हमारी
ऐसी मान्यता और स्वीकार्यता है कि जहां ज्योर्तिमय प्रकाश है वहीं दिव्यता
और देवता हैं। इसीलिए भारत को देवभूमि माना जाता है। यहां का समूचा दर्शन
मानव कल्याण और उसके विकास से जुड़ा रहा है। सूर्य हमारी संस्कृति का
प्रकाशपुंज है, जिसे हम नियमित अर्घ्य देकर पूजते हैं, पूर्णिमा का
चन्द्रमा भी तिमिर से लड़ता है, लेकिन अमावस का चांद फिर प्रकाश का ग्रहण कर
अंधेरा ला देता है। इस तरह प्रकाश और अंधकार का संघर्ष सनातन है और रहेगा।
कार्तिक मास की अमावस अन्य सभी अमावसों में सबसे गहरी और काली होती है,
ऐसे में दीपक का प्रकाश इस अंधेरे को चुनौती देता और संघर्ष करता दिखता है।
इसीलिए आज के दिन घर आंगन तुलसी के चबूतरे और गावों, नगरों, शहरों,
अमीर-गरीब, खेत खलिहान, मकान-दुकान से लेकर समस्त दिशाएं प्रकाश के उजास
में तिमिर को चीरती जीवन में कर्मरत होने और संघर्षरत होने की प्रेरणा देती
हैं। इसका दर्शन भी यही है कि कितना भी अंधेरा हो मगर मानवीय प्रयास उजाले
के रंग भर ही देते हैं। जैसे एक वनवासी राम ने रीछ-बानरों की सेना बनाकर
धरती के सर्वाधिक शक्तिशाली रावण को परास्त कर दिया था।
दीपावली या
दिवाली अथवा प्रकाशपर्व के अवसर पर दीवारों पर लिखा शुभ-लाभ क्रमश:
गणेश-लक्ष्मी के पूजन से जुड़ा है। लक्ष्मी सामाजिक समृद्धि का आधार है
जिसकी चाह सभी करते हैं, लेकिन समृद्धि(धन) ही सब कुछ नहीं, इसके इस्तेमाल
के लिए विवेक अनिवार्य है। इसीलिए लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा का क्रम
निर्धारित किया गया है। क्योंकि बुद्धि के आभाव में धन का दुरुपयोग और
नैतिक पतन तय है। इस पूजन का संदेश भी यही है कि हम विवेकवान और समृद्धवान
बने। यह उत्सव घर की चहार दिवारी से बाहर एक समाज और एक राष्टÑ के रूप में
चहुं ओर मनाया एवं आयोजित किया जाता है। खुशी, उल्लास और आनंद से सरोबार
यह दिन यों तो राम के नगर प्रवेश और उनके स्वागत से सम्बद्ध है, पर आधुनिक
संदर्भों में इसे इस भाव (अयोद्धा उत्सव) से कम बल्कि साफ सफाई, लक्ष्मी
पूजन और वस्तुओं की खरीद फरोख्त के तौर पर मनाया जाने लगा है। मिट्टी के
दीपकों का स्थान विद्युत के टिमटिमाती रंगीन रोशनियों ने लिया है, तो गोबर
के गणेश और लक्ष्मी पूजा का सुंदर डिजायनर मूर्तियों ने, ऐसे ही गोबर और
छुई से लिपे पुते इकोफ्रेंडली आंगन और दीवारों की जगह केमिकल रंगों की
चमकदार पेंट्स ने ले ली है। आटे से बने चौक को पत्थरों के पाउडरों से बनी
रंगोली ने विस्थपित कर दिया है। पहले उत्सवों की सूचना ऋतुएं देतीं थीं,अब
इनकी खबरें अखबारी विज्ञापन देते हैं। समय के साथ स्थितियों में आये
परिवर्तन से उत्सवों व आयोजनों का स्वरूप बदल जाना स्वभाविक है, इसी का
नतीजा है कि सिर्फ दीपावली ही नहीं अन्य त्योहारों-उत्सवों के साथ ऐसी
दशाएं बनती जा रही हैं। लब्बोलुआब यह कि अब वस्तुएं उत्सव का विकल्प बनती
जा रही हैं, बाजार में वस्तुओं के क्रय की क्रांति है। इधर उत्सवी मानव
हलाकान है, क्योंकि महंगाई आसमान पर है। यह ट्रेंड निराशाजनक है कि दीपावली
में बाजारी खरीददारी स्टेटस सिंबल बन गई है, इस उत्सव-त्योहार में वस्तुओं
का दखल बढ़ा है और भावों और मूल्यों का घटा है। आइए हम इस प्रकाश के मर्म
का आत्मसात करते हुए व्रत लें कि यह उत्सव एक दिन का न रहकर हम सभी के जीवन
में सतत बना रहे।
जलाओ इतने दिए मगर ये ख्याल रहे
अंधेरा किसी कोने में रह न जाए।
शुभकामना है कि दीपोत्सव का यह पर्व भारत सहित विश्व के जनसमुदाय को
आलोकित करे और ‘तमसो मां ज्योर्तिगमय’ की भावना से जीवन में व्याप्त तमस
रूपी अंधकार से प्रकाश की ओर उन्मुख करे।
श्रीश ......
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