एक लघु कथा है कि
पांच डाकू थे उनमें से चार गांवों में जाकर डाका डालते और पांचवां उनकी
रखवाली करता कि कहीं उन पर कोई आंच तो नहीं आ रही....एक बार पुलिस ने
पांचों को गिरफ्तार कर लिया....उन्हें अदालत में पेश किया....चार को अदालत
ने सजा दे दी....पांचवां बोला मैंने आज तक किसी भी डाके में भाग नहीं
लिया....किसी ग्रामीण को नहीं लूटा.... यदि कोई ग्रामीण कहे कि मैंने
उन्हें लूटा है तो मैं संयास ले लूंगा... ! तो क्या उसको बरी कर दिया जाये ?
इनदिनों यूपीए सरकार के मुखिया की कुछ ऐसी ही दशा दुर्दशा दिखती है। बड़े-बड़े नामों से सुसज्जित सरकार के धुरंधर अर्थशास्त्री-प्रशासक महंगाई, काला धन, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, सुधारों को लागू करने में लाचार और बात-बात पर सिर धुनते, बिखरते किसी तरह ‘फेवीकोल का जोड़ है टूटेगा नहीं’ के विज्ञापन की तर्ज पर पिछले 8 साल से दिल्ली के सिंहासन से कुछ इस तरह चिपके हैं कि उनके जाते ही देश गढ्ढेÞ में गिर पड़ेगा। सरकार कोमा में जा चुकी है जिसका नमूना है कभी प्रधानमंत्री कहते हैं कि आने वाले साल और कठिन होंगे, हमें (आम जनता) को इसके लिए तैयार रहना होगा। उसके ग्रामीण विकास मंत्री जयरामरमेश ने यूपीए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना मनरेगा के औचित्य और भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया है। सरकार, सरकार नहीं मजाक बन कर रह गयी है।
इनदिनों देश में अजीब तरह की आपाधपी मची है। जिसे देखकर किसी भी राष्टÑभक्त का राष्ट्र की दिशा दशा देखकर चिंतित होना लाजिमी है। विगत आठ वर्षों से ऐसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है। जिनके चरित्र,नैतिकता, ईमानदारी का न सिर्फ सरकार के कारिंदों द्वारा गुणगान किया जाता है, बल्कि समूचा विपक्ष भी गाहे-बगाहे उनके इस रूप की आराधना करता रहा है। लेकिन जिसके कार्यकाल में लाखों करोड़ों के घोटाले उजागर हुए हों और जो भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने में हर तरह से धृतराष्टÑ की तरह अक्षम रहा हो, जिसके कार्यकाल में नामचीन अर्थशास्त्री होने के बावजूद सर्वाधिक महंगाई बढ़ी हो, जिनके चहेते मोंटेक सिंह ने जिस बेशर्मी से गरीबी का मजाक उड़ाया हो ऐसी सरकार से ना उम्मीदी होना स्वाभविक है। कुलमिलाकर समूची अर्थव्यवस्था की जैसी दुर्दशा इस सरकार में हुई है वैसी स्वतंत्र भारत के इतिहास में देखने में नहीं आती।
एक-गैर राजनीति और संवेदना शून्य प्रधानमंत्री जिसे देश की आवाम की नब्ज टटोलना तो दूर उल्टे जीडीपी, आर्थिक विकास दर, मौद्रिक नीति जैसी अर्थव्यवस्था की टर्मिनोलॉजी के नाम पर बार-बार यह बयान करना कि महंगाई के वैश्विक हालातों को देखते हुए यह और बढ़ेगी, भारत को मंदी का दौर और झेलना होगा...जैसे उवाचों ने समाधान कम समस्या ज्यादा पैदा की है। इतनी ही तत्परता और संजीदगी यदि सरकार ने भ्रष्टाचार और अनुमानित 400 लाख करोड़ के काले धन की वापसी पर दिखाई होती तो देश के हालात इतने पतले न होते। कांग्रेस शासन काल में घोटालों का सिलसिला आजादी के बाद से ही नाले के रूप में चल पड़ा था जिसने आज एक वेगवती नदी का रूप धर लिया है। एक मोटी नजर इस फेरहिस्त पर मारें तो-1948 जीप घोटाला, हरिदास मूंदड़ा घोटाला 1957 से लेकर, पामोलिन तेल घोटाला, आज के कॉमनवेल्थ, आदर्श हाउसिंग सोसायटी, टूजी स्पेक्ट्रम और अब कोयला आवंटन के मामले में संदेह उपजने तक सैकड़ों मामले हैं जिन पार्टी दागदार हुई है।
घपलों-घोटलों की लम्बी फेरहिस्त दर्शाती है कि कभी पार्टी ने इस पर अंकुश रखने की कोई ठोस योजना नहीं बनाई। यह हकीकत है कि गठबंधन सरकारों में यह प्रवृत्ति तीव्र गति से बढ़ी है,चाहे कांगे्रस के नेतृत्व में यूपीए हो या भाजपा के नेतृत्व में राजग। लेकिन यूपीए के पिछले दो कार्यकाल में जिस कदर सरकारी खजाने की लूट मची है उसको देखकर कहना पड़ता है किअंग्रेजों द्वारा लूटे गए इंडिया की मिसालें आज की तुलना में फीकी हैं।
अब जबकि अन्ना हजारे समूह ने प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर सवाल खड़े किए हैं तो स्वयं मनमोहन सिंह और उनके कु नबे के मंत्री इसे बेबुनिाद बता कर पल्ला झाड़ लेने और अन्ना को राष्टÑ विरोधी के हाथ में खेलने जैसे डायलॉग जड़कर सर छिपाने की कवायद में जुटे हैं। आरोपों के खिलाफ शुतुर्मुर्गी मुद्रा अख्तियार करने बजाय सरकार को आंख खोलकर चीजों देखना और उनके जबाव देने चाहिए। आखिर यूपीए को जनता ने चुना है और गठबंधन की मजबूरी के नाम पर इससे आंख नहीं मूंदी जा सकती। इसी बचाव की नीति का नतीजा है कि आज वह चौतरफा कटघरे में खड़ी नजर आती है। फेसबुक और टिवटर की सोशल बेबसाइटों में कांग्रेस और यूपीए के विरुद्ध जनमानस के गुस्से को साफ पढ़ा जा सकता है।
आज स्वयं सरकार की कारिस्तानियों से ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की मुहिम ‘इंडिया अगेंस्ट कांग्रेस’ बनती जा रही है या कहा जाय कि बन चुकी है तो ज्यादा बेहतर होगा। दरअसल, अन्ना समूह द्वारा ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मिशन की शुरूआत में किसी भी दल, कर्मचारियों अथवा प्राइवेट कंपनियों द्वारा कैसा भी करप्शन हो के विरुद्ध था। जिसके लिए लोकपाल और अन्य व्यवस्थागत सुधारों की मांगों को एकतरफा अनसुना कर देने के बाद आहिस्ता-आहिस्ता यह मुहिम कांग्रेस विरुद्ध ज्यादा बनती गई। यद्यपि अन्य दल भी इसी दलदल में धंसे हैं। हालिया भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्षमण को हुई सजा और येदियुरप्पा की बेदखली इसी की बानगी है।
अब जबकि चुनाव में दो वर्ष शेष हैं, सरकार के पास पूरा मौका है कि वह अपना दामन धो-पोंछ सके पर इसके लिए कालेधन, भ्रष्टाचार को लेकर वह ऐसा कुछ करती दिखे ताकि यह समझा जा सके कि वह तंद्रा से जाग चुकी है। भाजपा जिसे कांग्रेस का विकल्प माना जा रहा है जिसके लिए पार्टी में अगला प्रधानमंत्री कौन होगा के निमित्त आभाषी युद्ध शुरु हो गया है। ऐसे में कांग्रेस के पास अवसर है कि वह स्थिरता के साथ महंगाई, भ्रष्टाचार, कालेधन पर अपना रुख सख्त करके दागदार दामन और शर्मसार छवि को स्वच्छ व सम्मानजनक बना सकती है। अन्यथा अपने विरुद्ध जनता के गुस्से को वह बिहार, यूपी के चुनावों में देख ही चुकी है।
- श्रीश पाण्डेय
इनदिनों यूपीए सरकार के मुखिया की कुछ ऐसी ही दशा दुर्दशा दिखती है। बड़े-बड़े नामों से सुसज्जित सरकार के धुरंधर अर्थशास्त्री-प्रशासक महंगाई, काला धन, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, सुधारों को लागू करने में लाचार और बात-बात पर सिर धुनते, बिखरते किसी तरह ‘फेवीकोल का जोड़ है टूटेगा नहीं’ के विज्ञापन की तर्ज पर पिछले 8 साल से दिल्ली के सिंहासन से कुछ इस तरह चिपके हैं कि उनके जाते ही देश गढ्ढेÞ में गिर पड़ेगा। सरकार कोमा में जा चुकी है जिसका नमूना है कभी प्रधानमंत्री कहते हैं कि आने वाले साल और कठिन होंगे, हमें (आम जनता) को इसके लिए तैयार रहना होगा। उसके ग्रामीण विकास मंत्री जयरामरमेश ने यूपीए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना मनरेगा के औचित्य और भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया है। सरकार, सरकार नहीं मजाक बन कर रह गयी है।
इनदिनों देश में अजीब तरह की आपाधपी मची है। जिसे देखकर किसी भी राष्टÑभक्त का राष्ट्र की दिशा दशा देखकर चिंतित होना लाजिमी है। विगत आठ वर्षों से ऐसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है। जिनके चरित्र,नैतिकता, ईमानदारी का न सिर्फ सरकार के कारिंदों द्वारा गुणगान किया जाता है, बल्कि समूचा विपक्ष भी गाहे-बगाहे उनके इस रूप की आराधना करता रहा है। लेकिन जिसके कार्यकाल में लाखों करोड़ों के घोटाले उजागर हुए हों और जो भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने में हर तरह से धृतराष्टÑ की तरह अक्षम रहा हो, जिसके कार्यकाल में नामचीन अर्थशास्त्री होने के बावजूद सर्वाधिक महंगाई बढ़ी हो, जिनके चहेते मोंटेक सिंह ने जिस बेशर्मी से गरीबी का मजाक उड़ाया हो ऐसी सरकार से ना उम्मीदी होना स्वाभविक है। कुलमिलाकर समूची अर्थव्यवस्था की जैसी दुर्दशा इस सरकार में हुई है वैसी स्वतंत्र भारत के इतिहास में देखने में नहीं आती।
एक-गैर राजनीति और संवेदना शून्य प्रधानमंत्री जिसे देश की आवाम की नब्ज टटोलना तो दूर उल्टे जीडीपी, आर्थिक विकास दर, मौद्रिक नीति जैसी अर्थव्यवस्था की टर्मिनोलॉजी के नाम पर बार-बार यह बयान करना कि महंगाई के वैश्विक हालातों को देखते हुए यह और बढ़ेगी, भारत को मंदी का दौर और झेलना होगा...जैसे उवाचों ने समाधान कम समस्या ज्यादा पैदा की है। इतनी ही तत्परता और संजीदगी यदि सरकार ने भ्रष्टाचार और अनुमानित 400 लाख करोड़ के काले धन की वापसी पर दिखाई होती तो देश के हालात इतने पतले न होते। कांग्रेस शासन काल में घोटालों का सिलसिला आजादी के बाद से ही नाले के रूप में चल पड़ा था जिसने आज एक वेगवती नदी का रूप धर लिया है। एक मोटी नजर इस फेरहिस्त पर मारें तो-1948 जीप घोटाला, हरिदास मूंदड़ा घोटाला 1957 से लेकर, पामोलिन तेल घोटाला, आज के कॉमनवेल्थ, आदर्श हाउसिंग सोसायटी, टूजी स्पेक्ट्रम और अब कोयला आवंटन के मामले में संदेह उपजने तक सैकड़ों मामले हैं जिन पार्टी दागदार हुई है।
घपलों-घोटलों की लम्बी फेरहिस्त दर्शाती है कि कभी पार्टी ने इस पर अंकुश रखने की कोई ठोस योजना नहीं बनाई। यह हकीकत है कि गठबंधन सरकारों में यह प्रवृत्ति तीव्र गति से बढ़ी है,चाहे कांगे्रस के नेतृत्व में यूपीए हो या भाजपा के नेतृत्व में राजग। लेकिन यूपीए के पिछले दो कार्यकाल में जिस कदर सरकारी खजाने की लूट मची है उसको देखकर कहना पड़ता है किअंग्रेजों द्वारा लूटे गए इंडिया की मिसालें आज की तुलना में फीकी हैं।
अब जबकि अन्ना हजारे समूह ने प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर सवाल खड़े किए हैं तो स्वयं मनमोहन सिंह और उनके कु नबे के मंत्री इसे बेबुनिाद बता कर पल्ला झाड़ लेने और अन्ना को राष्टÑ विरोधी के हाथ में खेलने जैसे डायलॉग जड़कर सर छिपाने की कवायद में जुटे हैं। आरोपों के खिलाफ शुतुर्मुर्गी मुद्रा अख्तियार करने बजाय सरकार को आंख खोलकर चीजों देखना और उनके जबाव देने चाहिए। आखिर यूपीए को जनता ने चुना है और गठबंधन की मजबूरी के नाम पर इससे आंख नहीं मूंदी जा सकती। इसी बचाव की नीति का नतीजा है कि आज वह चौतरफा कटघरे में खड़ी नजर आती है। फेसबुक और टिवटर की सोशल बेबसाइटों में कांग्रेस और यूपीए के विरुद्ध जनमानस के गुस्से को साफ पढ़ा जा सकता है।
आज स्वयं सरकार की कारिस्तानियों से ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की मुहिम ‘इंडिया अगेंस्ट कांग्रेस’ बनती जा रही है या कहा जाय कि बन चुकी है तो ज्यादा बेहतर होगा। दरअसल, अन्ना समूह द्वारा ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मिशन की शुरूआत में किसी भी दल, कर्मचारियों अथवा प्राइवेट कंपनियों द्वारा कैसा भी करप्शन हो के विरुद्ध था। जिसके लिए लोकपाल और अन्य व्यवस्थागत सुधारों की मांगों को एकतरफा अनसुना कर देने के बाद आहिस्ता-आहिस्ता यह मुहिम कांग्रेस विरुद्ध ज्यादा बनती गई। यद्यपि अन्य दल भी इसी दलदल में धंसे हैं। हालिया भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्षमण को हुई सजा और येदियुरप्पा की बेदखली इसी की बानगी है।
अब जबकि चुनाव में दो वर्ष शेष हैं, सरकार के पास पूरा मौका है कि वह अपना दामन धो-पोंछ सके पर इसके लिए कालेधन, भ्रष्टाचार को लेकर वह ऐसा कुछ करती दिखे ताकि यह समझा जा सके कि वह तंद्रा से जाग चुकी है। भाजपा जिसे कांग्रेस का विकल्प माना जा रहा है जिसके लिए पार्टी में अगला प्रधानमंत्री कौन होगा के निमित्त आभाषी युद्ध शुरु हो गया है। ऐसे में कांग्रेस के पास अवसर है कि वह स्थिरता के साथ महंगाई, भ्रष्टाचार, कालेधन पर अपना रुख सख्त करके दागदार दामन और शर्मसार छवि को स्वच्छ व सम्मानजनक बना सकती है। अन्यथा अपने विरुद्ध जनता के गुस्से को वह बिहार, यूपी के चुनावों में देख ही चुकी है।
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