भारत चमत्कार, आशीर्वाद, कौतूहल से भरे कारनामों की सम्भावनाओं का देश है। यहां धर्म के नाम पर जितने आलौकिक चमत्कार बाबाओं ने दिखाये हैं, उतने विश्व के किसी और मुल्क में मुश्किल हंै। बाबाओं के जादुई करिश्मों के पीछे देवी देवताओं द्वारा वायु मार्ग से गमन और मनचाही वस्तुओं व सफलता को पल झपकते प्रदान कर देने की कल्पना ही इस आकर्षण का आधार है। मनुष्य आरम्भ से साधना-उपासना द्वारा ऐसी अलौकिक शक्तियों को हासिल करने के प्रयास करता आया है, जो उसे आसानी से सफलता के पायदान पर पहुंचा सके। कमोबेश अलौकिक सत्ता के प्रति जनसामान्य में आकर्षण की वजह यही रही है कि हमारे वेद, पुराण और धर्म ग्रन्थ- तंत्र-मंत्र के जादुई चमत्कारों से पटे पड़े हैं। इसीलिए समय-समय पर भारत में अनेक बाबाओं का उद्भव और पराभव भी देखने में आया है। जिनमें से कुछ का प्रभाव उनके जीवन काल में और उसके बाद भी विद्यमान है, तो वहीं कुछ की शक्तियों का भांडाफोड़ चंद वर्षों में होता देखा गया और उनकी कलई खुलते ही उनके चमत्कारों की खुमारी भी जनता में बाढ़ के पानी के तरह उतरती देखी गई।
इनदिनों देश में ऐसे ही एक हैं निर्मल बाबा जो, अपनी कृपा को धन के एवज में बेच रहे हैं। लाखों में शुरू हुआ यह कुटीर उद्योग आज करोड़ों की इन्डस्ट्री बन गया है। बाबा अपने भक्तों पर कृपा कैसे करते हैं? यह तो रहस्यमय है। पर जो भी उपाय वह अपने भक्तों को सुझाते हैं, वह एक बारगी तो हास्यास्पद और मजाकिया लगते हैं, पर यह तो मानना ही पड़ता है कि असर भी हुआ होगा, तभी तो दिनोंदिन जन समुदाय बाबा के दरबार में उमड़ रहा है। बाबा के विरोध और समर्थन में तर्क और बहस ऐसा सिलसिला देश में चल पड़ा है कि बाबा का हर बयान ब्रेकिंग न्यूज बना है।
दरअसल, देश में ऐसे बाबा, महात्माओं की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। जिनके लिए जगह-जगह पंड़ालों में श्रद्धालुओं की भीड़ ताली पीटते नमन करती, दान देती नजर आती है। टीवी चैनलों पर इन बाबाओं का छितिज आकाश गंगा की तरह बढ़ रहा है। ज्योतिषी उपायों, वास्तु के फायदे-नुक्सान का एक ऐसा विज्ञान विकसित हो गया है कि विकास के इनके मापदण्ड, विज्ञान को पीछे छोड़ते दिखते हैं। इस निमित्त बाकायदा सुसज्जित कार्यालय खुल हैं। एक निर्धारित फीस है, पैकेज हैं। पर अहम सवाल यह है कि क्या ‘धर्म’ और उसके चमत्कार का प्रयोग, जीवन की भौतिक लिप्साओं को प्राप्त करने का साधन मात्र है? क्या इससे ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ की धारणा लुप्त नहीं होती जा रही है? क्योंकि जितनी भी मुरादें निर्मल बाबा से लोगों द्वारा मांगी जा रही हैं, वे सब की सब निजी लाभ से संबंधित हैं। एक भी शख्स दरबार में देखने में नहीं आया जिसने देश के लिए, जरूरत मंदों के लिए अथवा सामाजिक बुराईयों पर अंकुश के लिए कोई मनोकामना रखी हो और न ही बाबा की ओर से ऐसी कोई पहल होती दिखती है।
बड़ा सवाल है कि एक संत का समाज में क्या योगदान होना चाहिए? संत पूरे समाज का होता है, उसका ध्यान केंद्र मात्र ही व्यक्ति नहीं, समाज, राष्टÑ यहां तक कि सम्पूर्ण विश्व होता है। जो वास्तव में साधुता को पा जाते हैं या जिन पर ईश्वर की थोड़ी भी कृपा हो जाती है। वे उसका लालच या स्वयं का दम्भ भरने के लिए प्रदर्शन नहीं करते। बुद्ध को ज्ञान हुआ तो वे मौन हो गए। रहीमदासजी कहते हैं कि-
रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं।
जे जानत ते कहत नहिं, जे कहत ते जानत नाहिं।।
पर आज संतों की परिभाषा में परिवर्तन हो गया है। धर्म के धंधें की नई थ्योरी चल पड़ी है। खासकर भारत जैसे आस्था प्रधान देश में धर्म गुरुओं से यकायक लाभ मिल जाने की भाग्यवादी संकल्पना ने आकार ले लिया है। लाभ के निमित्त देश में भेड़चाल है। कैसे भी संसार की भौतिक उपलब्धियों पर हमारा अधिकाधिक वर्चस्व हो, इसके लिए चाहे कितना भी अनैतिक होना पड़े यह अब मायने नहीं रखता। हमारे जीवन का हर पल भोग को समर्पित है। दरअसल, जब हम भीतर से कमजोर होते हैं तो बाबाओं के चमत्कारों के चंगुल में फंसते हैं, उनसे उम्मीदें परवान चढ़ती हैं। खासकर महिलाएं ज्यादा आकर्षित होती हैं। बाबाओं का प्राथमिक लक्ष्य भी महिलाएं हमेशा से रही हैं।
पर कोल्डड्रिंक्स पीने, रूमाल रखने, पेठा बांटने, टाई बांधने जैसे टोटके नुमा समाधान देकर क्या बाबा भगवद्गीता की कर्म और उसके फल के सिद्धांत के विरुद्ध नया मायाजाल नहीं रच दिया है? ऐसे कथित उपायों द्वारा ईश्वरीय कृपा होने की बात कहकर क्या वे हिन्दू धर्म का माखौल नहीं उड़ा रहे? हां ये सच है कि उनका पिछला जीवन क्या था, इस आधार पर उनके ज्ञान पर कोर्ई टिप्पणी करना बेमानी होगा, क्योंकि ईश्वरीय कृपा से जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के उदाहरण हमारे यहां (जैसे डाकू रत्नाकर का बाल्मीक बन जाना) भरे पड़े हैं। पर ईश्वरीय कृपा का ऐसा भौंडा प्रदर्शन चाहे निर्मल बाबा करें अथवा कोई अन्य हमारी संस्कृति और आस्था पर आघात है। धर्म जब धंधा बन जाए तो वह धर्म नहीं रह जाता।
यदि हम देश के इतिहास को देखें तो संतों ने योगविद्या अथवा साधना उपासना से अर्जित ऊर्जा का प्रयोग धन एकत्र करने में कभी नहीं किया। वस्तुओं का विनिमय बिजनेस है पर कृपा का विनिमय दुर्भाग्यपूर्ण है। बाबा को कृपा बांटने से पहले अपनी निर्मलता को टटोलना होगा, साथ ही लोगों की समस्याओं का समाधान चाट पकौड़ी खाकर, डियोड्रेंट लगाकर देने और लेने वालों को भी अपनी बौद्धिकता को नापना होगा। अपने गिरेबां में झांकना होगा।
देश में ‘बाबा’ या ‘संत’ शब्द आस्था का प्रतीक है और ऐसी हरकतों से ये शब्द अनास्था, अविश्वास में तब्दील होते जा रहे हैं। आलौकिक सत्ता के प्रति यही आस्था हमारे जीवन का आधार है। इसे हर हाल में महफूज रखना हमारे लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए अनिवार्य है।
श्रीश पांडेय
इनदिनों देश में ऐसे ही एक हैं निर्मल बाबा जो, अपनी कृपा को धन के एवज में बेच रहे हैं। लाखों में शुरू हुआ यह कुटीर उद्योग आज करोड़ों की इन्डस्ट्री बन गया है। बाबा अपने भक्तों पर कृपा कैसे करते हैं? यह तो रहस्यमय है। पर जो भी उपाय वह अपने भक्तों को सुझाते हैं, वह एक बारगी तो हास्यास्पद और मजाकिया लगते हैं, पर यह तो मानना ही पड़ता है कि असर भी हुआ होगा, तभी तो दिनोंदिन जन समुदाय बाबा के दरबार में उमड़ रहा है। बाबा के विरोध और समर्थन में तर्क और बहस ऐसा सिलसिला देश में चल पड़ा है कि बाबा का हर बयान ब्रेकिंग न्यूज बना है।
दरअसल, देश में ऐसे बाबा, महात्माओं की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। जिनके लिए जगह-जगह पंड़ालों में श्रद्धालुओं की भीड़ ताली पीटते नमन करती, दान देती नजर आती है। टीवी चैनलों पर इन बाबाओं का छितिज आकाश गंगा की तरह बढ़ रहा है। ज्योतिषी उपायों, वास्तु के फायदे-नुक्सान का एक ऐसा विज्ञान विकसित हो गया है कि विकास के इनके मापदण्ड, विज्ञान को पीछे छोड़ते दिखते हैं। इस निमित्त बाकायदा सुसज्जित कार्यालय खुल हैं। एक निर्धारित फीस है, पैकेज हैं। पर अहम सवाल यह है कि क्या ‘धर्म’ और उसके चमत्कार का प्रयोग, जीवन की भौतिक लिप्साओं को प्राप्त करने का साधन मात्र है? क्या इससे ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ की धारणा लुप्त नहीं होती जा रही है? क्योंकि जितनी भी मुरादें निर्मल बाबा से लोगों द्वारा मांगी जा रही हैं, वे सब की सब निजी लाभ से संबंधित हैं। एक भी शख्स दरबार में देखने में नहीं आया जिसने देश के लिए, जरूरत मंदों के लिए अथवा सामाजिक बुराईयों पर अंकुश के लिए कोई मनोकामना रखी हो और न ही बाबा की ओर से ऐसी कोई पहल होती दिखती है।
बड़ा सवाल है कि एक संत का समाज में क्या योगदान होना चाहिए? संत पूरे समाज का होता है, उसका ध्यान केंद्र मात्र ही व्यक्ति नहीं, समाज, राष्टÑ यहां तक कि सम्पूर्ण विश्व होता है। जो वास्तव में साधुता को पा जाते हैं या जिन पर ईश्वर की थोड़ी भी कृपा हो जाती है। वे उसका लालच या स्वयं का दम्भ भरने के लिए प्रदर्शन नहीं करते। बुद्ध को ज्ञान हुआ तो वे मौन हो गए। रहीमदासजी कहते हैं कि-
रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं।
जे जानत ते कहत नहिं, जे कहत ते जानत नाहिं।।
पर आज संतों की परिभाषा में परिवर्तन हो गया है। धर्म के धंधें की नई थ्योरी चल पड़ी है। खासकर भारत जैसे आस्था प्रधान देश में धर्म गुरुओं से यकायक लाभ मिल जाने की भाग्यवादी संकल्पना ने आकार ले लिया है। लाभ के निमित्त देश में भेड़चाल है। कैसे भी संसार की भौतिक उपलब्धियों पर हमारा अधिकाधिक वर्चस्व हो, इसके लिए चाहे कितना भी अनैतिक होना पड़े यह अब मायने नहीं रखता। हमारे जीवन का हर पल भोग को समर्पित है। दरअसल, जब हम भीतर से कमजोर होते हैं तो बाबाओं के चमत्कारों के चंगुल में फंसते हैं, उनसे उम्मीदें परवान चढ़ती हैं। खासकर महिलाएं ज्यादा आकर्षित होती हैं। बाबाओं का प्राथमिक लक्ष्य भी महिलाएं हमेशा से रही हैं।
पर कोल्डड्रिंक्स पीने, रूमाल रखने, पेठा बांटने, टाई बांधने जैसे टोटके नुमा समाधान देकर क्या बाबा भगवद्गीता की कर्म और उसके फल के सिद्धांत के विरुद्ध नया मायाजाल नहीं रच दिया है? ऐसे कथित उपायों द्वारा ईश्वरीय कृपा होने की बात कहकर क्या वे हिन्दू धर्म का माखौल नहीं उड़ा रहे? हां ये सच है कि उनका पिछला जीवन क्या था, इस आधार पर उनके ज्ञान पर कोर्ई टिप्पणी करना बेमानी होगा, क्योंकि ईश्वरीय कृपा से जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के उदाहरण हमारे यहां (जैसे डाकू रत्नाकर का बाल्मीक बन जाना) भरे पड़े हैं। पर ईश्वरीय कृपा का ऐसा भौंडा प्रदर्शन चाहे निर्मल बाबा करें अथवा कोई अन्य हमारी संस्कृति और आस्था पर आघात है। धर्म जब धंधा बन जाए तो वह धर्म नहीं रह जाता।
यदि हम देश के इतिहास को देखें तो संतों ने योगविद्या अथवा साधना उपासना से अर्जित ऊर्जा का प्रयोग धन एकत्र करने में कभी नहीं किया। वस्तुओं का विनिमय बिजनेस है पर कृपा का विनिमय दुर्भाग्यपूर्ण है। बाबा को कृपा बांटने से पहले अपनी निर्मलता को टटोलना होगा, साथ ही लोगों की समस्याओं का समाधान चाट पकौड़ी खाकर, डियोड्रेंट लगाकर देने और लेने वालों को भी अपनी बौद्धिकता को नापना होगा। अपने गिरेबां में झांकना होगा।
देश में ‘बाबा’ या ‘संत’ शब्द आस्था का प्रतीक है और ऐसी हरकतों से ये शब्द अनास्था, अविश्वास में तब्दील होते जा रहे हैं। आलौकिक सत्ता के प्रति यही आस्था हमारे जीवन का आधार है। इसे हर हाल में महफूज रखना हमारे लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए अनिवार्य है।
श्रीश पांडेय
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