धरती पर मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है, जिसके पास विचार शक्ति है और उसकी
अभिव्यक्ति के लिए जुबान है। मानव सभ्यता की विकास यात्रा में विचार और
शब्द शक्ति का अप्रितम योगदान रहा है। इस बात की तस्दीक यह है कि आदिम काल
से पशु-पक्षी, जानवर और अन्यान प्राणी उसी अवस्था में बने हुए हैं, तो
मनुष्य की स्थितियों में आमूल-चूल बदलाव देख्ो जा सकते हैं।
...तो शब्द, विचार के बाद आने वाली अवस्था है। यानि शब्द बेहतर हों, शालीन हों, ऊर्जा से ओतप्रोत हों, इसके लिए जरूरी है कि मनुष्य की विचार/चिंतन क्षमता उत्कृष्ट होनी चाहिए। लेकिन सभ्यता और विकास के समांतर हमारा चिंतन जितना दूषित इनदिनों हुआ है, उतना तो दुनिया का पर्यावरण भी दूषित नहीं हुआ है। खासकर भारत में राजनीति और समाज में जिस तरह से शब्दों के नेपथ्य से व्यभिचार हो रहा है, उससे समझा जा सकता है कि क्या ऐसे ही भारत से यह उम्मीद बांधी जा रही है, जो आने वाले वक्त में दुनिया को मार्ग दिखा सकेगा? और विश्व गुरू जैसे काल्पनिक ओहदे पर बैठ सकेगा?
सांस्कृतिक सम्पन्नता थाती लिए जब स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो की धर्म संसद में अपने उद्बोधन की शुरुआत में कहा था कि डियर सिस्टर एंड ब्रदर्स। तब पहली बार सभा में मौजूद लोगों ने जाना कि 'सिस्टर’ शब्द से संबोधित कर स्त्री को कैसे सम्मानित किया जा सकता है। यह वही समाज है जिसमें यह सदवाक्य सदियों से दोहराया जाता रहा है कि- 'यत्र नार्यास्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता।’ जिसे इनदिनों तेजी से खारिज किया जा रहा है। बदजुबानी में हम दुनिया में सबसे आगे जाने को आतुर-व्याकुल नजर आते हैं।
इस सिलसिले में उत्तरप्रदेश भाजपा के पूर्व उपाध्यक्ष दया शंकर सिंह की मायावती को लेकर की गई टिप्पणी नि:संदेह घटिया थी और उन्हें तत्काल पार्टी से पदच्युत कर दंड दे दिया। शायद ही भारतीय राजनीति इतना शीघ्र दंड किसी दल द्बारा अपने नेता को दिया गया हो। इतना ही नहीं केन्द्र सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सदन में निजी तौर पर और सरकार ओर से माफी मांग कर बड़प्पन का संकेत दिया। हालांकि बाद में दया शंकर सिंह ने भी ख्ोद जाहिर किया, लेकिन बसपा प्रमुख मायावती और उनके सिपहसालार नसीमउद्दीन सिद्दकी ने तो दया शंकर सिंह की मां, बहन, बेटी को भी नहीं बख्शा। क्या बदजुबानी का जबाव देश में बदजुबानी ही हो सकता है? अगर हां तो फिर दयाशंकर और मायावती में फर्क क्या रहा? यदि भाजपा ने दया शंकर पर दया न दिखाते हुए उनकी छुट्टी कर दी तो क्या मायावती भी अपनी जुबान पर अफसोस व्यक्त करेंगी और नसीमउद्दीन सिद्दकी को दल से बाहर करने का रास्ता दिखाने की हिम्मत दिखाएंगी? मगर फिलहाल तो वे मौन हैं।
दरअसल, कई बार शब्दों को कहने के ढंग में और उनके निहितार्थ अपनी सुविधा से निकालने पर भी सवाल और बवाल खड़े हो जाते हैं। दुर्भाग्यपूणã तो यह है कि मीडिया ऐसे मौकों पर किसी समाधान की बजाय उसे मिर्च मसाला लगाकर परोसने में तल्लीन दिखता है। व्यंग्यकार सम्पत सरल की टिप्पणी बरबस याद हो आती है कि- 'मीडिया दिखता तो दिए के साथ है, मगर होता हवा के साथ।’
अब दया शंकर सिंह के बयान को बारीकी से देख्ों तो जो शब्द वेश्या उन्होंने इस्तेमाल किया है वह सर्वथा अनुचित तो था ही, लेकिन जिस तुलना में इस्तेमाल किया उस पर एक बार भी विचार नहीं किया गया। आरोप यह था कि 'मायावती बिना पैसा लिए चुनाव टिकटों का बंटवारा नहीं करती’ यानि 'पैसे दो, टिकिट लो।’ यही काम या पेशा वेश्या का होता है कि 'पैसे दो, देह लो।’ यानि कोई गलत काम स्त्री पैसों के लिए करे उसकी तुलना वेश्या से कर दी गई। जबकि यहां मायावती को नहीं उनके काम के तरीके को वेश्या की संज्ञा दी गई थी। और फिर कौन सा दल है जिसमें पैसे के बदले टिकिट न बांटे जाते हों? अगर यह वेश्यावृत्ति तो सभी दल कमोबेश इस वृत्ति के वृत्त में आते रहे हैं, यह बात दीगर है कि ऐसे आरोप प्रमाणित नहीं हो सके हैं, क्योंकि इस लेन-देन में आपसी समझ की चुप्पी होती है।
सवाल है कि मायावती अपनी वेश्या से तुलना पर जिस तरह तिलमिलाईं और प्रतिक्रिया दी है, उससे वेश्या के पेश्ो में संलि’ स्त्रियों की मानसिक स्थिति क्या होगी। यदि वेश्यावृत्ति इतना घृणित कार्य है, तो उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में केन्द्र सरकार से मिलकर उत्तर प्रदेश के समस्त वेश्यालयों को क्यों नहीं सील करा दिया? यह सच्चाई है कि कोई भी स्त्री वेश्यालय या तवायफ के अंध कंुए में खुद-ब-खुद आने का रास्ता नहीं चुनती। मजबूरी या धोके से उन्हें इस पेश्ो में झोंका जाता रहा है, एक बार इसमें धंस जाने के बाद समाज के वे ही लोग उन्हें स्वीकार नहीं करते जो अपनी कई रातें समाज की आंखों में पSी बांधकर इन चकलाघरों में बिता कर दिन में कॉलर ऊंची किए घूमते हैं। लेकिन वेश्यावृत्ति को निकृष्ट कार्य स्त्रियों के बरक्स सिद्ध कर दिया गया, जबकि पुरुष इसमें कहीं जिम्मेदार है। दरअसल, वेश्या ऐसी संज्ञा है जिसके साथ किसी तरह का विश्ोषण नहीं लगाया जाता। जबकि सियासत के अंदरखाने में हर तरह के लेन-देन (वेश्यावृत्ति) बखूबी जारी है और जारी रहेगी। शायद इसीलिए डॉ. शिवओम अंबर कहते हैं कि-
ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा है,
ये किसी के आंसुओं से तर नहीं होता।
बहरहाल, मायावती और दया शंकर व उनका परिवार जिस तरह से इसे राजनीतिक रंग देने पर उतारू हैं उसे देश की आवाम भी समझ रही है, कि किसी मुद्दे का कैसे राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है। यही यहां केन्द्रीय विषय है न कि दोनों ओर से की गई टिप्पणी। क्योंकि दया शंकर के कहने से न तो मायावती वेश्या हो सकती हैं और मायावती और उनके दल द्बारा कह देने पर दया शंकर के परिवार का चरित्र गिर सकता है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में शब्दों का इस्तेमाल मर्यादित होना चाहिए। मायावती के खिलाफ जिस नकारात्मक अलंकारिक शब्द का प्रयोग हुआ वह शर्मनाक है तो, दया के परिवार के लिए बसपा द्बारा शब्दों का प्रयोग निंदनीय है। विडम्बना है कि दोनों ओर स्त्रियां ही इसकी जद में है, लेकिन हाय ये सियासत! कबीरदास जी ने शब्दों की मार्यादा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि-
शब्द संभारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव,
एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव।
द्रौपदी के शब्दों ने महाभारत, तो कैकई के वचनों ने रामायण जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। शब्दों को शालीनता से प्रयुक्त करने वाले देश में आज शब्दों का व्यभिचार बढ़ा है। जितनी गालियां स्त्रियों को लेकर हमने गढ़ ली हैं और नित्य प्रयोग करते हैं क्या वे उन्हें अपमानित नहीं करती। सवाल इस विवाद से कहीं बड़ा है वह है स्त्रियों के प्रति पुरुष के नजरिए का। और स्त्रियों के प्रति सर्वाधिक अत्याचार, शब्दों से होता देख कबीर की सीख का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है
...तो शब्द, विचार के बाद आने वाली अवस्था है। यानि शब्द बेहतर हों, शालीन हों, ऊर्जा से ओतप्रोत हों, इसके लिए जरूरी है कि मनुष्य की विचार/चिंतन क्षमता उत्कृष्ट होनी चाहिए। लेकिन सभ्यता और विकास के समांतर हमारा चिंतन जितना दूषित इनदिनों हुआ है, उतना तो दुनिया का पर्यावरण भी दूषित नहीं हुआ है। खासकर भारत में राजनीति और समाज में जिस तरह से शब्दों के नेपथ्य से व्यभिचार हो रहा है, उससे समझा जा सकता है कि क्या ऐसे ही भारत से यह उम्मीद बांधी जा रही है, जो आने वाले वक्त में दुनिया को मार्ग दिखा सकेगा? और विश्व गुरू जैसे काल्पनिक ओहदे पर बैठ सकेगा?
सांस्कृतिक सम्पन्नता थाती लिए जब स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो की धर्म संसद में अपने उद्बोधन की शुरुआत में कहा था कि डियर सिस्टर एंड ब्रदर्स। तब पहली बार सभा में मौजूद लोगों ने जाना कि 'सिस्टर’ शब्द से संबोधित कर स्त्री को कैसे सम्मानित किया जा सकता है। यह वही समाज है जिसमें यह सदवाक्य सदियों से दोहराया जाता रहा है कि- 'यत्र नार्यास्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता।’ जिसे इनदिनों तेजी से खारिज किया जा रहा है। बदजुबानी में हम दुनिया में सबसे आगे जाने को आतुर-व्याकुल नजर आते हैं।
इस सिलसिले में उत्तरप्रदेश भाजपा के पूर्व उपाध्यक्ष दया शंकर सिंह की मायावती को लेकर की गई टिप्पणी नि:संदेह घटिया थी और उन्हें तत्काल पार्टी से पदच्युत कर दंड दे दिया। शायद ही भारतीय राजनीति इतना शीघ्र दंड किसी दल द्बारा अपने नेता को दिया गया हो। इतना ही नहीं केन्द्र सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सदन में निजी तौर पर और सरकार ओर से माफी मांग कर बड़प्पन का संकेत दिया। हालांकि बाद में दया शंकर सिंह ने भी ख्ोद जाहिर किया, लेकिन बसपा प्रमुख मायावती और उनके सिपहसालार नसीमउद्दीन सिद्दकी ने तो दया शंकर सिंह की मां, बहन, बेटी को भी नहीं बख्शा। क्या बदजुबानी का जबाव देश में बदजुबानी ही हो सकता है? अगर हां तो फिर दयाशंकर और मायावती में फर्क क्या रहा? यदि भाजपा ने दया शंकर पर दया न दिखाते हुए उनकी छुट्टी कर दी तो क्या मायावती भी अपनी जुबान पर अफसोस व्यक्त करेंगी और नसीमउद्दीन सिद्दकी को दल से बाहर करने का रास्ता दिखाने की हिम्मत दिखाएंगी? मगर फिलहाल तो वे मौन हैं।
दरअसल, कई बार शब्दों को कहने के ढंग में और उनके निहितार्थ अपनी सुविधा से निकालने पर भी सवाल और बवाल खड़े हो जाते हैं। दुर्भाग्यपूणã तो यह है कि मीडिया ऐसे मौकों पर किसी समाधान की बजाय उसे मिर्च मसाला लगाकर परोसने में तल्लीन दिखता है। व्यंग्यकार सम्पत सरल की टिप्पणी बरबस याद हो आती है कि- 'मीडिया दिखता तो दिए के साथ है, मगर होता हवा के साथ।’
अब दया शंकर सिंह के बयान को बारीकी से देख्ों तो जो शब्द वेश्या उन्होंने इस्तेमाल किया है वह सर्वथा अनुचित तो था ही, लेकिन जिस तुलना में इस्तेमाल किया उस पर एक बार भी विचार नहीं किया गया। आरोप यह था कि 'मायावती बिना पैसा लिए चुनाव टिकटों का बंटवारा नहीं करती’ यानि 'पैसे दो, टिकिट लो।’ यही काम या पेशा वेश्या का होता है कि 'पैसे दो, देह लो।’ यानि कोई गलत काम स्त्री पैसों के लिए करे उसकी तुलना वेश्या से कर दी गई। जबकि यहां मायावती को नहीं उनके काम के तरीके को वेश्या की संज्ञा दी गई थी। और फिर कौन सा दल है जिसमें पैसे के बदले टिकिट न बांटे जाते हों? अगर यह वेश्यावृत्ति तो सभी दल कमोबेश इस वृत्ति के वृत्त में आते रहे हैं, यह बात दीगर है कि ऐसे आरोप प्रमाणित नहीं हो सके हैं, क्योंकि इस लेन-देन में आपसी समझ की चुप्पी होती है।
सवाल है कि मायावती अपनी वेश्या से तुलना पर जिस तरह तिलमिलाईं और प्रतिक्रिया दी है, उससे वेश्या के पेश्ो में संलि’ स्त्रियों की मानसिक स्थिति क्या होगी। यदि वेश्यावृत्ति इतना घृणित कार्य है, तो उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में केन्द्र सरकार से मिलकर उत्तर प्रदेश के समस्त वेश्यालयों को क्यों नहीं सील करा दिया? यह सच्चाई है कि कोई भी स्त्री वेश्यालय या तवायफ के अंध कंुए में खुद-ब-खुद आने का रास्ता नहीं चुनती। मजबूरी या धोके से उन्हें इस पेश्ो में झोंका जाता रहा है, एक बार इसमें धंस जाने के बाद समाज के वे ही लोग उन्हें स्वीकार नहीं करते जो अपनी कई रातें समाज की आंखों में पSी बांधकर इन चकलाघरों में बिता कर दिन में कॉलर ऊंची किए घूमते हैं। लेकिन वेश्यावृत्ति को निकृष्ट कार्य स्त्रियों के बरक्स सिद्ध कर दिया गया, जबकि पुरुष इसमें कहीं जिम्मेदार है। दरअसल, वेश्या ऐसी संज्ञा है जिसके साथ किसी तरह का विश्ोषण नहीं लगाया जाता। जबकि सियासत के अंदरखाने में हर तरह के लेन-देन (वेश्यावृत्ति) बखूबी जारी है और जारी रहेगी। शायद इसीलिए डॉ. शिवओम अंबर कहते हैं कि-
ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा है,
ये किसी के आंसुओं से तर नहीं होता।
बहरहाल, मायावती और दया शंकर व उनका परिवार जिस तरह से इसे राजनीतिक रंग देने पर उतारू हैं उसे देश की आवाम भी समझ रही है, कि किसी मुद्दे का कैसे राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है। यही यहां केन्द्रीय विषय है न कि दोनों ओर से की गई टिप्पणी। क्योंकि दया शंकर के कहने से न तो मायावती वेश्या हो सकती हैं और मायावती और उनके दल द्बारा कह देने पर दया शंकर के परिवार का चरित्र गिर सकता है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में शब्दों का इस्तेमाल मर्यादित होना चाहिए। मायावती के खिलाफ जिस नकारात्मक अलंकारिक शब्द का प्रयोग हुआ वह शर्मनाक है तो, दया के परिवार के लिए बसपा द्बारा शब्दों का प्रयोग निंदनीय है। विडम्बना है कि दोनों ओर स्त्रियां ही इसकी जद में है, लेकिन हाय ये सियासत! कबीरदास जी ने शब्दों की मार्यादा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि-
शब्द संभारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव,
एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव।
द्रौपदी के शब्दों ने महाभारत, तो कैकई के वचनों ने रामायण जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। शब्दों को शालीनता से प्रयुक्त करने वाले देश में आज शब्दों का व्यभिचार बढ़ा है। जितनी गालियां स्त्रियों को लेकर हमने गढ़ ली हैं और नित्य प्रयोग करते हैं क्या वे उन्हें अपमानित नहीं करती। सवाल इस विवाद से कहीं बड़ा है वह है स्त्रियों के प्रति पुरुष के नजरिए का। और स्त्रियों के प्रति सर्वाधिक अत्याचार, शब्दों से होता देख कबीर की सीख का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है