षकों की भर्ती में अधिकतम आयु सीमा (सामान्य) 28 वर्ष रखी गई थी वहीं डीएसपी की 25 वर्ष।  पटवारी के इम्तिहान के लिए 33 वर्ष। यानी इससे अधिक उम्र का युवा शारीरिक, मानसिक रूप से सक्षम होने के बावजूद इस सेवा के लिए अयोग्य करार दिया जाता है। इसी तरह की अनेक सेवाओं में उम्र के बंधन रखे गए हैं। गौरतलब है कि देश की जीवन प्रत्याशा 52 से बढ़कर 62 वर्ष हो चुकी है, तो फिर सेवाओं में प्रवेश की आयुसीमा को क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता? यदि उम्र को शारीरिक दक्षता अथवा मानसिक योग्यता में कमी का आधार बनाया गया है। तो क्या शासन में 40 से 50 वर्ष के अफसर इस सेवा में नहीं होते? और क्या उनकी शारीरिक क्षमता नहीं घटती? क्या पद पर आसीन होने के बाद उनकी इन कथित क्षमताओं में वृद्धि हो जाती है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका कोई ठोस उत्तर नहीं दिया जा सका है, सिवाय इसके कि हर कर्मचारी पर ट्रेनिंग का खर्च आता है इसलिए कार्मिकों का अधिकतम उपयोग किया जा सके, इसलिए उम्र सीमा के बंधन रखे गए हैं।
     तो फिर क्या यह सवाल नहीं होना चाहिए कि हर पांच साल में चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों पर अरबों के खर्च का आधार क्या हो सकता है? अत: इस पाखंडयुक्त मापदंड के विरुद्ध आवाज बुलंद करने का वक्त आ गया है कि युवा बेरोजगारों के लिए कदम-कदम पर उम्र के बंधन लगाने का घृणित कार्य करने वाले शासन-सत्ता विराजे लोगों की मानसिक और शारीरिक क्षमताओं को लेकर सवाल क्यों नहीं उठते? जो व्यवहार उन्हें खुद के लिए पसंद नहीं, उसे वे युवाओं के लिए किस आधार पर प्रवृत्त कर सकते हैं। हो न हो, इस देश में अब तक सबसे बड़ा घोटाला और भ्रष्टाचार उम्र के भेदभाव को लेकर हुआ है। जिसमें करोड़ों प्रतिभाएं उम्र के बंधन में दम तोड़ चुकी हैं और न जाने कितनों की बलि होने वाली है। पर आज तक नेताओं ने इसके खिलाफ अपनी आस्तीने नहीं चढ़ार्इं, न ही कभी इस देश के 70 करोड़ युवाओं से जुड़े इस मुद्दे पर अनशन किए गए। जबकि उनकी ही बिरादरी अंतिम सांस तक सत्ता के निमित्त अपनी जीभ लपलपाती रहती है।
 यह दशा सिर्फ नौकरी की लाइन में लगे युवाओं की नहीं है बल्कि इसका खामियाजा विभिन्न राजनीतिक दलों में तैयार हो रही नई पौध को भोगना पड़ रहा है। आज हम अपने आस-पास देखें तो यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि हर दल में युवा नेता, कथित 60 के ऊपर के नेताओं के लिए नारे लगाने, स्टेशन में फूल-माला लेकर आवभगत करने और पैर छूने जैसे कार्यों में लगे-लगे उम्रदराज हो जाते हैं। केवल उन युवाओं को छोड़ दें, जिन्हें विरासत में राजनीति की चांदी का चम्मच मुंह में मिला है। त्रासदी है कि हरेक दल युवाओं की, उनकी शक्ति की बातें तो करता है, पर यह मात्र पायलटिंग करने, नारों का उद्घोष करने और चुुनाव के समय पर्ची काटने के लिए है, न की प्रत्याशी बनाने और प्रमोट करने के लिए। देश के लिए यह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि करोड़ों युवाओं को हताश करने वाली बात है कि जिस युवाशक्ति को राष्टÑ का भविष्य कहा जा रहा है,वही पग-पग पर उपेक्षित है और छला जा रहा है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस देश की 70 फीसदी आबादी युवाशक्ति से लबरेज हो, वहां का 80 फीसदी नेतृत्व बुजुर्गों के हाथ में आजादी के बाद से बरकरार है।
  अब समय है जबकि इसका हिसाब-किताब होना चाहिए कि नेताओं को जनता से मिले शासन के   अधिकारों का प्रयोग इस रूप में भी हो कि, जैसे सरकारी सेवाओं में प्रवेश के लिए ज्ञान और उम्र के कड़े मानदंड हंै, कमोवेश ऐसे ही प्रक्रिया वे स्वयं अपने लिए भी बनाएं। उनकी भी निश्चित योग्यता का परीक्षण हो और एक तय उम्र सीमा हो अथवा उम्र के बंधन किसी क्षेत्र में न चाहे वह राजनीति हो अथवा शासकीय सेवा में हो। दक्षता एवं क्षमता ही मात्र आधार हो। क्योंकि जब एक विभाग का अदना सा मुलाजिम बनने के लिए एक व्यक्ति को अपने ज्ञान और क्षमता का टेस्ट गलाकाट प्रतियोगिता के बीच तय आयु में देना होता है, तो देश सेवा की आड़ मेवा खाने वाले नेताओं के कबीले सिर्फ इसलिए इस स्वछंदता का आनंद ले कि वह नीति नियंता है। यह लोकतंत्र का लक्षण हरगिज नहीं हो सकता।
     गौरतलब है कि प्रतियोगी परीक्षाएं, किसी नौकरी के लिए हो रही स्पर्धा में बैठने का एक अवसर हैं, न कि सेवा में नियोजित होने की ग्यारंटी। तो फिर कथित नियमों की आड़ में इस तरह बंधन क्यों? सवाल यह भी कि जब हर परीक्षा के लिए ज्ञान और शारीरिक दक्षता के लिए एक टेस्ट की व्यवस्था है तो जिसमें क्षमता है उसे लिया जाए, इसमें उम्र के बंधन का क्या औचित्य रह जाता है? यह नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध है।
                                   - श्रीश पाण्डेय 
                                    सम्पर्क - 09424733818.

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