Thursday, 28 June 2012

बचपन के जमाने फिर नहीं आते...

   
प्रकृति के परिवर्तन हमें बताते हैं कि कैसे वह वक्त और वातावरण के मुताबिक अपने विभिन्न रूपों में उपस्थित होकर हमारे जीवन में विविध रंग भरकर, हमारा लगाव और जिजीविषा, जिन्दगी के प्रति उत्पन्न करती है। प्रकृति के सदृश्य हमारे जीवन में भी समय के साथ निरंतर बदलाव- उम्र, समझ और संबंधों के स्तर पर होते रहते हैं। लेकिन प्रकृति और मानव के परिवर्तन में जो गाढ़ा अंतर है वह यह कि प्रकृति अपने मिजाज को हर वर्ष दोहराती है, तो वहीं मनुष्य के जीवन में उम्र के स्तर पर आये परिवर्तनों की पुनरावृत्ति नहीं होती। अब बारिश को ही ले लें तो, एक बार फिर हमें भिगोने को आतुर है। भीषण गर्मी से नीरस हो गए जीवन में वर्षा की फुहारें रस भरने को उमड़ रही हैं। बारिश जहां किसानों को कृषि कार्यों में उलझा देती है, तो प्रशासन, कर्मचारियों  को उसके प्रबंधन में, तो पत्रकारों की जमात मानसून के अनुमानों की खबरों पर कलम घिसती नजर आती है। लेकिन इस बारिश का असली आनंद  हमारा बचपन ही लूटता आया है, जो बार-बार नहीं आता।
 ‘बचपन’ शब्द ही विशिष्ट है मानव विकास में यह उम्र के विभिन्न चरणों के लिए प्रयुक्त हो सकता है। सरल शब्दों में बचपन को जन्म से आरंभ हुआ माना जाता है। अवधारणा के रूप में कुछ लोग बचपन को खेल और मासूमियत से जोड़ कर देखते हैं, जो किशोरावस्था में समाप्त होता है। दरअसल, शैशवावस्था के बाद का जीवन ही बचपन है और बच्चे के लड़खड़ाते हुए चलने के साथ शुरू होता है, जब बच्चा बोलना और स्वतंत्र रूप से कदम बढ़ाने लगता है। प्रारंभिक बचपन सात से आठ साल की उम्र तक चलता है। राष्टÑीय संगठन के अनुसार, प्रारंभिक बचपन की अवधि जन्म से आठ की उम्र तक होती है। बहरहाल, बचपन की सैद्धांतिक परिभाषाओं में इसकी पहचान इसे सीमित करती है। कई बार हम बड़े होकर भी अपने बचपन को जीते रहते हैं और कह उठते हैं कि क्या दिन थे वोभी आह....!
    ‘बचपन’ जीवन के व्यवस्थित नियमों से परे होता है। चिन्तामुक्त होकर खेल-कूद, मौज-मस्ती, में निमग्न रहना ही उसके अनिवार्य लक्षण हैं। उम्र का यही पड़ाव है जो  मानव जीवन  की सभी अवस्थाओं में सबसे नायाब है, अनमोल है, अद्भुत है। बपचन को याद करते समय सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘बचपन’ शीर्षक से लिखी कविता की चंद पंक्तियां होठों पर तैर जाती है जिसके कुछ अंश यूं हैं कि .....
                                              बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
                                             गया, ले गया तू जीवन की सब से मस्त खुशी मेरी।।
                                          चिन्ता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छन्द।
                                               कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनन्द?
                                                ऊंच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
                                                     बनी हुई थी वहां झोपड़ी और चीथड़ों में रानी।
                                                  रोना और मचल जाना भी क्या आनन्द दिखाते थे
                                                      बड़े-बड़े मोती-से आंसू जयमाला पहनाते थे।।

यह तथ्य निर्विविाद रूप से सर्वमान्य है कि बचपन चाहे किसी भी सामाजिक स्तर पर हो उसकी बेफिक्री ही उसे प्रकृति के करीब ला खड़ा कर देती है। बच्चों को बारिश के पानी में भीगते, बहते पानी में नाव चलाते और उसके प्रवाह के पीछे किलकारी मारते हुए भागते देखकर हर शख्स को उसका बचपन आंखों में कौंध जाता है। बच्चे तब यह नहीं जानते कि वे बड़े होकर अपनी इस अल्हड़ता को, जगजीत की गाई नज्म... ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो, वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी...को किसी रिकार्ड में  सुन कर इन सुनहरे पलों को याद करेंगे। बच्चों को बारिश में भीगने के बाद बीमार पड़ने जैसे ख्याल उनके पास फटकते ही नहीं....बड़े बुजुर्ग भले ही बारिश में न जाने और बीमार पड़ जाने के डर से बच्चों को चेताते व खुद चिंतित रहते हों, पर बचपन इन सुझावों को एक तरफा खारिज कर देता है। बच्चों का बरसते पानी में बेपरवाह मौज-मस्ती से राकने के लिए बड़ों के द्वारा लगाये गए बंधनों को वे कठोरतम महसूस करते हैं और हम बड़े भी बच्चों के साथ सहज नहीं रह पाते... कई तरह के एटिकेटस के नाम पर हम उन्हें पल-पल सिखाते हुए टोकते हैं कि यह नहीं करना ,वह नहीं करना...इस सिलसिले में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की प्रध्यापिका ममता धवन कहतीं हैं कि जब कभी मेरा बेटा खेलते हुए कोई वस्तु बिखरा देता है तो मैं उसे डांटने या मना करने के बजाए दूसरी और वस्तुएं फैलाने के लिए दे देती हंू और उसके द्वारा इस बचपन में लिए जा आनंद से अभिभूत होती हूं। इसलिए बचपन को आवश्यकता से अधिक नहीं छेड़ा जाना चाहिए, क्योंकि हर बच्चा अपनी  नैसर्गिक गतिविधियों से बहुत कुछ सीखता है। बच्चों को उनका बचपन जीने के हक को,जीवन की   औपचारिकताओं से प्रथक रखें ताकि वह इस अनमोल जीवन को भरपूर जी सके। ‘बचपन’ के बरक्स एक शेर रोशन हो आता है कि...
                                                     उडने दो परिदों को अभी शोख हवाओं में,
                                                              फिर लौट के बचपन के जमाने नहीं आते।


           श्रीश पांडेय

Sunday, 24 June 2012

बात बचपन की

  तीन दशक पहले बात बचपन की है जब मैं तीसरी या चौथी दर्जे में पढ़ता था। उनदिनों कुछ ऐसा वातावरण था, जब स्कूल जाने का मतलब पढ़ाई से कहीं महत्वपूर्ण खेलकूद और मौज मस्ती था। न तो मासिक टेस्ट थे, न ही रोज का अनिवार्य होमवर्क। टिफिन में खाने के आइटम लगभग हफ्ते भर एक से- रोटी या पराठा के साथ सब्जी या कभी मां को समय न रहा तो अचार से दो चार होना पड़ता था। लेकिन अब बच्चों के टिफिन का जायका मैगी, नूडल्स, सैंडविच, पास्ता जैसे स्वादों में रूपांतरित हो गया है। ठंड हो या गर्मी सभी में यही अटरम-शटरम बच्चों की पसंद बन चुका है।
    बहरहाल, खाने के साथ-साथ पढ़ाई-लिखाई की पद्धति में जो बड़ी तब्दीली आयी है वह यह कि अब मां-बाप बच्चे के स्कूल जाते ही तय करने लगते हैं कि बच्चे को क्या बनना चाहिए। ‘दिल चाहता है’ फिल्म को सराहने वाले,उसके  दर्शन पर ताली पीटने अभिभावक भी अपने बच्चे को उसका नहीं बल्कि अपना ख्वाब पूरा करने का साधन मान बैठते हैं। दरअसल, बच्चा क्या बनना चाहता है ये बात गौण हो चली है, यहां तक कि उसके भविष्य की राहअभिभावकों द्वारा गर्भ से ही गढ़ी जाने लगी है। इसी का नतीजा है कि बच्चों पर नर्सरी कक्षा से ही स्कूल में अव्वल आने का दबाब झलकने लगता है। उधर किताबों के बोझ को देख कर मानना पड़ता है कि बच्चा भले ‘केजी वन’ में पढ़ता हो पर उसका बस्ता ‘टू केजी, थ्री केजी...फाइव केजी’ का होता है। आज कच्ची उम्र में किताबी अध्ययन करने और  उसमें पारंगत होने की ललक भले ही शुरुआती दिनों में मां-बाप की रहती हो, पर जल्दी ही यही आदत बच्चों में पड़ जाती है। पढ़ाई का यह दबाव साल-दर-साल उच्च कक्षाओं में प्रवेश करने के साथ अनुपातिक रूप से बढ़ता रहता है। ऐसे में बचपन खासकर शहरी इलाकों में किताबों के साथ किसी फिल्मी दृश्य की तरह पल झपकते ही कब जवान हो जाता है, समझ मुश्किल है।
      मैं जब अपने बचपन को सोचता हूं इतने वर्षों में आये फर्क को साफ महसूस करता हंू। क्योंकि हमारी जितनी जानकारी कक्षा 5 में होती थी, उतना आज के बच्चे कक्षा एक में जानते हैं। यानी आज के बच्चों का ज्ञान उम्र से पांच गुना आगे है। जहां तक शिक्षक-शिक्षार्थी के परस्पर की संबंध की बात है, तो वह बेहद मर्यादित और अनुशासित था। मैं पढ़ने में वैसे भी लापरवाह रहा हंू, इसलिये अपने अध्यापकों से प्राय: डांट ही नहीं,  मार भी पड़ जाना अचरज की बात नहीं थी, लेकिन उस मार या डांट में भी एक अपनापन, प्यार और अधिकार था।  तभी तो जब कभी घर में, स्कूल से शिकायत आ जाए, तो समझ लीजिये बजाय शिक्षकों से जबाव तलब के, यही मार और डांट बोनस की तरह दोगुनी हो जाती थी। बुजुर्गवार बताते हैं कि 50-60 के दशक में शिक्षकों का विद्यालय में अनुशासन इतना सख्त था कि किसी छात्र के विद्यालय मेें अनुपस्थित रहने पर उसको ढूंढने के लिए चार-पांच छात्र इसलिए भेजे जाते थे कि यदि गैर-हाजिरी का कोई उचित कारण न हो तो उसे पकड़वाकर विद्यालय बुला लिया जाता था। तब शिक्षक का समूचे विद्यालय के बच्चों पर पिता के समान अधिकार होता था। पर आज प्राय: शिक्षकों के सख्त अनुशासन को असंवेदनशील अमानवीय मानकर उनसे ही सवाल दाग दिए जाते हैं। इसीलिए भले उन दिनों की स्मृति आज की पीढ़ी के लिए स्वप्न और अविश्वसनीय हो, पर सब कुछ ऐसा चलता था मानो हमारा जीवन प्रकृति के कितने करीब है। कल का वही बालक यानी मैं आज पिता हूं और जब अपने बच्चे को स्कूल जाते और उसके वातावरण को देखता हूं, तो 30-35 सालों में आये फर्क को बेहतर समझ पा रहा हंू, कि क्यों हमारा जीवन कृत्रिमता की ओर निरंतर उन्मुख है। बच्चे बचपन से ही मशीनीकृत जिंदगी के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। रोज स्कूल की भागमभाग, वहां मिले गृहकार्य (होमवर्क) को पूरा करना, फिर एक-दो ट्यूशन और बचा हुआ समय टेलीवीजन पर कार्टून देखना ही उनकी दिनचर्या बन चुकी है। खुली हवा में सांस, मित्रों के साथ गप्पें अब जीवन से नदारत है। खेल के मैदान का मुंह तो महानगरों के बच्चे शायद ही कभी देख पाते हों। महानगर ही क्यों, अब तो यही हाल कमोबेश शहरों और कस्बों का होता जा रहा है।  दरअसल, पढ़ाई के बढ़ते उत्तरोत्तर बोझ ने बच्चों को किताबी कीड़ा बना कर रख दिया है। यह बात दीगर है कि इसकी वजह से वे भले इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक, प्रशासनिक अधिकारी बन रहे हों, पर इंसान बनने के मूलभूत गुणों से वंचित होते जा रहे हैं। क्योंकि इंसानी संगत का विकल्प टीवी, स्वचालित खिलौने और केवल किताबी ज्ञान ही नहीं हो सकता। छोटे  परिवार, स्वार्थमय जीवन, अपने पराये का भेद आज की पीढ़ी कच्ची उम्र में ही सीख जाती है।
   कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ओर मानव सभ्यता विकास और उन्नति के शीर्ष पर अपने कदम रख रही है, तो दूसरी ओर हम और हमारी पीढ़ी संवेदनाशून्य, भावशून्य होकर मानवीय मूल्यों व उसकी गरिमा को रसातल में ले जाने पर उतारू हैं। इसकी वजह बहुत हद तक जीवन में विद्यमान प्रतियोगिता और कृत्रिमता है। साधनों/भौतिकता का विकास, साध्य(मानव) के लिए है, पर यह जानकर पीड़ा होती है कि साध्य ही साधनों के वशीभूत होता जा रहा है। विकास की जो गंगा बहाई जा रही है वह नि:संदेह आने वाले वक्त में अर्थर्हीन होकर रह जाएगी। क्योंकि संवेदनहीन होता आज का बचपन ही तो कल का भविष्य है।
ऐसे में  बचपन के बरक्स अनायास ही जगजीत की गुनगुनाई गजल बरबस जुबां पर आ जाती है कि...ये दौलत   भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन,वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी... इसका स्मरण और इसके बोल का आज भी दिल को नम कर जाना दर्शाता है कि बचपन से अनमोल कुछ भी नहीं। पर इस बहुमूल्य बचपन को पढ़ाई का बोझ और आज का मशीनीकृत शिक्षा पद्धति लीलती जा रही है। स्कूलों ने भी अपने परिणामों को बेहतर दिखाने के फिराक में बच्चों पर इकाई टेस्ट, मासिक टेस्ट, त्रैमासिक टेस्ट, छमाही टेस्ट और फिर वार्षिक परीक्षा के पूर्व एक और अभ्यास टेस्ट का भार डाल रखा है। तब कहीं जाकर वार्षिक परीक्षा का आयोजन होता है। यानी बचपन से शुरू हुआ पढ़ाई का ये सिलसिला अच्छी नौकरी/ रोजगार हासिल कर लेने तक अनवरत रहता है। सवाल बड़ा और बारीक है कि क्या हम इस दुनिया में इसीलिए जन्मते हैं कि एक मशीन की तरह रोटी के लिए और बेहतर रोटी के लिए संघर्ष करते अपना जीवन गुजार दें? क्या हम सिर्फ भोग के लिए? क्या हम अपनी पीढ़ी को सुखमय जीवन की शिक्षा हर कीमत पर देना चाहे हैं। हो न हो आज जितनी असंवेदनशीलता हमारे चंहु ओर पसर रही है उसके नेपथ्य में बचपन का असमय समाप्त होना, सामाजिक संरचना का शिथिल होना है। बचपन है तो भविष्य है... बाल मन की इस बोझिल पढाई उससे मुक्ति का प्रतिबिम्ब शकील जमाली के इस में शेर रोशन हो आता है कि-
सफर से लौट जाना चाहता है, परिंदा आशियाना चाहता है,
कोई स्कूल की घंटी बजा दे, ये बच्चा मुस्कराना चाहता है


श्रीश पांडेय 

Sunday, 10 June 2012

इंडिया अगेंस्ट (कांग्रेस) करप्शन

  एक लघु कथा है कि पांच डाकू थे उनमें से चार गांवों में जाकर डाका डालते और पांचवां उनकी रखवाली करता कि कहीं उन पर कोई आंच तो नहीं आ रही....एक बार पुलिस ने पांचों को गिरफ्तार कर लिया....उन्हें अदालत में पेश किया....चार को अदालत ने सजा दे दी....पांचवां बोला मैंने आज तक किसी भी डाके में भाग नहीं लिया....किसी ग्रामीण को नहीं लूटा.... यदि कोई ग्रामीण कहे कि मैंने उन्हें लूटा है तो मैं संयास ले लूंगा... ! तो क्या उसको बरी कर दिया जाये ?
इनदिनों यूपीए सरकार के मुखिया की कुछ ऐसी ही दशा दुर्दशा दिखती है। बड़े-बड़े नामों से सुसज्जित सरकार के धुरंधर अर्थशास्त्री-प्रशासक महंगाई, काला धन, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, सुधारों को लागू करने में लाचार और बात-बात पर सिर धुनते, बिखरते किसी तरह ‘फेवीकोल का जोड़ है टूटेगा नहीं’ के विज्ञापन की तर्ज पर पिछले 8 साल से दिल्ली के सिंहासन से कुछ इस तरह चिपके हैं कि उनके जाते ही देश गढ्ढेÞ में  गिर पड़ेगा।  सरकार कोमा में जा चुकी है जिसका नमूना है कभी प्रधानमंत्री कहते हैं कि आने वाले साल और कठिन होंगे, हमें (आम जनता) को इसके लिए तैयार रहना होगा। उसके ग्रामीण विकास मंत्री जयरामरमेश ने यूपीए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना मनरेगा के औचित्य और भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया है।  सरकार, सरकार नहीं मजाक बन कर रह गयी है।
इनदिनों देश में अजीब तरह की आपाधपी मची है। जिसे देखकर किसी भी राष्टÑभक्त का राष्ट्र की दिशा दशा देखकर चिंतित होना लाजिमी है। विगत आठ वर्षों से ऐसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है। जिनके चरित्र,नैतिकता, ईमानदारी का न सिर्फ सरकार के कारिंदों द्वारा गुणगान किया जाता है, बल्कि समूचा विपक्ष भी गाहे-बगाहे उनके इस रूप की आराधना करता रहा है। लेकिन जिसके कार्यकाल में लाखों करोड़ों के घोटाले उजागर हुए  हों और  जो भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने में हर तरह से धृतराष्टÑ की तरह अक्षम रहा हो, जिसके कार्यकाल में नामचीन अर्थशास्त्री होने के बावजूद सर्वाधिक महंगाई बढ़ी हो, जिनके चहेते मोंटेक सिंह ने जिस बेशर्मी से गरीबी का मजाक उड़ाया हो ऐसी सरकार से ना उम्मीदी  होना स्वाभविक है। कुलमिलाकर समूची अर्थव्यवस्था की जैसी दुर्दशा इस सरकार में हुई है वैसी स्वतंत्र भारत के इतिहास में देखने में नहीं आती।
  एक-गैर राजनीति और संवेदना शून्य प्रधानमंत्री जिसे देश की आवाम की नब्ज टटोलना तो दूर उल्टे जीडीपी, आर्थिक विकास दर, मौद्रिक नीति  जैसी अर्थव्यवस्था की टर्मिनोलॉजी के नाम पर बार-बार यह बयान करना कि महंगाई के वैश्विक हालातों को देखते हुए यह और बढ़ेगी, भारत को मंदी का दौर और झेलना होगा...जैसे उवाचों ने समाधान कम समस्या ज्यादा पैदा की है। इतनी ही तत्परता और संजीदगी यदि सरकार ने भ्रष्टाचार और अनुमानित 400 लाख करोड़ के काले धन की वापसी पर दिखाई होती तो देश के हालात इतने पतले न होते। कांग्रेस शासन काल में घोटालों का सिलसिला आजादी के बाद से ही नाले के रूप में चल पड़ा था जिसने आज एक वेगवती नदी का रूप धर लिया है। एक मोटी नजर इस फेरहिस्त पर मारें तो-1948 जीप घोटाला, हरिदास मूंदड़ा घोटाला 1957 से लेकर, पामोलिन तेल घोटाला, आज के कॉमनवेल्थ, आदर्श हाउसिंग सोसायटी, टूजी स्पेक्ट्रम और अब कोयला आवंटन के मामले में संदेह उपजने तक सैकड़ों मामले हैं जिन पार्टी दागदार हुई है।
घपलों-घोटलों की लम्बी फेरहिस्त दर्शाती है कि कभी पार्टी ने इस पर अंकुश रखने की कोई ठोस योजना नहीं बनाई। यह हकीकत है कि गठबंधन सरकारों में यह प्रवृत्ति तीव्र गति से बढ़ी है,चाहे कांगे्रस के नेतृत्व में यूपीए हो या भाजपा के नेतृत्व में राजग।  लेकिन यूपीए के पिछले दो कार्यकाल में जिस कदर सरकारी खजाने की लूट मची है उसको देखकर कहना पड़ता है किअंग्रेजों द्वारा लूटे गए इंडिया की मिसालें आज की तुलना में फीकी हैं।
अब जबकि अन्ना हजारे समूह ने प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर सवाल खड़े किए हैं तो स्वयं मनमोहन सिंह और उनके कु नबे के मंत्री इसे बेबुनिाद बता कर पल्ला झाड़ लेने और अन्ना को राष्टÑ विरोधी के हाथ में खेलने जैसे डायलॉग जड़कर सर छिपाने की कवायद में जुटे हैं। आरोपों के खिलाफ शुतुर्मुर्गी मुद्रा अख्तियार करने बजाय सरकार को आंख खोलकर चीजों देखना और उनके जबाव देने चाहिए। आखिर यूपीए को जनता ने चुना है और गठबंधन की मजबूरी के नाम पर इससे आंख नहीं मूंदी जा सकती। इसी बचाव की नीति का नतीजा है कि आज वह चौतरफा कटघरे में खड़ी नजर आती है। फेसबुक और टिवटर की सोशल बेबसाइटों में कांग्रेस और यूपीए के विरुद्ध जनमानस के गुस्से को साफ पढ़ा जा सकता है।
    आज स्वयं सरकार की कारिस्तानियों से ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की मुहिम ‘इंडिया अगेंस्ट कांग्रेस’ बनती जा रही है या कहा जाय कि बन चुकी है तो ज्यादा बेहतर होगा। दरअसल, अन्ना समूह द्वारा ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मिशन की शुरूआत में किसी भी दल, कर्मचारियों  अथवा  प्राइवेट कंपनियों द्वारा कैसा भी करप्शन हो के विरुद्ध था। जिसके लिए लोकपाल और अन्य व्यवस्थागत सुधारों की मांगों को एकतरफा अनसुना कर देने के बाद आहिस्ता-आहिस्ता यह मुहिम कांग्रेस विरुद्ध ज्यादा बनती गई। यद्यपि अन्य दल भी इसी दलदल में धंसे हैं। हालिया   भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्षमण को  हुई सजा और येदियुरप्पा की बेदखली इसी की बानगी है।
 अब जबकि चुनाव में दो वर्ष शेष हैं, सरकार के पास पूरा मौका है कि वह अपना दामन धो-पोंछ सके पर इसके लिए कालेधन, भ्रष्टाचार को लेकर वह ऐसा कुछ करती दिखे ताकि यह समझा जा सके कि वह तंद्रा से जाग चुकी है। भाजपा जिसे कांग्रेस का विकल्प माना जा रहा है जिसके लिए पार्टी में अगला प्रधानमंत्री कौन होगा के निमित्त आभाषी युद्ध शुरु हो गया है। ऐसे में कांग्रेस के पास अवसर  है कि वह स्थिरता के साथ महंगाई, भ्रष्टाचार, कालेधन पर अपना रुख सख्त करके दागदार दामन और शर्मसार छवि को स्वच्छ व सम्मानजनक बना सकती है। अन्यथा अपने विरुद्ध जनता के गुस्से को वह बिहार, यूपी के चुनावों में देख ही चुकी है।
                                                                                                                                 -  श्रीश पाण्डेय