Monday, 30 July 2012

नैतिकता का पर्व रक्षाबंधन

नैतिकता का पर्व रक्षाबंधन

 भारतीय संस्कृति और परंपरा में अनेक ऐसे अवसर; पर्व-त्यौहार के रूप में समय-समय पर हमारे सम्मुख आते हैं, जो सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत संबंधों को दृढ़ करके, उनके महत्व को हमारे जीवन में रेखांकित करते हैं। फाल्गुन मास में होली के बाद अक्षय तृतीया और नागपंचमी को छोड़ दें तो सावन में रक्षाबंधन ही त्योहारों के क्रम में महीनों से आई रिक्तता को भरता है। प्रत्येक त्योहार एवं उत्सव का अपना एक दर्शन है। भाई बहन के रिश्तों को समर्पित यह श्रावण पूर्णिमा का पर्व यानी रक्षाबंधन हमारे जीवन में संबंधों की महत्ता को स्थापित करता है।
     आज के दिन चहुं ओर का नजारा देखें तो, स्त्रियां ससुराल से मायके की ओर, लड़कियां हॉस्टलों से अपने-अपने घरों का रुख करती बसों, ट्रेनों में दिख जाएंगी। धवल वस्त्रों में हाथों में सजी मेंहदी और उनमें रक्षा सूत्र(राखी) लिए भाइयों के प्रति उमड़ा प्यार, वातावरण को उत्सव का रूप दे देता है। भाई हैं तो अपने स्नेह को जताने के लिए यथासामर्थ उपहारों की सौगात लेकर जहां भी उनकी बहनें हैं, पहुंचने की भरपूर कोशिश करते हैं।  जो इस पर्व में गंतव्य तक नहीं पहुंच सकते उन्हें डाक द्वारा राखियां मिलने का इंतजार होता है अथवा आस-पड़ोस में मुहंबोली बहनों का इंतजार रहता है, जो उन्हें इस सम्मान से नवाजें। कमोबेश यही स्थिति बहनों की भी होती है। आज के दिन बहनें, भाइयों के हाथों में जो रक्षा सूत्र बांधती हैं वह किसी भी कलाई पर बांधा गया सर्वोत्तम हार होता है।
        रक्षाबंधन को फिल्मी दुनिया ने भी कुछ यूं गुनगुनाया है कि..‘बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है, प्यार के दो तार से संसार बांधा है..’   यह गीत इस त्यौहार का मानो आॅफीशियल गाना बन गया है। इस दिन हर सुबह रेडियो या टीवी पर बजता यह गीत इस त्यौहार में चार चांद लगा देता है। ये माना कि गाना बहुत पुराना नहीं है, पर भाई की कलाई पर राखी बांधने का सिलसिला बेहद प्राचीन है। सिन्धु सभ्यता में आर्यों के बीच इस त्यौहार के चलन में होने के प्रमाण हैं। यों तो इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं, जो इसके प्रतीक रूप में अस्तित्व में होने के गवाह है। यथा-जब कृष्ण ने  शिशुपाल का वध किया था, तब युद्ध के दौरान कृष्ण के बाएं हाथ की उंगली से रक्त को बहते देखकर द्रोपदी ने अपनी साड़ी का टुकड़ा चीरकर कृष्ण की उंगुली में बांधा था। तभी से कृष्ण ने द्रोपदी को अपनी बहन स्वीकार कर लिया था। और हस्तिनापुर में द्रोपदी के चीरहरण में चीर (वस्त्र) देकर उसकी अस्मिता रक्षा की थी। आधुनिक इतिहास में चित्तौड़ की विधवा रानी कर्णावती ने गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह से अपनी प्रजा की सुरक्षा के लिए हुमायंू को राखी भेजी थी, तब हुमायूं उनकी रक्षा की और उन्हें बहन मान लिया था।
          स्त्री पुरुष संबंधों में मां-बेटे के रिश्ते के बाद भाई-बहन का संबंध ही ऐसा है, जो नैसर्गिग रूप से अभिन्न,अमिट और अतुलनीय है। इसकी एक वजह उनका एक ही गर्भ से उत्पन्न होना है। वृक्ष की शाखाएं कितनी भी फैल जाएं पर जड़ें उनके अस्तित्व तक एक ही बनी रहती हैं और उनमें समान गुण-धर्म सदैव बने रहते हैं।  कई बार तो दोनो(लड़का-लड़की) की शक्ल देखकर ही अनुमान लगा पाना सहज होता है कि ये परस्पर भाई-बहन हैं। रक्षाबंधन का पर्व एक ही आंगन में पले-बढ़े, खेले-कूदे, लड़े-झगड़े, भाई-बहन के रिश्ते की प्रगाढ़ता को दर्शाता है । 
       भारतीय समाज की संरचना व इसके रीति रिवाज ही ऐसे हैं जहां रिश्तों का महत्व दुनिया के अन्य समाजों से बेहतर रहा है। भारतीय खासकर हिन्दू संस्कृति में स्त्रियां, पुरुष की आयु और सुरक्षा की कामना करती आई हैं। जब वह क्वांरी रहती है तो वह भाई के लिए यही भावना रक्षा सूत्र के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, तो विवाहोपरांत करवा चौथ और तीज के कठिन व्रत के जरिए अपने पति के लिए। लेकिन भाई को रक्षा सूत्र बांधने का सिलसिला जीवंत बना रहता है।
          रक्षा बंधन का मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है, जो भाइयों को उनकी बहनों के प्रति जिम्मेदारी को व्यक्त करता है। यह जिम्मेदारी सिर्फ बहनों की रक्षा करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि शादी के बाद भी यही क्रम जारी रहता है। इसके अलावा भी कई अवसरों पर भाई अपनी बहन के प्रति अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करता है। रक्षा बंधन पर जब बच्चियों ने पूर्व राष्टÑपति ए पी जे अब्दुल कलाम की कलाई पर रेशम की डोर बांधी थी तो उनके कवि हृदय में भाव जाग उठे और उन्होंने कहा -
                                    बहनों का प्यार पूर्ण चन्द्रमा के चमकने जैसे है,
                                      भाइयों का प्यार उदय होते सूर्य के प्रकाश जैसा है।
                                       हमारे जीवन और हमारे   घरों को ये रोशन करते हैं,
                                         विचारों में सज्जनता के साथ आप दीर्घायु हों!

इस उत्सव को सदियों से हम समाज परिवार के बीच मनाते आ रहे  हैं। मगर अब प्राय: हमारे जीवन से प्यार, संवेदनाएं, भावनाएं नदारत हैं। त्यौहारों को हम बस एक कोरम पूरा करने के लिए अपनाते हैं। इसकी मर्यादा को घर की डेहरी के बाहर कदम रखते ही बिसरा देते हैं। गुवहाटी जैसी घटनाएं दर्शाती हैं कि समाज का नैतिक पतन किस हद तक हो चुका है। जिस लड़की के साथ के अनैतिक कृत्य हुआ, वह किसी भाई की बहन होगी और जिन्होंने दुष्कर्म किया वे भी किसी बहन के भाई होंगें।  किसी भी समाज की संरचना मूल्यों के चौपाए पर टिकी होती है। जब यही खोखले हो जाएंगे, तब जिस संरचना में हमारा जीवन पल्लवित, विकसित  हो रहा है, वही ध्वस्त-धराशायी हो जाएगा। रक्षाबंधन जैसे नैतिक त्यौहार हमें जताते हैं कि हम न सिर्फ घर में मौजूद बहन के प्रति संवेदनशील बने बल्कि समाज में अपनी इसी सोच के साथ आगे बढ़ें कि सारा विश्व हमारा एक परिवार है। 1896 में  विवेकानंद ने जब न्यूयार्क में धर्म संसद को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘लेडीज एडं जेन्टिलमैन’ की जगह सभागाार में मौजूद जनसमुदाय को ‘सिस्टर एडं ब्रदर्स’(बहनों और भाइयो)कहकर संबोधित किया तब दुनिया में भारत की संस्कृति और संरचना को नयी पहचान मिली थी।
        तो इस पवित्र उत्सव रक्षाबंधन का औचित्य तभी जब इसको मनाते वक्त भाई बहनों को वचन दें कि वे सुरक्षा के दायित्व को सिर्फ अपनी जैविक बहनों तक नहीं बल्कि इससे इतर भी निर्वहन करेगें। ऐसा ही संकल्प बहनें भी ग्रहण करें तो समाज में दिनोंदिन आ रही विकृति का एक सीमा तक उन्मूलन हो सकेगा। वर्ना त्यौहारों जिस श्रृंखला को हम वर्ष भर मनाते हैं वे सब के सब हमारी हिप्पोक्रेसी के प्रतीक बन कर रह जाएंगे। नैतिकता से लबरेज इस पर्व की आप सभी भाई-बहनों को शुभकामनाएं।

श्रीश पांडेय

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