Monday, 18 February 2013

महंगाई किश्तों में

गत सप्ताहांत एक बार फिर पेट्रोलियम पदार्थों में इजाफा हुआ मगर शांतिपूर्वक। न कहीं कोई विरोध के स्वर गंूजे, न ही सरकार में शामिल घटक दलों ने चूं चपड़ की। उल्टे ममता बनर्जी के अड़ंगे से आजाद कांग्रेस की कप्तानी में यूपीए सरकार अब बिना ब्रेक के दौडऩे लगी है। पहले रेल किरायों में बढ़ोतरी फिर डीजल सुधारों के नाम पर तेल का काला खेल चल पड़ा है। पेट्रोल के दामों के करीब डीजल के दामों को लाने की कवायद में अब हर महीने डीजल के दाम 50 पैसे बढ़ाने का निर्णय (साजिशन) लिया गया है, उससे आवाम को महंगाई की कीमत अब थोक में नहीं किश्तों में चुकानी होगी।
दरअसल, डीजल पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी अब आये दिन की खबर बन चुकी है और जब कोई बात आम हो जाती है तो उसका असर भी कमजोर पड़ जाता है। सरकार ने इसका बड़ा ही सटीक और चोर रास्ता ईजाद कर लिया है कि कीमतें तो बढ़ें, मगर आहिस्ता-आहिस्ता। दर्द बढ़े मगर मजे-मजे। यकायक कीमतों में इजाफा, सरकार के विरुद्ध बदनामी का माहौल निॢमत कर देता है। इसलिए सरकार की किचन कैबिनेट में यह तय हुआ है कि अब डीजल पेट्रोल के दामों में कसाई की तरह नहीं, प्यार से बढ़ोतरी करेगी। सरकार का भी यह मानना है कि डीजल कीमतों में इजाफे की यह छोटी-छोटी खुराक जनता आसानी से सहन कर सकती है और कंपनियों की आर्थिक सेहत भी दुरुस्त हो सकती है। सरकार भी बखूबी समझने लगी है कि बढ़ती कीमतों से देश में सिवा विरोध के और क्या होता आया है। इससे विपक्ष और मीडिया को भी कुछ कहने सुनने और लिखने का मौका मिल जाता है, तो जनता की भड़ास भी कुड़कुड़ा कर निकल लेती है।
हर बार तेल कंपनियां बाजार भाव की बनिस्पत हो रहे नुक्सान की भरपाई का राग अलापती हैं और इसी ओट में पेट्रोलियम पदार्थों पर चोट करती हैं। ऊपर से रोना रोया जाता है कि अभी कंपनियों को घाटा सहना पड़ रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि कंपनियों का यह घाटे का गणित महज एक छलावा है। यह दुष्प्रचारित किया जाता है कि तेल सब्सिडी समूची अर्थ व्यवस्था को अस्थिर कर देगी। लेकिन कडुआ सच यह है कि भारत के उपभोक्ता दुनिया में तेल की ऊंची कीमत चुका रहे हैं। मसलन पेट्रोल की कीमत पिछले एक बरस से 70 रुपए लीटर से अधिक रही है। वहीं पाकिस्तान में 53 रुपए लीटर। जबकि भारत की भांति पाकिस्तान भी पूरी तरह तेल के आयात पर निर्भर है। अमेरिका में कोई सब्सिडी नहीं है फिर भी वहां पेट्रोल 50 रुपए प्रति लीटर ही है। अन्य एशियाई देश भी भारत से कम दामों पर तेल बेच रहे हैं। तो फिर सवाल है कि दुनिया में भारतीय ही सबसे अधिक दाम क्यों चुकाएं? घाटे के नाम पर सिर पीटने वाली तीनों तेल कंपनियों ने वर्ष 2010-11 में सरकार को 3,287 करोड़ रुपए का लाभांश दिया है। आलम है कि यह मुनाफा वर्ष-दर-वर्ष बढ़ता जा रहा है। अक्सर आवाजें उठती हैं कि तेल क्षेत्र में सुधार होना चाहिए, जिसके बरक्स समाधान देने के नाम पर सुंदरराजन, रंगराजन, किरीट पारिख, चतुर्वेदी और विजयकेलकर समितियां गठित हो चुकीं हैं। पर लगता है कि जो कुछ भी सुधार के नाम पर हुआ है वह बस कंपनियों का लाभांश कैसे बढ़ाया जाय न कि अवाम को राहत कैसे मिले?
तेल के इस नए खेल सारा मजमा डीजल को लेकर है, क्योंकि जहां पेट्रोल व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था को डगमगाता है, तो डीजल समूची व्यवस्था को। सर्वविदित है कि डीजल परिवहन का प्रमुख साधन है यह चाहे व्यक्तियों  का हो अथवा वस्तुओं का। डीजल की हर बढ़ोतरी पर माल भाड़ा बढ़ता है जिसका बोझ उत्पादक वस्तुओं के दाम बढ़ाकर पूरा कर लेता है और घूम फिरकर सारा बोझा उपभोक्ता के सिर पर लद जाता है। इसलिए आने वाले दिनों वस्तुओं के दाम जिस तेजी से बढेंगे कि अवाम देखकर अवाक रह जाएगी। एेसा नहीं कि सरकार या कंपनियां इस सच्चाई से वाकिफ नहीं पर सरकारों का रवैया शुतुरमुर्गी होता जा रहा है। जो भी हो, इतना तो तय है कि तेल के जरिए महंगाई को किश्तों में परोसने का नया फॉर्मूला जनता का तेल निकाल कर ही दम लेगा। पहले ही गैस सिलेंडरों से सब्सिडी हटने की तलवार सर पर लटक रही थी अब डीजल की माह-दर-माह बढ़ोतरी रही सही कसर को पूरा कर देगी। हो न हो यह बात सरकार के संज्ञान में है कि अभी चुनाव में वर्ष से अधिक का समय शेष है और यदि वह समय रहते अधिक राजस्व जुटा लेगी तो अपने कैश ट्रांसफर स्कीम में उतनी ही कारगर रहेगी। साथ ही लोकलुभावन घोषणाएं कर पाने में खुद को सहज पाएगी। लेकिन बस,रेल, खाद्य वस्तुओं सहित चौतरफा महंगाई को आक्रमण हो चुका है। कहना पड़ता है कि यह यूपीए सरकार का द्वितीय संस्करण देश को बहुत महंगा पड़ा। क्या एेसे में अवाम सरकार के झांसे में आकर उसके तृतीय संस्करण को भी देखना चाहेगी!
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