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सा ल 2012 की शुरुआत जिस जोश-ओ-खरोश से हुई थी, उसका अंत उतना ही गमजदा और निराशाजनक रहा।
मनमोहन सिंह ने कहा था कि यह वर्ष 2012, लोकपाल के नाम होगा, रोजगार के
अवसरों में वृद्धि और काले धन पर अंकुश व महंगाई पर नियंत्रण का होगा।
लेकिन 2013 के मुहाने पर खड़े होकर देखें तो ऐसी खबरें या बातें कम ही नजर
आती हैं जिसे हम, समाज या देश के स्तर पर इजाफे के तौर पर सहेज सकें या उन
पर फख्र कर सकें।
कई तरह के विकास के दावों और वादों के बीच
भ्रष्टाचार, महंगाई, धांधली की परम्परागत अंधेरगर्दी के बावजूद, दिसम्बर का
आखिरी पखवाड़ा दामिनी के दंश से देश को झकझोर गया।
साल की शुरुआत
में माया कलेंडर का डर भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में दिखा कि 21-12-12
को मानव का धरती से अंत हो जाएगा। इस अफवाह ने आम चर्चाओं व खबरों में
सुर्खियां बटोरीं। मगर सकारात्मक सोच रखने वालों का मत था कि ऐसी बातें
आधारहीन हैं और गलत साबित भी हुईं। समय चक्र है जो अपने नियम से सदा गतिमान
रहता है और रहेगा। आपको याद होगी महाभारत धारावाहिक में हरीश भिमानी की
आवाज-'मैं समय हूं..'समय' किसी का इंतजार नहीं करता..इतिहास के
पन्नों पर अपनी छाप छोड़कर आगे बढ़ जाता है। 'समय' इतिहास के पन्नों
पर ऐसे अध्याय लिख जाता है कि वे समाज में सदियों तक दोहरये जाते हैं।
बालात्कार और स्त्री शीलहरण की न जाने कितनी घटनाएं मानव इतिहास में घटी
होंगी और घट रही हैं, मगर हस्तिनापुर में दुस्साशन द्वारा द्रोपदी के
चीरहरण की नजीर आज भी दी जाती है और अब दामिनी की घटना समाज पर ऐसा दाग है
जो सदियों तक करुण याद के रूप में दर्ज रहेगी।
तारीख (31 दिसम्बर
2012) की गणना के हिसाब से, ऐसा ही दिन है आज, जो अच्छी-बुरी स्मृतियों को
पीछे छोड़कर आगे की तारीख (1 जनवरी 2013) को उम्मीदों से देख रहा है। सच
कहा जाए तो देखना भी चाहिए। हां मगर यह भी कि जो समाज अपने इतिहास से सबक
नहीं लेता, उसकी उम्र ज्यादा नहीं होती।
इसलिए नव वर्ष सिर्फ
तारीखों का बदल जाना नहीं है, यह इससे परे कई तरह की घटनाओं-गणनाओं के
परिवर्तन से जुड़ा है। यह महज एक तारीख है जो पिछले वक्त का आंकलन और नए के
लिए संकल्प का विकल्प लेकर आती है।
इस तारीख से किसी की बढ़ती उम्र
के वर्ष गिने जाते हैं, तो किसी की नौकरी के वर्ष, लेकिन हर नया वर्ष
गांव, नगर, शहर, देश-दुनिया की सभ्यता और प्राचीनता में हौले से एक वर्ष और
दर्ज कर देता है। बहरहाल, इस समूची प्रक्रिया में बधाई, संदेशों का तांता
और अधिकतम लोगों को याद कर लेने की चाह में ई-मेल, मोबाइल, फोन, फेसबुक,
ट्विटर जैसे साधन अब संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बनकर उभरे हैं।
लेकिन यह कोरी प्रक्रिया है, जो परम्परा की लीक पीटने सिवा कुछ नहीं रह गई।
इस तमाम उत्सवी कवायद के बीच, यदि आज के दिन, हम एक पल एकांत में बिता कर
सोचें कि हमारा समाज, हमारी सभ्यता, यहां तक की हमारा समूचा विकास, मानव के
हितार्थ कितना हुआ और विनाश के लिए कितना? तब सामान्य व्यक्ति भी बड़ी
साफगोई से यह स्वीकारेगा कि हमने सुविधा के नाम पर अपने विनाश का सामान
खुद-ब- खुद तैयार कर लिया है और जो रही-सही कसर है उसे दिन-ब-दिन पूरा करने
पर आमदा हैं। तो जिन पर समाज, राष्ट्र और पूरी दुनिया का दरोमदार है,
खासकर जो विशेष समझ और बुद्धि से युक्त हैं, उनकी निगाहें न सिर्फ उस
विनाशकारी मंजर की तस्वीर को तजबीज पा रही होंगी बल्कि साफ-साफ देख भी रही
होगी। क्योंकि आज हमारा जीवन ही पूरी तरह साधनों की गिरफ्त में है। विकास
के इस सफर में हम सुख-साधनों के जितने करीब आये हैं, प्रकृति से उतने ही
दूर हुए हैं। हमारा खान-पान जिस कदर प्रदूषण युक्त हुआ है, उससे सर्वथा नई
तरह की लाइलाज बीमारियों का प्रादुर्भाव हुआ है। जीवन की गति बढ़ी है पर
जिसके लिए जीवन है वही पीछे छूट रहा है। विडम्बना है कि इस गचर-पचर को हम
महसूस भी करते हैं, पर कौन कदम उठाए, कैसे अमल करे, इसकी तरकीब नहीं सूझती।
लेकिन 'समय' है कि सब देखता रहा है और देख रहा है- मनुष्य का सामान्य
स्वभाव है कि वह अपने लिए हर स्थिति में सुख की कल्पना और चाह करता है।
संसार में एक भी ऐसा प्राणी नहीं होगा जो अकारण सुख से वंचित रहने की सोचे
भी। इसी फेर में साधनों का ध्रुवीकरण इतना बेतरतीव हुआ है कि भारत सहित
दुनिया इसी मुद्दे पर दो स्पष्ट पाटों में बंट चुकी है। इस असमानता का अंतर
कम कर पाए तो आगामी वर्ष जरूर शुभ हो सकता है। वरना, साल और भी आएंगे-
जाएंगे मगर इतिहास के पन्ने पड़े निशान हमें झकझोरते रहेंगे। फिर भी
उर्मिलेश दो पंक्तियों के सहारे आगे बढ़ते रहें कि - बेवजह दिल पे कोई बोझ न
भारी रखिए,
जिंदगी जंग है इस जंग को जारी रखिए।
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