बड्डे ने सबेरे-सबेरे अपना सुर अलापा कि बड़े भाई देश अराजक होने कगार पर
है। हमने पूछा- देश या जनता या फिर नेता। बोले कोई भी हो बात 'सेम' है।
नेता पक्ष का हो या विपक्ष का अथवा उभय पक्ष का, तीनों की पैदाइश देश में 'म्यूचुअल' है। यानी तीनों जनता से जन्मते हैं और जनता में विलीन हो जाते
हैं। लेकिन जब तक नेता अपने सफेद चोले में रहता है, तब तक वह अपने जन्मदाता
से विशिष्ट बना रहता हैं। क्योंकि जिसके पास सत्ता का पत्ता है वह किसी की
सुनता नहीं और जो इससे मरहूम है वह किसी को सुनने देना नहीं चाहता।
अलबत्ता, चिंता की बात यह नहीं कि कौन किसको गाजर-मूली समझ रहा, क्योंकि इस नूराकुश्ती का कल्चर देश की राजनीति में ओल्ड है।
फिर भी जो दिखता है वही बिकता है। यानी माहौल में बमचक है। बेईमानी की
तू-तू, मैं-मैं की मचमच के बीच अब सवाल लूट का नहीं बल्कि तुलना का है।
जब विकास की तुलना दो भिन्न सरकारों के बीच करके, उनके अलम्बरदारों मूंछ
ऐंठ और सीना ठोंक सकते हैं, तो इस दौरान लूटी गई राशि और स्विस खातों में
जमा रकम की तुलनात्मक विवेचना किये बिना भी यह तय करना सम्भव नहीं कि कौन
छोटा और कौन बड़ा बेईमान था। कई बार यह दबी जुबां से कानाफूसी में माना और
स्वीकारा गया कि विकास और बेईमानी अनुपातिक हैं, पूरक हैं।
इसलिए
विकास को देखकर बेईमानी या भ्रष्टाचार का 'पर्सन्टेज' निकालना बेहद
आसान है। देश के नेताओं की नई पौध को इसका विश्लेषण पढ़ाने और समझने के
लिए, आजादी से लेकर अब तक के आंकड़े पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाने चाहिए,
ताकि हमारी पीढ़ी अपने करियर का चुनाव करते समय कोई चूक न कर बैठे कि
बेहतर कैरियर का मार्ग कौन सा था?सेवा चाहे सरकारी हो या जनता की, दोनों
में 'लाभ का तत्व' 'इक्वल' है।
इस 'तत्व' का बोध नेताओं की जमात ने बेहतर समझ और अपने वारिसों को समय आने पर सौंपा है।
दरअसल, इस करियर में आजीवन यूनीफार्म एक सी यानी 'फक्क सफेद' जिसमें
काला धन छिपाना 'कम्फरटेबल' होता है। मुद्दे भी रटे रटाये जो सालों से
जनता को 'फूल' बना रहे हैं। ऑल पार्टी के लीडर वर्षो से, बेशर्मी से,
किसान, गरीब, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के तवे में अपना पराठा सेंकते रहे
हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, गरीबी के चिरंजीवी मुद्दे थे और बने
रहेंगे। क्योंकि इन्हीं में विकास और बेईमानी का राज 'इनक्लूड' है।
करना बस इतना है कि विकास की लीपापोती दिखे और बेईमानी 'लीक' न हो, वो
भी चुनाव के ऐन वक्त पर। क्योंकि पहले के विकास और घपले-घोटालों को जनता
भूल जाती है। |
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