टी-ट्वंटी वर्ल्ड कप क्रिकेट में आलम दर्जे की बल्लेबाजी के गुमान में जी रही टीम धोनी की लगातार तीसरी बार धुल जाने से बड्डे सर पर हाथ रखे कुछ यूं बैठे थे मानो अब देश का कोई भविष्य नहीं रहा, अब भारत कैसे जिएगा, क्योंकि उसका चिर प्रतिद्वन्दी, जिसको वह तीन दिन पहले 8 विकेट से कूट-पीट चुकी है वह अब भी चैंपियन बनने की दौड़ में शामिल है। हार के जीत और जीत के हार के रूल्स अब बड्डे को बिल्कुल रास नहीं आ रहे थे। पर सिवाय बड़बड़ाने के बड्डे और कुछ नहीं कर पाने की बेबसी से बेहाल बीयर की चुस्की के साथ बिस्तर डले गहरी चिंता में मशगूल थे। इतनी फिकर तो गैस, डीजल के महंगे होने, विदेशी कंपनियों की देश में घुसपैठ, और डायनासोर सरीके बडेÞ-बड़े घोटालों पर नहीं की। बड्डे बोले बड़े भाई अपन जीत के भी हार गए और दूसरे हार के भी जीत गए यह बात नहीं पच रही। गब्बर सिंह के अंदाज में बड्डे बोले कि ‘हमने कुल 6 में 5 मैच जीते और टूर्नामेंट से बेदखल, उधर वेस्टेंडीज कुल दो ठईया मैच जीत के अंदर, सरासर नइंसाफी है बड़े भाई।’
हमने समझाया अरे बड्डे! सब औसत का खेल है। उसी की जीत है, जिसका औसत ठीक है, वही चैंपियन बन सकता है। औसत यानी बैलेन्स रहो। टीम धोनी के धुरंधर उत्साह में ज्यादा औसत में कमजोर साबित हुए, जबकि औसत का गणित पहले से इम्पारटेंट माना जा रहा था, चाहे वह खेल हो या चुनाव। गाड़ियों के बिकने में भी एवरेज का रोल है, जिसका ऐवरेज दुरुस्त नहीं समझो मार्केट से बाहर। एमबेस्डर, फिएट, बुलेट, राजदूत सब के सब इसी एवरेज के चलते ठिकाने लग गर्इं। परीक्षाओं में एवरेज मेन्टेन करना होता है, वरना ज्यादा में भी हार हो जाती है। फिर भी भारत के भाग्य विधाता बुद्धि में नहीं भावना में जीते हैं। सरकार कितना भी लूट-खसोट कर ले, महंगाई बढ़ा ले, तिस पर जनता कितना भी सरकार को कोस ले, कुढ़ ले, पर वह इन सबसे बेपरवाह औसत को महत्व देती है। उसे बखूबी पता है कि सब करो पर ऐन टाइम (चुनाव के वक्त) मिथ्या घोषणाएं और कुछ नकदी बांट-बंूट के नाराजगी का औसत मेन्टेन कर वह हार से बच जाएगी। पर अपनी टीम है कि कभी आठ विकेट से हारती तो कभी आठ विकेट से हराती। अब जरूरत है नेट प्रैक्टिस की बजाए औसत का गुरूमंत्र लेने की। इसके लिए टीम इंडिया को 10-रेसकोर्स की शरण में जाना होगा, जहां वह औसत को कैसे मेन्टेन किया जाए, के गुर सीखे।कांग्रेस, यूपीए सरकार को बरकरार रखने के लिए जज्बात नहीं हालात के तकाजे में देखती है। माया, ममता और मुलायम में औसतन जो फिट हो, बस उसी को भाव, बाकी से कन्नी काट लो। क्योंकि औसत में ही जीत है।
हमने समझाया अरे बड्डे! सब औसत का खेल है। उसी की जीत है, जिसका औसत ठीक है, वही चैंपियन बन सकता है। औसत यानी बैलेन्स रहो। टीम धोनी के धुरंधर उत्साह में ज्यादा औसत में कमजोर साबित हुए, जबकि औसत का गणित पहले से इम्पारटेंट माना जा रहा था, चाहे वह खेल हो या चुनाव। गाड़ियों के बिकने में भी एवरेज का रोल है, जिसका ऐवरेज दुरुस्त नहीं समझो मार्केट से बाहर। एमबेस्डर, फिएट, बुलेट, राजदूत सब के सब इसी एवरेज के चलते ठिकाने लग गर्इं। परीक्षाओं में एवरेज मेन्टेन करना होता है, वरना ज्यादा में भी हार हो जाती है। फिर भी भारत के भाग्य विधाता बुद्धि में नहीं भावना में जीते हैं। सरकार कितना भी लूट-खसोट कर ले, महंगाई बढ़ा ले, तिस पर जनता कितना भी सरकार को कोस ले, कुढ़ ले, पर वह इन सबसे बेपरवाह औसत को महत्व देती है। उसे बखूबी पता है कि सब करो पर ऐन टाइम (चुनाव के वक्त) मिथ्या घोषणाएं और कुछ नकदी बांट-बंूट के नाराजगी का औसत मेन्टेन कर वह हार से बच जाएगी। पर अपनी टीम है कि कभी आठ विकेट से हारती तो कभी आठ विकेट से हराती। अब जरूरत है नेट प्रैक्टिस की बजाए औसत का गुरूमंत्र लेने की। इसके लिए टीम इंडिया को 10-रेसकोर्स की शरण में जाना होगा, जहां वह औसत को कैसे मेन्टेन किया जाए, के गुर सीखे।कांग्रेस, यूपीए सरकार को बरकरार रखने के लिए जज्बात नहीं हालात के तकाजे में देखती है। माया, ममता और मुलायम में औसतन जो फिट हो, बस उसी को भाव, बाकी से कन्नी काट लो। क्योंकि औसत में ही जीत है।
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