Sunday, 5 July 2015

तहजीब बदन की






सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में महिलाओं की सुरक्षा और उनके प्रति हो रहे अपराध के विरुद्ध सर्वथा नया निर्णय सुनाया है कि- 'यदि कोई महिला जिसके साथ किसी भी तरह का दुष्कर्म किया जाता है, तो उसका निदान समझौते के आइने में नहीं देखा जाना चाहिए, न ही इसे उस महिला को दी जाने वाली प्रतिपूर्ति माना जा सकता है।’ इसके पीछे कोर्ट की दलील है कि मानसिक आघातों से उसका जीवन घुटन भरा हो जाता है और आजीवन वह इससे मुक्त नहीं हो पाती। निश्चित तौर पर किसी स्त्री का शील ही उसका सर्वोत्तम आभूषण है, उसकी मार्यादा की पराकाष्ठा है और इसको भंग करने के किसी भी प्रयास को कानून से कुचलने के कड़े प्रयास होने चाहिए। लेकिन बड़ा महीन सवाल है कि गर स्त्री का शरीर मंदिर है तो क्या पुरुष का शरीर कसाई घर है। पुरुष की देह देवालय क्यों नहीं हो सकती? माननीय न्यायधीश भी भौतिक जगत के कार्यकलापों को कानून की नजर में सही गलत ठहराने के हिसाब से ईश्वर कहे जाते हैं और वे न्याय के जिस भवन में विराजते हैं उन्हें न्याय का मंदिर कहा जाता है। लेकिन कितनी बार ये न्याय के मंदिर में बैठे हुए देवता अपमानित हुए और कठघरे में खड़े हुए कहने की जरूरत नहीं।
अपराध मनुष्य ही करता है, पशु नहीं। मनुष्य की संज्ञा में दोनों स्त्री-पुरुष समाहित हैं। इसीलिए जब कोई स्त्री किसी तरह का अपराध करती है तो क्या उसे में मंदिर में घटा हुआ अपराध माना जाएगा? तब हमें एक और विभाजन करना होगा कि जिस स्त्री का अपराध प्रमाणित हुआ उसका शरीर मंदिर की संज्ञा से बेदखल किया जाता है। दरअसल, जब हम कहते हैं कि आत्मा 'परमात्मा’ का अंश है और परमात्मा मंदिरों में विराजते हैं तो स्वयंमेव 'आत्मा’ भी उन मंदिरों की सांकेतिक प्रतिकृति बन जाते हैं। इस लिहाज शरीर चाहे किसी का हो वह होता मूलत: मंदिर ही है।
इसलिए जब तक जीवन के रसायन को उनके स्वाभाविक स्वरूप में समझा और व्यवहार में नहीं लाया जाएगा तब तक कानून कितने बन जाएं, निर्णय और व्याख्याएं कितनी क्यों न कर दी जाएं, मगर समाधान की बजाय उलझाव ही देखने को मिलेंगे और मिल रहे हैं। मानवीय रिश्तों को, उसकी भावनाओं, आवेगों, संवेगों का समाधान कानून में अलगाव और दंड के रूप में हो सकता है। जेल या फांसी अपराधी को समाज से मुक्त कर सकती है, लेकिन क्या गांरटी है कि फिर कोई नया अपराधी तैयार नहीं होगा? दुनिया भर की अदालतों में महिला विरुद्ध अपराधों को रोकने कानूनों का आम्बार लगा है, मगर समस्याएं और अपराध इन कानूनों का बौना साबित कर देते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर क्या किया जाए ताकि स्त्री-पुरुष दोनों को ऐसे कंलकों से मुक्ति मिल सके।
मनुष्य के मन-मस्तिष्क के इस विज्ञान को समझने और इस पर अनुसंधान करने की जरूरत है कि इनको किसी बाहरी ताकत से अवरुद्ध नहीं किया जा सकता। ये मात्र स्वनियंत्रित हो सकते हैं। क्या दिमाग या मन में कोई ऐसा स्विच या बटन सम्भव है जिसे ऑन या ऑफ करने से वह विश्ोष मोड में आकर कार्य करने लगे, नहीं। मनुष्य के संवेग अच्छे या बुरे एक ही मस्तिष्क से संचालित हैं। यानि सत्कर्म और दुष्कर्म एक व्यक्ति की दो वैचारिक अवस्थाएं हैं। डाकू अंगुलिमाल से संत बाल्मीकी बनने की प्रक्रिया इसी परिवर्तन का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसके लिए किसी कानून नहीं बल्कि उनकी पत्नी के वचनों ने ही उनमें व्यापक परिवर्तन ला दिया था।
व्यक्ति में आचरण का अवतरण परिवारिक वातावरण पर बहुत हद तक निर्भर है। मनुष्य एकाकी जीवन के लिए है नहीं, उसकी समाजिक जरूरतें हैं और उसी को प्रवाह में बनाए रखने के लिए वह है। इसी प्रवाह में जब-जब समाजिक संरचना टूटती है, उसकी पकड़ ढीली पड़ती है अपराधों का जन्म होता है। इसलिए कानून की भूमिका भयात्मक हो सकती है मगर नियंत्रक नहीं, क्योंकि शरीर की इंद्रियां कानून से नहीं उसके वैचारिक मनोदशा से संचालित होती हैं। फिर कानून मनुष्य ने बनाए हैं, कानून ने मनुष्यों को नहीं।
 शरीर का मंदिर इंद्रियों के स्तम्भों पर खड़ा है। जब तक इंद्रियां संयमित रहती हैं, मंदिर की मजबूती और मर्यादा बरकरार रहती है। इन्हें नियंत्रित करने के लिए जानवरों से जुदा विवेक हमें मिला है। फिर वह मनुष्य ही क्या जो इंद्रियों के वशीभूत शरीर में रचे बसे देवत्व की नींव हिला बैठे। यह तो कालिदास जैसी उस मूर्खता की द्योतक है जो जिस डाल पर बैठे उसी को काटने में जुट जाएं। अलबत्ता, भले यह कहावत है पर जर, जमीन, जोरू को लेकर विवाद सदियों से हैं और बने रहेंगे। इन पर अधिकार की वृत्ति मनुष्य की संरचना में है। चाहे रामायण हो या महाभारत इन्हीं तीनों को लेकर घटित हुए और आज भी इन्हीं पर अनैतिक अधिकार के बरक्स घट रहे हैं। विवाह संस्था में प्रवेश के बाद इन तीनों पर अधिकार का वार शुरु होता है, लेकिन स्त्री को लेकर अंतहीन हवस, किसी समझ से परे है। सुप्रीम कोर्ट ने महिला की देह को मंदिर बता कर कोई नयी व्याख्या नहीं की बल्कि इस परिभाषा से पुरुषों को बाहर रखकर इसे एकांगी कर दिया है। दुनिया की हर स्त्री को पुरुषों का साथ चाहिए और पुरुषों का स्त्रियों का। और जब तक दोनों की देह में मंदिर के तत्व हैं तब तक वे एक छत के नीचे रह सकते हैं। फिर स्त्री ही संसार की जननी है, इसलिए उसमे वात्सल्य है, वह कोमल है, भावुक है। लेकिन अपने ही जनक (स्त्री) के विरुद्ध मनुष्य का आचरण अक्षम्य है। हो सकता इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने स्त्री विरुद्ध हुए दैहिक अपराध को क्षतिपूर्ति से परे रखने की बात कही है। सुषमा स्वराज ने भी कहा था कि बलात्कार की पीड़िता जिदा लाश होती है?
आज जरूरत कानून की भाषा से इतर कथित पुरुषों को यह समझने की है कि जिसके साथ वे दुष्कर्म करने जा रहे हैं वह भी किसी न किसी की बहन, बेटी, पत्नि है। देह के मंदिर को इंद्रियों के क्षणिक आवेग में ध्वस्त करने पर सौ बार विचार करें वर्ना बकौल जांनिसार अख्तर-
" सोचो तो बड़ी चीज है तहजीब बदन की,
  वर्ना तो बदन आग बुझाने के लिए है।"