प्रकृति के परिवर्तन हमें बताते हैं कि कैसे वह वक्त और वातावरण के मुताबिक अपने विभिन्न रूपों में उपस्थित होकर हमारे जीवन में विविध रंग भरकर, हमारा लगाव और जिजीविषा, जिन्दगी के प्रति उत्पन्न करती है। प्रकृति के सदृश्य हमारे जीवन में भी समय के साथ निरंतर बदलाव- उम्र, समझ और संबंधों के स्तर पर होते रहते हैं। लेकिन प्रकृति और मानव के परिवर्तन में जो गाढ़ा अंतर है वह यह कि प्रकृति अपने मिजाज को हर वर्ष दोहराती है, तो वहीं मनुष्य के जीवन में उम्र के स्तर पर आये परिवर्तनों की पुनरावृत्ति नहीं होती। अब बारिश को ही ले लें तो, एक बार फिर हमें भिगोने को आतुर है। भीषण गर्मी से नीरस हो गए जीवन में वर्षा की फुहारें रस भरने को उमड़ रही हैं। बारिश जहां किसानों को कृषि कार्यों में उलझा देती है, तो प्रशासन, कर्मचारियों को उसके प्रबंधन में, तो पत्रकारों की जमात मानसून के अनुमानों की खबरों पर कलम घिसती नजर आती है। लेकिन इस बारिश का असली आनंद हमारा बचपन ही लूटता आया है, जो बार-बार नहीं आता।
‘बचपन’ शब्द ही विशिष्ट है मानव विकास में यह उम्र के विभिन्न चरणों के लिए प्रयुक्त हो सकता है। सरल शब्दों में बचपन को जन्म से आरंभ हुआ माना जाता है। अवधारणा के रूप में कुछ लोग बचपन को खेल और मासूमियत से जोड़ कर देखते हैं, जो किशोरावस्था में समाप्त होता है। दरअसल, शैशवावस्था के बाद का जीवन ही बचपन है और बच्चे के लड़खड़ाते हुए चलने के साथ शुरू होता है, जब बच्चा बोलना और स्वतंत्र रूप से कदम बढ़ाने लगता है। प्रारंभिक बचपन सात से आठ साल की उम्र तक चलता है। राष्टÑीय संगठन के अनुसार, प्रारंभिक बचपन की अवधि जन्म से आठ की उम्र तक होती है। बहरहाल, बचपन की सैद्धांतिक परिभाषाओं में इसकी पहचान इसे सीमित करती है। कई बार हम बड़े होकर भी अपने बचपन को जीते रहते हैं और कह उठते हैं कि क्या दिन थे वोभी आह....!
‘बचपन’ जीवन के व्यवस्थित नियमों से परे होता है। चिन्तामुक्त होकर खेल-कूद, मौज-मस्ती, में निमग्न रहना ही उसके अनिवार्य लक्षण हैं। उम्र का यही पड़ाव है जो मानव जीवन की सभी अवस्थाओं में सबसे नायाब है, अनमोल है, अद्भुत है। बपचन को याद करते समय सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘बचपन’ शीर्षक से लिखी कविता की चंद पंक्तियां होठों पर तैर जाती है जिसके कुछ अंश यूं हैं कि .....
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया तू जीवन की सब से मस्त खुशी मेरी।।
चिन्ता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छन्द।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनन्द?
ऊंच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहां झोपड़ी और चीथड़ों में रानी।
रोना और मचल जाना भी क्या आनन्द दिखाते थे
बड़े-बड़े मोती-से आंसू जयमाला पहनाते थे।।
यह तथ्य निर्विविाद रूप से सर्वमान्य है कि बचपन चाहे किसी भी सामाजिक स्तर पर हो उसकी बेफिक्री ही उसे प्रकृति के करीब ला खड़ा कर देती है। बच्चों को बारिश के पानी में भीगते, बहते पानी में नाव चलाते और उसके प्रवाह के पीछे किलकारी मारते हुए भागते देखकर हर शख्स को उसका बचपन आंखों में कौंध जाता है। बच्चे तब यह नहीं जानते कि वे बड़े होकर अपनी इस अल्हड़ता को, जगजीत की गाई नज्म... ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो, वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी...को किसी रिकार्ड में सुन कर इन सुनहरे पलों को याद करेंगे। बच्चों को बारिश में भीगने के बाद बीमार पड़ने जैसे ख्याल उनके पास फटकते ही नहीं....बड़े बुजुर्ग भले ही बारिश में न जाने और बीमार पड़ जाने के डर से बच्चों को चेताते व खुद चिंतित रहते हों, पर बचपन इन सुझावों को एक तरफा खारिज कर देता है। बच्चों का बरसते पानी में बेपरवाह मौज-मस्ती से राकने के लिए बड़ों के द्वारा लगाये गए बंधनों को वे कठोरतम महसूस करते हैं और हम बड़े भी बच्चों के साथ सहज नहीं रह पाते... कई तरह के एटिकेटस के नाम पर हम उन्हें पल-पल सिखाते हुए टोकते हैं कि यह नहीं करना ,वह नहीं करना...इस सिलसिले में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की प्रध्यापिका ममता धवन कहतीं हैं कि जब कभी मेरा बेटा खेलते हुए कोई वस्तु बिखरा देता है तो मैं उसे डांटने या मना करने के बजाए दूसरी और वस्तुएं फैलाने के लिए दे देती हंू और उसके द्वारा इस बचपन में लिए जा आनंद से अभिभूत होती हूं। इसलिए बचपन को आवश्यकता से अधिक नहीं छेड़ा जाना चाहिए, क्योंकि हर बच्चा अपनी नैसर्गिक गतिविधियों से बहुत कुछ सीखता है। बच्चों को उनका बचपन जीने के हक को,जीवन की औपचारिकताओं से प्रथक रखें ताकि वह इस अनमोल जीवन को भरपूर जी सके। ‘बचपन’ के बरक्स एक शेर रोशन हो आता है कि...
उडने दो परिदों को अभी शोख हवाओं में,
फिर लौट के बचपन के जमाने नहीं आते।
श्रीश पांडेय
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