Saturday, 18 August 2012

कांसा भयो करोड़

 बड्डे को बड़ी चिंता में उदास बैठे देखकर आखिर हमने ही पूछ लिया कि इस उदासी का सबब...का है?  बोले बडेÞ भाई न ही पूछो तो ही ठीक है वरना  बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। ओलम्पिक खेलों में भारत के लोग खेलने ही क्यों जाते हंै। न जाते तो कम से कम यह तुर्रा तो रहता कि खेलने नहीं गए वरना दस-बीस गोल्ड, बीस-पच्चीस चांदी जीतना तो बाएं हाथ का खेल था और कांसा जीतना तो हमें पसंद ही नहीं। भला कांसा की भी कछु  कीमत है का। देश में सोने की वेल्यू है।
    एक बार तो चंद्रशेखर साहब को देश की साख बचाने के नाम पर सोना ब्रिटेन में गिरवी रखना पड़ा था। क्योंकि सोना से साख और धाक दोनों जमती है। अपने यहां तो फैशन भी है जो जितना सोना पहन के उसका प्रदर्शन कर सके बड़ा आदमी है, उसी की साख है और फिर बड़े भाई देखो न सोना कैसे सरसरा के ऊपर चढ़ा जा रहा है और  हम हैं कि दो चांदी और चार ठइया कांसा का पा गए उसी में अलमस्त नाच रहे हैं, जुलूस निकाल रहे हैं। अमेरिका और चीन तो पसेरी भर सोना जीत ले गए ...इनकी क्या कहें पिद्दी से देश भी छटांक भर सही, सोना तो पा ही गए न। और हम हैं कि कांसा पा के भैराये जा रहे हैं।
   बड्डे बोले बरसों से हमारे खिलाड़ी पहले से कटी नाक ले के ओलम्पिक में टूलने जाते हैं। जाने से पहले खेल मंत्रालय की ओर से सभी को एक नकली साबुत नाक दी जाती है ताकि कटी वाली को ढ़का जा सके। इतना क्या गुस्सा करना बड्डे...हमने कहा इस बार तो पदकों का छक्का लगाया है। जित्ते इस बार मिले उत्ते तो कभी नहीं मिले। बड्डे बिफर पड़े और बोले...भी इस बार 6 पदक क्या जीत लिए मंूछे ऐंठे, छाती फुलाय घूम रहे हैं कि अब तक के रिकॉर्ड पदक बटोर लाए हैं। उसमें सोना एक भी नहीं। कांसा ही कांसा है उसमें भी एकाध तो ऐसे भी मिल गओ कि सामने वाला घायल हो के मैदान छोड़ बैठो और हमने फटकार लओ पदक। बड्डे बोले बड़े भाई ओलम्पिक भारत के बस का नहीं है।
 हमने कहा...बड्डे जहां खाने के लाले हों और खेलने में शिफारिश हो, वहां इक्का-दुक्का पदक सूंघने को मिल जा रहे हैं, इतना भी ज्यादा है। मैरीकॉम ने तो बक ही दिया कि खाने को ठीक से मिलता नहीं और चाहिए सोना है। जितना पइसा खेलने के लिए सरकार देती है उसका 70 से 80 परसेंट खांटी के बुढऊ जो खेल समितियों के अध्यक्ष बनकर  पदों पर वर्षों से खूंटा गाड़े बैठे हैं, के बैंक खातों में सोना के रूप में धर दिया जाता है। जब सोना से ज्यादा कीमत का माल पहले ही अंदर है, तो बेफिजूल खून जलाने और पसीना बहाने की जरूरत क्या है।
 हमारे खिलाड़ी पदक जीतने नहीं ओलम्पियन बनने जाते हैं। हमारा अधिकतम लक्ष्य कांसा ही है, क्योंकि भले कहने को दो रुपईया का कांसा हो पर उसकी दम पर देश में नौकरी, धन-दौलत और मान-सम्मान इतना मिल जाता है कि पूरी उमर अपनी कीमत देता रहता  है। इसलिए उनके लिए पदक जीतने से अहम वहां खेलना है, जीवन भर ओलम्पियन कहे जाने का सुख लेना है, ताकि बुढ़ापा ठीक से बसर हो सके।
    अब तो कांसा में बड़े-बड़े गुण हैं। अमेरिका, चीन में भले कांसा जीतने वालों की तस्वीरें वहां के अखबारों में ठीक से जगह न पाती होे पर अपने यहां तो ब्रेकिंग न्यूज से लेकर अखबारों में एक-एक पेज के परिशिष्ट धड़ल्ले से आदम कद फोटू में छपे पाये जाते हैं। इसलिए अब बड्डे समझो...भारत में कांसे की सोने से भी ज्यादा वेल्यू है। भारत सोने की चिड़िया रह ही चुका है, और सोना जीत के हम क्या करेंगे। इसलिए अब सोना नहीं कांसा की कीमत है बड्डे!!!
श्रीश पांडेय

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