जिन्दगी में प्राय: किसी को सहायता या सहयोग के लिए हम ‘तन, मन, धन’ से करने का वचन देते रहते हैं। इन तीनों में ‘तन’ और ‘धन’ भौतिक हैं, जिसका हम स्पर्श कर सकते हैं, पर ‘मन’ का नहीं। शरीर के संचालक अंगों के लिहाज से इसके के दो मुख्य भागों में- एक ‘तन’ है, तो दूसरा है ‘मन’। एक भौतिक है तो दूसरा पूरी तरह अभौतिक। ‘मन’ और ‘तन’ अथवा ‘देह’ जितना आपस में गुम्फित हैं, उतना और किसी की कल्पना करना मुश्किल है। ऐसा इसलिये भी की दोनों की अवस्था एक ही संरचना के भीतर है। फिर भी इनकी संरचना, इनकी अवस्था में जो फर्क है, उसे भौतिक और आध्यात्मिक अथवा दार्शनिक दृष्टियों से बेहतर ढंग से देखा और समझा जा सकता है। ‘मन’, ‘तन’ का संचालनकर्ता तो है, पर ‘तन’, ‘मन’ का नहीं। क्योंकि तन ‘जड़’ है, तो मन ‘चेतन’। हालांकि मन का आधार भी एक हद तक तन ही है।
दरअसल ‘मन’ है क्या? यह प्रश्न सदियों से बहस और शोध का विषय रहा है और रहेगा। क्योंकि जिसका कोई भौतिक अस्तित्व न हो, उसके रंग, रूप और प्रकृति की कल्पना कैसे की जा सकती है। तभी तो मन के स्वरूप, आकार और कार्यशैली पर किये गये अध्ययनों के परिणाम, आज भी वैज्ञानिक दृष्टि से सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत नहीं हो पाये हैं। हां मनोवैज्ञानिकों ने कई निष्कर्ष अनुभवजन्य अध्ययन के आधार पर निकालकर मनोविज्ञान के ग्रंथ तो रच डाले हैं, पर शरीर की भांति मन के अध्ययन पर वैज्ञानिक दृष्टि आभाव है। इसलिए आज भी मानव मन की अवस्था, उसके चित्त, उसकी कार्यशैली पर शोध जारी हैं और अनंत काल तक जारी रहेंगे। यही मन का रहस्य है, जैसे ईश्वर के अस्तित्व की संकल्पना के सैकड़ों आयाम हम विभिन्न धर्मों में पाते हैं। पर जब हम धर्म विहीन होकर उसकी कल्पना एक मनुष्य के रूप में करते हैं, तो उसकी एक अस्पष्ट तस्वीर उभरती है। कभी-कभी तो यह भी सवाल उपजता है कि ईश्वर है भी, कि नहीं। कहीं यह हमारे ‘मन’ की एक कल्पना मात्र तो नहीं।
वर्ष 2003 की बात है, ऋषिकेश के गीताआश्रम में ईश्वर की स्थिति को लेकर एक वयोवृद्ध द्वारा पूछे गए सवाल कि- ‘स्वामी जी ईश्वर की पूजा, उपासना, आराधना करते-करते जीवनसंध्या निकट आ पहुंची है, पर मन में उसके अस्तित्व को लेकर संशय बना हुआ है।’जबाव में स्वामी रामसुखदासजी कह रहे थे कि ईश्वर जानने की नहीं मानने की बात है। यानी ‘मानो तो गंगा मां हूं न मानो तो बहता पानी’। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को एक उदाहरण से कुछ यूं समझाया कि एक बच्चा यदि जन्म के तुरन्त बाद बिछड़ गया और उसका पालन पोषण किसी भिन्न वतावरण, संस्कृति में हुआ और बड़े होने पर उसके माता पिता के बारे में किसी को कुछ भी ज्ञात न हो तो, क्या यह माना जा सकता है कि बच्चा आसमान से टपका होगा! नि:संदेह न तो विज्ञान और न ही आध्यात्म आसमान से टपकने की बात को स्वीकार सकता है। भले ही हम उसके जन्मदाता को न जानते हों, फिर भी मानना पड़ता है कि वह है तो मां-बाप हैं और मां-बाप हैं, तो उनके भी मां-बाप होंगे ही। स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि ठीक यही अवस्था ईश्वर की है, हम हैं तो वह भी है। जैसे उक्त बच्चे के मां-बाप का पता ज्ञात करने के निमित्त दुनियां के अरबों मां-बाप के डीएनए टेस्ट की दुरूह प्रक्रिया से गुजरना होगा, ठीक इसी तरह ईश्वर को भी जानने की प्रक्रिया उतनी ही दुरूह है। मन की भी ऐसी ही अवस्था है। वह भी अज्ञात है बस उसके जितने भाग से हम परिचित है उसी को पूरी जानकारी मानकर खुद को भरमाये रखते हैं। मन जिसे हम ईश्वर का पीआरओ भी कह सकते हैं। मन की अवस्थाओं को लेकर साहित्य और आध्यात्म जगत में बहुत कुछ कहा गया है। मूल रूप से मन ही हमारे जड़ शरीर का संचालक है यानी ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’
इस विमर्श का लब्बोलुआब यह है कि दुनिया में बेहतर जीवन बसर करने का मूलमंत्र है, अपने ‘मन’ को नियंत्रित रखना। इस संसार में जितना भी सुख-दुख, हर्ष-विषाद, अच्छाई-बुराई, प्यार-दुतकार विद्यमान है वह सब ‘मन’ की प्रकृति पर निर्भर है। वरना क्या वजह है कि तमाम जड़ साधनों (धन सम्पदा)से सम्पन्न व्यक्ति के दुखी रहने और विपन्न व्यक्ति के सुखी रहने की नजीरें हमें जगत में दिखाई देतीं। इसलिए हम जितनी भी साधना, उपासना विभिन्न धर्मों के माध्यम से करते आये हैं, उसमें ‘मन’ को साधने की साधना सबसे अपरिहार्य है। जिसका ‘मन’ नियंत्रित है वह ईश्वर के और ईश्वर उसके करीब है और वही मानवीय है।
यहां यह प्रश्न जनसाधारण के मन-मतिष्क में उपजना लाजिमी है कि मन, बुद्धि और आत्मा में फर्क कैसे किया जाए। इसे कुछ इस तरह से समझा जाए तो बेहतर होगा कि- जब कोई विचार यकायक मतिष्क में आये तो इसे मन का विचार माना जा सकता है जैसे मुझे आज फलां जगह घूमने जाना है। पर जब वहां जाने के तरीके या साधन,समय आदि पर विचार किया जाए तो वहां बुद्धि की उपस्थिति मानी जानी चाहिए। लेकिन किसी काम के करने की अथवा उसके सही गलत होने का निर्धारण जिस भाग द्वारा किया जाए उसे आत्मा माना जा सकता है। यानी मन हमारी समस्त गतिविधियों का कारक है। यही हमें लोक-परलोक से जोड़ता है। मन के विचार पर ही व्यक्ति की बुद्धि और आत्मा क्रियाशील होती है। यद्यपि यह कोई अंतिम दर्शन नहीं फिर भी इस लिहाज से मन को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जा सकता है।
आज दुनिया में जितनी भी लालच, लिप्सा और लड़ाई है वह हमारे ‘मन’ के अनियंत्रित होने का कारक है। इसलिए यह बात अब समझी जानी चाहिए कि ‘जड़’ चाहे वह शरीर हो अथवा साधन, चेतन ‘मन’ के द्वारा संचालित हैं। इसीलिए यह कहा गया है कि ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’क्योंकि ‘मन’ के स्वस्थ होने का सीधा ताल्लुक ‘तन’ से है और जब दोनों स्वस्थ हैं तो ‘धन’ भी अर्जित किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि हमारा ‘मन’ स्वस्थ, सधा हुआ और नियंत्रित हो और तभी हम किसी अपने की ‘तन, मन और धन’ से सहायता कर सकते हैं।
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