इनदिनों देशभर में नवरात्रि का उत्सव चल रहा है। प्रत्येक वर्ष में यह अवसर चार बार(जिसमें दो बार प्रत्यक्ष और दो बार अप्रत्यक्ष जिसे हम गुप्त नवरात्रि भी कहते है) आता है। चैत्र माह की नवरात्रि से हिन्दू वर्ष का आरम्भ होता है। ये चारों नवरात्रियां तीन-तीन माह के अंतराल पर आती हैं। गौर से देखें तो हर तीन माह में मौसम में परिवर्तन के संधिकाल में इनका प्राकट्य होता है और इससे इनदिनों किये जाने वाले व्रत का वैज्ञानिक आधार भी समझा जा सकता है। पेट की स्वच्छता मौसम के परिवर्तन के साथ अनिवार्य है इसीलिए हमारे मनीषियों ने इनको एक निश्चित अंतराल पर वातावरण से अनुकूलन करने के लिए आरम्भ किया था। इसी वैज्ञानिकता को धर्म के साथ जोड़कर, धर्म और विज्ञान के अदभुत सौन्दर्य को, मानव कल्याण के लिए रखा था। ये नौ दिन शक्ति की आराधना का समय भी माना जाता है। माता एक ही है पर वह हमारे सामने विविध रूपों में आती है। उसकी अनेक शक्तियां और अभिव्यक्तियां हैं, जो इस विश्व में उनका कार्य करती हैं। पर जिनको हम पूजते हैं वह एक ही है और वही भगवान की दिव्य चेतना शक्ति है एवं सृष्टि का कारक है।
जनसाधरण को प्राय: इस भ्रम में देखा जाता है कि वे इन नौ दिनों में देवी के किस रूप की साधना या पूजा उपासना करें। नौ दिनों में क्रमश: शैलपुत्री, ब्रम्हचारिणी, चंद्रघटा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धदात्री के रूप में मॉं की उपासना पद्धति शास्त्रोक्त है। पर एक गृहस्थ के लिए दैनिक कामकाज के बीच इन रूपों की विधिवत साधना सुगम नहीं हो पाती। इसलिए सभी गृहस्थ साधक जो मॉं की उपासना करना चाहते हैं उन्हें इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि वे दुर्गा, काली, लक्ष्मी या फिर सरस्वती की उपासना करें। जैसे हमारी जन्मदात्री मॉं यह भली भांति जानती है कि उम्र के विभिन्न पड़ावों में कब बच्चों को दूध देना है,कब किताबें और खेलकूद की सामग्री और कब सुलाना है, ठीक इसी तरह आदि शक्ति मॉं भी अपने भक्तों, साधकों को समयानुसार इच्छित फल बिना मांगे प्रदान करती है। इसलिए जनसामान्य को मॉं की सात्विक उपासना का क्रम करना चाहिए। इसलिए इन नौ दिनों में सिर्फ मॉं का ध्यान और ऊर्जा एकत्रित करने में लगाना चाहिए। क्योंकि मॉं ही जगत का आधार है। लेकिन यह देखकर पीड़ा होती है कि धर्म हमारे लिए आस्था कम आडम्बर की विषय वस्तु अधिक बनकर रह गया है। हम कलेंडर में विराजित मॉं के प्रति तो श्रद्धान्वत तो होते हैं पर घर-घर में विद्यमान जीवन देने वाली मॉं की उपेक्षा कर बैठते हैं। हम भूल जाते हैं कि मॉं तो सिर्फ मॉं होती है, वह अच्छी या बुरी नहीं होती और न हो सकती है।
आज की इस भौतिकतावादी सभ्यता में तथाकथित बुद्धिवादी मनुष्य ने अपने सुख और समृद्धि की खोज में स्वयं को भुला दिया है। मानव समाज किस लक्ष्य की ओर अग्रसर है समझ पाना कठिन है। आज वह तमाम भौतिक साधनों के बीच आत्मविपन्नता, अर्थहीनता और इतनी घनी ऊब के बीच जीने को विवश है कि वह जीवन का स्पंदन तो महसूस करता है पर किसी व्यक्ति में जीने का भाव नहीं दीखता। लगता है मानो हर ओर जीवन तो है, पर लोग उसे बोझ की तरह ढ़ो रहे हैं। न कहीं सौन्दर्य, न सुख, न संतोष और न शान्ति है। जहां जीवन का आनंद न हो, अलोक न हो, वहां निश्चय मानिए कि जीवन नाममात्र का होता है। गौर से देखें तो हम भौतिक समृद्धि की होड़ में जीना ही भूल गए हैं।
आज के परिवेश में हम विकृतियों की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। मानों हमारे भीतर के जीवन का निश्चित आधार टूट गया हो। जैसे कोई अति आवश्यक जीवनस्नायु नष्ट हो गए हों और सारा समाज किसी संस्कृति में नहीं, विकृति में जी रहा हो। इस विकृति और विघटन के परिणाम व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो गए हैं। परिवार से लेकर पृथ्वी की समस्त परिधि तक उसकी बेसुरी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। ऐसे वातावरण में आज का जीवन नर्क और समाज मृत, सड़ा हुआ, दुर्गन्ध देता शरीर हो गया है। क्योंकि लोग चित्त की बहुत सी विक्षिप्तताओं को पहचानने में बिलकुल असमर्थ हो गए हैं। सत्ता की, संग्रह की, शक्ति की दौड़ में समाज बेसुध हो चला है। आत्महीनता से पीड़ित व्यक्ति सत्ता और पद की खोज में अंधा हो चला है। यह भी कहा जा सकता है कि आज मनुष्य की समृद्धि, क्षमता और शक्ति तो दिन-दूनी, रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। भौतिकता की चकाचौंध के बीच स्वयं का अस्तित्व भी एक मशीन के रूप में रह गया है। कहना पड़ता है कि भगवान बचाए मनुष्य को इस तथाकथित समृद्धि से। क्योंकि सच्चाई है कि यह समृद्धि नहीं विनष्टि का किनारा है, जहां मनुष्यता का पहलू लुप्त होता जा रहा है और मनुष्य पशु से बदतर जीवन जीने को विवश है।
ऐसे में यह कहना सम्भव नहीं कि मनुष्य की समृद्धि बढ़ गई है। हां वस्तुओं की समृद्धि अवश्य बढ़ी है, पर मानवता की समृद्धि उसी अनुपात में घट गई है। यह सच है कि विज्ञान के आलोक ने मनुष्य की निगाहें खोल दी हैं और उसको झकझोरा है। लेकिन साथ ही उसका बचपन भी छीना है और उसे असमय प्रौढ़ता दे दी है। क्योंकि इस युग का मानव केवल शक्ति की खोज में लगा हुआ है और कथित शक्तियों की उपलब्धि उसके लिए ही खतरा साबित हो रही है।
मनुष्य का मनुष्य को ही ठीक से न पहचानना इस आत्मघाती सम्भावना जड़ है। पदार्थ की अनंत शक्ति से आज का मानव परिचित है,बल्कि परिचित ही नहीं उसका विजेता भी है। मनुष्य ने पदार्थाणु को तो पहचाना है पर वह आत्माणु से दिनोंदिन अपरिचित होता जा रहा है। यही इस युग की सबसे बड़ी भूल है और विडम्बना भी।
हमारी उपासना,साधना पद्धति हमें अधिकाधिक मानवीय होने की प्रेरणा देती है। जब हम मॉं की उपासना करते हैं और मनोवांक्षित फल की आकांक्षा करते हैं तो यह भी अनिवार्य हो जाता है कि मॉं के गुणों को जीवन में धारण करें। यही हमारी साधना की सफलता है। अन्यथा यह सम्पूर्ण पूजा पद्धति एक क्रिया मात्र बनकर रह जाती है। नौ दिन विशेष हैं और वर्ष में दो बार आते हैं। इस तरह से यदि जीवन औसत 70 वर्ष का माने तो यह अवसर जीवन में 140 बार आता है, जबकि हम विशेष ध्यान-साधना के माध्यम से ऊर्जा अर्जित कर मानव जीवन का भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिक भी उन्नयन कर सकते हैं। आखिर यही तो इस जीवन का ध्येय। आइये मॉं के इन नौ आराध्य दिनों की वंदना इस मंत्र के साथ करें-
या देवी सर्वभूतेषु मात्र रूपेण संस्थित:,
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै नमो नम:।
श्रीश पांडेय
No comments:
Post a Comment