तीन दशक पहले बात बचपन की है जब मैं तीसरी या चौथी दर्जे में पढ़ता था। उनदिनों कुछ ऐसा वातावरण था, जब स्कूल जाने का मतलब पढ़ाई से कहीं महत्वपूर्ण खेलकूद और मौज मस्ती था। न तो मासिक टेस्ट थे, न ही रोज का अनिवार्य होमवर्क। टिफिन में खाने के आइटम लगभग हफ्ते भर एक से- रोटी या पराठा के साथ सब्जी या कभी मां को समय न रहा तो अचार से दो चार होना पड़ता था। लेकिन अब बच्चों के टिफिन का जायका मैगी, नूडल्स, सैंडविच, पास्ता जैसे स्वादों में रूपांतरित हो गया है। ठंड हो या गर्मी सभी में यही अटरम-शटरम बच्चों की पसंद बन चुका है।
बहरहाल, खाने के साथ-साथ पढ़ाई-लिखाई की पद्धति में जो बड़ी तब्दीली आयी है वह यह कि अब मां-बाप बच्चे के स्कूल जाते ही तय करने लगते हैं कि बच्चे को क्या बनना चाहिए। ‘दिल चाहता है’ फिल्म को सराहने वाले,उसके दर्शन पर ताली पीटने अभिभावक भी अपने बच्चे को उसका नहीं बल्कि अपना ख्वाब पूरा करने का साधन मान बैठते हैं। दरअसल, बच्चा क्या बनना चाहता है ये बात गौण हो चली है, यहां तक कि उसके भविष्य की राहअभिभावकों द्वारा गर्भ से ही गढ़ी जाने लगी है। इसी का नतीजा है कि बच्चों पर नर्सरी कक्षा से ही स्कूल में अव्वल आने का दबाब झलकने लगता है। उधर किताबों के बोझ को देख कर मानना पड़ता है कि बच्चा भले ‘केजी वन’ में पढ़ता हो पर उसका बस्ता ‘टू केजी, थ्री केजी...फाइव केजी’ का होता है। आज कच्ची उम्र में किताबी अध्ययन करने और उसमें पारंगत होने की ललक भले ही शुरुआती दिनों में मां-बाप की रहती हो, पर जल्दी ही यही आदत बच्चों में पड़ जाती है। पढ़ाई का यह दबाव साल-दर-साल उच्च कक्षाओं में प्रवेश करने के साथ अनुपातिक रूप से बढ़ता रहता है। ऐसे में बचपन खासकर शहरी इलाकों में किताबों के साथ किसी फिल्मी दृश्य की तरह पल झपकते ही कब जवान हो जाता है, समझ मुश्किल है।
मैं जब अपने बचपन को सोचता हूं इतने वर्षों में आये फर्क को साफ महसूस करता हंू। क्योंकि हमारी जितनी जानकारी कक्षा 5 में होती थी, उतना आज के बच्चे कक्षा एक में जानते हैं। यानी आज के बच्चों का ज्ञान उम्र से पांच गुना आगे है। जहां तक शिक्षक-शिक्षार्थी के परस्पर की संबंध की बात है, तो वह बेहद मर्यादित और अनुशासित था। मैं पढ़ने में वैसे भी लापरवाह रहा हंू, इसलिये अपने अध्यापकों से प्राय: डांट ही नहीं, मार भी पड़ जाना अचरज की बात नहीं थी, लेकिन उस मार या डांट में भी एक अपनापन, प्यार और अधिकार था। तभी तो जब कभी घर में, स्कूल से शिकायत आ जाए, तो समझ लीजिये बजाय शिक्षकों से जबाव तलब के, यही मार और डांट बोनस की तरह दोगुनी हो जाती थी। बुजुर्गवार बताते हैं कि 50-60 के दशक में शिक्षकों का विद्यालय में अनुशासन इतना सख्त था कि किसी छात्र के विद्यालय मेें अनुपस्थित रहने पर उसको ढूंढने के लिए चार-पांच छात्र इसलिए भेजे जाते थे कि यदि गैर-हाजिरी का कोई उचित कारण न हो तो उसे पकड़वाकर विद्यालय बुला लिया जाता था। तब शिक्षक का समूचे विद्यालय के बच्चों पर पिता के समान अधिकार होता था। पर आज प्राय: शिक्षकों के सख्त अनुशासन को असंवेदनशील अमानवीय मानकर उनसे ही सवाल दाग दिए जाते हैं। इसीलिए भले उन दिनों की स्मृति आज की पीढ़ी के लिए स्वप्न और अविश्वसनीय हो, पर सब कुछ ऐसा चलता था मानो हमारा जीवन प्रकृति के कितने करीब है। कल का वही बालक यानी मैं आज पिता हूं और जब अपने बच्चे को स्कूल जाते और उसके वातावरण को देखता हूं, तो 30-35 सालों में आये फर्क को बेहतर समझ पा रहा हंू, कि क्यों हमारा जीवन कृत्रिमता की ओर निरंतर उन्मुख है। बच्चे बचपन से ही मशीनीकृत जिंदगी के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। रोज स्कूल की भागमभाग, वहां मिले गृहकार्य (होमवर्क) को पूरा करना, फिर एक-दो ट्यूशन और बचा हुआ समय टेलीवीजन पर कार्टून देखना ही उनकी दिनचर्या बन चुकी है। खुली हवा में सांस, मित्रों के साथ गप्पें अब जीवन से नदारत है। खेल के मैदान का मुंह तो महानगरों के बच्चे शायद ही कभी देख पाते हों। महानगर ही क्यों, अब तो यही हाल कमोबेश शहरों और कस्बों का होता जा रहा है। दरअसल, पढ़ाई के बढ़ते उत्तरोत्तर बोझ ने बच्चों को किताबी कीड़ा बना कर रख दिया है। यह बात दीगर है कि इसकी वजह से वे भले इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक, प्रशासनिक अधिकारी बन रहे हों, पर इंसान बनने के मूलभूत गुणों से वंचित होते जा रहे हैं। क्योंकि इंसानी संगत का विकल्प टीवी, स्वचालित खिलौने और केवल किताबी ज्ञान ही नहीं हो सकता। छोटे परिवार, स्वार्थमय जीवन, अपने पराये का भेद आज की पीढ़ी कच्ची उम्र में ही सीख जाती है।
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ओर मानव सभ्यता विकास और उन्नति के शीर्ष पर अपने कदम रख रही है, तो दूसरी ओर हम और हमारी पीढ़ी संवेदनाशून्य, भावशून्य होकर मानवीय मूल्यों व उसकी गरिमा को रसातल में ले जाने पर उतारू हैं। इसकी वजह बहुत हद तक जीवन में विद्यमान प्रतियोगिता और कृत्रिमता है। साधनों/भौतिकता का विकास, साध्य(मानव) के लिए है, पर यह जानकर पीड़ा होती है कि साध्य ही साधनों के वशीभूत होता जा रहा है। विकास की जो गंगा बहाई जा रही है वह नि:संदेह आने वाले वक्त में अर्थर्हीन होकर रह जाएगी। क्योंकि संवेदनहीन होता आज का बचपन ही तो कल का भविष्य है।
ऐसे में बचपन के बरक्स अनायास ही जगजीत की गुनगुनाई गजल बरबस जुबां पर आ जाती है कि...ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन,वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी... इसका स्मरण और इसके बोल का आज भी दिल को नम कर जाना दर्शाता है कि बचपन से अनमोल कुछ भी नहीं। पर इस बहुमूल्य बचपन को पढ़ाई का बोझ और आज का मशीनीकृत शिक्षा पद्धति लीलती जा रही है। स्कूलों ने भी अपने परिणामों को बेहतर दिखाने के फिराक में बच्चों पर इकाई टेस्ट, मासिक टेस्ट, त्रैमासिक टेस्ट, छमाही टेस्ट और फिर वार्षिक परीक्षा के पूर्व एक और अभ्यास टेस्ट का भार डाल रखा है। तब कहीं जाकर वार्षिक परीक्षा का आयोजन होता है। यानी बचपन से शुरू हुआ पढ़ाई का ये सिलसिला अच्छी नौकरी/ रोजगार हासिल कर लेने तक अनवरत रहता है। सवाल बड़ा और बारीक है कि क्या हम इस दुनिया में इसीलिए जन्मते हैं कि एक मशीन की तरह रोटी के लिए और बेहतर रोटी के लिए संघर्ष करते अपना जीवन गुजार दें? क्या हम सिर्फ भोग के लिए? क्या हम अपनी पीढ़ी को सुखमय जीवन की शिक्षा हर कीमत पर देना चाहे हैं। हो न हो आज जितनी असंवेदनशीलता हमारे चंहु ओर पसर रही है उसके नेपथ्य में बचपन का असमय समाप्त होना, सामाजिक संरचना का शिथिल होना है। बचपन है तो भविष्य है... बाल मन की इस बोझिल पढाई उससे मुक्ति का प्रतिबिम्ब शकील जमाली के इस में शेर रोशन हो आता है कि-
सफर से लौट जाना चाहता है, परिंदा आशियाना चाहता है,
कोई स्कूल की घंटी बजा दे, ये बच्चा मुस्कराना चाहता है
श्रीश पांडेय
बहरहाल, खाने के साथ-साथ पढ़ाई-लिखाई की पद्धति में जो बड़ी तब्दीली आयी है वह यह कि अब मां-बाप बच्चे के स्कूल जाते ही तय करने लगते हैं कि बच्चे को क्या बनना चाहिए। ‘दिल चाहता है’ फिल्म को सराहने वाले,उसके दर्शन पर ताली पीटने अभिभावक भी अपने बच्चे को उसका नहीं बल्कि अपना ख्वाब पूरा करने का साधन मान बैठते हैं। दरअसल, बच्चा क्या बनना चाहता है ये बात गौण हो चली है, यहां तक कि उसके भविष्य की राहअभिभावकों द्वारा गर्भ से ही गढ़ी जाने लगी है। इसी का नतीजा है कि बच्चों पर नर्सरी कक्षा से ही स्कूल में अव्वल आने का दबाब झलकने लगता है। उधर किताबों के बोझ को देख कर मानना पड़ता है कि बच्चा भले ‘केजी वन’ में पढ़ता हो पर उसका बस्ता ‘टू केजी, थ्री केजी...फाइव केजी’ का होता है। आज कच्ची उम्र में किताबी अध्ययन करने और उसमें पारंगत होने की ललक भले ही शुरुआती दिनों में मां-बाप की रहती हो, पर जल्दी ही यही आदत बच्चों में पड़ जाती है। पढ़ाई का यह दबाव साल-दर-साल उच्च कक्षाओं में प्रवेश करने के साथ अनुपातिक रूप से बढ़ता रहता है। ऐसे में बचपन खासकर शहरी इलाकों में किताबों के साथ किसी फिल्मी दृश्य की तरह पल झपकते ही कब जवान हो जाता है, समझ मुश्किल है।
मैं जब अपने बचपन को सोचता हूं इतने वर्षों में आये फर्क को साफ महसूस करता हंू। क्योंकि हमारी जितनी जानकारी कक्षा 5 में होती थी, उतना आज के बच्चे कक्षा एक में जानते हैं। यानी आज के बच्चों का ज्ञान उम्र से पांच गुना आगे है। जहां तक शिक्षक-शिक्षार्थी के परस्पर की संबंध की बात है, तो वह बेहद मर्यादित और अनुशासित था। मैं पढ़ने में वैसे भी लापरवाह रहा हंू, इसलिये अपने अध्यापकों से प्राय: डांट ही नहीं, मार भी पड़ जाना अचरज की बात नहीं थी, लेकिन उस मार या डांट में भी एक अपनापन, प्यार और अधिकार था। तभी तो जब कभी घर में, स्कूल से शिकायत आ जाए, तो समझ लीजिये बजाय शिक्षकों से जबाव तलब के, यही मार और डांट बोनस की तरह दोगुनी हो जाती थी। बुजुर्गवार बताते हैं कि 50-60 के दशक में शिक्षकों का विद्यालय में अनुशासन इतना सख्त था कि किसी छात्र के विद्यालय मेें अनुपस्थित रहने पर उसको ढूंढने के लिए चार-पांच छात्र इसलिए भेजे जाते थे कि यदि गैर-हाजिरी का कोई उचित कारण न हो तो उसे पकड़वाकर विद्यालय बुला लिया जाता था। तब शिक्षक का समूचे विद्यालय के बच्चों पर पिता के समान अधिकार होता था। पर आज प्राय: शिक्षकों के सख्त अनुशासन को असंवेदनशील अमानवीय मानकर उनसे ही सवाल दाग दिए जाते हैं। इसीलिए भले उन दिनों की स्मृति आज की पीढ़ी के लिए स्वप्न और अविश्वसनीय हो, पर सब कुछ ऐसा चलता था मानो हमारा जीवन प्रकृति के कितने करीब है। कल का वही बालक यानी मैं आज पिता हूं और जब अपने बच्चे को स्कूल जाते और उसके वातावरण को देखता हूं, तो 30-35 सालों में आये फर्क को बेहतर समझ पा रहा हंू, कि क्यों हमारा जीवन कृत्रिमता की ओर निरंतर उन्मुख है। बच्चे बचपन से ही मशीनीकृत जिंदगी के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। रोज स्कूल की भागमभाग, वहां मिले गृहकार्य (होमवर्क) को पूरा करना, फिर एक-दो ट्यूशन और बचा हुआ समय टेलीवीजन पर कार्टून देखना ही उनकी दिनचर्या बन चुकी है। खुली हवा में सांस, मित्रों के साथ गप्पें अब जीवन से नदारत है। खेल के मैदान का मुंह तो महानगरों के बच्चे शायद ही कभी देख पाते हों। महानगर ही क्यों, अब तो यही हाल कमोबेश शहरों और कस्बों का होता जा रहा है। दरअसल, पढ़ाई के बढ़ते उत्तरोत्तर बोझ ने बच्चों को किताबी कीड़ा बना कर रख दिया है। यह बात दीगर है कि इसकी वजह से वे भले इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक, प्रशासनिक अधिकारी बन रहे हों, पर इंसान बनने के मूलभूत गुणों से वंचित होते जा रहे हैं। क्योंकि इंसानी संगत का विकल्प टीवी, स्वचालित खिलौने और केवल किताबी ज्ञान ही नहीं हो सकता। छोटे परिवार, स्वार्थमय जीवन, अपने पराये का भेद आज की पीढ़ी कच्ची उम्र में ही सीख जाती है।
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ओर मानव सभ्यता विकास और उन्नति के शीर्ष पर अपने कदम रख रही है, तो दूसरी ओर हम और हमारी पीढ़ी संवेदनाशून्य, भावशून्य होकर मानवीय मूल्यों व उसकी गरिमा को रसातल में ले जाने पर उतारू हैं। इसकी वजह बहुत हद तक जीवन में विद्यमान प्रतियोगिता और कृत्रिमता है। साधनों/भौतिकता का विकास, साध्य(मानव) के लिए है, पर यह जानकर पीड़ा होती है कि साध्य ही साधनों के वशीभूत होता जा रहा है। विकास की जो गंगा बहाई जा रही है वह नि:संदेह आने वाले वक्त में अर्थर्हीन होकर रह जाएगी। क्योंकि संवेदनहीन होता आज का बचपन ही तो कल का भविष्य है।
ऐसे में बचपन के बरक्स अनायास ही जगजीत की गुनगुनाई गजल बरबस जुबां पर आ जाती है कि...ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन,वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी... इसका स्मरण और इसके बोल का आज भी दिल को नम कर जाना दर्शाता है कि बचपन से अनमोल कुछ भी नहीं। पर इस बहुमूल्य बचपन को पढ़ाई का बोझ और आज का मशीनीकृत शिक्षा पद्धति लीलती जा रही है। स्कूलों ने भी अपने परिणामों को बेहतर दिखाने के फिराक में बच्चों पर इकाई टेस्ट, मासिक टेस्ट, त्रैमासिक टेस्ट, छमाही टेस्ट और फिर वार्षिक परीक्षा के पूर्व एक और अभ्यास टेस्ट का भार डाल रखा है। तब कहीं जाकर वार्षिक परीक्षा का आयोजन होता है। यानी बचपन से शुरू हुआ पढ़ाई का ये सिलसिला अच्छी नौकरी/ रोजगार हासिल कर लेने तक अनवरत रहता है। सवाल बड़ा और बारीक है कि क्या हम इस दुनिया में इसीलिए जन्मते हैं कि एक मशीन की तरह रोटी के लिए और बेहतर रोटी के लिए संघर्ष करते अपना जीवन गुजार दें? क्या हम सिर्फ भोग के लिए? क्या हम अपनी पीढ़ी को सुखमय जीवन की शिक्षा हर कीमत पर देना चाहे हैं। हो न हो आज जितनी असंवेदनशीलता हमारे चंहु ओर पसर रही है उसके नेपथ्य में बचपन का असमय समाप्त होना, सामाजिक संरचना का शिथिल होना है। बचपन है तो भविष्य है... बाल मन की इस बोझिल पढाई उससे मुक्ति का प्रतिबिम्ब शकील जमाली के इस में शेर रोशन हो आता है कि-
सफर से लौट जाना चाहता है, परिंदा आशियाना चाहता है,
कोई स्कूल की घंटी बजा दे, ये बच्चा मुस्कराना चाहता है
श्रीश पांडेय
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