Monday, 16 January 2012

लोकपाल पर बिगड़ा कदमताल





 भ्रष्टाचार सिर्फ भारत का ही नहीं दुनिया के कमोबेश सभी देशों का मुद्दा है। लेकिन भारत में आजादी के बाद से ही यह चिरंजीवी मुद्दा बना हुआ है। जिसकी सघनता इधर पिछले दस वर्षों में बढ़ी है, खासकर पिछले डेÞढ वर्ष से तो यह राष्टÑीय मुद्दा बन कर उभरा है। इनदिनों एक बार फिर से देश में प्राय: सभी राष्टÑीय स्तर के न्यूज चैनलों में और समाचार पत्रों में, लोकपाल को लेकर वाद, प्रतिवाद और सम्वाद का सिलसिला शुरू हो गया है। जैसा कि विदित है इस संस्था को अस्तित्व में लाने की कवायद देश में 1968 से चल रही है, अब तक 9 दफा यह ‘विधेयक की शक्ल’ में संसद में पेश भी हुआ, लेकिन हर बार इस मुद्दे को आवश्यक बता कर गर्म तो किया गया, लेकिन वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ की तर्ज पर; इसे कुछ कथित मुद्दों की आड़ में असहमति की बर्फ रखकर ठंडा किया जाता रहा है। बात बड़ी साफ है कि भ्रष्टाचार से निवृत्ति के निमित्त जिस संस्था की आवश्यकता आज से 42 वर्ष पूर्व से महसूस की जा रही हो, उसके जन्म पर हमारी सरकारें और नेताओं की जमात  कितनी संजीदा हैं, इसको पिछले चार दशकों से लोकपाल पर की गई एक्सरसाइज से समझा जा सकता है।   
     बहरहाल,अन्ना समूह के अभियान से एक बात तो तय दिखती है कि लोकपाल संस्था बन कर रहेगी। लेकिन जिन विवादों के चलते इसे गत चार दशकों से फुटबाल की तरह इधर-उधर किक किया जाता रहा है, उसे घुमाफिरा कर पुन: उन्हीं विषयों पर विवाद का केन्द्र बनाया जा रहा है। सवाल दर सवाल इसके स्वरूप को लेकर उठाये जा रहे हैं। अन्ना समूह चाहता है कि इसका स्वरूप इतना सख्त हो कि भविष्य में फिर एक और ‘सुपर लोकपाल’ की जरूरत देश को न महसूस हो, जबकि नेताओं की बिरादरी लोकपाल संस्था के सम्भावित खतरों से चिंतित दिखती और इसे अपनी मर्जी के मुताबिक बनाना चाहती हैं, वरना क्या वजह है कि सांसदों के वेतन-भत्तों की वृद्धि का निर्णय बिना किसी चंू-चपड़ के शालीन तरीके से हो जाता है, जिसके लिए न तो संसद बंद हुई, न विरोध और न ही बहिष्कार। संसदों की एकता व भाईचारे का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। पर लोकपाल के सख्त स्वरूप को लेकर अनेक तरह की शंकाएं जाहिर की जा रही हैं, मसलन कहीं यह सुपर पावर न बन जाए या निरंकुश हो लोकतंत्र के लिए खतरा न खड़ा कर दे अथवा इसमें विराजे लोग भी भ्रष्ट नहीं होंगे इसकी क्या ग्यारंटी है? या फिर इसका कार्य क्षेत्र इतना विस्तृत और अस्पष्ट हो जाय कि जांच की आंच समय के साथ ठंडी पड़ जाय! इसी खींचतान के मध्य इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले लोकपाल की स्थापना के लिए चलाई जा रही सघन मुहिम को, अभिमन्यु के चक्रव्यूह की तरह इसे फांस कर असरहीन बनाने की तैयारी सरकारी स्तर पर चल रही है, तो विपक्ष भी अब तक इस तमाशे को मौन होकर ताकता रहा है कि देखो आगे-आगे होता है क्या?
अब जबकि सरकार के स्तर पर निर्मित लोकपाल के ढांचे को, अन्ना समूह द्वारा सिरे खारिज कर देने और अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा पहली बार  प्रधानमंंत्री, सीबीआई, सिटीजन चार्टर, ग्रुप सी व डी के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाये जाने की वकालत, अन्ना के साथ बैठकर मंच से किये जाने पर, समूचे प्रकरण में रोचक मोड़ आ गया है और सरकार इन मुद्दों पर अलग-थलग पड़ती नजर आती है।  11 दिसम्बर को जंतर-मंतर में पुन: अनशन में बैठते हुए कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अन्ना ने चेताया कि जो भी गड़बड़ी स्थायी समिति (30 में से 17 सदस्यों ने सरकार के ड्रफ्ट का विरोध किया है) के द्वारा की जा रही हंै उसे ठीक करने का समय 27 दिसम्बर तक है,वरना इस बार वे आर-पार की लड़ाई का मन बना चुके हैं।
    एक बड़ा सवाल यह भी है कि उक्त मुद्दों को ही लेकर 42 सालों से लोकपाल चक्कर गिन्नी खा रहा है और इसके निमित्त आज भी राजनीति का रुदन जारी है। कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में सरकार है। उसके और सहयोगी दलों के कारिंदे भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में हैं अथवा दागदार हैं। ऐसे में उसके द्वारा ही लोकपाल के स्वरूप को लेकर की जा रही आनाकानी संदेह उत्पन्न करती है कि ‘तिनका किसकी दाढ़ी में है’। यह बात चकित करती है कि इन स्थितियों में सरकार ही क्यों अड़ी हुई है? क्या वह मानती है कि वह सत्ता में हमेशा बनी रहेगी?  इस विधेयक में शामिल कड़े प्रावधानों से मात्र उसे ही मुश्किल होगी? क्या उसके ही प्रधानमंत्री भ्रष्ट होंगे? क्या केवल उसके लोगों का ही कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है? और क्या सख्त लोकपाल से देश में अराजकता फैल जायेगी? ढेरों सवाल हैं जिनके उत्तर उसे खुद से और अपने सहयोगियों से पूछना होगा! सारा देश इस तमाशे को पिछले वर्ष भर से टकटकी लगाये देख रहा है। ‘चोरी ऊपर से सीना जोरी’ के दर्शन को जनता भी बांच रही है। हरियाणा के चुनाव का सबक कांग्रेस के सामने है और आसन्न पांच राज्यों के चुनावों में भी उसे खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। विडम्बना है कि अन्य पार्टियां भी दूध की धुली नहीं है उन पर भी कदाचार के आारोप हैं, तो क्यों सरकार लोकपाल के मुद्दे पर ‘एकला चलो’ की नीति पर चलकर और अन्य दलों को तुलनात्मक रूप से बेहतर होने का मौका देकर, भस्मासुर बनने को आतुर है। जबकि यही समय था कि कांग्रेस के पास देश के सर्वाधिक युवा दागहीन   शीर्ष नेतृत्व के रूप में राहुल गांधी हंै। ऐसे में वे दोनों हाथों से अन्ना के साथ होकर कांग्रेस के दामन में लगे धब्बों को धोने का संकेत दे सकते थे। इसे प्रतिष्ठा की लड़ाई न मानकर देश में व्याप्त भ्रष्टाचाररूपी महामारी के उन्मूलन की प्रक्रिया माने तो हर लिहाज से कांगे्रस और देश के हित में होगा। और फिर स्वयं सरकार भी कहती रही है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून लायेगी, तो फिर सख्त लोकपाल से परहेज क्यों?
    कहते हैं कि दूध का जला हुआ तो छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। संभवत: कांग्रेस के राजनीतिक चरित्र को लेकर अन्ना अत्यंत सशंकित हो चुके हैं।  लोकपाल को लेकर हो रही खींचतान से इस विधेयक की लय बिगड़ती जा रही है। इसी वास्ते फिर से संग्राम के लिए अन्ना फिर कमर कस चुके हैं। समस्त भारतवर्ष में भ्रष्टाचार विरोधी राष्टÑव्यापी लोगों का कारवां आश्चर्यजनक रूप से पुन: दिखाई दे रहा है। घट-घट व्याप्त भ्रष्टाचार और शासकीय लूट-खसोट का खात्मा करने की गरज से सृजित शक्तिशाली जनलोकपाल बिल को दरकिनार करके, बेहद लिजलिजा नाकारा लोकपाल बिल संसद के पटल पर पेश करने की सरकार की मंशा की धज्जियां उड़ जाएंगी ऐसा माना जा रहा है। जरूरत है कि बजाय बयानबाजी के उदारतापूर्वक देश हित में सख्त कानून के लिए, एक ईमानदार पहल की। 
                                                                                                    सम्पर्क - 09424733818.

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