Monday, 30 December 2013

वक़्त के साथ

  समय का सांकेतिक अर्थ बदलाव भी है। समय एक बार फिर बदला है, क्योंकि आज हमने नए साल में कदम रख दिया है। बीते बरस हमने कम उपलब्धियां हासिल नहीं कीं, लेकिन महंगाई, घोटाले,भ्रष्टाचार, यौनाचार के कलंक के साथ-साथ संसदीय लोकतंत्र के मूल सरोकारों से खिलवाड़ की कालिख ने 2013 की तस्वीर को एक हद तक स्याह कर दिया था। सरकार और समाज दोनों के लिए गया साल कमोवेश ऐसा ही रहा है। जिसकी कुछ तस्वीरों को आप अपने अलबम में महफूज करना चाहेंगे तो, कई बातों को किसी दुस्वप्न की तरह भूलना पसंद करेंगे। इसलिए नव प्रभात के मुहाने पर खड़े होकर बीते वक्त को सोचना और आने वाले वक्त की ओर निहारना, दो ऐसे मिश्रित पल हैं, जो अकुलाहट और प्रसन्नता दोनों देते हैं। बीता वक्त जिसे आप ने जी भरकर जिया है, उस पर चिंतन-मनन के साथ भविष्य पर दृष्टि होना मानवीय स्वभाव है। ऐसे मौके पर गर आंखमूंद कर अंतरमन को टटोलें तो, जो बीता है, रीता है उसकी मीठी-नमकीन यादें, मन मस्तिष्क को उमड़-घुमड़ कर कोहरे की चादर की तरह ढंक लेती है। लेकिन दूसरी ओर दिन भर उत्साह से लबरेज शुभकामना भरे संदेशों की मोबाईल में  बजती ‘बीप-बीप’ की धुन जिन्दगी को आगे और आगे देखने को प्रेरित करती है।
दरअसल एक जनवरी ऐसी मनोवैज्ञानिक तारीख है जो समय के विभाजन को रेखांकित करती है। यह तिथि घरों के कैलेंडर बदल देती है, तो अखबारों की टाईम लाइन में नए वर्ष को दर्ज कर देती है। नए संकल्पों को जन्म देती है, तो बीते वर्ष को इतिहास के पन्नों में अंकित करके, नए इतिहास को गढ़ने के लिए आगे बढ़ जाती है। ‘वक्त’ की विवेचना को करते वक्त दो दशक पहले टेलीवीजन पर प्रसारित महाभारत धारावाहिक के उस घूमते चक्र के नेपथ्य से आती हरीश भिमानी की आवाज बरबस जेहन में रोशन हो उठती है कि- ‘मैं समय हूं..’ समय जो कभी ठहरता नहीं, बस साक्षी बनता है कई पलों का। आगे बढ़ते जाना उसका असल स्वभाव है। बीता वक्त गर अच्छा हो तो इसलिए सुहाना होता है कि उसको हम बार-बार कुरेद सकते हैं उसके बारे में खुद से और अपनों से बात कर सकते हैं। और गर बीता वक्त खराब रहा हो तो,  जो आज अच्छा है वह उसे और बेहतर अनुभूत करने का वह हमें मौका देता है। इसीलिए कहा जाता है कि समय के स्वभाव को जिसने वक्त रहते पहचाना और तालमेल बनाया, वह सफलता की सीढ़ियां चढ़ता गया। सफलता और असफलता  को लेकर ये जुमला भी बात-बात में वक्त के बरक्स बोला-कहा-सुना जाता है कि ‘सब वक्त-वक्त की बात है’। धनुर्धर अर्जुन की विवशता और भीलों द्वारा गोपियां लूटने की दुखांतिका के पीछे वक्त की ही बिसात है।  इस तरह दु:ख और सुख, समय और जीवन एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। सच तो यह है कि हमारे जन्म लेते ही समय, जीवन की आयु कम करने लगता है। यानी सब कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाना ही समय की प्रकृति है। समय निष्ठुर है, निरपेक्ष है, वैज्ञानिक है। इसीलिए उसे घड़ी जैसी मशीन से नापा जाता है। क्योंकि मशीन संवदेना से मुक्त, निश्चित नियमों में कर्मरत होती है। संसार के समस्त नियम कायदे ‘समय’ के आगे बेबस हैं, उसके आधीन है। मानव ने दुनिया में कितनी भी ऊंचाईयां हासिल कर ली हों, लेकिन वह समय पर न तो नियंत्रण पा सका है और न पा सकता है। यह प्रक्रिया इतने आहिस्ते से घटती है कि कब हम बच्चे से बड़े और फिर बूढेÞ हो गए यकबयक महसूस नहीं होता। लेकिन हर दिन बीत रहे जीवन के बीच में ही संसार है। समय हर चीज का पैमाना है। वक्त, व्यक्ति ही नहीं वस्तुओं की आयु भी तय करता है। यानी चाहे निर्जीव हो या सजीव दोनों का सृजन और समापन उसके मातहत है। कहने को वक्त बड़ा निरंकुश है... लेकिन चाहे वह दवाओं की ‘एक्सपायरी’ तारीख को निश्चित करता हो या राजनीतिक सत्ता के निश्चित कार्यकाल को। समय की इस निरपेक्ष गति को देखकर कहना पड़ता है कि-
‘अब यही मुनासिब है आदमी के लिए
  वह वक्त के साथ-साथ  चलता रहे..’ 
बहरहाल नववर्ष हमें अतीत से सबक लेने और आसन्न चुनौतियों से निपटने का अवसर दे रहा है। पहले तो यही उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार और संसद में, संवाद और विश्वास की बाहाली हो। क्योंकि बिना संवाद के न तो हम अपने भविष्य की दिशा तय कर सकते हैं, न ही किसी नीति या निर्णय को तार्किक ठहरा सकते हैं।अलबत्ता यह बात सरकार और विपक्ष दोनों को याद रखनी होगी कि किसी मुद्दे पर एक सहमति का वातावरण विकसित हो। मात्र छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति से बचना होगा, विरोध के लिए विरोध जैसी मानसिकता से बाहर निकलने का समय है। दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां रोशन हो आती है कि-
‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है’ 
नए साल का सूरज यदि इस उम्मीद से चमके कि शब्दों का संसार शालीन और मर्यादित बना रहेगा तो, यह एक सूकूनदेह अहसास होगा। वर्ष 2013 में वैश्विक मंदी के दबाव में अर्थव्यवस्था की जो चाल सुस्त पड़ गई थी, वह 2014 में फिर मजबूत होगी। नया वर्ष इस लिहाज से ऐतिहासिक हो सकता है कि हम प्रकृति और पर्यावरण के साथ दोस्ताना रिश्ते की अनिवार्य जरूरत को न सिर्फ समझें बल्कि इस बाबत सक्रिय बने। क्योंकि गर हम अब भी नहीं चेते तो सचमुच देर हो जाएगी। सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हांकिन्स की कुछ   वर्षों पहले की गई टिप्पणी क्या काफी नहीं कि- ‘मानवजाति ने धरा के संसाधनों का पिछले 1000 वर्षों का दोहन, महज100 वर्षों में कर डाला है, अब दोहन की यही गति प्रति 10 वर्ष हो गई है और यह हाल रहा तो यह 1000 वर्षों का दोहन प्रति 1 वर्ष होने के करीब है। इस लिहाज से यदि मानव का अस्तित्व बरकरार रखना है तो आने वाले 200 वर्षों के बाद कोई दूसरा ग्रह रहने के लिए तलाश करना ही होगा।’
तो आज पूरी दुनिया में उत्सव का स्वरूप ले चुकी अंग्रेजी कलेंडर की तारीख ‘एक जनवरी’ दुनिया के सभी मुल्कों में तो नहीं पर कई देशों में नए वर्ष की तिथि घोषित है। कई सवाल भी खड़े किए जाते हैं कि इस मनोवैज्ञनिक तिथि से लोगों के दैनिक जीवन के रसायन में, उसके कार्यकलाप में क्या फर्क आता है। वही चंदा, वही सूरज, वही तारे और वही नजारे। फिर भी यह समय का मनोविज्ञान ही तो है जो जीवन प्रवाह में एक नया अध्याय जोड़ता चलता है। बहरहाल, शुभकामना की भारतीय परम्परा ‘स्व’ के बजाय ‘सर्व’ कल्याण की कामना करती है। लिहाजा हम उम्मीद करते हैं कि न सिर्फ व्यक्ति, परिवार, मित्र-यार, देश-प्रदेश बल्कि समस्त संसार की सम्पूर्ण मानवजाति के लिए वर्ष 2014 सुखद, शांतिमय और उन्नतिदायी-फलदायी हो। 

Sunday, 1 December 2013

साख का संकट

  इनदिनों टीवी में एक विज्ञापन प्रसारित हो रहा है कि ‘इज्जत (साख)बड़ी मेहनत और मुश्किल से आती है और एक बार चली गई तो फिर लौट के नहीं आती। यानी साख को बनाना जितना कठिन है उससे मुश्किल है उसको बरकरार रखना। अत: इनदिनों देश-दुनिया में महंगाई, असुरक्षा के साथ जो सबसे बड़ा संकट है वह है किसी व्यक्ति या संस्था की साख का संकट, जो चतुर्दिक दिखाई देता है। क्रेडिबिलटी यानी साख किसी के बारे में वह अवधारणा है जो उसके भरोसे को कायम रखता है। बाजार में व्यक्ति की साख अच्छी हो तो उसे धन लेने और देने में कोई महाजन/व्यापारी संकोच या डर का अनुभव नहीं करता। यह साख कई तरह की हो सकती है। जैसे बैंकों की साख, हुंडी की साख, मीडिया की साख, व्यक्ति स्तर पर समाज सेवियों, नेताओं और धर्म गुरुओं की साख आदि।
सभी स्तर पर साख का बना रहना हर लिहाज से व्यक्ति, किसी संस्था, देश-दुनिया के लिए बेहतर अवस्था है। लेकिन दुर्भाग्यवश सबसे अधिक क्षरण इसी प्रवृत्ति में देखने में आया है। इसका सबसे बड़ा नुक्सान जो उठाना पड़ रहा है वह यह कि सोसायटी में मानवीय स्वभाव के प्रतिकूल बेहद अविश्वास और निराशा का वातावरण निर्मित होने लगा है। यदि कहें दे कि ऐसा हो चुका है तो कदाचित किसी को कोईआपत्ति न हो। जो कि हमारे विकास का लक्ष्य कतई नहीं है। लेकिन विकास की इस यात्रा में जिस बात की सर्वाधिक बलि दी गई है वह मात्र ‘साख’ यानी विश्वास की है।
अभी बहुत दिन नहीं हुए जब माने-जाने बुजुर्ग संत आसाराम को छल से धर्म की आड़ में यौन शोषण और विश्वासघात करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। वर्षों की कमाई इज्जत और धर्म गुरू की उनकी साख को एक छुद्र हरकत ने उन्हें सलाखों के पीछे न सिर्फ ढकेल दिया बल्कि इतने सालों में जो नाम, इज्जत, शोहरत बटोरी थी, वह पल झपकते ही बर्बाद हो गई। अपनी यादाश्त को थोड़ा फ्लैश बैक करें तो नब्बे के दशक में उत्तरप्रदेश के एक मंत्री अमरमणि ने कवियत्री मधुमिता शुक्ल के मोह में सब गवां दिया था। हरियाणा के बहुचर्चित मंत्री कांडा जो जूता बेचने के व्यापार से लेकर सरकार के कारोबार में शामिल हो, समाज में एक बड़ा मुकाम हासिल किया था। वे एयर होस्टेज गीतिका के फेर में ऐसे उलझे कि सब कुछ मुट्ठी में बंधी रेत की तरह फिसल गया। एनडी तिवारी का डीएनए टेस्ट और उससे हुई बदनामी ने उनसे क्या कुछ नहीं छीन लिया है। इतना ही नहीं ऐसी घटनाओं को मसाला की तरह परोसने वाला जनप्रिय मीडिया हाऊस ‘तहलका’ के एक चर्चित स्तंभ तरुण तेजपाल अपने ही एक कमसिन मुलाजिम के जाल में ऐसे उलझे कि उनके प्रोडक्शन हाऊस ‘तहलका’ में वाकई तहलका मच गया। आपको याद होगा कि नब्बे के दशक में तरुण तेजपाल ने ‘तहलका’ के जरिए देश भर में जिस धमक के साथ अपनी धाक बनाई थी, उनकी साख भी यौन शोषण के एक प्रकरण के कारण तार-तार हो गई।
ये सही है कि स्त्री शोषण की प्रवृत्ति सदा से समाज में विद्यमान रही है और इतिहास देखकर यह लगने लगता है कि अनेक कानूनी उपायों के बावजूद यह कम ज्यादा तौर पर बनी रहेगी। दरअसल, इसे कानून और बंधन के बाहरी दबाबों से निषिद्ध नहीं किया जा सकता। यह सारा मसला नैतिकता का है जो स्वनियंत्रण के जरिए ही नियंत्रित हो सकता है। क्योंकि गर कानून से इसे रोका जा सकता होता तो ईरान जैसे देशों में जहां इस अपराध की बेहद कठोर और अमानवीय सजाएं मुकर्रर हैं वहां ऐसे क्राईम कदापि न होते पर ऐसा नहीं है। बावजूद  इस बहाने से कानून को लचर नहीं छोड़ा जा सकता। नि:संदेह कठोर कानून भय का वातावरण बनाता है, जिससे अपराधियों में डर और अपराधों में अपेक्षाकृत कमी देखने में आती है। एक अहम सवाल इन घटनाओं के नेपथ्य में है, जो अक्सर या तो उठाया नहीं जाता अथवा जब उठाया जाता है तो उसे स्त्री स्वंतत्रता के पर कतरने की नकारात्मक पोंगापंथी विचारधारा के तौर पर देखा जाता है। हमारा मानना है कि कई मामलों में गर स्त्री तय कर ले कि उसे ऐसे बहकावों में आना ही नहीं है, जो उसके शोषण का कारण बन सकते हैं, तो यकीन मानिये की समस्या का अस्सी फीसदी हल तो इसी संकल्प से निकल सकता है। लेकिन समस्या के मूल में निहारने की बजाए उसकी शाखाओं में लग रहे रोगों पर कानून और पहरों की तलवार चलाई जाती है। लेकिन इस छंटाई के बाद हर बार उस ग्रंथि का प्रस्फुटन हो आता है।
स्त्री-पुरुष संबंधों में आज जो अविश्वास यानी साख का संकट है वह कोई नवीन परिघटना नहीं है। हां अब इनके तरीकों में विश्वासघात और निरंकुशता का पुट अधिक दिखता है। स्वभाव या वृत्ति ऐसी अवस्था है जो सहज नहीं बदल सकती। और फिर अब न तो गरिमामय, नैतिकता पूर्ण नेतृत्व है, न ही ऐसा  न ही ऐसा समाज।

Saturday, 23 November 2013

'वोट ऑन सेल' आफर चालू है

बड्डे ने बनबारी से कहा कि आज शाम से खुलेआम चुनाव की चर्चा, काना-फूसी, तीर-तुक्का, जिताने-हराने के निवेदन, विश्लेषण सब 'साईलेंट' हो जाएंगे। और फिर शुरू होगा अंदरखाने में अल्टी-पल्टी का दौर। लक्ष्मीदेवी दीपावली में भले उतनी चंचल नजर न आईं हों, जितनी आगामी दो दिनों में होने जा रही हैं। बड्डे बोले- अरे बनबारी! इस दफा चुनाव आयोग के डंडे का डर चौतरफा पसरा है।पोस्टर, बैनर, मोटर-गाड़ी सब 'काउंट' में और 'लिमिट' में हैं। चुनाव आयोग की गोपनीय निगाहें, 'बिग बॉस शो' की 'थर्ड आई' की तरह एक-एक गतिविधि को 'वॉच' कर रही हैं। तभी तपाक से बनबारी ने कहा- नेता-जनता दोनों 'वेलनोन' हैं कि हाथ जोड़ने, मिन्नते करने, 'डोर टू डोर' खाली पर्चा लिए खीस निपोरने से कुछ हाथ नहीं आने वाला। आगामी पंचवर्षीय मलाई पेलने के पहले, पब्लिक को 'माल' की आयुव्रेदिक 'पुड़िया' दबे छुपे दिये बिना 'गेम' नहीं बनने वाला। क्योंकि इस पुड़िया में वो ताकत है जो प्रतिद्वन्द्वी के 'सॉलिड से सॉलिड' वोटों को गच्चा देकर अपने पाले में ला सकती है। इसलिए अभी असल काम बाकी है। कहते हैं न कि 'रात बाकी, बात बाकी।' खबर है कि फलां, ढिकां के समर्थन की मोटी मलाई लील रहा है। जनता का एक बड़ा वर्ग है जो दो दिन की मलाई के लिए पांच साल तक अपना तेल निकलवाने के लिए तैयार हो जाता है। बड्डे खीङो- यार बनवारी तुम्हारी सोच बौनी है, नकारात्मक है। जनता अब 'सेंसिबल' है और सब जानती है कि कौन फोकटिया, कौन काम का और कौन नक्शेबाज है और कौन सहज सुलभ? और फिर यह कोई पार्षद, मेयर या पंचायत का चुनाव नहीं जिसे व्यक्ति विशेष हांकेगा। यह तो प्रदेश की सरकार बनने िबगड़ने का मामला है, एक विचारधारा को बरकरार रखने या बदलने का मामला है। अपना प्रदेश कहां था, कहां आ गया है, इस मसले पर जनता को फुसलाया नहीं जा सकता। जो कथित नेता-नपाड़ी 'माल' के बदले 'वोट ऑन सेल' का अभियान छेडें़ हैं न बनबारी, उनकी दाल नहीं गलने वाली। बनबारी ने बड्डे को प्यार से समझया कि तुम 'थ्योरिटिकली' सही हो मगर 'प्रैक्टिकली' गलत। क्योंकि विकास या विनाश का सच या तो स्वीकार होता नहीं या होने नहीं दिया जाता। जनता जाति के नशे में बौराई सी बाग रही है। क्योंकि आलाकमानों ने टिकिटों की ऐसी गोटी फिट की है कि 'सेम कास्ट को सेम कास्ट' से लड़ाओ है। ताकि एक 'ग्रेट कनफ्यूजन क्रियेट' किया जा सके।इसलिए वोट का मूल्य काम-धाम से नहीं 'माल' से तौला जा रहा है। सो मौका है बड्डे भूत की लंगोटी ही ले लो वर्ना अगले पांच बरस सिर्फ चिल्लपों होगी..!

Monday, 7 October 2013

जेल से शुरू जेल में ख़तम

बड्डे और बनवारी लालू की सजा पर समोसा खाते हुए 'गॉसिप' में मशगूल थे कि 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू' का नारा अब इतिहास बन गया। सोचो बड्डे बिना आलू के समोसा कैसा होगा! और बिना लालू के बिहार! वो भी तकरीबन 11 बरस तक। बड्डे बोले अरे! बनबारी, याद करो जेपी आंदोलन में हीरो बनकर उभरे लालू का सियासी सफर जेल से शुरू हुआ था और अब जेल में ही समाप्त हो जाए तो क्या अफसोस! जहां की मिट्टी वहीं इस्तेमाल हो गई। और फिर लालू तो लालू है वे कहीं रहें, चाहे जेल में या रेल में उनकी सुर्खियां कम होने वाली नहीं। राजनीति में हास्य या हास्य की राजनीति करने वाले लालू अब जेल में यही 'रोल' निभायेंगे। उनके कैद में आने से कैदियों का मनोबल बढ़ेगा। एक कैदी दूसरे कैदी से फुसफुसाया कि 'जब ई ससुरा लालुआ का जेलिया होइ गवा है ता हम कउने बड़ा अपराध किए हैं।' दूसरा बोला "बाबू साहब ई ललुआ बहुतै करामाती है। कबहुं अपने पैतृक गंउआ 'फूलबगिया' में भैंस चरावैली, ओकरे सवारी गांठत-गांठते पटना मा सीएम की कुर्सी पर सवार हो गइल।" लेकिन कहते हैं न कि 'चोर चोरी से जाए हेरा फेरी से न जाए।' सो आदतें हैं बड्डे पड़ जाएं तो फिर उम्र भर साथ नहीं छोड़तीं। कभी भैंस को चारा चराते. चुराते उसका चारा चुग्गा ही लील गए। महोदय ने जिसकी पीठ पर बैठकर बचपन् बिताया उसी भैंस को बे-चारा कर दिया था। लेकिन सीबीआई ने लैंस लगा-लगा कर जांच की और नतीजा है कि जिनके पास चारा ही चारा था अब वही बे-चारा हैं, बे-सहारा हैं। नोट कबाड़ने के राजनीति में अनेक मार्ग हैं। जिसको देखो वही माल बनाकर लाल हो रहा है किसन् यह लाभ नहीं लूटा। मगर निरीह पशुओं का निवाला छीनने पर लगी हाय ने लालू को उनके झुंड के साथ् जेल में पेल दिया गया। बनबारी बोले- नहीं बड्डे यहां तो जो पकड़ा गया उसके बरक्स चोर-चोर का शोर है जो नहीं पकड़ा गया वह अब भी सवा शेर है। बहरहाल, राहुल गांधी ने जो गुल खिलाया है उससे कईयों की बत्ती गुल है। कई तो ऐसे हैं जिन्हें जेल की सलाखें सपने में डराने लगी हैं। चुनाव आसन्न हैं और बहुतों के सामने टिकिट का संकट खड़ा है। राहुल बाबा ने अध्यादेश को क्या फाड़ा अच्छे अच्छे फटेहाल, बेहाल, लहुलुहान होकर विक्षिप्त से 'विहेब' करने लगे हैं। उधर खबर है कि अपने जुर्माने  की रकम (25 लाख)को भरने के लिए लालू जेल में क्लास लेंगे और 25 रुपईया रोज कमाएंगे। उनकी पार्टी 'कॉनफिडेंस' में है कि लालू जेल से पार्टी को हांकेंगे और अपने बछुआ तेजस्वी को ताज तक पहुंचाने की आखिरी सांस तक जद्दोजहद करेंगे।

Sunday, 29 September 2013

राजनीति में नेता तीन तरह के

पिछले दिनों मध्य प्रदेश की दो बड़ी चुनावी सभाओं को बारीकी से तजबीजने और मथापच्ची करने के बाद बड्डे ने विश्लेषण दिया कि- देश की राजनीति में तीन तरह के नेता हैं। पहले वे जो पार्टी में वर्षो से जमे हैं, साठ के ऊपर हैं(कुछ खानदानी अपवादों को छोड़कर) आज भी पूजे जा रहे हैं,जो खांटी के हैं, जिनका एक गुट और आभामंडल है। ये वे नेता है जो पार्टी में परमानेंट हैं, जिनमें टिकट पाने, विधायक या मंत्री बनने की ललक नहीं, क्योंकि यह तो उनका, उनकी पार्टी में मौलिक अधिकार है। अब तो जो कुल कवायद है, वह केवल मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनने की लालच में निहित है। क्योंकि देश प्रदेश में राजनीतिक मोक्ष के दो ही साधन(पद) हैं- प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री। इसी मोक्ष के निमित्त वे हैलीकॉप्टर से इधर-उधर उड़ते, निरीह जनता को वादों के उपहार बांटते, वर्तमान सरकारों की धज्जियां उड़ाते, बखिया उधेड़ते नजर आते हैं। इनका काम इतना है कि वे शहर-शहर जाएं, फिल्मी हीरो के माफिक उड़नखटोले से वहां अवतरित हों, जहां पब्लिक उनके दर्शनों को उमड़े और वे मंच से हाथ हिलाएं, दिल मिले न मिले, लेकिन अपने साथियों के हाथ से हाथ जोड़कर, उन्हें हवा में लहराकर बनावटी यूनिटी का उद्घोष करें। ताकि संदेश दिया जा सके कि पार्टी के सिपहसालारों अब सत्ता हासिल करने के मिशन में पिल पड़ो, क्योंकि अब गुटबाजी का नहीं गांठ जोड़कर, हरकत करने का टाईम है। दूसरे वे नेता हैं जो 'लोकल' और 'वोकल' (बतोलेबाज) हैं। जिन पर इन बड़ी सभाओं में अपने-अपने दल बल के साथ 'पार्टीशिपेट' करने की जिम्मेदारी होती है। क्योंकि यही वह मौका और मंच हैं, अपने आकाओं के सम्मुख अपनी ताकत दिखाने का, कि वे टिकिट के असल दावेदार क्यों हैं? दरअसल, इनमें भी मंचासीन 'परमानेंट' नेताओं के 'सेप्परेट' समर्थक होते हैं, जिसके संकेत पोस्टरों, विज्ञापनों और सभा स्थल पर लगे नारों और पिटवाई गई तालियों से मिलते हैं। इनका 'ओनली टारगेट टिकट' होती है। तीसरे वे नेता हैं जो नई पौध कहलाती है। भले ये औसतन चालीस के आस-पास हैं, पर ऊर्जावान हैं। इनमें भी विधयक बनने की ललक है, मगर अनुशासन के नाम पर इनका शोषण पहले और दूसरे टाईप के नेता आजीवन करते हैं। इनका काम स्टेशनों में, हैलीपैड पर, सड़कों के किनारे, वंदन द्वार लगाकर, फूल-माला लिए, गगनचुम्बी नारों का उद्घोष मात्र है। इनके साथ फोकटिए टाईप के कुछ लड़कों की फौज फौरी तौर पर इकट्ठी होती और विलीन हो जाती है। आखिर बड्डे के इस विश्लेषण को गौर से सुनकर हमें तसल्ली हुई कि अब नेताओं की असलियत किसी से छिपी नहीं।

Friday, 20 September 2013

मोदी रे..अब देश हुआ बेगाना.


देश में मोदी विरोध के नए-नए तरीकों का इजाद हो रहा है। बड्डे बोले- सो तो है बड़े भाई। लोकतंत्र में सबको 'इक्वल राइट' है, 'इलेक्शन फाइट' करने का। 'इवन' उन्हें भी जो जेल में हैं।
आज की डेट में तो संसद में सौ से ऊपर की संख्या ऐसी है जिन पर किसी न किसी तरह के आरोप लगे हैं। मोदी पर भी गुजरात दंगों में राजधर्म न निभाने का आरोप है। तो क्या इसका अर्थ है कि वे चुनाव न लड़ें? 1984 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व में तो पूरे देश में दंगे हुए।
सरदारोंको ढ़ूंढ-ढ़ूंढ कर निपटाया और लूटा गया।
तब भी राजधर्म निभाया नहीं गया। लेकिन किसी ने चूं तक न की। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने यह कहकर चुप्प्प्प्प्पी साध ली थी कि जब बड़ा पेड़(इंदिरा की हत्या) गिरता है तो धरती हिलती है। लेकिन सब भुला दिया गया। तब से तीन सरकारें कांग्रेस की बनी। किसी ने देश नहीं छोड़ा। असम जहां की सीट से मनमोहन सिंह पीएम पद पर एपांइट हुए हैं, वहां दंगे हुए, समुदाय विशेष के लोग कत्लेआम किए गये, लेकिन खामोशी छाई रही। किसी ने देश नहीं छोड़ा, न ही राजधर्म न निबाहने की बात हुई। अब मुजफ्फरनगर के दंगों में कौन-कौन देश छोड़ता है देखना होगा। लेकिन मोदी को लेकर लोगों की निष्ठा हिल गई, उन्हें अछूत मानकर कथित दलों, जिन्होंने भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगा, उन्हें वही दल अब रावण दिख रहा है, वह भी दस नहीं सौ सिरों वाला। अभी तो मोदी केंद्र में जीते नहीं, मात्र अभियान पर हैं तो कथितों का हाजमा खराब होने लगा है। गर जीत गए तो क्या लोग बाग देश छोड़ देंगे, क्योंकि मोदी तानाशाह हैं, मोदी निरंकुश हैं,मोदी जीत गए तो देश के नियम कायदे कानून उनके चरणों की दासी हो जाएंगे।
क्या मोदी संविधान को रौंद डालेंगे? सोचो बड्डे कितनी कमजोर आस्था के लोग इस देश में रह रहे हैं। गुजरात में तीन बार से लगातार जनता उन्हें चुन रही है तो वहां के किसी नागरिक ने देश नहीं छोड़ा, उल्टे सव्रे कहते हैं कि गुजरात का कुछेक कमियों के बावजूद विकास ही हुआ। यहां तक कि योजना आयोग ने मोदी के विकास कार्यो को 'एप्रिशिएट' किया है। फिर भी 'सरप्राईजिंगली' कन्नड़ साहित्यकार डॉ यू आर अनंतमूर्ति टाईप के लोग किस बात पर मोदी के नाम से देश छोड़ने चले हैं। हां उनको जरूर देश छोड़ना पड़ सकता जिनका माल विदेशों में जमा है। अलबत्ता मोदी की आड़ में समुदाय विशेष में भय उत्पन्न कर, उनका भयादोहन वोट की गोटी फिट करने के लिए हो रहा है। चुनाव में दांव सबको आजमाने का अवसर है। सबका फैसला जनता की उंगलियों में है। इसलिए उंगली करनी है तो वोटिंग पैड पर करें, देश के प्रति निष्ठा पर नहीं। जिसको देश ने सब दिया उनके द्वारा देश का तिरष्कार शर्मसार करता है।

Sunday, 15 September 2013

दामिनी के दमन का विमर्श

आखिरकार दामिनी के दोषियों को ‘फांसी की फरमाइश’ जो घटना के दिन से हो रही थी, पूरी हुई। निश्चित रूप  इस मामले में इससे कम दंड पर बात नहीं बनती। दामिनी की जान पहले जा चुकी थी और अब बचे हुए अपराधियों की चौकड़ी का जीवन भी कानून ले लेगा। यह फैसला (इस चौकड़ी और उनके परिजनों छोड़कर) समस्त समाज को संतोष देता है। दूसरी ओर ऐसे ही सुकून का अनुमान दामिनी की आत्मा के लिए भी किया जा सकता है...। 
टी वी चैनलों और अखबारों में बड़ी-बड़ी बहसें चलीं, छपीं और इतिहास बन गर्इं। फेसबुक और ट्विटर पर उपजा गुस्सा भी चंद दिनों में काफूर हो जाएगा। लेकिन सवाल जो बेहद अहम है कि क्या अब ऐसी हरकत दोबारा नहीं होगी? क्या फांसी की सजा से उत्पन्न भय अपराध निरोध का काम करेगा? क्या यह फांसी नजीर बनेगी जिससे कामुक मानसिकता के लोग किनारा काट लेंगे या उनकी इन्द्रियां भोगवृत्ति से भयवश उदासीन हो जाएंगी...? जवाब आसान है की ऐसा हरगिज नहीं होगा। भले कानून या समाज, सजा को अपराधियों में भय का आधार मानता हो, मगर यह आधार सदियों से गलत साबित हुआ है। सच्चाई यह है कि ऐसी वारदातों से इतिहास के पन्ने पटे पड़े हैं। स्त्री हिंसा समाज में नासूर की तरह सतत बनी हुई है। और फिर दिल्ली की घटना  के बाद से तो और तेजी से ऐसी खबरें देखने, सुनने, और पढ़ने को सतत मिलती रही हैं...संभव है की जब आप यह आलेख पढ़ रहे हों उसी दिन अखबार के अन्य पन्नों में कोई न कोई एक और हादसा घटा और छपा हो।
 ज्वलंत प्रश्न है कि अब आगे क्या? कितनी फांसी, कितनों को हम और देगें और कितनी ज्योतियां बुझेंगी? फांसी में समाधान खोजने वाले समाज को इसकी पड़ताल करनी होगी कि स्त्री के विरुद्ध यौन हिंसा इतनी आक्रामक क्यों हो गयी है?
 बर्बर समाज से सभ्य समाज की विकास यात्रा, मूल्यों के आधार पर हुई। यह तथ्य है कि मूल्यों(हर तरह की नैतिकता) के खंम्भों पर समाज का तानाबाना खड़ा है। जब मूल्यों का पतन होता है तो हम पुन: बर्बर युग की और खिसकते नजर आते हैं। लब्बोलुआब यह कि ‘मूल्य’ मानव जीवन और समाज का बीज हैं। मूल्य जितने मजबूत होंगे समाज की बुनियाद उतनी दृढ़ होगी। स्त्री यौन हिंसा में असल मसला इसी बात का है। लेकिन आधुनिकता की बयार में मूल्य गिरे तो समाज की संरचना ढीली पड़ी। इसलिए बिना मूल्यों की प्राणप्रतिष्ठा किए चाहे वह पुरुषों में हो या स्त्रियों में बात नहीं बनने वाली। यह ऐसा अनुशासन जिसकी शुरूआत पारिवारिक जीवन में शुरू होती है। जिसका निर्वहन हर शख्स को निजी जिम्मेवारी के तौर पर करना होता है। लेकिन समाज में स्त्री स्वतंत्रता, समानता और पुरुषों की कुत्सित मानसिकता पर भौंडी बहसें चल रही हैं। यह समस्या के जड़ पर कुल्हाड़ी चलाने के बजाय शाखाओं को नोचने जैसा काम है। कथित लोग स्त्रियों के पहनावे पर आपत्ति करते हैं तो आधुनिकता के पोषक ऐसों की कुत्सित मानसिकता पर सवाल खड़े करते हैं।  लेकिन कभी-कभी आधुनिकता के ध्वजवाहकों द्वारा सम्पूर्ण समाज की समझ को एक स्तर पर देखने की चूक हो जाती है। पहनावे की स्वतंत्रता के संदर्भ में कोई बंधन न हों यह मांग बार-बार उठती है। यह मांग तालीबानी न हो जरूरी है मगर लेकिन यह अव्यवहारिक न हो इतना ख्याल तो किया ही जाना चाहिए।  लेकिन जो लोग बच्चों के साथ घिनौनी हरकतें करते हैं उनके मूल्य पाताल में जा धंसे है। 
लेकिन इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि बगैर नियंत्रण की स्वच्छंदता, अपराधिक कृत्यों की समानुपाती होती है। आज नवयुवक से लेकर बुजुर्गों के पास मोबाईल, इंटरनेट के संसाधन हाथों में हैं, जिसमें एक क्लिक पर वह समस्त यौन सामग्री को प्ले कर सकता है, जिसे देखने के लिए पहले पाबंदी है।  इसके समर्थन में कथित लोग यौन शिक्षा का अंधा समर्थन करते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि ऐसा खुला, समझदार समाजिक वातावरण हम निर्मित नहीं कर पाएं हैं। यौन शिक्षा वह भी कम उम्र में और विवाह अधिक उम्र में बात गले नहीं उतरती। हर शिक्षा की परीक्षा होती है। यही यौनिक विकृत की एक अहम वजह है। 
स्त्री स्वंतत्रता व समानता की बातें और उनको बढ़ावा हर स्तर पर हर हाल में दिया जाना चाहिए। रूढ़िवादी पुरुषों को यह समझना होगा कि स्त्री को लिंग भेद के आधार पर भेदभाव के भंवर में देर तक उलझाये नहीं रखा जा सकता। क्योंकि आधुनिक समय में स्त्री का चेहरा बदला है। आज वह मात्र सम्मान का नहीं, समानता का व्यवहार चाहती है। सदियों से समाज ने उसे पूज्य बनाकर उसकी देह को आभूषणों से लाद कर परंपरगत आदर्शों की घुट्टी पिलाकर उसके दिमाग को कुंद करने का काम किया है। इस दीवार को तोड़ने की उसकी हर कोशिश पर अब बवाल मचता है। 
सवाल है कि स्त्री करे क्या? भले यह बात अटपटी लगे मगर स्त्रियों को खुद से संवाद करना होगा। धोखे से बचने का यही कारगर उपाय है कि वह खुद को वहां की समाजिक स्थितियों के मुताबिक रखे। भावुक होना उसका स्वभाव है और इसी भावुकता का दोहन उसके शोषण का कारण बनता है। वैचारिक मजबूती के लिए स्वाध्याय पर खुद को केंद्रित करें। एक मजबूत कैरियर उन्हें वह खुशी दे सकता है जिसे वे किसी के अन्य तरीकों से हासिल नहीं कर सकतीं। ब्बॉय फ्रेंड की बजाय अध्ययन पर अधिक ध्यान जीवन में रंग भर सकता है।   और फिर स्कूल-कॉलेज का जीवन सिर्फ बेहतर अध्ययन और सुनहरे भविष्य के निर्माण का अवसर है, यह वक्त दोबारा नहीं आता। इस बात को वे अपने दिल दिमाग को जितना बेहतर समझा सकती हैं, तो खुशहाल जिंदगी की ओर एक कदम बढ़ा देंगी।
हर काम का एक निश्चित समय है,उसे समय के मुताबिक अंजाम दें तभी समाजिक स्थितियों में बदलाव लाए जा सकते हैं। तभी अबला को सबला में तब्दील किया जा सकता है, जहां तक सम्भव हो वह अपने जीवन की प्राथमिकताएं खुद तय करे, जिसमें स्वतंत्रता का बोध तो हो, मगर वह उच्छृखंलता से परे हो। कथित पुरुषों की मानसिकता को भले प्रत्यक्ष तौर न बदला जा सके, मगर इतना तय मानिए कि खुद को समय के साथ मजबूत करके ऐसी मन: स्थिति के समाज को सबक सिखाया जा सकता है। 
दिल्ली, मुम्बई की घटनाएं तो वे हैं जो मीडिया की सुर्खियां बनी लेकिन अनेक ऐसी वारदातें है जिनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह जाती है। स्त्री के विरुद्ध यौन हिंसा के बीज समाज में सदियों से विद्यमान रहे हैं, इन्हें कानून के भय से समाप्त तो नहीं किया जा सकता हां कम अवश्य किया जा सकता है। 
फिर भी पर्दे के पीछे से आगे तक के सफर में महिलाओं को कई पहाड़ लांघने पड़े हैं और अभी कई शेष हैं। कहते हैं कि शिक्षा के साथ संपन्नता और सभ्यता में भी इजाफा होता है। लेकिन फिर भी आदमी के दरिंदा होने की नजीरें हमारे समाज में बढ़ रही हैं। दामिनी के स्मृति में इस विषय पर गहन मनन करने का यही समय है।

हिंदी देश के माथे की बिंदी

ब ड्डे ने प्रात:काल ‘सुप्रभात’ के सम्बोधन के साथ सूचित किया कि आज चौदह सितम्बर है। इस तारीख को हिन्दी में ‘हिन्दी दिवस’ और अंग्रेजी में ‘हिन्डी डे’ कहते हैं। हां बड्डे! आज के दिन हिन्दी-हिन्दी के कीर्तन का उत्सव नुमा वातावरण चतुर्दिक नजर आयेगा है। अखबारों में हिन्दी की दयनीय दशा पर  बड़े-बड़े बल्लमों (जिनके बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ते हैं) के लेख छपेंगे, हिन्दी के पिछड़ेपन पर रुदन-क्रंदन भी भव्य समारोहों के जरिए जाहिर किया जाएगा, हिन्दी के संरक्षण, प्रयोग और विकास के बरक्स गगनचुम्बी संकल्प लिए जाएंगे। और तो और आज के दिन अंग्रेजी परस्त भी ‘इमोशल’ हो कह ही देते हैं कि ‘टुडे इज हिन्डी डे’। लेकिन शाम होते-होते हिन्दी प्रेम की खुमारी उतरने लगेगी। तब हिन्दी, हिन्दुस्तान के माथे की मात्र बिंदी बनकर रह जाएगी, जो साफ संकेत है कि देश की राष्टÑभाषा हिन्दी का महत्व शीर्ष पर है, लेकिन उसका स्थान बिन्दी जित्ता है। इस बिन्दी की आड़ में सरकार और समाज के समस्त काम-काज, पढ़ाई-लिखाई से लेकर रोजगार हासिल की अंतिम सत्ता अंग्रेजी के चरणों में गिरवी है। बड्डे बोले कि- भाषायी हालात तो जे हैं कि देश के नुमार्इंदे देश में ही अंग्रेजी पेलते हैं। वहां भी जहां हिन्दी से काम चलाया जा सकता है। सो इनसे भाषायी प्रेम की उम्मीद करना पाप है। बड़े-बड़े विद्वान, सिनेमा के सितारे हिन्दी बोलते वक्त जब अपनी बात कहते अटक जाते हैं तो ‘यू नो आई मीन टू से दैट’ से शुरू करते हुए, बिना अंग्रेजी अपनी बात ठीक से नहीं कह पाते। न्याय की भाषा अंग्रेजी में उनके लिए भी है जो अंग्रेजी की ‘ए,बी, सी, डी’ नहीं जानते। अब मोदी ने भी ‘ए, बी, सी, डी’ के संकेत शब्दों में सरकार पर इल्जाम लगाया है तो कांग्रेस के मनीष तिवारी ने ‘एफ’ के कोड में जबाव दिया है। बड्डे! हिन्दी प्रेम का आडम्बर तो आजादी के बाद से जारी है..लेकिन हकीकत में हिन्दी की वाट लग चुकी है। शासन का एक ठईया स्कूल अंग्रेजी माध्यम का नहीं है मगर अंग्रेजी में दीक्षित और दक्ष हुए बिना एकउ नौकरी हासिल नहीं की जा सकती। द्विवेदी युग में हिन्दी में कठिन शब्दों का प्रयोग बढ़ा तो भाषा की कठिनाईयों पर फिकरे भी कसे गए। बड्डे के छोटे भाई बनबारी ने, जो इंगलिश मीडियम में अध्ययनरत हैं, ने चंद उदाहरणों से इसकी खिल्ली कुछ यूं उड़ाई कि विद्युत के ‘स्विच’ को हिन्दी में- ‘विद्युत गमन आगमन नियंत्रक’। ‘हैलीकॉप्टर’ को ‘उदग्ररोही’ तो, ‘गॉगल’ को ‘कर्ण चिपकित नासिका स्थित पारदर्शक यंत्र’। इन फिकरों के बावजूद आज देश अपने माथे पर हिन्दी की बिन्दी लगाए अपनी राष्टÑभाषा के लिए, अपने ही देश में, अपने लोगों के बीच जिन्दा रहने के लिए संघर्षरत है।

Saturday, 14 September 2013

हिंदी देश के माथे की बिंदी

बड्डे ने प्रात:काल ‘सुप्रभात’ के सम्बोधन के साथ सूचित किया कि आज चौदह सितम्बर है। इस तारीख को हिन्दी में ‘हिन्दी दिवस’ और अंग्रेजी में ‘हिन्डी डे’ कहते हैं। हां बड्डे! आज के दिन हिन्दी-हिन्दी के कीर्तन का उत्सव नुमा वातावरण चतुर्दिक नजर आयेगा है। अखबारों में हिन्दी की दयनीय दशा पर बड़े बड़े  बल्लमों (जिनके बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ते हैं) के लेख छपेंगे, हिन्दी के पिछड़ेपन पर रुदन-क्रंदन भी भव्य समारोहों के जरिए जाहिर किया जाएगा, हिन्दी के संरक्षण, प्रयोग और विकास के बरक्स गगनचुम्बी संकल्प लिए जाएंगे। और तो और आज के दिन अंग्रेजी परस्त भी ‘इमोशनल’ हो कह ही देते हैं कि ‘टुडे इज हिन्डी डे’। लेकिन शाम होते-होते हिन्दी प्रेम की खुमारी उतरने लगेगी। तब हिन्दी, हिन्दुस्तान के माथे की मात्र बिंदी बनकर रह जाएगी, जो साफ संकेत है कि देश की राष्टÑभाषा हिन्दी का महत्व शीर्ष पर है, लेकिन उसका स्थान बिन्दी जित्ता है। इस बिन्दी की आड़ में सरकार और समाज के समस्त काम-काज, पढ़ाई-लिखाई से लेकर रोजगार हासिल की अंतिम सत्ता अंग्रेजी के चरणों में गिरवी है। बड्डे बोले कि- भाषायी हालात तो जे हैं कि देश के नुमार्इंदे देश में ही अंग्रेजी पेलते हैं। वहां भी जहां हिन्दी से काम चलाया जा सकता है। सो इनसे भाषायी प्रेम की उम्मीद करना पाप है। बड़े-बड़े विद्वान, सिनेमा के सितारे हिन्दी बोलते वक्त जब अपनी बात कहते अटक जाते हैं तो ‘यू नो आई मीन टू से दैट’ से शुरू करते हुए, बिना अंग्रेजी अपनी बात ठीक से नहीं कह पाते। न्याय की भाषा अंग्रेजी उनके लिए भी है जो अंग्रेजी की ‘ए,बी, सी, डी’ नहीं जानते। अब मोदी ने भी ‘ए, बी, सी, डी’ के संकेत शब्दों में सरकार पर इल्जाम लगाया है तो कांग्रेस के मनीष तिवारी ने ‘एफ’ के कोड में जबाव दिया है। बड्डे हिन्दी प्रेम का आडम्बर तो आजादी के बाद से जारी है..लेकिन हकीकत में हिन्दी की वाट लग चुकी है। शासन का एक ठईया स्कूल अंग्रेजी माध्यम का नहीं है मगर अंग्रेजी में दीक्षित और दक्ष हुए बिना एकउ नौकरी हासिल नहीं की जा सकती। द्विवेदी युग में हिन्दी में कठिन शब्दों का प्रयोग बढ़ा तो भाषा की कठिनाईयों पर फिकरे भी कसे गए। बड्डे के छोटे भाई बनबारी ने, जो इंगलिश मीडियम में अध्ययनरत हैं, ने चंद उदाहरणों से इसकी खिल्ली कुछ यूं उड़ाई कि विद्युत के ‘स्विच’ को हिन्दी में- ‘विद्युत गमन आगमन नियंत्रक’। ‘हैलीकॉप्टर’ को ‘उदग्ररोही’ तो, ‘गॉगल’ को ‘कर्ण चिपकित नासिका स्थित पारदर्शक यंत्र’। इन फिकरों के बावजूद आज देश अपने माथे पर हिन्दी की बिन्दी लगाए अपनी राष्टÑभाषा के लिए, अपने ही देश में, अपने लोगों के बीच जिन्दा रहने के लिए संघर्षरत है।

Saturday, 7 September 2013

भटकल पर कमाल के भटकाव

बड्डे ने पहले टीवी पर कमाल फारूकी का कमाल का बयान सुना कि 'यदि आतंकवादी भटकल को इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि वह मुसलमान है, तो इस गिरफ्तारी की जांच करके यह सुनिश्चित किया जाए कि भटकल को मुस्लिम होने की सजा न मिले।' फिर हमें फोन मिलाया कि बड़े भाई देश में राजनीति का स्तर कितना गिर गया है।
सोचता हूं कि क्या रुपए की गिरावट और राजनीति परस्पर समानुपाती हैं? पहले रुपया मजबूत था तो इतनी गिरावट न थी जितना 68 रुपया तक गिर जाने के बाद है। 'इट मीन्स' रुपया मजबूत, तो देश मजबूत और देश तो राजनीति भी। लेकिन रुपया से लेकर हर स्तर पर गिरावट है चाहे बाबाओं को देख लो, या लुच्चे टाईप लड़कों को। अब जो बचा है वह ओनली 'टुच्ची राजनीति' है। चाहे सदन में देख लो, या फिर सड़क पर। जो कथित नेताओं के निजी टाईप के दलों के मार्फत गाहे बगाहे बिजली की तरह कड़कती और लुप्त हो जाती है। इस पर बड़े भाई ने एक शेर मारा-
 "देखो बड्डे बिजली कैसे चमक तुरत छिप जाती है,
 जैसे मुहब्बत लुच्चे की, पल भर में खमत हो जाती है।"
इत्ता तो मानना होगा बड़े भाई कि भले लोकतंत्र संस्था का अविष्कार यूरोप में हुआ हो पर उसका असल प्रयोगकर्ता देश भारत है। इसलिए लोकतंत्र की 'ओरिजनल' स्वतंत्रता केवल अपनी कंट्री में दिखती है कि कैसे 'लोक' स्वतंत्र रूप से 'तंत्र' को चलाने के लिए पहले नुमाईंदो को चुनता है, फिर ये नुमाईंदे इसी 'तंत्र' में बैठकर 'लोक' पर मनचाही सवारी गांठत् हैं कि जो जी में कहो, करो लेकिन पांच् साल 'सेफ' है। अब बड्डे की बारी थी टुच्चा टाईप शेर दागने की, कि-
 "यहां चाहे जो करो वाह! क्या शमा है,
 कुछ बको इस लोकतंत्र में सब क्षमा है।"
अब टुंडा की तरह भटकल भी भटकते-भटकत् किस्मत से गिरफ्त में आया तो देश के 'सो कॉल्ड सेक्युलर' नुमाईंदों को इनमें आंतकी कम 'मुस्लिम् फैक्टर' ज्यादा दिख रहा है। ऐसे में हमें अटल विहारी वाजपेयी का स्टेटमेंट याद हो आया कि- 'यह सच है कि हर मुसलमान आतंकी नहीं मगर अफसोस की बात है कि हर पकड़ा गया आतंकी मुसलमान निकलता है।' मगर इन कथितों को यह गवारा नहीं कि कोई आतंकी मुसलमान है, गर है तो यह मुसलमान् के सम्मान के खिलाफ है। इतनी चिंता इसलिए क्योंकि उनका मुसलिम वोट पर कॉपीराईट है। वर्षो से वे इसी वोट की रोटी और वोटी खा रहे हैं। ऐसों के लिए वोट प्राथमिक और देश द्वितीयक है। इसीलिए आतंकी नेता को नहीं, जनता को निपटाते हैं। यानी दोनों का टारगेट 'जनता' है, हां तरीके अलग-अलग हैं। सो बड़े भाई कमाल भल् भटकें भटकल पर मगर पब्लिक है कि सब जानती है।

Sunday, 1 September 2013

बाबाओं के जबड़े में समाज

     बाबाओं पर मचे बवाल को लेकर भगवती चरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ में तीन चरित्रों (बीजगुप्त, चित्रलेखा और कुमारगिरी)की स्मृति हो आती है। जिसमें बीजगुप्त और चित्रलेखा अपना सांसारिक जीवन समाज में स्पष्ट छवि के तौर पर जीते हैं। लेकिन कुमारगुप्त आध्यात्मिक संत की तरह आदर्श जीवन। कुमारगुप्त सभाओं ईश्वर की श्रेष्ठता और चारित्रिक निष्ठा की गाथा गाते हुए संसार को भटकाव की वजह मानते तिरिष्कृत करते। लेकिन जब उनकी इसी श्रेष्ठता से अभिभूत होकर चित्रलेखा उनके आश्रम में दीक्षा के लेने जातीं तो... बाबा कुमारगुप्त उन्हें हवस का शिकार बनाने के लिए उन पर टूट पड़ते। उनका संतत्व विलीन हो जाता। यह प्रसंग इसलिए कि देश आज भी कमोबेश ऐसे बाबाओं की यही दुर्दशा चहुं ओर दिखाई देती है।
बाबा या संत शब्द ऐसी उम्र के शख्सियत की तस्वीर सामने लाती है जो न सिर्फ उम्र में बड़ा हो बल्कि उसका ज्ञान, चरित्र और स्वभाव क्रमश: श्रेष्ठ, उज्जवल और विनम्र एवं अनुभव से युक्त हो। कुल मिलाकर एक विश्वसनीय चेहरा जिस पर हर तरह से ऐतबार किया जा सके। भारत में यह पदनाम इन्हीं गुणों के समुच्चय का प्रतीक रहा है। इसीलिए इन्हें समाज में अधिकतम आस्था और श्रद्धा के साथ देखा और स्वीकारा जाता है। लेकिन वक्त के साथ समाज के स्वरूप में आये परिवर्तन ने इन बाबाओं के प्रति कई तरह की भ्रांतियां तोड़ी और जोड़ी। संतों का जीवन  समाज के लिए समर्पित होता है, इसीलिए उनका सर्वोच्च सम्मान समाज में रहा है। लेकिन अब बाबाओं की गतिविधियां समाज कल्याण की कम, व्यवसायिक अधिक होती जा रही हैं। धन और भोग को मोह और पतन की वजह बताने वाले ये कथित संत खुद इसी माया के मोह-भोग में बुरी तरह लिप्त हैं। इनके आलीशान मठ और आडम्बरों की चकाचौंध से प्रभावित जनसमुदाय लौकिक(सांसारिक) लाभ को, अलौकिक कृपा से पाने लिए बाबाओं के चरणों में लोटता दिखता है।
इसी परंपरागत समाज की भावनात्मक आस्था का दोहन धर्म की आड़ में करके सयाने बाबाओं ने इस व्यवसाय को कुटीर उद्योग का रूप दे दिया। क्योंकि महिलाएं तुलनात्मक रूप से अधिक आस्था से इनके चरणों में वंदन करती हैं। इसलिए वे किसी भी पंडाल अथवा मठ में ताली पीटती सहज देखी जा सकती हैं। इसलिए बाबाओं के लिए महिलाएं अधिक ‘साफ्ट टारगेट’ होती हैं। यही वजह है कि वे आये दिन इनके झांसे में फंसती और पछताती हैं। आसाराम का हालिया झांसा भले उजागर हो गया हो पर ऐसे अनेक बाबाओं के प्रकरण होंगे, जिनका सच स्त्री संकोच और जांच के आभाव में दफ्न हो गया होगा। स्त्री के इसी शर्मीले स्वभाव के चलते अनैतिक क्रियाओं को करने की हिम्मत इन बाबाओं में जन्मती है। 
इसलिए बाबा या संतों के प्रति अगाध अंध आस्था ही स्त्री शोषण इनका हथियार बनता है। हैरत तब होती है जब पढ़ी लिखी स्त्रियां भी इनके चंगुल में आ जाती हैं। यह बात समझी जानी चाहिए कि ईश्वर ने हमें मनुष्य के रूप जन्म दिया इससे बड़ा चमत्कार और क्या हो सकता है। क्या कोई बाबा ऐसा चमत्कार कर सकता है? उत्तर है नहीं। लेकिन फिर भी हम अज्ञानता या लालचवश चमत्कारों के फेर में उलझते रहते हैं। घोर सांसारिक बाबा या संतों से ईश्वरीय चमत्कार के साकार हो जाने की अभिलाषा रखते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि मनुष्य और ईश्वर के बीच संवाद में कथित बाबा या संत जैसे दलालों का क्या काम हो सकता है। हां सच्चे सद्गुरू या संत का मार्गदर्शन निश्चित हमारे जीवन की राह प्रशस्थ करता है। लेकिन संत के सामान्य लक्षण- सादगी, सरलता, विनम्रता, आडम्बर से दूर, शुचिता और भेदभाव से परे जैसे गुणों का धारण करने वाले व्यक्ति ही कल्याण की राह दिखा सकता है। मात्र संतों का चोला, बढ़ी हुई दाढ़ी, चंदन लगाने जैसे रंगे सियार के उपाय कर लेने से ये कथित महानुभाव संत नहीं हो सकते। इसीलिए माया और वैभव को देखते ही सियार की तरह अपनी औकात में अवतरित हो हुआ हुआ करने लगते हैं।
 आज सवाल मात्र आसाराम पर कोहराम का नहीं है बल्कि चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि हम इन संतों के पीछे किस भय या लिप्सा से अंधे बनकर दौड़ रहे हैं। यों तो हम बात-बात में अपने ज्ञान का दम्भ जताते अघाते नहीं, लेकिन अज्ञात सुख की चाह में हमारा विवेक बाबाओं के फेर में बिलबिला सा जाता है। हम इतना भी विचार नहीं करते कि आत्मा की बड़ी इकाई परमात्मा है और हम उसी का विस्तार हैं। यानी मनुष्य और प्रकृति का विस्तार उसका ही विस्तार है। जैसे समुद्र की एक बूंद में वही सारे तत्व हैं, जो   समूचे समुद्र में। बस फर्क है तो दोनों की लघुता और महत्ता का। इसलिए समय है कि जब हम अपनी इस समझ से संवाद करें। कि हम भी उन सभी क्षमताओं से युक्त हैं, न कि उनसे जो ऐसे नाटकीय बाबाओं के छद्म अवरण में छुपी है। 
हास्यास्पद है कि अपने सामान्य व्यवहार में हम हर बात का तर्कपूर्ण उत्तर देते और चाहते हैं मगर बाबाओं की शरणागति में हमारा तार्किक ज्ञान कुंद हो जाता है। वर्तमान क्षण ही जीवन है जो बीत गया वह मात्र इतिहास और जो आने वाला है उस पर हमारा कोई निश्चित हक नहीं। इसलिए वर्तमान को जिएं। अंग्रेजी में वर्तमान को ‘प्रेजेन्ट’ कहते हैं और ‘प्रेजेन्ट’ का एक अर्थ उपहार भी है। अत: वर्तमान से बड़ा जीवन का कोई दूसरा उपहार नहीं। इसलिए भविष्य के काल्पनिक सुखों के लिए वर्तमान को नष्ट न कर दें। ...और फिर जिस देश में स्त्री को देवीस्वरूपा माना गया है, देवता भी इनकी स्तुति करते हों, वहां देवियों को कम से कम फर्जी बाबाओं की संगति से तो परहेज करना ही चाहिए। पहले जो जीवन मिला है उस आस्था रखें, स्वाध्याय करें, खुद पर विश्वास करें..यकीन मानिये आप उनसे खुद को सुखी और संतुष्ट पाएंगे जो मायावी बाबाओं के जबड़े में जकड़े हैं।



Saturday, 31 August 2013

बहुत रस है "मिडिल क्लास"

बड्डे ने अर्ली मॉर्निग चुटकी ली कि अपने मौन मनमोहन जी, अब अपना मुख गाहे बगाहे खुद भी खोलने लगे हैं।मगर बड़े भाई उन्होंने मुखड़ा भी तब खोला जब पानी सर पर आ गया और देश पानी-पानी (बारिश से और साख से भी) हो रहा है। तिस पर घोषणा कि हमारे भरोसे न रहो देश कठिन आर्थिक स्थितियों में घिरा हुआ है। ई ससुरी इस सरकार ने दस बरस में देश को ऐसे हालातों में लाकर धर दिया कि आवाम की लानत मलानत हो रही है। लोग जी जी कर मर रहे हैं और मर मर कर जी रहे हैं। हालांकि अब पीएम की कुर्सी ही 'डेंजरजोन' में है। जब अर्थशात्री पीएम ही खतरा मान ले तो फिर पब्लिक कहां सर पटके, और राहत की उम्मीद बांधे। और फिर अब तो चला चली की बेला है, सो जनता से सच छुपाने का कोई औचित्य नहीं। यह तो 'कनफेशन' का टाईम है, क्योंकि अब चुनाव दूर नहीं। जो करना है सो जल्दी करना है। खाद्य सुरक्षा बिल को लाने की हड़बड़ी इसी का नतीजा है। रुपया चाहे गिरावट का शतक मार ले।मगर रुपइया, दो रुपइया में अन्न देकर सरकार गरीबों का रहनुमा क्यों न बन लें। क्योंकि अंत भला सो सब भला। पॉसिबल है कि 'पेट के बदले वोट' कार्ड चल निकले। राजनीति अपार संभावनाओं का मैदान है इसलिए इस नए खेल में अंतिम क्षणों में गुल खिल जाए तो क्या बुरा है? उधर कुछेक सव्रे के मुताबिक मनमोहन और राहुल की उम्र के लगभग औसत उम्र(80+44=62)वाले मोदी ने बिना प्रधानमंत्री बने जिस तरह से आभासी प्रधानमंत्रीय भूमिका निभाने का जज्बा दिखाया है। उससे गत दस बरस से पीएम की कुर्सी पर नियुक्त मनमोहनजी से, बिना पीएम बने लोकप्रियता की टीआरपी में आगे निकल गए। उधर इनके खजांची चिदम्बरमजी ने रुपए की रोज-रोज की गिरावट पर पहले तो फिल्मी 'स्टाइल' में तसल्ली दी कि 'डोन्ट वरी' सब दुरुस्त हो जाएगा, लेकिन फिर भी रुपया है कि मानता ही नहीं, निरंतर लुढ़क रहा है, सो कुढ़कर कह दिया कि 'रुपया के गिरने से मेरे जेब में रखे पांच सौ का नोट क्या 342 का हो गया?' मुसीबत में ज्ञान बिलबिला जाता है सो मंत्री जी ताव में भूल गए कि जब तेल आयात होगा तो डॉलर में होगा, तब जित्ता 500 रुपईया में तेल आता था अब उत्ता नहीं आयेगा। यानी धरे रहो अपना नोट जेब में मगर गाड़ी की टंकी में तेल तली में रह जाएगा, न कि छलकेगा। अरे बड्डे सरकार जानती है कि इस देश की में मिडल क्लास में बहुत रस है। वह इसी रस को निचोड़ना चाहती है। सो जितनी भी चिल्लपों है वह इसी क्लास में। इसीलिए मनमोहन जी ने 'मिडिल क्लास' के बरक्स कठिन स्थितियों का जिक्र किया है। क्योंकि गरीब का पेट सरकार भरेगी और अमीर खुद सक्षम है।

Tuesday, 20 August 2013

समाज का दायरा

   जीवन के विकास और विनाश का क्रम, चाहे वह साधनों के स्तर पर हो अथवा संरचना के, समय के साथ क्रमिक रूप से अप्रत्याशित तरीकों से होता रहता है। आज हमारा वर्तमान जितने साधनों, सुविधाओं से लबरेज है, वह किसी दौर में अकल्पनीय, असम्भव सा और मानव सोच से परे था। ज्यादा पहले नहीं महज चार सौ बरस पहले यदि अकबर के युग में कोई बादशाह से कहता कि हुजूर आगे ऐसा युग आयेगा जब मोबाइल जैसे बित्ते भर यंत्र से लोग-बाग दूर-दूर तक बात कर सकेंगे अथवा टेलीवीजन व इंटरनेट के माध्यम से सुदूर इलाकों की घटनाओं को  न सिर्फ देख सकेंगे बल्कि सचित्र संवाद भी कर सकेंगे, तो शायद उस शख्स को बेबकूफ या विक्षिप्त मानकर कारागार में डाल दिया जाता। थोड़ा और पहले के इतिहास पर नजर करें तो यूरोप के खगोलविद कोपरनिकस के यह जब घोषित किया कि धरती और समस्त ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर गतिमान हैं। इस बात का बतंगड़ खड़ा हो गया लेकिन बाद वर्षों में इस खगोलीय प्रघटना की पुष्टि जब गैलिलिओ ने की तो उनकी आँख फोड़ दी गयी. लेकिन तब असम्भव सी लगने वाली बात बाद में सत्य साबित हुई। अज्ञानता और वक्त के गर्भ में छिपे रहस्यों पर जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं पड़ता वे अविश्वसनीय होते हैं। एक और वाकया मुझे बचपन का स्मरण हो आता है। करीब 30-32 साल पहले का जब मैं अपने गांव के बड़े से आंगन में दादी के साथ चारपाई पर खुले आसमां तले लेटे-लेटे किस्से कहानियां सुन रहा था। वह  स्वच्छ धवल आकाश वाली काली रात थी। आसमान ऐसे लग रहा था मानो तारों की बारात सजी हो। ऐसे दृश्य शहरी जीवन में बहुमंजिला इमारतों में कहीं नहीं हैं। अलबत्ता कुछ लोग बाजार से खरीदे रेडियम के सितारे अपने बेड रूम की छत में चिपका कर प्रकृति के नजारे को कृत्रिम रूप से देखने और अपने बच्चों को दिखाने की कोशिश जरूर करते हैं। ...हां तो कहानी सुनते वक्त मेरे कान तो दादी की आवाज पर थे, मगर निगाहें उन बेहद चमकीले तारों पर और बादलों में छिपते निकलते चन्द्रमा की चंचलता पर। तभी मैंने और दादी ने एक साथ एक तारा आसमान से टूटते हुए देखा, जो धरती की ओर आते हुए बुझ सा गया। दादी ने कहानी को बीच में रोककर इस प्रघटना पर शोक नुमा आवाज में राम-राम कहकर एक अल्पविराम के बाद कहानी को आगे बढ़ाना शुरू ही किया था। मैंने कौतूहलवश दादी से सवाल किया कि ये क्या था? तो उन्होंने कहा कि बेटा यह तो ईश्वरीय लीला है। किसी तारा का टूटना जीवधारी के धरती से स्वर्गवास होने का संकेत है। तब मेरे मन में दादी की बात किसी सत्य तथ्य की भांति पैठ गई थी और तब तक बैठी रही जब तक भूगोल की पुस्तकों में खगोलीय घटनाओं के बारे में पढ़ समझ नहीं लिया कि यह किसी उल्कापिंड का धरती की ओर गिरने के दौरान उसके वायुमंडल में आते ही जल उठने की चमक है, न कि तारे का टूटना। इस तरह ऐसे अनेक मिथक हमारे जीवन का हिस्सा सदियों तक बने रहे हैं, जब तक उनका उदघाटन नहीं हो गया। 
जब से मनुष्य ने समुदाय में रहना शुरू किया तब से लेकर कोई सौ साल पहले तक उसके जीवन और समाज  का दायरा बहुत अधिक नहीं था। शादी-संबंध आस-पास के गांवों में होते थे और सारा जीवन एक निश्चित दायरे में समाप्त हो जाता था। लेकिन आजादी के बाद के वर्षों में यह सामाजिक वृत्त बढ़ा है, तो इसके नेपथ्य में काफी हद तक इस दौर का तकनीकि विकास है। इस बड़े वृत्त का क्षेत्रफल तो अधिक हुआ मगर इसकी मिठास घटती गई है। फिर शुरू हुआ नए तकनीकि संसाधनों पर आधारित समाज को दौर। आज से तीन दशक पहले सोशल मीडिया के अंतर्गत फेसबुक और टिवटर जैसे अभिव्यक्ति के प्लेटफार्म की किसी ने कल्पना भी न की होगी। लेकिन आज ये जिन्दगी के ऐसे अंग बनते जा रहे हैं कि अब इनके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। अभी तक समाज में हमारे विस्तार का तरीका पास-पड़ोस, रिश्ते-नाते और स्कूल-कॉलेज या दफ्तरों में सहपाठी और सहयोगियों के बीच पनपता और विकसित होता रहा है। ऐसे समाज में हमारी अंतरक्रिया प्रत्यक्ष और वास्तविक होती है। लेकिन विकास के इस क्रम में ज्यों-ज्यों साधनों और सुविधाओं का प्रादुर्भाव हुआ त्यों-त्यों प्रत्यक्ष सामाजीकरण का दायरा भी सिकुड़ता हुआ घर की चहादीवारी से कमरे तक सीमित होता गया। इसकी वजह पहले टेलीवीजन था अब इंटरनेट है।  इंटरनेट के विस्तार ने एक वर्चुअल समाज की अवधारणा हमारे सामने ला दी है। जिसका रास्ता वास्तविक समाज से ऐसे काल्पनिक समाज की ओर जाता है, जो हो के भी नहीं है, मगर विचारों, भावनाओं, चिंतन में नित्य, सतत विद्यमान है। यह ऐसा विस्तार है जिसका आधार एक छाया चित्र और शब्दों के संवाद के सिवा और क्या है? लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता यह कब हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन जाता है अनुभव कर पाना कठिन है, लेकिन एक बार यह आकार ले ले तो फिर इसके बिना रहना भी कठिन है। गर इस व्यवस्था के मनोविज्ञान पर गौर करें तो ऐसा समाज हमारी गैर-जिम्मेवारी की बढ़ती स्वच्छंद प्रवृत्ति का प्रतीक है। आधुनिक दौर में मनुष्य वही चाहता है जो पुराने समय में, क्योंकि उसकी इंद्रिया आज भी उतनी ही हैं जितनी सदा से थीं। बस फर्क है तो जिम्मेदारियों से बचने का गणित। इसकी एक बड़ी वजह है   इंटरनेट पर वर्चुअल दुनिया का तेजी से उदय और विस्तार। लेकिन आज जब हम ज्ञात या परिचित के साथ यदि समायोजित होने में असहज महसूस करने लगे हैं। तब यह मानना पड़ता है कि देह के स्तर पर भले हम परिवर्तित न हुए हों, मगर मानसिक, महत्वाकांक्षाओं या लालच के स्तर पर हममें बड़ी तब्दीली आ चुकी है। छद्म आवरण, बनावटी बातें, दिखावे का प्रदर्शन हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। इसलिए टिवटर और फेसबुक की जमीन पर कुकरमुत्तों की तरह उदय और अस्त होते रिश्तों का आधार मात्र यह बनता जा रहा कि कौन किसकी कही बात पसंद करता, टिप्पणी करता या ऐसा नहीं करता है। यहां भी एक प्रतियोगिता है कि किसके कितने मित्र हैं जिसका फेसबुकिया स्टेटस इस पैमाने पर उच्च या निम्न श्रेणी में देखा जाता है कि उसके स्टेटस पर कितने लाईक और टिप्पणी आर्इं। ख्याली पुलाव की तरह इन दोस्तों से लोग रू-ब-रू होते हैं। यह बात दीगर है कि रोज रोज के सत्संग से कुछ लोग वाकई अजीज और घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं। यह प्रयोग नया है इसलिए आकर्षक है। मगर यह भूलना बड़ी भूल होगी कि स्वाचालित खिलौने या तकनीकि संसाधन वास्तविक मानवीय संगत का विकल्प हो सकते।

Saturday, 6 July 2013

न गरीब रहेगा, न ही गरीबी

बड्डे खाद्य सुरक्षा की सरकारी पहल से भौंचक्के हो बड़बड़ाये कि- 'बड़े भाई पहले दुत्कार और फिर प्यार। जा तो कछु ऐसई है जैसे 'तनक धमक दई, फिर पुटया लऔ!' सरकारें बड़ी सयानी हैं बड्डे। चुनाव आये नहीं कि उसे कभी गरीबी रास आती है तो कभी यह सताने लगती है। खाद्य सुरक्षा के 'इमोशनल' उपाए (एक-दो रुपइया किलो में अनाज) यानी तकरीबन फोकट में पेट भरने का सिस्टम सरकार को तभी सूझ जब उसके 'एग्जाम' (चुनाव) सर पर आ चुके है। अरे तो क्या हुआ! तुम भी तो पढ़ाई तभी करते थे जब तलक परीक्षा का 'टाईम टेबल' वॉल पर चस्पा न हो जाए। मगर बड्डे तुम हो कि जब देखो सरकारों की करतूतों पर छाती पीटते, उसमें नुक्ताचीनी करते हो। 'यू नेवर अंडरस्टैंड' कि सरकार किसी 'होम्योपैथी मेडिसिन' की 'इस्टाइल'(पहले मर्ज का बढ़ना फिर घटना) में अपने काम-काज को बिना साइड इफेक्ट के निपटाती है। पहले वह मजर्(महंगाई, गरीबी, मौंते, मुसीबतें) को बढ़ाती हैं, फिर जब तुम आहत हुए तो, राहत का मरहम लगाती हैं। इस पर उदास बड्डे ने आह भरते हुए एक शेर दाग दिया कि 'उस ने हमारे जख्म का कुछ यूं किया इलाज, मरहम ही गर लगाया तो कांटे की नोक से' बावजूद इसके राजनैतिक थुक्काफजीती का आलम यह है कि विपक्ष समेत जो दल सरकार के साथ दलदल में धंसे हैं उनकी भी आपत्ति इस बात को लेकर है कि उनसे बगैर पूछे, बिना अहमियत दिए एकतरफा सारी क्रेडिट सरकार कैसे हजम कर सकती है। गरीब केवल सरकार के कैसे हो सकते हैं।'गरीब और उसकी लुगाई तो सबकी भौजाई होती है।'तो कांग्रेस का गरीबों पर 'सिंगल' दावा कैसे मंजूर हो सकता है। लेकिन बड्डे जब सरकार संसद में बहस कराना चाहती थी, विरोधियों को मना रही थी तो ये बर्हिगमन कर कैंटीन में चाय की चुस्कियां ले रहे थे। और अब सरकार 'रैम्बो' टाईप से कानून की बना रही तो चिल्लपों मची है। लेकिन बड्डे अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कहीं गैस सिलेंडरों(9)की शुरुआती सुझव की तर्ज पर कानून में यह सुराग न बना दिया जाए कि जहां कांग्रेसी सरकारें हैं केवल वहां के गरीब इस खाद्य सुरक्षा का सुख ले सकेंगे। अलबत्ता बड्डे सरकार इस अध्यादेश के जरिए एक तीर से दो शिकार करने जा रही है। अभी 26 और रुपए 32 रुपईया कमाने वाले गरीब नहीं थे। अब यही लोग गांव के सामंत कहलाएंगे और उनके अन्नागार एफसीआई के गोदामों से ज्यादा सम्पन्न होंगे। सरकार यह दावा कर लोकल से ग्लोबल तक के मंचों में अपनी पीठ ठोक-ठुकवा सकेगी कि अब इंडिया विपन्न नहीं सम्पन्न कंट्री है। यहां 'न गरीब रहेगा, न ही गरीबी'..समङो बड्डे!

Friday, 21 June 2013

केदारनाथ के दरबार में हाहाकार

बड्डे बाढ़ की विभीषिका से भौंचक्के हो बोले- बड़े भाई केदारनाथ जो सारे संसार के नाथ हैं, लेकिन एक रात में हजारों को अनाथ कर गए। जिते देखो उते भक्तन की कब्रगाह बनी है। समूचा परिसर शमशान में तब्दील हो चुका है। अरे बड्डे! भोले तो ठहरे अघोरी। वे शमशान के राजा हैं। उन्हें ऐसे ही स्थान रास आते हैं।इसलिए वर्षो से आदमियों और वहां के पंडों ने कब्जा कर सराय, होटल बना धंधा शुरू कर, गंदगी का साम्राज्य फैला रखा था। जिससे देव भूमि में मच्छर और वायरसों का प्रकोप पसर रहा था। ऐसे में वे किस सरकार से कहते कि मेरे इलाके का अतिक्रमण हटाओ। सो कैलाश में उन्होंने निगाह टेढ़ी की और इन्द्रदेव को इशारा किया और एक झटके में मामला साफ हो गया। और तो और आदिगुरू शंकराचार्य जिन्होंने आठवीं सदी में मंदिर की नींव रखी थी और जिनकी समाधि मंदिर के ठीक पीछे है उनको भी नहीं बख्शा। अब वहां सफाचट मैदान है। अब है कि आस्तिक बनाम नास्तिक की जुबानी जंग चल पड़ी है।
मिस्टर नास्तिक ने स्टेटमेंट दिया कि- ईश्वर होता तो उसकी पूजा उपासना के लिए दूर-दूर से आये यात्रियों को भोले बाबा बचा न लेते 'दिस वाज द अपॉरच्यिुनटी टू प्रूव दैट ही इज सम व्हेयर'। लेकिन सिर्फ अपना ही ख्याल रखा। खुद तो खम्बा गाड़ के जहां के तहां अड़े हैं। लेकिन जिन्होंने उस खम्बे को पकड़कर शरण लेने की कोशिश की उन्हें भी नहीं बख्शा। तुम कहते हो कि स्वर्ग से गंगा का अवतरण हुआ जिसे पाताल में जाने से रोकने के लिए भोले बाबा ने अपनी जटाओंे में रोक लिया तो फिर यह कैसा गंगा में उबाल आ गया। कि उनके भक्तों को लील गया। सो कहीं ईश्वर नहीं है। सब मन का भ्रम है, पाले रहो, देश सदियों इसी के सहारे रहा।पहले कई टुकड़ों में बंट चुका और दुनिया में सबसे पिछड़ गया। अड़ोसी-पड़ोसी(चीन-पाक) सब आखें तरेर रहे हैं। हम भगवान भरोसे यथास्थिति में पड़े हैं।
तभी मिस्टर आस्तिक बोले- तुम नास्तिक लोग 'आलवेज निगेटिव' सोच रखते हो। प्राकृतिक आपदा सदा से आती रही हैं। वे लोग किस्मत वाले हैं जिन्हें भगवान के स्थान से मुक्ति मिल गई। ठीक केदारनाथ मंदिर के पीछे वाले पहाड़ से स्वर्गारोहणी का रास्ता है। जो भक्त असमय कालकलवित हो गए, वे सांसारिक दृष्टि से भले परिवारजनों के लिए पीड़ा का सबब हैं। अरे बड्डे! यह देह ही नश्वर है, लेकिन देव स्थान में जाए तो किस्मत की बात है। पहले भी तीर्थ जाने वालों को फूल-माला पहना कर विदा किया जाता था कि अगर लौटे नहीं तो समझो भगवान ने स्वर्ग बुला लिया। मैं तो कहता हूं कि यह बहस बकवास है।सब प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा है। इसलिये अब तो चेतो और पीड़ितों के लिए राहत की सोचो!!

Friday, 31 May 2013

लोक से परलोक तक सब फिक्स है


बड्डे बोले- बड़े भाई देश में इनदिनों बयार चल पड़ी है कि क्रिकेट से लेकर राजनीति, हिंसा/ हत्या, महंगाई, घपले- घोटाले जैसी हर गतिविधि फिक्स है और यह फिक्सिंग आज के दौर की नहीं, सनातन है। पुराणों में कथाएं आती हैं कि देवताओं ने राक्षसों को 'अमरत्व के आशीर्वाद' के साथ उनको निपटाने के तौर-तरीके भी फिक्स कर दिए थे। भोले बाबा ने रावण की भक्ति पर प्रसन्न हो अजर-अमर रहने का आशीर्वाद दे ही दिया था लेकिन ब्रम्ह जी ने बीच में भांजी मारते हुए कहा कि मृत्युलोक में मृत्यु शाश्वत है और ऐसा आशीर्वाद संविधान विरुद्ध है।
रावण ने सोचा कि मनुष्य और वानर तो मेरे आहार हैं सो मांगा कि इन्हें छोड़ मुङो कोई न मार सके। और फिर तो तुम्हें पता है ही बड्डे कि कैसे सारे देवताओं ने मनुष्य और वानर के रूप में अवतरित हो रावण को निपटाया था। कृष्ण ने भी बार-बार कहा तुम सिर्फ कर्म करो बाकी सब फिक्स है। उन्होंने जयद्रथ को दिन में अंधेरा कर 'फूल' बनाया और फिर पहले से फिक्स तरीके से निपटवा दिया। यों तो बड्डे जन्मजात हम इस 'फैक्ट' से रू-ब-रू रहते हैं कि जन्म के साथ हमारी मौत की तिथि भी यमलोक के कैलेन्डर में फिक्स है।
लेकिन कलयुग में मौंतें अब यमलोक की फिक्स तारीखों को मात दे रही हैं। बड्डे अब धरती पर कुछ खास लोग अच्छे-अच्छों की मौत फिक्स कर रहे हैं।
हालिया नक्सल हमले को लेकर फुसफुसाहट है कि कांग्रेसियों में आस्तीन के सांपों ने परिवर्तन यात्रा का 'रूट' ऐसा परिवर्तित कराया किकारवां गुजर गया और वे गुबार देखते रहे। कुछ भी हो लेकिन, ऐसी आसमयिक हत्याओं से यमलोक में 'कनफ्यूजन क्रियेट' हो रहा है कि मृत्युलोक के लोग यमलोक की व्यवस्था का अतिक्रमण कर रहे हैं, यानी जिनका समय ऊपर से फिक्स है, उसे नीचे के लोग पहले ही निपटाये दे रहे हैं। हमारी जेलों की तरह यमलोक भी 'ओवर क्राउडेड' है। यमराज ने बम्ह जी से जांच आयोग बैठाने का निवेदन किया होगा। जांच आयोग तो मृत्युलोक में भी बैठते हैं और बैठेंगे लेकिन सब फिक्स हैं। जैसे सरकारों में नौकरशाहों की ट्रांसफर, पोस्टिंग, नियुक्तियों में लोगों के नाम ऑलमोस्ट फिक्स रहते हैं। चाहे अफसर ने बेहतर काम किया हो, मगर नेताओं की लल्लो-चप्पो न की हो, तो लूप लाईन फिक्स है। इंटरव्यू और कॉम्पटीशन एग्जामों में प्रतियोगी पढ़-पढ़ कर आंखें फोड़े डाल रहे हैं, मगर चयन सूची जुगाड़ टेक्नॉलाजी के जरिए फिक्स रहती है। खेलों में टीमें पहले से फिक्स रहती हैं। और तो और जिस मीडिया पर हम यकीन कर जो देखते-पढ़ते, समझते-बूझते हैं, वे खबरें भी फिक्स हो जाती हैं। तो बड्डे कहां तक इस फिक्सिंग पर चिल्लपों करोगे।

Sunday, 26 May 2013

फोर्ब्स की लिस्ट भी फिक्स है.!!

बड्डे ने फि¨क्सग की खबरों के बीच ध्यान दिलाया कि बड़े भाई सोनिया गांधी दुनिया शीर्ष दस दमदार महिलाओं में शुमार हैं। टॉप में रहने के लिए जिन तत्वों की जरूरत है वह उनमें भरपूर है।
जिसकी आपूर्ति उनके दल के कारिंदे अंधभक्ति से भरपूर करते रहते हैं। वे तो बेचारे गडकरी थे, जो अपने साथियों से असहयोग की 'आपूर्ति' में निपट गए।
लेकिन भाजपाई इस मेरिट लिस्ट को लेकर शंका आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि क्रिकेट की तरह यह लिस्ट भी फिक्स है। वरना वर्मा की आंग सान सू की जिन्होंने अपना जीवन देश में डेमोक्रेसी के बरक्स होम कर दिया वे टॉप टेन से नदारत हैं। अपनी सुषमा स्वराज क्या कम कमजोर महिला हैं, जो उन्हें एकतरफा दरकिनार कर दिया गया। मायावती दलितों की उद्धारक बनकर निर्वाचित तरीके से तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहीं हैं। एक भाजपाई ने तो डाउट व्यक्त किया कि हो ना हो सोनिया पिछले वर्ष कई बार रहस्यमय अंदाज में, इलाज के आड़ में अमेरिका गईं जहां से फोर्ब्स पत्रिका भी प्रकाशित होती है और फिर पेड न्यूज से कोई भी मीडिया अछूता नहीं बड्डे।
बहरहाल, कुछ भी हो बड्डे पर अब कांग्रेस, भाजपा को दम दे सकती है कि हमारा नेता 'इंटरनेशनल टाईप' का है और तुम्हारा एक 'स्टेट टाईप' का।
दरअसल 'इनटरनली कांग्रेस इज वेरी डिसीप्लेन पार्टी एंड बीजेपी इज ओनली एक्सटरनली डिसीप्लेन पार्टी।' इसलिए भाजपा की कोई नेत्री फोर्ब्स जैसी पत्रिका में अंडर टेन में दखल नहीं दे पायी। 'एक्चुअली' बड्डे विदेशी जुबां और मीडिया जो कह दे वह देश-दुनिया के लिए किसी देववाणी से कमतर नहीं। फोर्ब्स पत्रिका की लिस्ट में दो महिलाएं मिशेल ओबामा और सोनिया गांधी इसलिए शामिल हैं कि एक राष्ट्रपति की पत्‍नी हैं तो दूसरी इसलिए कि वे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनाने का माद्दा रखती हैं। विदेशी मीडिया ने अपने प्रधानमंत्री को सोनिया का गुड्डा तक कह दिया था, लेकिन मनमोहन की किंचित मानहानि नहीं हुई, उल्टे उनका मौन इस सूत्र वाक्य को पुष्ट करता रहा कि 'मौनं स्वीकृतम लक्षणं'। अरे बड्डे ये मानहानि नहीं यह तो मेरिट है कि जो जितना बड़ा गुड्डा साबित होगा वह उतनी लम्बी पारी प्रधान पद की खेल सकेगा। मगर देश के सांसद लोकतंत्र के इस मंत्र को भांप न पाये कि चुप्प्प्प्प्पी के साथ निष्ठा और बेशर्मी का 'कॉम्बीनेशन' हर 'एम्बीशन' को मुकम्मल कर सकता है। इसलिए इस सूची में संशोधन कर उन्हें टॉप पर रखना चाहिए था, क्योंकि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को अपाईंट करा देने का माद्दा सोनिया के सिवा दुनिया में किसी महिला में नहीं। मगर बीजेपी के कुनबे में फुस्फुसाहट है कि फोर्ब्स की लिस्ट भी फिक्स है।

Thursday, 4 April 2013

विन्ध्य में 'सीमेंट व एग्रीमेंट' के धंधे

इनदिनों विन्ध्य की धरा के बरक्स यह खबर सुर्ख है कि जमीनों के दाम बेतहाशा बढ़े हैं, तो उनका रजिस्ट्री शुल्क दो गुना के करीब हो गया है, बहती गंगा में नगर निगम ने भी सम्पत्ति कर लगभग दो गुना कर दिया। आलम यह है कि भोपाल और इंदौर के जमीन के दामों की तुलना सतना और रीवा से की जाने लगी है। अचानक ऐसा क्या इस इलाके में शुमार हो जो एक दशक में दाम आसमान छूने लगे? विन्ध्य की धरती और इस इलाके की महत्ता के बारे में कवि रहीम ने कहा था कि- 'चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेश, जा पर विपदा पड़त है सो आवत यह देश।' चित्रकूट के संदर्भ में यह बात सम्पूर्ण क्षेत्र विन्ध्य यानी सतना, पन्ना और रीवा के इलाके को लेकर कही गई होगी। उक्त दोहे का ताल्लुक केवल इसलिए नहीं है कि आपदकाल में आगरा से आकर अकबर के नौ-र8ों में से एक अब्दुर्र रहीम खानखाना और अवध के नरेश प्रभु श्रीराम ने इस अंचल में शरण ली और निवास किया था। बल्कि इसलिए कि यहां सुरम्य वन, नदियां और जगह शान्तिपूर्ण थी। यह बात दीगर है कि कवि रहीम और अवध नरेश के संज्ञान में न रहा हो कि यहां की धरा के गर्भ में मौजूद लाइम स्टोन वैश्विक दज्रे का है, जिससे झोपड़ी नहीं बल्कि बड़े-बड़े कल कारखाने और अट्टालिकाएं तैयार की जा सकेंगी। मगर इसकी पहचान दूरदृष्टि रखने वाले धनपतिओं को जरूर थी और इसीलिए रहीम के दोहे के भावार्थ की विवेचना और जांच बाहर के उद्योगपतियों ने बेहतर ढ़ंग से इस सत्य के आलोक में की, कि उद्योग हवा में नहीं जमीन में खोले और लगाए जाते हैं। इस संभावना को बांचने वाले भू-माफियाओं और इसके दलालों ने उद्योगपतियों की तरह समय रहते अवसर पहचाना और भूमिपुत्रों को फुसलाकर कर सदियों से अन्न उत्पन्न कर रही धरा को धर दबोचा। इसलिए उद्योग धन्धों के लिहाज से विन्ध्य के दो प्रमुख जिले सतना और रीवा में आज की तारीख में जो दो धंधे प्रमुखता से चलन में हैं और रहेंगे वे हैं- 'सीमेंट' और 'एग्रीमेंट'। जिनका सरोकार विशुद्ध मुनाफा कमाना है। सीमेंट कारखानों से निकलते धूल और धुएं से इलाके की जमीन बंजर हो रही है, तो शहर सहित आसपास के गांव ऐसे गंम्भीर प्रदूषण की चपेट में आ रहे हैं, जिससे यह इलाका कई तरह के रोगों की शरण स्थली बनता जा रहा है। बिरला सीमेंट से शुरू हुए इस कारोबार ने जेपी, प्रिज्म को न सिर्फ यहां की धरा में मौजूद लाईम स्टोन ने ललचाया बल्कि तकरीबन एक दजर्न कारखानों के अन्य उद्योगपतियों को यहां धरा को खोद-खन डालने, माल कमाने और लाखों एकड़ भूमि को बंजर कर देने के लिए न्योता है। इस इलाके दो बड़े शहर सतना- रीवा को सीमेंट की सड़कों से पाट दिया गया है। यदि दोनों शहरों की सेटेलाईट से तस्वीर ली जाए तो कुछ यूं प्रतीत होगा जैसे पत्थर के पहाड़ को काटकर दोनों शहर बसा दिए गए हैं। गुणवत्ता का आलम यह है कि बनने के 6 से 12 माह में ही सड़कें दम तोड़ देती हैं। ऐसी सड़कों पर सामान्य रूप चलने-फिरने में गिर पड़ने और गिरने पर जानलेवा चोट से दो-चार होना आम है, क्योंकि इन सड़कों पर गिरना पत्थर पर गिरने जैसा है। आप माने या न माने लेकिन गिरते भू-जल स्तर की प्रमुख वजह ये सीमेंट उद्योग और सीमेंट से शहर को पाट दी गई सड़कें हैं। वह दिन दूर नहीं जब आपको आश्चर्य न होगा कि यह इलाका 'डेड जोन' में शुमार हो जाए। यह बात समझ से परे है कि प्राकृतिक सौन्दर्य और पर्यावरण से सम्पन्न यह इलाका खुद को काल के गाल में झोंकने पर क्यों उतारू है? यह शर्मनाक है कि नेताओं की समूची विरादरी भी मौन होकर इस बेतरतीव विकास पर अपनी स्वीकृति देती आई है। उधर जमीनों में एग्रीमेंट के षड्यंत्र से किसान धन की लालच में अपनी पुरखों की जमीन-जायजाद से कट रहे हैं तो, चंद रुपए लगाकर शातिर धंधेबाज चांदी काट रहे हैं। दरअसल, एग्रीमेंट लूट का एक ऐसा जुगाड़ है जो बिना पूरी रकम लगाए बीच में ही माल बनाने का हवाई उद्योग साबित हुआ है, तो दूसरी ओर राजस्व की क्षति का काला दस्तावेज। कथित लोगों की चौकड़ी थोड़ा धन लगाकर जमीनों का एग्रीमेंट निर्धारित अवधि के लिए करा लेती है और फिर प्लॉटिंग के नाम पर इसकी अल्टी-पल्टी का खेल शुरू हो जाता है। बेचारा उपभोक्ता इस खेल का आखिरी शिकार होता है और उसे 200 रुपए वर्ग फिट की जमीन 700 से 1000 देकर हाथ आती है। इस कुटीर उद्योग में नेता से व्यापारी तक, डॉक्टर से मास्टर तक, यहां तक कि गांव, शहर, नगर का हर शख्स इसी हवाई व्यापार में मशगूल है।
सवाल बड़ा और बारीक है कि इस इलाके में ऐसा क्या हो गया कि जमीनों के दाम आग उगल रहे हैं। सिवा दो धंधों- सीमेंट और एग्रीमेंट के शहर में और क्या है और रहेगा? इस पर भी चितंन-मनन करना होगा। वरना पूरा पर्यावारण नष्ट कर देने और लकीर पीटने के सिवा और कुछ हाथ आने वाला नहीं है।

Sunday, 31 March 2013

'राहुल का समय शुरू होता है अब..'

बड्डे अगले आम चुनाव की नाव, अपने-अपने दल की कौन खेयेगा, इसका खेल चालू हो चुका है। पिछले "इलेक्शन" के बाद जितना "कलेक्शन" हुआ है उसका "ऑलराउंड परफॉर्मेस" देश की "पब्लिक" भी देखेगी। वैसे भी अब वर्तमान सरकार की चला चली की बेला है। आने वाला वक्त किसका होगा कहना मुश्किल है। सरकार कितने दिन और टिकेगी यह तजबीज पाना भी "टफ" है। क्योंकि इधर मुलायम कठोर हुए कि उधर सरकार की सांस थमी। वैसे भी करुणा की बेरुखी के बाद से सपा और बसपा की बैसाखी पर लड़खड़ा रही सरकार की हर सुबह एक डर के साथ होती है कि कब कौन टंगड़ी मार दे और सरकार औंधे मुंह गिर पड़े। इसलिए पार्टी में समय से "राहुल राग" कांग्रेस के बैरम खां टाईप के लोगों ने छेड़ दिया है कि राहुल ने प्रधानमंत्री बनने से कभी परहेज नहीं किया। बस पब्लिक न उनसे कन्नी काट लें। लेकिन बड़े भाई अबकी प्रधानमंत्री की रेस में कांग्रेस को छोड़ दें तो जितने दावेदार दर-दर की ठोकरें खाते खम ठोंक रहे हैं, वे सारे के सारे पूर्व या वर्तमान मुख्यमंत्री हैं। हां बड्डे! मुख्यमंत्रियों का यह तर्क गले उतरता है कि देश में सीएम का प्रमोशन पीएम पद में न हो तो, किसमें होगा। आखिर वे भी लोकसेवक की भांति वेतन, भत्ता और पेंशन को एंज्वाय करते हैं तो प्रमोशन क्यों नहीं? बाबूलाल गौर जरूर डिमोशन के बाद भी डटे हैं, तो अपवाद कहां नहीं होते।"बट" बाकी के सीएम आखिर कब तक सीएम बने रह सकते हैं। उनका विराट व्यक्तित्व भी विराट देश के साथ एकाकार हो जाना चाहता है। ऐसी हिमाकत करने की जुर्ररत है तो सिर्फ इसलिए कि वे दुनिया की सर्वाधिक अनुशासित पार्टी कांग्रेस का हिस्सा नहीं है, वरना यहां तो ऐसा मन में सोच लेना भी पाप है, क्योंकि जब प्रधानमंत्री बनने के बाद भी "मन" नहीं सोच पा रहे कि "क्या करें क्या न करें, ये कैसी मुश्किल हाय.!" देश की राजनीति और संस्कृति में विरोधाभाष है। जीवन की चार अवस्थाओं- ब्रम्ह्चर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास की निर्धारित उम्र सीमाएं हैं। मगर वानप्रस्थ और संन्यास की उम्र में दाखिल हो चुके लीडरस में पीएम पद का असर ज्यादा हिलोरें मारता है। अरे बड्डे क्यों न मारे आखिर नेताओं के लिए पीएम ही राजनीति के मोक्ष का द्वार है। जब तक इस द्वार के दर्शन चाहे गुलजारी लाल नंदा, चरण सिंह जैसे कुछेक दिन के लिए ही संविदा टाईप "पीएम" से क्यों न बने, पर तभी मुक्ति संभव है। वरना! "अगर बनते इस जीवन, में लेगें जनम दोबारा." इसीलिए दिग्गी दादा बार-बार राहुल गांधी को पीएम बनाने का राग जब-तब छेड़ देते हैं। उनकी उम्र भी देश की संस्कृति के लिहाज से वानप्रस्थ से पहले की है। इसलिए 'राहुल का समय शुरू होता है अब..!'


Friday, 22 March 2013

एंटी या 'एंटीक' रेप बिल


कुछ रोज पहले बड्डे ने 'अर्ली मार्निग' खबर पढ़ी और कहा कि जैसा 'वुमेन सिक्यूरिटी बिल' मनचलों के दिल को तंज करने के लिए पारित किया गया है, उससे दामिनी की दुखद आत्मा को क्या मिला होगा! कहना 'टफ' है मगर इतना तो तय है कि अब मजनुओं, मनचलों, टपोरियों की 'वाट' कभी भी लग सकती है। क्योंकि बड़े भाई- दामिनी के दर्द की एंटीबायटिक दवा के रूप में एंटी रेप बिल देश की सर्वोच्च सभा में 'टशन' के बीच पास हो गया। सो बड्डे 'नाऊ थिंक ट्वाईस विफोर स्पीक, सी ऑर टच टू फीमेल्स।' अब तो स्त्री जाति से कोई भी व्यवहार चाहे वह सामान्य बातचीत का ही क्यों न हो, दो नहीं दस बार सोचकर करना होगा। बड्डे बोले- बड़े भाई यह बड़ा फसउव्वल सा एक्ट है। अब सोचो- समाज है, जीवन है, टीका टिप्पणी भी न चले तो फिर जीवन किसलिए। बड़े भाई इस 'एंटी रेप एक्ट' की टेंशन मर्दो को ही नहीं, स्त्रियों को भी है। साथ ही उनके लिए भी जो तमाम फैशन की वस्तुओं के निर्माता हैं। क्योंकि फैशन, फेशियल से लेकर फेयर करने वाली क्रीम तक का ब्यूटी निखारने का प्रयोग जिन पुरुषों के लिए था, वे अब राजी खुशी नहीं बल्कि मजबूरी में मौनी बाबा बनने जा रहे हैं। तो ऐसे में सारी सजावट, सौन्दर्य 'मीनिंगलेस' हो जाएगी। 'एक्चुअली' ऐसा नहीं है बड्डे। अब स्त्रियों से व्यवहार में शिष्टता, शालीनता के तत्व अनिवार्य होंगे। तो क्या अब पुरुषों को कहां, कब, क्या बोलना है उसके बाकायदे चार्ट चौराहों पर लगेंगे? बड्डे 'रिस्पेक्ट' अंदर का मामला है पर हैरत की बात है कि इसे कानून के जरिए इम्लीमेंट किया जा रहा है। गर ऐसा होता तो अपना देश कानून के ग्रंथों से पटा पड़ा है। पर अपराधों की धार हर कानून को हलाक कर देती है। विडम्बना है कि हमारे नेता- नपाड़ियों ने इस बिल की खिल्ली कुछ यूं उड़ाई कि- लड़की को घूरने और पीछा करने के प्रावधानों पर शरद यादव ने कहा कि अगर लड़के लड़कियों का पीछा नहीं करेंगे, तो प्यार होगा कैसे? लालू यादव ने भी बिल के बिंदुओं पर चुटकी ली कि वह तो अपनी पत्‍नी को देखने पर भी फंस जाएंगे। मुलायम सिंह यादव ने यह कह कर तो हद ही कर दी कि बिल के कड़े प्रावधानों से तो महिला कर्मचारियों का ट्रांसफर रुकवाने वालों को जेल जाना होगा। दरअसल मुलायम ट्रैफिकिंग को ट्रांसफर समझकर कन्फ्यूज थे।
अलबत्ता देश में महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अस्मिता संबंधी अपराधों के बरक्स यह बिल एंटी नहीं 'एंटीक' जान पड़ता है। इतने सख्त पहरे तो इतिहास के उस हिस्से में भी दर्ज नहीं हैं, जब समाज आर्थोडॉक्स था। अब तो विकास, खुलेपन का दौर है ऐसे में महज कानून क्या उखाड़ लेगा। फिर भी बिल के बिन्दु इतने सख्त है कि वे हर लिहाज से एंटीक हैं।

Saturday, 16 March 2013

हार्ट में घबराहट देतीं दो डेटें



चौदह मार्च की शाम अचानक आई आंधी-अंधड़ के बाद बड्डे को डॉक्टर के पास जाते देख हम पूछ बैठे कि क्या कोई चोट-ओट लगी है जो चिकित्सक की शरण में हो। वे बोले-'नहीं बड़े भाई इससे बड़े-भयानक तूफान अपने भीतर निरंतर बहते रहते हैं'..और फिर आगे कुछ कहने की बजाए इमोशनली होते हुए उन्होंने एक शेर जड़ दिया कि -
                 'ये माना कि दिन परेशां है रात भारी है,
                   मगर फिर भी है कि जिन्दगी प्यारी है।'
 बड़े भाई इस देश में भगवान भरोसे रहने की कीमत और क्या-क्या देंगे हम। कल शाम इंटरनेट पर खबर आई कि सरकार डीजल के जरिए 50 पईसा का एक और जख्म देगी, तो पेट्रोल के रूप में दो रुपईया मरहम लगाएगी। पेट्रोल से पर्सनली आहत या राहत मिलती है, तो डीजल से महंगाई का बहुआयामी डंक डसता है। इस महंगाई के खेल हम बार-बार छले गए।
बड्डे ने 'बाईहार्ट' सरकारों को कोसते-कुढ़ते हुए फिर एक और शेर कुछ यूं दागा कि-
     'सरकार ने जनता के जख्म़ों का कुछ यूं किया इलाज,
        मरहम ही गर लगाया, तो कांटे की नोक से।'
बस बड़े भाई समझो जब से सरकार ने महीने में दो बार तेल के दाम 'रिव्यू' करने का खेल शुरू किया है, तब से हर महीने में 15 और 30 की डेटें 'हार्ट' में घबराहट पैदा करने लगती है, सो भाई बीपी नपवाने जा रहे हैं। इधर सरकारों का नया रिसर्च सूत्र वाक्य है कि- 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता' इसीलिए सरकारें खुद शुतुरमुर्गी मुद्रा अख्तियार किए हैं और धूर्त आवाम् को मानती हैं। सो 'वे इस हाथ दे, उस हाथ् ले' की (कु)नीति के जरिए इस मुगालत् में खिंच रही हैं। उसे यकीन है कि वह अपनी करतूतों पर 'कभी खुशी, कभी गम' जैसा 'कनफ्यूजन क्रिएट' कर अपना काम (आमचुनाव) निकाल लेगी।
हिस्टोरिकल महंगाई के लिए इतिहास मे दर्ज हो चुकी केंद्र सरकार के लिए आज् आवाम यह गीत गाहे-ब-गाहे गुनगुनाती होगी कि 'अगर वेवफा तुङो पहचान जाते तो, खुदा की कसम तुमको न वोटिंग करते' पर बड्डे सरकारें बड़ी सयानी हैं चुनाव के ऐन वक्त ऐसा 'चुग्गा' डालेंगी कि हम् उसके ऊपर पड़ा 'फसउव्वल जाल' 'विजिबल' ही नहीं होगा। पर हम बचपन में पढ़ी कहानी- 'शिकारी आता है, जाल फैलाता है, हमें जाल में नहीं फंसना चाहिए' को गाते दोहराते हुए उसी जाल में उलझ जाएंगे। क्योंकि जाल में उलझने के बाद की कहानी की नैतिक शिक्षा- 'एक साथ जाल समेत उड़ जाने और जाल को कुतरकर आजाद हो जाने' को बिसर गये हैं।
हां हमारे एक बार पंख उगे थे, हम फड़फड़ाये थे, जब् अन्ना, बाबा, केजरी टाईप के लोगों ने हमारे अंदर दम् भरा था। मगर हमने आपस में बंटकर अपने ही पंख काट डाले। खैर आखिर में बड्डे ने गहरी सांस ली कि 15 की डेट बीत गई वो भी बिना किसी महंगाई के इंक्रीमेंट के, मगर किसानों को तो सदमा दे ही गया शाम का पानी। हाय.'पानी रे पानी तेरा रंग कैसा!'

Monday, 11 March 2013

ब्याह एक बिआधि है..

बड्डे बोले बड़े भाई देश में दस ऐसे हॉट बैचलर्स (अविवाहित) नौजवान हैं, जिनकी डिमांड भारतीय दूल्हे के रूप में सर्वाधिक हो सकती है। वे हैंराहु ल गांधी, सलमान खान, शाहिद कपूर, सिद्धार्थ माल्या, विराट कोहली, युवराज सिंह, कुणाल कपूर, नेस वाडिया और नील नितिन मुकेश। मगर, बड्डे जो ताजा खबर है, उससे चिंता 'ओनली' उन सुंदरियों के लिए ही नहीं, बल्कि उनके लिए भी है, जो या तो विवाहित हैं या होने के जुगाड़ में हैं। क्योंकि बड्डे कांग्रेस के युवा आईकॉन राहुल ने छल्ला छोड़ा है कि मैं शादी करूंगा तो फंस जाऊंगा। तो क्या विवाह यानी फंस जाना है? हो न हो, राहुल ने वैराग्य के इस मंत्र का कवि रहीम की दोहावली से दोहन किया है क्योंकि बहुत पहले रहीमदासजी ने युवाओं को सावधान करते हुए विवाह के बरक्स दो पंक्तियां लिखी थीं कि- 'रहिमन ब्याह बिआधि है जाहु सको बचाय। पायन बेड़ी पड़त है ढोल बजाय-बजाय।।' इसलिए राहुल बाबा अब अपने युवाओं से यह कहते फिर रहे हैं कि- 'ब्याह एक बिआधि है' और अगर मेरा विवाह हुआ, बच्चे हुए तब मैं संसारी हो जाऊंगा और चाहूंगा कि मेरे बच्चे मेरी जगह लें। तो क्या राहुल- अटल, कलाम, मोदी, माया, ममता और जयललिता से 'इम्प्रेसड' हैं? 'आगे नाथ न पीछे पगहा' की तर्ज पर राजनीति की वैतरणी पार करना चाहते हैं। ऐसे में वे बेचारे युवा कांग्रेसी किसको अपना आदर्श मानेगें जो विवाहित हैं या जो लालायित हैं? या फिर वे युवाओं की ऐसी फौज खड़ी करेंगे जो ब्याह की बिआधि से मुक्त हो। एक युवा कांग्रेसी ने यहां-वहां ताक कर हौले से मुंह खोला कि- हमारे लीडर में 'मैरिज के पांईट ऑफ व्यू' से किसी किस्म की कोई कमी नहीं है। वे तो देश की 125 करोड़ की आबादी को देख चिंता में हैं कि इतने दबाव को देश और कैसे बर्दाश्त करेगा। इस पर अंकुश लगे इसके बरक्स उन्होंने इसकी शुरूआती घोषणा की है। बड्डे 'एक्चुअली' ऐसा हुआ तो, देश में कांग्रेस के हर जिले में वे ही युवा पदाधिकारीआसीन पाए जाएंगे, जो 'ब्याह की बिआधि' से मुक्त हैं। और फिर बड्डे अविवाहित रहने के अनेकानेक फायदे हैं। इससे एक तो जीवन भर क्रेज बना रहता है, दूसरा समय ही समय है और तीसरे व्यक्ति शारीरिक रूप से न भी सही, पर मानसिक तौर से ऑल लाईफ देवानंद टाईप युवा बना रहता या इस मुगालते में तो जीवन काट ही सकता है।
बॉलीवुड में कई कथित चालीस को पार कर भी अपनी देह की दुकान इसलिए चला रहे हैं कि वे अब भी युवा हैं। बड्डे बोले- बड़े भाई देश का आम नागरिक इस मुगालते में न पड़े बल्कि समय रहते ब्याह करे और बुढ़ापे में आने वाली ब्याधि की लाठी तैयार करे।

Saturday, 2 March 2013

बजट की ओट में साइलेंट चोट

ब जट बजट..जपते पूरा महीना इसी शोर में निपट गया मगर जब आया तो वह हमें निपटा गया। बड्डे पूछ बैठे कि- बड़े भाई बजट का गणित आप कुछ समझे? हमने कहा- बड्डे बजट का मायाजाल तो अच्छे-अच्छे खां नहीं बूझ पाते तो फिर हम किस खेत की मूली हैं। अरे बड़े भाई अब मूली भी मामूली नहीं रही, गाजर से महंगी है इसलिए इस कहावत को वक्त के साथ कुछ यूं बदल डालो कि "तुम, हम या वो किस खेत की गाजर-मटर हैं।" खैर बड्डे दुनिया में हर रोग की दवा है। जिसकी नहीं है उसके भी टीके ईजाद किए जा रहे हैं। मगर नासपिटी महंगाई का नहीं जो अखंड ला-इलाज बनी है, थी और रहेगी। इसके टीके खोजने के फेर में, 65 बरस से देश वे लोग जो नेता टाईप के थे, इससे मुक्त हो गए और "साइलेंटली" इसी के झोल-झंसे में कुछ "रिच टाईप" के नेता बन चुके हैं, तो कुछ बनने की प्रक्रिया में हैं। ऐसों के लिए बजट एक उत्सव है- टिप्पणी देने और फोटू छपवाने का। दरअसल, बड्डे बजट बड़ा अबूझ है।125 करोड़ में से 124 करोड़ से अधिक लोगों के लिए बजट में "यूज" की जाने वाली शब्दावली "काला अक्षर भैंस बराबर है।" जनता क्या "नाइंटी परसेंट" नेता-नपाड़ियों से पूछ लो कि जीडीपी, एनएनपी, जीएनपी, मुद्रास्फीती, बजट घाटा, राजस्व घाटा, भुगतान संतुलन जैसे "टर्म" के अर्थ क्या हैं, तो एसी चेम्बर में पसीना छूट जाएगा। यकीन न हो तो इसे पढ़ने के बाद अपने आस-पड़ोस में आजमाएं क्योंकि "हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या?"वो तो भला हो कुछ चिदम्बरम, मनमोहन सिंह टाईप के "अपाईंटेड" नेताओं का, जो हावर्ड सरीखी यूनिवर्सिटीज से उपजे लीडर्स हैं। वे इस टर्मिनॉलाजी को बेहतर समझते-बूझते हैं। इसलिए देश में बजट जैसी उठापटक साल में एक बार हो ही जाती है। बड्डे बोले बड़े भाई-इस बार जो बजट है उसमें ऐसी कारीगरी की गई है कि गरीबों को राहत और अमीरों को आफत नजर आती है। पर. "बड़े धोके हैं इस राह में..."सारा खेल तो पहले ही डीजल की ओट में सरकार खेल चुकी है और हर माह यह खेल 'कॉनटीन्यू' रहेगा। जिसका "डाइरेक्ट इफेक्ट" महंगाई पर "ग्यारंटीड" है। क्योंकि तकनीकी युग में तेल महंगाई की जड़ है। जिसे सरकार ने डीजल से सींच-सींच कर दुरुस्त कर दिया है। सरकार की दलील है कि "महंगाई कौन कमबख्त चाहता है, वो तो इसलिए बढ़ाते हैं कि देश चल सके।" पर जब से हम "थिंक ग्लोबल एट लोकल" की थीम पर बढ़े हैं, तब से बजट साइलेंट किलर बनते जा रहे हैं। सरकार के कारिंदे पीठ पीछे वार करने का चोर रास्ता हर माह की शक्ल में ईजाद चुके हैं। बड्डे बोल पड़े हां भाईअब तो सरकार की सारी मार साईलेंट है।

Friday, 22 February 2013

विस्फोटों की टेस्ट भूमि है भारत !

हैदराबाद मे विस्फोट के जरिए दो दजर्न नागरिकों की हत्या से छुब्ध बड्डे बोले- बड़े भाई फिर ये विस्फोट, फिर इत्ते 'इनोसेंट' लोग असमय काल के गाल में, इससे कमीनी हरकत क्या हो सकती है। तो क्या अल्लाह ऐसे जेहादियों को भी जन्नत देगा जो उसके बन्दों को मात्र मजे के लिए मार कर सड़कों को कसाई घर बनाने से गुरेज नहीं करते।हमने बड्डे की भावना को समझ और फिर हिन्दी में समझने की कोशिश की, कि देखो बड्डे कोई भी निर्माण हो उसका परीक्षण जरूरी है। बिना टेस्ट के सब 'मीनिंगलेस' है। इसलिए ऐसे विस्फोटकों का निर्माण फिर उसका परीक्षण पड़ोसी मुल्क में करना ही निर्माण का लक्ष्य होता है। 'फॉर दिस' भारत की भूमि पाकिस्तान को सहज और सुविधाजनक लगती है, क्योंकि यहां पकड़-धकड़ के 'चांस' कम है और फिर ओसाम टाईप से बदला लेने की औकात भी भारत में नहीं है। हालांकि 'सिंस लास्ट फ्यू ईयर' से अफगान के तालिबानी भी विस्फोटों के प्रयोग पाकिस्तान में करने लगे है। हमारे देश की सरकार ऐसे विस्फोटों को रोकने में खुद को असहाय मानती रही हैं। उनके युवा चहेते और प्रधानमंत्री के दावेदार ने तो पिछले मुम्बई विस्फोटों के बाद कहा था कि देश बड़ा है, इनको रोकना संभव नहीं है। सिर्फ नियंत्रण के उपाय किये जा सकते हैं। जैसे हमने अपने लिए उपाए कर रखें हैं, वैसे जनता भी अलर्ट रहे। सरकार का बस इत्ता काम थोड़े ही है। सच है बड्डे मरना-जीना तो लगा रहता है। कोई आज, तो कोई कल। फिर उनका आशय भी यही था कि देश में विस्फोट होने का भी समय और मुहूर्त है। कोई भी बड़ा त्योहार हो, पंद्रह अगस्त हो, छब्बीस जनवरी हो, किसी आंतकी को फांसी दी गई हो, देश में कोई टीम मैच खेलने आई हो.बगैरा-बगैरा। और विस्फोट का पहला निशाना चेन्नई में शुरू हो रहे टेस्ट मैच में कंगारुओं को डराना था सो सध गया। टीम ने भी लगे हाथ कह दिया कि वह हैदराबाद में मैच नहीं खेलेगी। उधर धमाकों के बाद अपने मौनी बाबा की चुप्पी टूटी है और उन्होंने एक तैयार स्क्रिप्ट को बांच दिया कि-दोषी बख्शे नहीं जाएंगे..देश की आवाम मेरी तरह शांति बनाए रखे! हिन्दू आंतक का 'परफ्यूम' लगाने वाले गृहमंत्री शिंदे ने गर्व से घोषणा की है कि सुरक्षा एजेंसियों के अलावा आईबी, रॉ की टीमों को नींद से जगा कर काम पर लगा दिया गया है और मुआवजे की पंजीरी देने की तैयारी भी। खैर बड़े भाई लकीर पीटने में तो हम उस्ताद रहे हैं। 'बट' अब तो 'डाउट' यह भी है कि कहीं एक दिन इन विस्फोटों आड़ में पाकिस्तान परमाणु बम का भी टेस्ट भारत की भूमि पर न कर ले, क्योंकि निर्माण का लक्ष्य तो उसके परीक्षण में है और भारत से बेहतर भूमि उसे कहां मिलेगी।

Monday, 18 February 2013

महंगाई किश्तों में

गत सप्ताहांत एक बार फिर पेट्रोलियम पदार्थों में इजाफा हुआ मगर शांतिपूर्वक। न कहीं कोई विरोध के स्वर गंूजे, न ही सरकार में शामिल घटक दलों ने चूं चपड़ की। उल्टे ममता बनर्जी के अड़ंगे से आजाद कांग्रेस की कप्तानी में यूपीए सरकार अब बिना ब्रेक के दौडऩे लगी है। पहले रेल किरायों में बढ़ोतरी फिर डीजल सुधारों के नाम पर तेल का काला खेल चल पड़ा है। पेट्रोल के दामों के करीब डीजल के दामों को लाने की कवायद में अब हर महीने डीजल के दाम 50 पैसे बढ़ाने का निर्णय (साजिशन) लिया गया है, उससे आवाम को महंगाई की कीमत अब थोक में नहीं किश्तों में चुकानी होगी।
दरअसल, डीजल पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी अब आये दिन की खबर बन चुकी है और जब कोई बात आम हो जाती है तो उसका असर भी कमजोर पड़ जाता है। सरकार ने इसका बड़ा ही सटीक और चोर रास्ता ईजाद कर लिया है कि कीमतें तो बढ़ें, मगर आहिस्ता-आहिस्ता। दर्द बढ़े मगर मजे-मजे। यकायक कीमतों में इजाफा, सरकार के विरुद्ध बदनामी का माहौल निॢमत कर देता है। इसलिए सरकार की किचन कैबिनेट में यह तय हुआ है कि अब डीजल पेट्रोल के दामों में कसाई की तरह नहीं, प्यार से बढ़ोतरी करेगी। सरकार का भी यह मानना है कि डीजल कीमतों में इजाफे की यह छोटी-छोटी खुराक जनता आसानी से सहन कर सकती है और कंपनियों की आर्थिक सेहत भी दुरुस्त हो सकती है। सरकार भी बखूबी समझने लगी है कि बढ़ती कीमतों से देश में सिवा विरोध के और क्या होता आया है। इससे विपक्ष और मीडिया को भी कुछ कहने सुनने और लिखने का मौका मिल जाता है, तो जनता की भड़ास भी कुड़कुड़ा कर निकल लेती है।
हर बार तेल कंपनियां बाजार भाव की बनिस्पत हो रहे नुक्सान की भरपाई का राग अलापती हैं और इसी ओट में पेट्रोलियम पदार्थों पर चोट करती हैं। ऊपर से रोना रोया जाता है कि अभी कंपनियों को घाटा सहना पड़ रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि कंपनियों का यह घाटे का गणित महज एक छलावा है। यह दुष्प्रचारित किया जाता है कि तेल सब्सिडी समूची अर्थ व्यवस्था को अस्थिर कर देगी। लेकिन कडुआ सच यह है कि भारत के उपभोक्ता दुनिया में तेल की ऊंची कीमत चुका रहे हैं। मसलन पेट्रोल की कीमत पिछले एक बरस से 70 रुपए लीटर से अधिक रही है। वहीं पाकिस्तान में 53 रुपए लीटर। जबकि भारत की भांति पाकिस्तान भी पूरी तरह तेल के आयात पर निर्भर है। अमेरिका में कोई सब्सिडी नहीं है फिर भी वहां पेट्रोल 50 रुपए प्रति लीटर ही है। अन्य एशियाई देश भी भारत से कम दामों पर तेल बेच रहे हैं। तो फिर सवाल है कि दुनिया में भारतीय ही सबसे अधिक दाम क्यों चुकाएं? घाटे के नाम पर सिर पीटने वाली तीनों तेल कंपनियों ने वर्ष 2010-11 में सरकार को 3,287 करोड़ रुपए का लाभांश दिया है। आलम है कि यह मुनाफा वर्ष-दर-वर्ष बढ़ता जा रहा है। अक्सर आवाजें उठती हैं कि तेल क्षेत्र में सुधार होना चाहिए, जिसके बरक्स समाधान देने के नाम पर सुंदरराजन, रंगराजन, किरीट पारिख, चतुर्वेदी और विजयकेलकर समितियां गठित हो चुकीं हैं। पर लगता है कि जो कुछ भी सुधार के नाम पर हुआ है वह बस कंपनियों का लाभांश कैसे बढ़ाया जाय न कि अवाम को राहत कैसे मिले?
तेल के इस नए खेल सारा मजमा डीजल को लेकर है, क्योंकि जहां पेट्रोल व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था को डगमगाता है, तो डीजल समूची व्यवस्था को। सर्वविदित है कि डीजल परिवहन का प्रमुख साधन है यह चाहे व्यक्तियों  का हो अथवा वस्तुओं का। डीजल की हर बढ़ोतरी पर माल भाड़ा बढ़ता है जिसका बोझ उत्पादक वस्तुओं के दाम बढ़ाकर पूरा कर लेता है और घूम फिरकर सारा बोझा उपभोक्ता के सिर पर लद जाता है। इसलिए आने वाले दिनों वस्तुओं के दाम जिस तेजी से बढेंगे कि अवाम देखकर अवाक रह जाएगी। एेसा नहीं कि सरकार या कंपनियां इस सच्चाई से वाकिफ नहीं पर सरकारों का रवैया शुतुरमुर्गी होता जा रहा है। जो भी हो, इतना तो तय है कि तेल के जरिए महंगाई को किश्तों में परोसने का नया फॉर्मूला जनता का तेल निकाल कर ही दम लेगा। पहले ही गैस सिलेंडरों से सब्सिडी हटने की तलवार सर पर लटक रही थी अब डीजल की माह-दर-माह बढ़ोतरी रही सही कसर को पूरा कर देगी। हो न हो यह बात सरकार के संज्ञान में है कि अभी चुनाव में वर्ष से अधिक का समय शेष है और यदि वह समय रहते अधिक राजस्व जुटा लेगी तो अपने कैश ट्रांसफर स्कीम में उतनी ही कारगर रहेगी। साथ ही लोकलुभावन घोषणाएं कर पाने में खुद को सहज पाएगी। लेकिन बस,रेल, खाद्य वस्तुओं सहित चौतरफा महंगाई को आक्रमण हो चुका है। कहना पड़ता है कि यह यूपीए सरकार का द्वितीय संस्करण देश को बहुत महंगा पड़ा। क्या एेसे में अवाम सरकार के झांसे में आकर उसके तृतीय संस्करण को भी देखना चाहेगी!
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Friday, 15 February 2013

हम थे जिनके सहारे..

बड्डे बोले- बड़े भाई खबर है कि अबकी सरकार ने नहीं बल्कि जिस कंपनी ने जनता की 'वाट' लगा दी है, उसका नाम 'सहारा' है। ऐसा नाम जिसको सुनकर ही 'जी' में भरोसा पैदा होता है। यह बड़ा मनोवैज्ञानिक नाम है। किसी भी शख्स की संवेदना हासिल करनी हो या उससे कुछ काम निकालना हो तो, उसकी मदद कर दो, मुसीबत में उसका सहारा बनो। लेकिन जब सहारा देने वाले का मकसद सध जाता है जो वह अपनी 'जात' दिखाने से बाज नहीं आता। यही नियम है, यही चलन है और युगधर्म भी।क्योंकि विकास भावनाओं के व्युतक्रमानुपाती होता है। इसलिए चाहे किसी कंपनी को, व्यक्ति को या सरकार को अथवा नेताओं को हित साधना हो, तो पहले 'तेल लगाओ' फिर 'तेल निकाल' लो का सूत्र रास आता रहा है। बड्डे बोले सुना भाई है कि सहारा कंपनी की शुरूआत मात्र दो हजार रुपए से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुई थी, जिसमें तब दो लोग काम करते थे। और निवेश के गोरख धंधे की गणित सेआज भी 'एक्चुअल' में यह केवल दो लोगों सुब्रत राय सहारा और जयब्रत राय सहारा की कंपनी बन कर रह गयी है। कहने को तो कंपनी रियल एस्टेस से लेकर, मीडिया, वित्त, सूचना प्रौद्योगिकी, निर्माण, खुदरा व्यापार में मौजूद है। यह आईपीएल में पुणो वारियर्स भी प्रायोजक है। साथ ही भारतीय हॉकी टीम और महिला क्रिकेट टीम की भी प्रायोजक सहारा ही है। हालांकि पहले उसके पास एक विमान कंपनी भी होती थी जिसे बाद में बेचना पड़ा। जो सहारा की पोल पट्टी खोलने का एक 'एग्जाम्पल' था। मगर देश के लोग गर मिसालों से सीखे होते तो बार-बार ठगी का शिकार क्यों बनते? अब बड़े भाई देखो विश्वास का भी कुछ आधार होता है। इतना नाम तामझम बनाने के बाद कौन होगा जो ऐसों पर दांव न खेले। लाभ के लिए लालच में बिना श्रम के पका पकाया पा लेने की हसरत किसमें नहीं है और फिर भारत तो दांव लगाने वालों का देश है। यहां चुनाव, मौसम, खेल,संभावनाओं सब पर सट्टा लगता है। लाईफ का रोमांच भी 'सडनली' कुछ मिल जाने में जो 'एनज्वाय' है, वह पसीना बहा के कहां।
फिर चाहे इसका ताल्लुक भौतिक लाभ से हो अथवा आध्यात्मिक। 'सहारा' मीडिया में भी है पर मजाल है कि अपने खिलाफ एक 'रुक्का' भी छापा हो। बड्डे ऐसी ही सोच रखने वालों की गिरफ्त में देश का अधिकतर मीडिया है। बहरहाल सतना सहित देश भर वे जन जिन्होंने सहारा के झांसे में अपनी गाढ़ी या काली कमाई लगा दी और अब खुद को बेसहारा पाकर गम में गा रहे होंगे होंगे कि- 'हम थे जिनके सहारे वे हुए न हमारे..डूबे जब रुपईया हमारे, तब हम थे बे-सहारे..'

Sunday, 10 February 2013

मोहब्बत है क्या चीज



हर साल की तरह कल भी यानी ‘वेलेन्टाईन डे’ को हम भारतीय ‘प्रेम दिवस’ के रूप में कहीं खुलेआम, तो कहीं चोरी छुपे मना लेने की तरकीबें तजबीजते पाए जाएंगे। ताकि जिनको इसमें रुचि है, वे यह महसूस कर सकें कि उन्होंने प्रेम को पा लिया। लेकिन यह कैसा भ्रम सा हमारे मन मतिष्क में पैठ गया है, कि प्रेम को भी किसी वस्तु की तरह हासिल किया जा सकता है। इस समूचे आयोजन के दरम्यिां कई सवाल भी उठते हैं कि क्या संत वेलेंटाइन के पहले प्रेम का विनिमय नहीं होता था? क्या प्रेम को भी किसी एक दिवस की सीमा में बांधा जा सकता है? क्या प्रेम संस्थागत है? क्या इसको भी किया या पाया जा सकता है? 
इन सवालों के झुरमुट में सत्य यह है कि प्रेम एक ऐसी अलौकिक अनुभूति है, जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं। इसी सवाल को फिल्म ‘प्रेम रोग’ के गीत में इसके इतिहास को टटोलने की कोशिश हुई थी कि -‘मोहब्बत है क्या चीज हमें भी बताओ, ये किसने शुरू की हमें भी सुनाओ..’ इसलिए प्रेम की उत्पत्ति ऐतिहासिक संदर्भ में नहीं की जा सकती, क्योंकि यह कोई खोज का नहीं, अलबत्ता अनुभूति का विषय है,जो सदा से शाश्वत है। प्रेम ही ऐसा मूल्य है जो हमें, हमारे संबंधों को, घर, परिवार, समाज और यहां तक कि राष्टÑ से राष्टÑ को जोडेÞ रखता है। हमारे देश में प्रेम की इतनी जीवंत गाथाएं इतिहास के पन्नों पर अंकित हैं कि जिन्हें सप्रयास याद रखने की जरूरत नहीं है। अनायास ही ऐसी प्रेम कथाएं हमारे दैनिक जीवन संस्कृति से जुड़ी हैं, जो समूची मानव जाति के लिए प्रेरक रही हैं और रहेंगी। 
अलबत्ता संत वेलेन्टाइन का उत्सर्ग प्रेम के प्रश्रय और उसकी महत्ता के लिए याद किया जाता है। कबीरदास जी कहते हैं कि-  प्रेम न बाड़ी उपजी प्रेम न हाट बिकाय, राजा परजा जेहि रुचे सिर हैं सोई लै जाय!  यह तथ्य है कि ‘प्रेम’ एक मूल्य है, न कि कोई बाजारी वस्तु, जिसको हाथ से स्पर्श किया जा सके या देखा जा सके या मापा जा सके अथवा उसकी चर्चा आसानी से तर्क-वितर्क और ज्ञान के सहारे की जा सकती है।  तो जो स्वरूप में अदृश्य हो, सिर्फ अनुभूत हो, उसको समझना, उसे कहना या बता पाना उतना ही कठिन है। दरअसल प्रेम विशुद्ध दैवीय गुणों से युक्त होता है। क्योंकि जिस हृदय में प्रेम होगा वह क्रोध, लोभ, ईष्या, हिंसा के भावों से सर्वथा स्वतंत्र होगा। मगर हकीकत में ऐसा नहीं दिखता। समाज में लोग प्राय: दोहरे आवरण को ओढ़े अधिकांशत: प्रतिस्पर्धी, ईर्ष्यालु, स्वार्थी, कपटी, क्रोधी  बने रहते हैं। ऐसे में क्या निश्छल प्रेम को पहचाना जा सकता है और क्या उसके हकदार हम बन सकते हैं? इन सवालों के समझा जाना चाहिए कि प्रेम का केन्द्रीय तत्व है ‘समर्पण’ जो इसके लिए अनिवार्य है। जिसे मात्र तर्क रहित संबंधों की व्याख्या से आत्मसात किया जा सकता है।
इस प्रेम के सत्संग में एक और महीन बात स्वीकारते चलें कि - प्रेम करना या होना एक ‘प्रक्रिया’ है, यह ‘लक्ष्य’ कदापि नहीं। जब हम मनुष्यों के बीच प्रेम को पा लेने और फिर उस ओर से लापरवाह हो जाने के रास्ते पर कदम बढ़ाते हैं तो, उसी क्षण से प्रेम का क्षरण होने लगता है और प्रेम अपना सौंदर्य खोने लगता है। खासकर यह नौबत तब उत्पन्न होती है जब प्रेम केवल भौतिक स्वरूप तक जुड़ पाता है, जो कि इसका स्वभाव नहीं। प्रेम रचनात्मक और बौद्धिक व्यायामों से जुड़ा होता है। क्योंकि तभी यह एक प्रक्रिया के रूप में अनवरत प्रवाहमान रहता है।
सवाल बड़ा और बारीक है कि दुनिया कई वर्षों से प्रेम दिवस को जोश-ओ-खरोश से मनाती आ रही है, फिर भी प्रेम का समूचा सूचकांक निरंतर गिरता जा रहा है। संत वेलेन्टाईन तो प्रेम की महत्ता को स्मरण करने का जरिया बस हैं। क्योंकि प्रेम अलौकिक हैं, शाश्वत हैं। प्रेम किसी को भी हो सकता हैं। यह जाति, धर्म, सरहद, संस्कृति को नहीं मानता हैं। यह जल की भांति रंगहीन हैं तो इंद्रधनुष की तरह सतरंगी भी।  फिल्म रिफ्यूजी के गीत बरबरस याद आ जाता है कि -‘पंछी नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके..’  प्रेम अलौकिक हैं मगर यह तो इसी लोक में घटित होता हैं। सभी ने अपने-अपने ढंग से प्रेम की व्याख्या की है। प्रेम में लोग निहाल और बेहाल भी हो जाते हैं तो कुछ ऐसे हैं जो रोगी भी होते देखे गए हैं जैसे यह गीत कि - ‘मैं हूं प्रेम रोगी, मेरी दवा तो कराओ, जाओ जाओ जाओ किसी वैद्य को बुलाओ..’  ऐसा प्रेम पर बल पूर्वक अधिकार के अंधकार में जन्मता है। 
दरअसल, यह मौसम ही प्रकृति को प्रेममय बनाता है यह महज संयोग है कि इस बार 14 फरवरी को ‘प्रेम दिवस’ तो 15 को ‘बसंत पंचमी’ है। भारत में बंसत ऋतु देवताओं को प्रिय रही है। कृष्ण ने कहा भी है कि मैं ऋतृओं में बसंत हूं। मगर आज 14 फरवरी का अंदाजा महज इससे लगाया जा सकता है कि इस दिन बाजार में रौनक छा जाती है। लेकिन ‘वेलेन्टाइन डे’ भारतीय काव्यशास्त्र में बताए गए मदनोत्सव का यह पश्चिमी संस्करण बनता जा रहा है। इसलिए कहना पड़ता है कि प्रेम का बाजारीकरण अधिक हुआ बजाए इसके संस्कारीकरण के। शायद यही वजह है कि प्रेम मात्र बाह्य आकर्षण का विषय बनता जा रहा है और अब इसे उपहारों के चश्में से अधिक देखा जा रहा है। मगर हमें इस मंत्र को नहीं भूलना चाहिए कि - ‘मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती’

श्रीश पांंडेय.

Saturday, 9 February 2013

कण-कण में हैं 'करप्शन देवतागण'




मध्य प्रदेश में पड़ रहे दनादन छापों से 'हैप्पी मूड' में बड्डे बोले- बड़े भाई केंद्र या राज्य से चलने वाले 100 रुपयों में 85 से 95 रुपया कहां चला जाता है, की गणित को अब समझना और पकड़ना पहले की बनिस्पत ज्यादा आसान हुआ है। हमने कहा- अरे बड्डे! करप्शन तो सड़कों पर सरेआम दशकों से बह रहा है, सबको दिख रहा है, जो कर रहे उनको और जो करवा रहे उनको भी, मगर जो इसके शिकार हैं 'ओनली' वे ही चिल्लपों करते रहे हैं। अब हो-हल्ला इसलिए ज्यादा है कि अब करोड़ों के कुबेर पकड़े जा रहे हैं। चाहे बाबू हो या साहब सब की एक ही जात है, एक ही कर्म और एक ही लक्ष्य है। वह है लूट के मार्फत कुबेर टाईप से समाज में इस्टेबलिश हो जाना। कुबेर भी ईश्वरीय सत्ता के अंश हैं। परन्तु अब करप्शन और अधिक व्यापक हो, कण-कण में अपनी मौजूदगी दर्ज करा, सर्वव्यापी ईश्वर को चुनौती दे रहा है। सो, बड्डे जो ज्यादा व्यपाक है, सर्वत्र व्याप्त है,वही आज का देवता है। याद करो वर्षो पहले दिलीप सिंह का कॅरिअर करप्शन के केश में कलंकित हो जाने के बाद कहे सद्वाक्य को कि- 'पैसा खुदा तो नहीं, पर खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं।' तब तो लाखों का मसला था और अब यही खुदा करोड़ों के देवता करप्शन के आसन पर विराजमान है। बड्डे अपने सीएम भी कहते फिरते हैं कि 'मध्यप्रदेश मेरा मंदिर है, जनता उस मंदिर की देवता और वे खुद उसके पुजारी हैं।' बड्डे बोले देखो अपने सीएम कितने 'इनोसेंट' हैं, कितना समर्पण है उनमें प्रदेश की जनता के लिए। हमने कहा- तुम बोका हो और प्रदेश की जनता भोली है। क्योंकि वह 'नेताओं की भावुक बातों में फंस जाती है, उनकी बातों के गूढ़ अर्थ नहीं बांच पाती।' 'नाऊ यू शुड थिंक एण्ड टेल मी बड्डे, कि- मंदिर में चढ़ा प्रसाद कौन खाता है.! बड्डे बोले- पुजारी। तो बात बड़ी 'क्लियर' है जनता भगवान बने प्रसाद मात्र ताक रही है, मगर उसका सेवन तो पुजारी किए जा रहा है।
बड्डे बोले- बड़े भाई आप पत्रकार लोग बड़े बारीक- बारीक भेद निकालते हो, बात में छिपी उनकी जन भावना को नहीं समझते। अब यकीन न हो तो उनके गणों को देख लो, जितने पकड़े जा रहे हैं सब के सब करोड़ों के देवता हैं। जनता इनको कुछ यूं पुकारती है कि बीके सिंह 65 करोड़ी, डॉ. विनोद लहरी 60 करोड़ी, अरविंद टीनू जोशी 43 करोड़ी, अजरुनदास लालवानी 40 करोड़ी, एसके पालाश 40 करोड़ी, एनकेव्यास 35 करोड़ी, उमेश गांधी 30 करोड़ी, रमेश द्विवेदी 25 करोड़ी, हुकुमचंद पाटीदार 20 करोड़ी,एएन मित्तल 20 करोड़ी, कैलाश सांगरे 10 करोड़ी।
आखिरकार बड्डे की खमोशी टूटी और बोले किअब तो वाकई कण-कण में करप्शन देवतागण मौजूद हैं।

सरकारी स्कूलों का सच



शिक्षा किसी भी सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार है। इसलिए वही देश दुनिया में आगे हैं, जिन्होंने अपनी शिक्षा- व्यवस्था का वर्तमान जरूरतों के मुताबिक मजबूत ढांचा खड़ा कर रखा है। शिक्षा को गुणवत्तायुक्त व रोजगारपरक होने के साथ राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत होना चाहिए। लेकिन देश सहित मध्य प्रदेश में शिक्षा महकमा का क्वांटिटी में विस्तारित होता रहा, मगर क्वालिटी में फिसड्डी रह गया है। क्योंकि भीषण महंगाई में मजूदरी से भी कम वेतन पर कार्यरत शिक्षकों से गुणवत्ता युक्त शिक्षा की उम्मीद बेमानी है। फिर भी सरकार गर मानती है कि उसके स्कूलों की व्यवस्था दुरुस्त है, चौकस है, तो इस बात का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है कि सरकार सच्चाई से कितने परे जा चुकी है।आये दिन अखबारों में छपता हैं कि इतने प्राइमरी पाठशाला या माध्यमिक विद्यालय खोले गए हैं अथवा इतनों का उन्नयन करके उन्हें हाई स्कूल या हायर सेकेंड्री में तब्दील कर दिया गया है। लेकिन इसका खुलासा कभी नहीं किया जाता कि सरकार किन कामलाऊ तरीकों से प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था को घसीट रही है।
गौरतलब है शिक्षकों की अंतिम नियमित नियुक्ति 1993 में हुई थी। उसके बाद दिग्विजय शासन काल में शिक्षकों की शिक्षाकर्मी के रूप में भर्ती का काला अध्याय शुरू हुआ, जिसमें योग्यता अंकसूची में हासिल नंम्बरों को आधार मानकर भर्तियां की गई थीं। लेकिन तब नकल जुगाड़ से हासिल किये गये नम्बरों की बिना पर कुछ ऐसे शिक्षकों की भर्ती हो गई थी जो अपेक्षाकृत काबिल नहीं थे। भाजपा शासनकाल में भर्ती प्रकिया को एक प्रतियोगी परीक्षा के जरिए आयोजित किया गया ताकि संविदा पर ही सही मगर योग्य शिक्षकों की भर्ती की जा सके। मगर अब लगता है कि सरकार और कम वेतन में 'अतिथि शिक्षकों' के जरिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण महकमें को हांकना चाहती है। सड़कों, नहरों और खनन में लूट और खराब गुणवत्तापूर्ण कार्यो में, सरकार पानी की तरह धन बहा रही है, पर जिस विधा से देश का भविष्य बनता-बिगड़ता है, उसकी घोर उपेक्षा करने पर आमदा है। शुतुरमुर्ग की तरह आंखें मूंदे सरकार इस मुगालते में है कि चंद रुपए वेतन वृद्धि कर उसने अपने दायित्वों की इति कर दी है।
ध्यान देने की बात है कि प्रदेश में शिक्षा विभाग शिक्षा प्रदाय के साथ-साथ रोजगार देने वाला सबसे बड़ा विभाग है। कुछ अरसे पहले प्रदेश सरकार ने संविदा शाला शिक्षकों की वर्ग-एक, दो और तीन में भर्ती के निमित्त वर्ष 2011- 12 में प्रतियोगी परीक्षा का आयोजन किया था जिसमें लगभग 15 लाख परीक्षार्थियों में भाग लिया। इस परीक्षा के लिए शुल्क के रूप में प्रति प्रतियोगी वर्ग-एक, दो, तीन के लिए क्रमश: 500, 400, 300 रुपए परीक्षा शुल्क यानी करोड़ों वसूला गया। अब जबकि परीक्षा परिणाम को आये पूरा सत्र बीतने को है, लेकिन सरकार की चुप्पी और 'अतिथि शिक्षकों' के जरिए कम वेतन पर काम चलाऊ तरीके स्कूलों का संचालन, उसकी नीयत पर सवाल खड़े करती है। एक ओर प्रशिक्षत शिक्षकों की नियुक्ति की नीति को अनिवार्य शर्त माना गया है, वहीं अतिथि शिक्षक जिनमें अधिकांश अप्रशिक्षित हैं, के दम पर पूरा सत्र व्यतीत कर दिया गया है। जबकि शिक्षा का अधिकार कानून 1 अप्रैल 2010 से लागू हो चुका है, जिसके तहत प्रावधान है कि 31 मार्च 2013 तक प्रदेश के विद्यालयों में प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति होनी चाहिए। जिसके बरअक्स सुप्रीम कोर्ट भी स्पष्ट निर्देश जारी कर चुका है। यहां तक कि पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है। ऐसा समझ आता है कि मध्यप्रदेश सरकार को न तो उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का ख्याल है, न बेरोजगारों की तकलीफों और न ही बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता का। शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थियों की उपेक्षा न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि चिंता का सबब भी।
मुम्बई प्रवास के दौरान मैंने होटल में लिखा एक वाक्य पढ़ा था कि 'होटल का मालिक भी खाना यहीं खाता है' यानी ग्राहक यहां खाने की गुणवत्ता के प्रति निश्चिंत होकर भोजन कर सकता है। मगर सरकारी स्कूलों का सबसे बड़ा सच यह है कि यहां न तो किसी कर्मचारी-अधिकारी के बच्चे, न ही इन स्कूलों की नीति निर्माण करने वाले ब्यूरोक्रेटस, नेता, विधायकों के बच्चे और यहां तक कि स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षकों के बच्चे भी नहीं पढ़ते हैं। क्या अपने बच्चों को यहां पढ़ाने का दावा शिक्षक, कर्मचारी-अधिकारी और विधायिका के लोग कर सकते हैं? यह तय मानिये जिस दिन इनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने लगेंगे, स्कूलों और शिक्षकों का भविष्य स्वमेव दुरुस्त हो जाएगा। क्या मुख्यमंत्री यह भरोसा प्रदेश की आम जनता को दिला पाएंगे? या नेता प्रतिपक्ष सत्ता में आने की स्थिति में यह कदम उठायेगी। अथवा सरकारी स्कूल सिर्फ कागज पर गणना और साक्षरता के आंकड़े दर्शाने के उपकरण बने रहेंगे।
 सम्पर्क- 09424733818.

Sunday, 27 January 2013

आस्था के मौन स्नान


कुंभ नहान की परिपाटी कब से शुरू हुई इसका कोई एक निश्चित उत्तर नहीं है। बस जो भी ज्ञात है, सो वह मान्यता और पौराणिक कथाओं के मुताबिक। इसी लीक को पीटते हुए लोगों का हुजूम रातोदिन प्रयाग में पुण्य पाने की गफलत में डूब-उतरा रहा है। लेकिन अब तक पुण्य लेने या पाने की गणितीय गणना की पद्धति नहीं खोजी जा सकी है। न ही इसका कोई उपलब्ध विज्ञान है। इसकी दलील यह है कि आध्यात्मिक लाभ नियम से नहीं संयोग से मिलते हैं, भले सारी सृष्टि निश्चित नियमों से गतिमान हो। अलबत्ता यहां (प्रयाग)आकर आपका सारा ज्ञान व तर्क बिलबिला सा जाता है, यदि आप तर्क का सहारा लेकर मेला को देखेंगे, सुनेंगे, समझेंगे तो ठीक वरना यह तय है कि शीघ्र ही आपके ही तर्क, आपको चिढ़ाते नजर आयेंगे। क्योंकि भीड़! कैसी भी हो, बड़ी से बड़ी तार्किक मान्यताओं को ध्वस्त करके अपने बेढ़ंगेपन को स्थापित व प्रमाणित कर देती है। इसके लिए कुंभ से बड़ी नजीर और क्या हो सकता है।
कुंभ यानी मटका या घड़ा जिसका मुंह तो खुला होता पर अन्य रास्तों से किंचित हवा भी प्रवेश नहीं कर सकती। सो यहां आने और जाने का एक ही रास्ता है, जैसे घड़े में पानी डालने और निकालने का एक ही मुख होता है। वैसे ही यहां इसी मुंह से प्रवेश करिए और उसी से प्रस्थान। यानी यहां भ्रमण की पहली और अनिवार्य शर्त है ‘श्रृद्धायुक्त भ्रमण’। विवेक का इस्तेमाल अपने घर द्वार में जाकर करना। क्योंकि यहां अच्छे-अच्छों का विवेक काम नहीं करता। इसलिए इस कुंभ(घड़े) के भीतर यदि कोई नाटकीय ढ़ंग से, कोई अजूबा कर रहा हो अथवा अचम्भित करने वाले कर्त्तव्य दिखा रहा हो तो, उसी रंग-ढंग में रंगिए, मजा लीजिए और आगे बढ़ते जाइए पर श्रृद्धा और (अंध)विश्वास का साथ घड़े के मुख से बाहर निकलने तक कतई न छोड़िए। मुनासिब यही है कि मेला क्षेत्र में कबीर की तरह तार्किक होने की बजाए मीरा की तरह भक्तिवान बने रहिए। क्योंकि कबीर तर्क देते हैं- ‘पाथर पूजे हरि मिलें तो मैं पूजूं पहार। या से तो चक्की भली पीस खाए संसार।।’  पत्थर में चक्की और ईश्वर के भिन्न रूप की कल्पना करिए। पत्थर जो चक्की में जुता है वह कदापि ईश्वर नहीं हो सकता, पर मंदिर में है तो समूची आस्था का केंद्र बन जाता है। कबीर जीवन भर एकतारे पर गाते रहे कि हर कार्य की सिद्धता इस संसार में मेहनत और श्रम पर आधारित है। वासुदेव कृष्ण ने भी कर्म करने की सीख आजीवन दी और यही गीता में लिपिबद्ध करा गए। लेकिन कुंभ के बरक्स समाजशास्त्री कहते हैं कि ‘भीड़ के न आंखें होती हैं न कान’ और दोनों के आभाव में ‘तर्क या बुद्धि’ स्वमेव विलोपित हो जाती है। ऐसे में चेतन मस्तिष्क में एक सवाल खलबली मचाता है कि कुंभ में एक डुबकी लगा लेने मात्र से कितने लोगों का जीवन, पुण्य और सुख से लबरेज हो गया होगा?
 यदि हम बारीकी से दुनिया की गति और दिशा धारा को देखें तो यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि यह आयोजन वर्तमान आवश्यकताओं के प्रतिकूल यह मेला कई हजार करोड़ रुपए की आहूति व्यवस्था के नाम पर ले लेता है। जैसे इस बार केवल व्यवस्था के नाम पर बारह हजार करोड़ रुपए खर्च किए गये हैं। लोग यहां आने-जाने में जो खर्च करेंगे उसका अनुमान लगा लें तो  यह बजट पच्चीस हजार करोड़ के करीब बैठता है। जिसका ध्येय मात्र लोगों को पुण्य का प्रसाद दिलाना है। गम्भीरता से विचार करें कि यदि यही रुपया जो हर चार वर्ष में क्रमश: चार महाकुंभों - प्रयाग, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन में स्वाहा हो जाता है, गर उसका इस्तेमाल अत्यंत कमजोर तबकों पर श्रृद्धा और सच्चे भाव से किया जाए तो.. भले ज्ञात न हो, पर दिल-आत्मा गवाही देती है कि कुंभ का असल पुण्य जरूर सहयोगियों को मिल सकता है। मगर अज्ञात कल्पनीय अभौतिक लाभ के लिए , इस वैज्ञानिक युग में श्रृद्धा के नाम पर आंखों में पट्टी बांधे रहना दर्शाता है कि देश की जनता जर्नादन दो और दो चार की गणित जानने के बाद भी, दो और दो पांच होने मुगालते में जीना ज्यादा सुखद मानती है। इसी फेर में ऐसे आभाषी सुखों और पुण्यों के न जाने कितने कल्पना लोक हमने आदि समय से आज तक गढ़ और सहेज रखें हैं।
इसका चिंतन ‘प्रयाग कुंभ’ यानी मटके से बाहर निकलने के बाद जरूर किया जाना चाहिए। हमारे घरों में कथा, पूजन, हवन भी प्राय: होते रहते हैं, जिसमें एक कलश में जल रखकर, मंत्राहुति के जरिए उसमें विद्यमान जल को अमृततुल्य मानकर उसके  छिड़काव में भी पुण्य लाभ जैसी धारणा है। एक कुंभ हम सबके भीतर है। वह है विवेक का कुंभ, जागृति का, चेतना का,नैतिक आचरणों का... जिसमें हम चाहें तो सतत डुबकी लगा सकते हैं। पर अब उत्सव अंदर नहीं बाहर है, अपने लिए नहीं दूसरों के लिए है। शायद यही वजह है कि भेड़ की तरह गंगा में डुबकी को कुंभ का असल पुण्य मानते चले आ रहे हैं।
एक और सवाल सभी को कुरेदता होगा कि जब बाबा बैरागियों ने संन्यास ले लिया है और वे संसार के राग-विराग से विरक्त हो चुके हैं तो, फिर उनमें यह अखाड़ों का अहम कहां से आयात होता है अथवा क्या वैराग्य का वीरानापन ही उन्हें संसार की ओर पुन: धकेलता है? और क्या कुंभ इसके प्रर्दशन का एक बड़ा मौका है?
तो जाइए,नहाईए कुंभ में मगर अपने-अपने विवेक के साथ कि   कितना जीवन अमृत ‘संगम’ से ले के आये और कितना विष दे केआये। बौद्धिक मनीषियों को चाहे वे धार्मिक प्रवचन की दुकानों से जुड़े हों अथवा सामाजिक रूप से, सभी को यह भी बताना होगा कि क्या आज भी ऐसे आयोजन का औचित्य, वैसा ही जैसा कभी हुआ करता था,जब नगरीय सभ्यता नहीं थी, आवागमन के साधन सीमित थे। या वे भी इस अस्था की भीड़ का रस लेने में ही अपनी बौद्धिकता की सफलता देखते हैं।                                                      

         श्रीश पांडेय